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गुहिल वंश

 गुहिल वंश 

उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़ तथा इनके आस-पास का क्षेत्र मेवाड़ कहलाता था। गुहिल वंश ने मुख्यतः मेवाड़ में शासन किया। इस वंश का नामकरण इस वंश के प्रतापी शासक 'गुहिल' के नाम से हुआ। गुहिल वंश की उत्पत्ति और मूल स्थान के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं । 

अबुल फजल इन्हें ईरान के शासक नौशेखाँ से संबंधित करता है, तो 

कर्नल टॉड इन्हें वल्लभी के शासकों से संबंधित मानता है, 

डी.आर. भण्डारकर  ब्राह्मण वंश का बताते हैं क्योंकि बप्पा के लिए विप्र शब्द का प्रयोग किया गया है, जैसा कि आहड़ (Ātpur) के शिलालेख में उल्लेखित है।

वहीं नैणसी आदि रूप में ब्राह्मण व जानकारी से क्षेत्रीय, जबकी

गोपीनाथ शर्मा इनके ब्राह्मण होने का मत प्रतिपादित करते हैं। 


गुहिल वंश की उत्पत्ति:-

डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इन्हें सूर्यवंशी मानते हैं जो पुराणों के समय से चले आ रहे हैं। उनके अनुसार राजा गुहदत्त, जो गुहिलोत वंश के आदिपुरुष थे, स्वयं ‘विप्र’ नहीं थे, बल्कि वे आनंदपुर से आए ब्राह्मणों के ‘आनंददाता’ अर्थात् “उनके लिए आनंद देने वाले” थे। आहड़ के शिलालेख से इतना ज्ञात होता है कि वे आनंदपुर से आए ब्राह्मणों के ‘आनंददाता’ थे और गुहिल वंश के आदिपुरुष। इनका का मानना है कि 566 ई. के लगभग गुहिल ने अपना शासन स्थापित किया ।

अंबा भवानी की यात्रा के दौरान रानी पुष्यवती के गर्भ से गुफा में गुहा का जन्म हुआ।

 गुहिल के बाद मेवाड़ का प्रतापी शासक बप्पा हुआ। डॉ. ओझा ने आगरा में मिले लगभग 2000 रजत मुद्राओं (silver coins) को गुहदत्त से सम्बद्ध किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि उनका राज्य दक्षिण-पश्चिम मेवाड़ तक फैला हुआ था और संभवतः राजस्थान की वर्तमान सीमाओं से भी बाहर उनका प्रभाव था।

कर्नल जेम्स टॉड ने इनकी 24 शाखा बताई है जबकि मुहणौत नैणसी ने भी अपनी ख्यात में इनकी 24  शाखाएँ बताई हैं।

मेवाड़ के गोहिल प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहरों के सामंत थे । 11वीं सदी में भर्तभट्ट ने विजयपाल के समय स्वतंत्रता की घोषणा की।

गुहदत्त के उत्तराधिकारी 

गुहदत्त के बाद उनका पुत्र भोज (Bhoj) राजा बना। भोज के बाद महेंद्र (Mahendra) नामक शासक के बारे में कुछ ज्ञात नहीं है। इसके पश्चात् नाग या नागादित्य (Nag/Nagaditya) राजा बने जिन्हें नागदा (Nagda) नगर का संस्थापक माना जाता है। नागदा ही प्रारंभिक गुहिल राजाओं की राजधानी थी, जहाँ आज भी उनके कुलदेवता श्री एकलिंगजी (Shri Eklingaji) का मंदिर स्थित है।

नागादित्य के पश्चात् उनके पुत्र शील या शीलादित्य (Sheel/Siladitya) हुए। संवत 683 (ई. स. 626) के सामोली शिलालेख से ज्ञात होता है कि उनका शासन मेवाड़-सिरोही सीमा क्षेत्र तक था। उन्हें देवता, ब्राह्मणों और गुरुओं को प्रसन्न करने वाला तथा शत्रुओं का विनाशक बताया गया है।

शीलादित्य के बाद उनके पुत्र अपराजित (Aparajit) राजा बने। संवत 718 (ई. स. 661) के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि अपराजित के सेनापति महाराज वराहसिंह की पत्नी यशोमती ने एक विष्णु मंदिर का निर्माण कराया।

अपराजित के बाद उनके उत्तराधिकारी महेंद्र द्वितीय (Mahendra II) थे, जिनका पुत्र था कालभोज (Kalabhoj)। 

बप्पा रावल (734-753 ई.):-

डॉ. जी. एच. ओझा ने कालभोज की पहचान बप्पा रावल (Bappa Rawal) के रूप में की है। एकलिंग महात्म्य (Ekalinga Mahatmya) के अनुसार बप्पा ने संवत 810 में संन्यास लिया था। मान मोरी के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि मौर्य वंश का शासन चित्तौड़ में संवत 770 (ई. स. 713) तक था। बप्पा रावल पहले मौर्य शासक मान मोरी की सेवा में रहा।डॉ. ओझा का अनुमान है कि कालभोज या बप्पा रावल ने संवत 770 से 791 के बीच चित्तौड़ पर विजय प्राप्त की और संवत 810 में संन्यास लेकर अपने पुत्र खुम्मण (Khumman I) को राज्य सौंपा। 'राज प्रशस्ति' के अनुसार बप्पा ने 734 ई. में चित्तौड़ के शासक मानमोरी को परास्त कर चित्तौड़ पर अधिकार किया । बप्पा की राजधानी 'नागदा थी । बप्पा ने कैलाशपुरी में एकलिंगजी (लकुलीश मंदिर का निर्माण करवाया। एकलिंगजी गुहिल वंश के कुलदेवता थे। किंवदंती के अनुसार, बप्पा रावल ने अपने युवावस्था में ऋषि हरित (Rishi Harit) से दीक्षा प्राप्त की थी, जिन्होंने उन्हें भगवान एकलिंग (शिव) की उपासना में प्रवृत्त किया और उन्हें “एकलिंग का दीवान (Regent of Eklingji)” बनाया। यही कारण है कि आज तक मेवाड़ के महाराणा स्वयं को एकलिंगजी का दीवान मानते हैं, न कि स्वामी। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार, बप्पा का वास्तविक नाम कालभोज था। बप्पा कालभोज की उपाधि थी । वीर विनोद के रचनाकार कविराज श्यामलदास ने लिखा है कि बप्पा किसी राजा का नाम नहीं अपितु खिताब था। ऐसी मान्यता है कि बप्पा चित्तौड़ के शासक मानमोरी के यहाँ सेवा में था । जब चित्तौड़ पर विदेशी सेना का हमला हुआ, तो उनसे मुकाबले की चुनौती बप्पा ने स्वीकार की और उन्हें सिंध तक खदेड़ दिया। इसीलिए इतिहासकार सी.वी. वैद्य उसकी तुलना चार्ल्स मार्टेल (फ्रांसिसी सेनापति, जिसने यूरोप में सर्वप्रथम मुसलमानों को परास्त किया था।) से करते हैं। नागदा में इनका देहांत हुआ। संयुक्त मोर्चा बनाकर मोहम्मद बिन कासिम को पराजित किया। गजनी के शासक सलीम को हराकर अपने भांजे को वहां का शासक बनाया। 

बप्पा रावल ने तांबे में स्वर्ण(115 ग्रेन) के सिक्के चलाए।

बप्पा के उत्तरवर्ती शासक:-

कालभोज के बाद उनका पुत्र खुम्मण प्रथम (Khumman I) गद्दी पर बैठा। खुम्मण के बाद मत्तत (Mattat) हुए, जिन्हें मालवा विजेता कहा गया है। मत्तत के पश्चात् भरतत्रपट्ट (Bharatrapatt) हुए, जिनके समय में गुहिल वंश की एक कनिष्ठ शाखा ने चातसू (Chatsu, जयपुर) में बलादित्य (Baladitya) के अधीन शासन किया।


मध्यकालीन काल (Mediaeval Period) — गुहिल वंश


भरत्रपट्ट (Bharatrapatt) के उत्तराधिकारी सिमहा (Simha) थे। सिमहा के बाद खुम्मण द्वितीय (Khumman II) ने शासन किया।

16वीं शताब्दी में रचित “खुम्मण रासो” ( लेखक दलपत विजय) के आधार पर यह संभावना व्यक्त की गई है कि खुम्मण द्वितीय और उनके सहयोगियों ने खलीफा अल मामून (Khalifa Al-Mamun) की सेना के आक्रमण को विफल किया था।

इसके बाद के दो शासक महायक (Mahayak) और खुम्मण तृतीय (Khumman III) के विषय में कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती, किंतु अनुमानतः उनका शासनकाल 877 से 926 ई. तक रहा।

खुम्मण तृतीय के पुत्र और उत्तराधिकारी भरतत्रपट्ट द्वितीय (Bharatrapatt II) का उल्लेख आहड़ (Ātpur) के शिलालेख में किया गया है, जहाँ उन्हें “त्रिलोक का भूषण” (ornament of the three lokas) कहा गया है।


अल्लट (Allat / Alu Rawal):-


भरतिपत्त द्वितीय के बाद उनका पुत्र अल्लट (Allat) मेवाड़ का शासक बना। वह प्रारंभिक गुहिल राजाओं में से एक सशक्त और सफल शासक था। परंपरा के अनुसार, वह “आलू रावल” (Alu Rawal) के नाम से प्रसिद्ध है।

उसका विवाह हूण राजकुमारी हरियादेवी (Hariyadevi) से हुआ था। इस विवाह का उल्लेख आहड़ शिलालेख संवत 1034 में मिलता है। आजाद को इसने दूसरी राजधानी बनाई। मेवाड़ में सबसे पहले इसने नौकरशाही का गठन किया।


नरवाहन (Narvahan):-

अल्लट के उत्तराधिकारी नरवाहन (Narvahan) थे। उनका एक शिलालेख संवत 1028 (971 ई.) का प्राप्त हुआ है। नरवाहन की प्रशंसा शक्तिकुमार के आहड़ शिलालेख (संवत 1034 / 977 ई.) में की गई है।  उन्हें शत्रुओं का संहारक, क्षत्रियों का पूर्वज, सभी कलाओं के संरक्षक और ज्ञान का भंडार कहा गया है। उनका विवाह चाहमान वंश (Chahaman Dynasty) के राजकुमार जेजय (Jejaya) की पुत्री से हुआ था।


नरवाहन के बाद उनके पुत्र शालिवाहन (Salivahan) ने अल्पकालीन शासन किया। उनके पश्चात् शक्तिकुमार (Saktikumar) गद्दी पर बैठे। उनके शासनकाल का आहड़ (Atpur/Aghatpura) शिलालेख (संवत 1034 / 977 ई.) यह दर्शाता है कि उस समय आहड़ एक समृद्ध नगर था, जहाँ सम्पन्न व्यापारी निवास करते थे।


अंबप्रसाद (Ambaprasad / Amaraprasad):-

शक्तिकुमार के बाद उनके उत्तराधिकारी अंबप्रसाद (Ambaprasad) या अमरप्रसाद (Amaraprasad) हुए। उनके शासनकाल में साकंभरी के चाहमान शासक वक्कपतिराज द्वितीय (Vakkpatiraj II) ने आहड़ पर आक्रमण किया। गुहिलोतों ने वीरता से प्रतिरोध किया, परंतु युद्ध में अंबप्रसाद वीरगति को प्राप्त हुए।

क्षेमसिंह (Kshem Singh) के उत्तराधिकारी सामंतसिंह (Samant Singh) थे। आबू के शिलालेख (संवत 1342 / 1285 ईस्वी) में समंतसिंह का वर्णन “कामदेव से भी अधिक सुंदर” के रूप में किया गया है। परंतु कहा गया है कि उन्होंने अपने अमात्यों और सरदारों से सब कुछ छीन लिया, जिसके परिणामस्वरूप गुहिलों से मेवाड़ का राज्य चला गया।

गुजरात के सोलंकियों से संघर्ष

गुजरात के सोलंकी राजा अजयपाल (Ajaipal) लंबे समय से मेवाड़ पर अधिकार करना चाहते थे, परंतु सामंतसिंह ने उन्हें युद्ध में हराया और गंभीर रूप से घायल किया। हालाँकि यह पाइरिक विजय (Pyrrhic Victory) सिद्ध हुई, क्योंकि शीघ्र ही गुजरात के सामंत कीर्तिपाल (Kirtipal) जालोर ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। अपने सरदारों का समर्थन खो देने के कारण सामंतसिंह पराजित हुए। उन्होंने मेवाड़ छोड़कर बागड़ (Bagar) की ओर पलायन किया। वहाँ उन्होंने चौरासीमल (Chourasimal) नामक बागड़ के शासक को पराजित कर बारोदा (Baroda) नगरी पर अधिकार कर लिया और एक नई वंश-रेखा की स्थापना की, जिसके वंशज आज के डूंगरपुर के शासक कहलाते हैं।

समंतसिंह के कुल चार शिलालेख प्राप्त हुए हैं —

1. दो जगत (Jagar, चप्पन क्षेत्र) से — संवत 1228 के

2. एक सोलाज (Solaj) से — संवत 1236 (1179 ईस्वी) का

3. एक घंटा माता (Ghanta Mata) से — संवत 1224 का

जगत और सोलाज दोनों शिलालेख बागड़ क्षेत्र में हैं, इससे यह स्पष्ट है कि संवत 1224 से 1228 के मध्य में समंतसिंह ने बागड़ पर अधिकार कर लिया था।

कुमारसिंह (Kumar Singh) — मेवाड़ की पुनः प्राप्ति

समंतसिंह के छोटे भाई कुमारसिंह ने कीर्तिपाल को मेवाड़ से खदेड़ दिया और गुजरात के सोलंकी शासकों के आशीर्वाद से मेवाड़ को पुनः प्राप्त किया। बाद में सोलंकियों की शक्ति भीमदेव द्वितीय (Bhim Deo II) के काल में घट गई, और कुमारसिंह के वंशजों ने स्वतंत्रता पुनः स्थापित कर ली।




जैत्रसिंह (1213-1253 ई.):– 

गोपीनाथ शर्मा के अनुसार यह पद्मसिंह का पुत्र था। गुहिल के ही एक वंशज जैत्रसिंह ने परमारों से चित्तौड़ छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया1227 ई. में 'भूताला के युद्ध' में दिल्ली के गुलाम वंश के सुल्तान इल्तुतमिश की सेना को परास्त किया, जिसका वर्णन जयसिंह सूरी के ग्रंथ हम्मीर मदमर्दन में मिलता है। इस ग्रंथ में इल्तुतमिश को हम्मीर कहा गया है। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने जैत्रसिंह की प्रशंसा करते हुए लिखा है- “दिल्ली के गुलाम वंश के सुल्तानों के समय में मेवाड़ के राजाओं में सबसे प्रतापी और बलवान राजा जैत्रसिंह ही हुआ, जिसकी वीरता की प्रशंसा उसके विरोधियों ने भी की है। " उनके पोते के चिरवा शिलालेख और पुत्र तेजसिंह के घाघसा शिलालेख से ज्ञात होता है कि जैत्रसिंह का अभिमान मालवा, गुजरात, मारु और जंगल के शासकों द्वारा भी नहीं दबाया जा सका। कुम्भलगढ़ शिलालेख में उन्हें “चित्तौड़, मेदपाट, आहड़ और वागड़” का शासक बताया गया है। उनकी मृत्यु संवत 1309-1317 (1252-1261 ईस्वी) के बीच हुई।


तेजसिंह (Tej Singh):-

जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह (Tej Singh) ने लगभग 15 वर्ष तक  संवत 1309 से 1317 (1252–1261 ईस्वी) के बीच शासन किया। उनकी मृत्यु संभवतः संवत 1324 से 1330 के मध्य हुई। संवत् 1330 में उनके पुत्र समरसिंह के प्रथम शिलालेख में इनका उल्लेख है।उन्होंने “परम भट्टारक”, “महाराजाधिराज” और “परमेश्वर” जैसे उच्च राजकीय उपाधियाँ धारण कीं। तेजसिंह का काल दिल्ली के सुल्तानों से संघर्षपूर्ण रहा। 1253-54 ईस्वी में बलबन (Balban), जिसे नासिरुद्दीन महमूद ने पदच्युत किया था, ने अपने भाग्य सुधारने हेतु रणथंभौर, बूंदी और चित्तौड़ पर आक्रमण किया, परंतु उसे कोई सफलता नहीं मिली। 1255-56 ईस्वी में कुतलुघ खाँ (Qutlugh Khan), जो नासिरुद्दीन का सौतेला पिता था, विद्रोह कर चित्तौड़ की ओर भागा, बलबन ने उसका पीछा किया पर वह उसे पकड़ नहीं सका।

तेजसिंह की दो रानियाँ प्रसिद्ध हैं: —

1. जयताल्लादेवी (Jayatalladevi) — जो उनके पुत्र और उत्तराधिकारी समरसिंह की माता थीं। उन्होंने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ (Syam Parsvanath) का मंदिर बनवाया।

2. रूपादेवी (Rupadevi) — जो जालोर के चौहान राजा चाचिगदेव (Chachigadev) की पुत्री थीं। उनका उल्लेख बुडतरा बावड़ी (Budtara step-well inscription) के अभिलेख में मिलता है।


समरसिंह (Samarsingh):-

अगले शासक समरसिंह (Samarsingh) ने लगभग 26 वर्षों तक शासन किया। उनके शासनकाल में उन्हें रणथंभौर के हम्मीर और दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी से संघर्ष करना पड़ा। कहा जाता है कि हम्मीरदेव की दिग्विजय यात्रा मालवा से शुरू होकर मेवाड़ तक पहुँची, जहाँ उन्होंने विनाश किया। बाद में अलाउद्दीन खिलजी ने भी मेवाड़ पर आक्रमण किया। जिनप्रभ सूरी के अनुसार, सुल्तान के भाई उलूघ खान ने गुजरात की ओर जाते हुए मेवाड़ पर हमला किया, परंतु रावल समरसिंह ने उसे दंडित किया। कुछ मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार, चित्तौड़ के राजा ने सुल्तान के भाई को कर देकर राज्य सुरक्षित रखा। इनकी समरसिंह प्रशस्ती हमें इनके बारे में जानकारी प्रदान करती है।

रतनसिंह (1302–1303 ई.):-

रावल रतनसिंह को 1303 ई. में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का सामना करना पड़ा, जिसका कारण अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा व चित्तौड़ की सैनिक एवं व्यापारिक उपयोगिता थी । 1540 ई. में मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा लिखित पद्मावत में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ आक्रमण का कारण रावल रतनसिंह की पत्नी पद्मिनी को प्राप्त करना बतलाया गया है। डॉ. दशरथ शर्मा इस मत को मान्यता प्रदान करते हैं । अलाउद्दीन की सेना से लड़ते हुए रतनसिंह व उसके सेनापति गोरा और बादल वीरगति को प्राप्त हुए तथा रानी पद्मिनी ने 1600 महिलाओं के साथ जौहर कर लिया । इस युद्ध में अलाउद्दीन खिलजी का समकालीन इतिहासकार अमीर खुसरो भी सम्मिलित हुआ था, उसने अपने ग्रंथ खजाईन - उल - फुतुह में इस आक्रमण का वर्णन किया है।अमीर खुसरो की किताब "खज़ाइन-उल-फुतूह" के अनुसार सुल्तान 28 जनवरी 1303 ई. को दिल्ली से रवाना हुआ। उसने अपना शिविर बेराच और गम्भीरी नदियों के बीच डाला। सात महीने तक चले घेराव के बाद, 26 अगस्त 1303 ई. को सुल्तान ने किला जीत लिया। खुसरो के अनुसार, रतनसिंह ने आत्मसमर्पण किया, लेकिन आदेश हुआ कि "किले में मौजूद हर हिंदू को घास की तरह काट दिया जाए" — और एक ही दिन में लगभग 30,000 हिंदू मारे गए।

कुम्भलगढ़ शिलालेख में लिखा है कि "वह राजा (समरसिंह) महेश की पूजा से अपने समस्त पापों से मुक्त होकर, अपने पुत्र रत्नसिंह को चित्रकूट पर्वत की रक्षा का भार सौंपकर स्वर्ग का स्वामी हो गया। उसके जाने पर, खुम्मान वंश के लक्ष्मणसिंह ने उस उत्तम दुर्ग की रक्षा की, क्योंकि वंश की स्थापित परम्पराओं को जनसमूह द्वारा त्याग दिए जाने पर भी, जो वीर और स्थिर हैं, वे उनका पीछा नहीं छोड़ते। इस प्रकार युद्ध में अपने शत्रुओं का नाश करके, वह (लक्ष्मणसिंह) चित्रकूट की रक्षा करते हुए शस्त्रों से पवित्र होकर मर गया।"

रावल समरसिंह के स्वर्गवास के बाद उनके पुत्र रतनसिंह ने चित्तौड़ की रक्षा की। फिर उनके सेनापति लक्ष्मणसिंह ने अपने सात पुत्रों सहित युद्ध करते हुए प्राण दिए।” यह लक्ष्मणसिंह सिसोदिया वंश के थे, जिनकी शाखा राहप से आरंभ हुई थी।  यह घटना चित्तौड़ का पहला साका कहलाती है।

 अलाउद्दीन ने अपने पुत्र खिजखाँ को चित्तौड़ का प्रशासक नियुक्त कर चित्तौड़ का नाम ख़िज्राबाद कर दिया। रतनसिंह मेवाड़ के गुहिल वंश की रावल शाखा का अंतिम शासक था।

11 मई 1310 ई. के एक मकबरे के शिलालेख में अलाउद्दीन को दूसरा सिकंदर कहा गया है। 1313 ई. के बाद दिल्ली में राजनीतिक स्थिति बिगड़ने लगी, और खिलजी शासन का पतन हुआ। सुल्तान ने मालदेव सोनगरा (जालौर) को चित्तौड़ सौंपा, इस शर्त पर कि वह दिल्ली को कर देगा और निश्चित संख्या में सैनिक भेजेगा। मालदेव ने लगभग 7 वर्ष तक शासन किया। उसके बाद तुगलक वंश का उदय हुआ, परन्तु मालदेव और फिर उसके पुत्र जैसा ने अधीन शासक के रूप में शासन जारी रखा।

मालदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जैसा राजा बना। इसी समय, हम्मीर सिंह, जिसने मालदेव की पुत्री से विवाह किया था, ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। 


राणा हम्मीर/विषमघाटी पंचानन (1326 - 1364 ई.):-

हम्मीर ने पहले कै़लवाड़ा (Kailwara) को अपनी राजधानी बनाया। यहीं से उसने मालदेव और उसके पुत्र जैसा को बार-बार परेशान किया और अंततः चित्तौड़ किले पर विजय प्राप्त की। इतिहासकार कर्नल टॉड के अनुसार, जब हम्मीर ने चित्तौड़ जीता तो समस्त राजपूत सरदार प्रसन्न हुए, क्योंकि इस विजय से उनके हृदयों में फिर से दिल्ली सल्तनत की दासता से मुक्ति की आशा जागी। सिसोदा ठिकाने के जागीरदार हम्मीर ने 1326 ई. में चित्तौड़ पर अधिकार कर गुहिल वंश की पुनःस्थापना की। सिसोदा का जागीरदार होने से उसे सिसोदिया कहा गया। वे "महाराणा" की उपाधि धारण करने वाले पहले सिसोदिया शासक बने। हम्मीर के दादा लक्ष्मणसिंह अपने पुत्रों के साथ अलाउद्दीन खिलजी के विरूद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। उसके बाद मेवाड़ के सभी शासक सिसोदिया कहलाते हैं । हम्मीर को 'मेवाड़ के उद्धारक' की संज्ञा दी जाती है। राणा हम्मीर को विषमघाटी पंचानन (विकट आक्रमणों में सिंह के सदृश्य ) की संज्ञा राणा कुंभा की कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में दी गई है। हम्मीर ने सिंगोली (बाँसवाड़ा) के युद्ध में मुहम्मद बिन तुगलक की सेना को परास्त किया था ।

राणा क्षेत्रसिंह:-

संवत 1421 (1365 ई.) में राणा खीत सिंह ने अपने पिता हम्मीर सिंह के बाद मेवाड़ का सिंहासन संभाला। उन्होंने अजमेर और जहाजपुर को लिल्ला पठान से जीत लिया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने मंडलगढ़, दुसौरे, और संपूर्ण छप्पन क्षेत्र को पुनः मेवाड़ में मिलाया। क्षेत्रसिंह ने मालवा के सुल्तान दिलावर खान (अमी शाह) को पराजित किया। उन्होंने हाड़ौती क्षेत्र को भी अपने अधीन कर लिया।


महाराणा लाखा (1382-1421 ई.):-

1382 ई. में महाराणा लाखा मेवाड़ का शासक बना। राणा लाखा ने बादनोर के मेरों को पराजित किया और मेरवाड़ा (Merwara) को अपने राज्य में मिला लिया। कर्नल टॉड के अनुसार, राणा लाखा का सामना दिल्ली के सुल्तान महमूद शाह लोदी से भी हुआ। उन्होंने एक बार बादनोर में सुल्तान की सेना को पराजित किया। उन्होंने युद्ध को आगे बढ़ाते हुए गया (बिहार) तक अभियान किया, जहाँ वे आक्रमणकारियों को निकालने के प्रयास में वीरगति को प्राप्त हुए। मारवाड़ के रणमल की बहन हंसाबाई का विवाह लाखा के पुत्र चूण्डा के साथ होना था, मगर परिस्थितिवश यह विवाह लाखा के साथ संपन्न हो गया। मांडौर (Mandor) के राठौड़ शासक ने अपनी बहन का विवाह प्रस्ताव चूंडा के लिए भेजा। जब यह प्रस्ताव आया, तब चूंडा उपस्थित नहीं थे। राणा लाखा ने मज़ाक में कहा कि “यह प्रस्ताव किसी बूढ़े सफ़ेद दाढ़ी वाले व्यक्ति के लिए नहीं होगा।” इस विवाह के साथ यह शर्त थी, कि मेवाड़ का उत्तराधिकारी हंसाबाई का पुत्र ही होगा, जिससे लाखा के योग्य पुत्र चूण्डा को राज्याधिकार से वंचित होना पड़ा। चूण्डा को राजस्थान का 'भीष्म पितामह' भी कहा जाता है । राणा लाखा के समय में जावर माइन्स से चांदी व सीसा बहुत अधिक मात्रा में निकलने लगा, जिससे आर्थिक समृद्धि बढ़ी। इसी समय एक बनजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया था । अलाउद्दीन खिलजी द्वारा नष्ट किए गए मंदिरों और महलों का पुनर्निर्माण कराया। बाँधों और झीलों का निर्माण कर जल-संचय की व्यवस्था की। 


महाराणा मोकल (1421-1433 ई.):– 

मोकल महाराणा लाखा व हंसाबाई का पुत्र था। 1421 ई. में जब मोकल शासक बना, तो अल्पायु का होने के कारण चूण्डा ने उसके संरक्षक के रूप में कार्य किया । पर जब चूण्डा को लगा कि मोकल की माता हंसाबाई उस पर संदेह करती है, तो वह मेवाड़ छोड़कर माँडू चला गया। चूंडा के मांडू चले जाने के बाद, रानी ने अपने भाई राव रणमल राठौर (मांडौर के राठौर) को मेवाड़ की प्रशासनिक बागडोर सौंप दी। रणमल ने सारे उच्च पद अपने राठौर संबंधियों को दे दिए, जिससे मेवाड़ की राजनीति में राठौरों का प्रभाव बढ़ गया। इसी समय नागौर के फिरोज़ खान ने मेवाड़ की सीमाओं पर आक्रमण कर व्यापक लूटपाट की।राणा मोकल ने वीरता से उसका सामना किया, उसे पराजित कर मेवाड़ की सीमा से बाहर निकाल दिया। 1433 ई. में मोकल की जिलवाड़ा में चाचा व मेरा ने महपा पँवार के साथ मिलकर हत्या कर दी। राणा मोकल की मृत्यु के बाद भी राव रणमल राठौर मेवाड़ के प्रशासन पर हावी रहा। लेकिन जब रणमल ने युवा राणा कुम्भा के चाचा राघवदेव की हत्या कर दी, तो मेवाड़ के राजपूतों में तीव्र आक्रोश फैल गया। इस परिस्थिति में, मेवाड़ के सरदारों ने राव चूंडा को मांडू से बुलाया। चूंडा शीघ्र ही चित्तौड़ पहुँचे और रणमल राठौर तथा उसके कई समर्थक युद्ध में मारे गए। 

महाराणा कुंभा (1433 - 1468 ई.):– 

मोकल के बाद उसका पुत्र महाराणा कुंभा 1433 ई. में मेवाड़ का शासक बना। राठौड़ों का मेवाड़ पर प्रभाव समाप्त कर उसने मेवाड़ी सामंतों का विश्वास अर्जित किया। कुंभा ने चित्तौड़ एवं कुंभलगढ़ को अपनी शक्ति का केन्द्र बनाया। मालवा के सुल्तान ने मेवाड़ के शत्रु महपा पँवार को आश्रय प्रदान किया। कुंभा ने महपा पँवार को मेवाड़ को सौंपने के लिए पत्र लिखा। लेकिन महमूद खिलजी ने शरणागत को लौटाना स्वीकार नहीं किया। फलस्वरुप मेवाड़ और मालवा के बीच 1437 ई. में सारंगपुर के युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी प्रथम को परास्त कर बंदी बना लिया । इस विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने चित्तौड़गढ़ में विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया। यह हिन्दू स्थापत्य कला का अनुपम उदाहरण है, जो चित्तौड़गढ़ किले के शिखर पर स्थित है। 

विजय स्तम्भ : भगवान विष्णु को समर्पित

इस स्तम्भ का निर्माण (1440-1448 ई.) महाराणा कुम्भा द्वारा मालवा (सुल्तान महमूद खिलजी) सारंगपुर युद्ध की विजय की स्मृति में करवाया गया। इसको प्रशस्तियों में 'कीर्ति स्तम्भ' कहा गया है। इसका निर्माण कार्य लाल बलुआ पत्थर एवं सफेद संगमरमर से जैता तथा उसके पुत्र नामा, पोमा तथा पूंजा के निर्देशन में किया गया तथा कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति का प्रशस्तिकार कवि अत्रि था। इसमें जता की मूर्ति उत्कीर्ण है। 122 फीट ऊँचे (9 मंजिला, 157 सीढ़ियाँ) स्तंभ के प्रवेश द्वार पर जनार्दन की मूर्ति उत्कीर्ण है। इसकी दूसरी एवं पाँचवी मंजिल पर इसके निर्माता कलाकारों की आकृतियाँ बनी हैं। इस स्तम्भ की नौ मंजिलों में स्थित मूर्तियाँ -

  • प्रथम मंजिल - अनंत, ब्रह्मा और रूद्र
  • द्वितीय मंजिल - अर्द्धनारीश्वर तथा हरिहर
  • तीसरी मंजिल - विंरचि, जयंत, नारायण और पितामह की मूर्तियाँ। यहीं अरबी में 9 बार 'अल्लाह' खुदा हुआ है।
  • चौथी मंजिल - त्रिखण्डा, हरिसिद्ध, पार्वती, हिंगलाज, गंगा, यमुना, सरस्वती, गंधर्व, कार्तिकेय एवं विश्वकर्मा
  • पाँचवीं मंजिल- लक्ष्मी-नारायण, उमा-महेश्वर और ब्रह्मा - सावित्री आदि की युग्म मूर्तियाँ उत्कीर्ण।
  • छठी मंजिल-सरस्वती, महालक्ष्मी और महाकाल
  • सातवीं मंजिल - वाराह, नृसिंह, रामचन्द्र, बुद्ध, आदि विष्णु के अवतारों की मूर्तियाँ
  • आठवीं मंजिल पर कोई मूर्ति नहीं है
  • नवीं मंजिल बिजली गिरने से टूट गयी थी जिसे राणा स्वरूप सिंह ने पुनः निर्मित करवाया। इस पर अत्रि एवं महेश द्वारा रचित कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति उत्कीर्ण है।

जेम्स टॉड ने इसे 'कुतुबमीनार से श्रेष्ठ इमारत' माना है। इसे 'भारतीय मूर्तिकला का विश्वकोष' कहा जाता है। विजय स्तम्भ पर 15 अगस्त, 1949 को 1 रुपये का पहला स्मारक डाक टिकट जारी किया गया।

महाराणा कुंभा का गुजरात के साथ संघर्ष का प्रारंभिक कारण नागौर के उत्तराधिकार को लेकर विवाद था जिसको लेकर मेवाड़ व गुजरात में युद्ध हुआ, जिसमें गुजरात की पराजय हुई। 1453 ई. में महाराणा कुंभा ने मारवाड़ से मण्डोर छीन लिया, परंतु बाद में संधि कर अपने पुत्र रायमल का विवाह मारवाड़ की राजकुमारी से कर दिया 1456 ई. में नागौर के स्वामी फिरोज खाँ के मरने पर उसका पुत्र शम्स खाँ नागौर का स्वामी बना, परन्तु उसे हटाकर उसके छोटे भाई मुजाहिद खाँ ने नागौर पर अधिकार कर लिया। शम्स खाँ कुंभा की मदद से फिर से नागौर का स्वामी बन गया। शासक बनते ही उसने राणा से सम्बन्ध विच्छेदित कर दिया और शर्त के प्रतिकूल नागौर के किले की मरम्मत करवाने लगा। महाराणा ने नागौर पर चढ़ाई कर दी। शम्स खाँ गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन की सहायता से महाराणा कुम्भा की सेना का मुकाबला करने लगा परन्तु उसकी सेना हार गई और नागौर पर मेवाड़ का अधिकार स्थापित हो गया।

1456 ई. में मालवा के महमूद खिलजी प्रथम व गुजरात के कतुबुद्दीन के बीच चम्पानेर की संधि हुई । इस संधि में यह तय किया गया कि दोनों शासक मिलकर कुंभा पर आक्रमण करके, उसे हराकर, उसके राज्य को बांट लेंगे। 1457-58 ई. में गुजरात व मालवा के शासकों ने मेवाड़ पर आक्रमण किया। मगर कुंभा की कूटनीति से दोनों शासकों में मतभेद पैदा होने के कारण वे विशेष सफलता प्राप्त नहीं कर सके । 

महाराणा कुम्भा स्वयं महान संगीतकार था। कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति के अनुसार कुम्भा वीणा बजाने में निपुण था। संगीताचार्य श्री सारंग व्यास कुंभा के संगीत गुरु थे। हीरानन्द मुनि को कुम्भा अपना गुरु मानते थे और उन्हें 'कविराज' की उपाधि दी। कुम्भा की पुत्री रमाबाई को 'वागीश्वरी' (संगीत प्रेम के कारण) कहा गया है।

महाराणा कुंभा को राजस्थानी वास्तुकला का जनक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि कुंभा ने 32 दुर्गों का निर्माण करवाया, जिनमें सिरोही, बसंती दुर्ग(सिरोही), अचलगढ़( आबू- सिरोही) एवं कुंभलगढ़ के दुर्ग प्रसिद्ध हैं। वीर विनोद के लेखक कविराज श्यामलदास भी कुंभा को मेवाड़ के 84 में से 32 दुर्गों का निर्माता बताते हैं। मेरों के प्रभाव को बढ़ने से रोकने के लिए मचान दुर्ग(उदयपुर) का निर्माण करवाया। कोलन और बदनौर के निकट बैराट के दुर्गों की स्थापना की गयी। भोमट का दुर्ग बनाकर भीलों की शक्ति को नियंत्रित किया। कुम्भा ने राजस्थान में सर्वाधिक जर्जर दुर्गों का जीर्णोद्धार करवाया। कुंभलगढ़ का दुर्ग(राजसमंद) अपनी विशेष भौगोलिक स्थिति एवं बनावट के कारण प्रसिद्ध है। इसका शिल्पी मण्डन था। कुंभा ने चित्तौड़ में कुंभस्वामी तथा श्रृंगारचंवरी का मंदिर, एकलिंगजी का विष्णु मंदिर एवं रणकपुर के मंदिर बनवाये, जो अपनी विशालता एवं तक्षणकला के कारण अद्भुत हैं । महाराणा कुम्भा ने वर्तमान ब्यावर जिले के बदनौर में कुशालमाता का मन्दिर बनवाया, जिसे 'बैराठ माता का मन्दिर/जाढ बैराठ' भी कहा जाता है।

जय स्तम्भ (जैन कीर्ति स्तम्भ) : -

प्रथम जैन तीर्थकर आदिनाथ को समर्पित (आदिनाथ स्मारक) 22 मीटर ऊँचे चित्तौड़गढ दुर्ग में स्थित इस स्तम्भ का निर्माण 12वीं शताब्दी में दिगम्बर सम्प्रदाय के बघेरवाल महाजन सानाय के पुत्र जीजा नामक धर्मावलम्बी द्वारा करवाया।

कुंभा एक विद्वान एवं विद्यानुरागी शासक था । कान्ह व्यास द्वारा रचित एकलिंग महात्म्य से ज्ञात होता है कि वह वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद्, व्याकरण एवं राजनीति में रूचि रखता था । संगीतराज, संगीत मीमांसा व सूड प्रबंध कुंभा द्वारा द्वारा रचित ग्रंथ थे। ऐसा माना जाता है कि कुंभा ने चण्डीशतक की व्याख्या, गीत गोविन्द और संगीत रत्नाकार पर टीका लिखी थी । इसके काल में कवि अत्रि और महेश ने कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति की रचना की । तत्कालीन साहित्यिक ग्रंथों और प्रशस्तियों में महाराणा कुंभा को महाराजाधिराज, रावराय, दानगुरु, चापगुरू, राजगुरु(राजाओं को शिक्षा देने के कारण), परमगुरु, हालगुरु( गिरी दुर्गों का स्वामी) अभिनवभरताचार्य(संगीत ज्ञान के कारण), हिन्दू सुरताण, राण रासो (विद्वानों का आश्रय दाता) आदि विरुदों से विभूषित किया गया ।

कुम्भा के दरबारी साहित्यकार मण्डन, गोविन्द, नाथा, सारंगव्यास, सुन्दरगणि, टिल्ला भट्ट तथा कुंभाकालीन प्रसिद्ध जैनाचार्यों में भुवनसुन्दरसूरि, सोमसुन्दर सूरि, जयशेखर सूरि, मुनि जिनसेन सूरी, भुवन कीर्ति, सोमदेव, सुन्दर सूरि, मुनिसुन्दर, माणिक्य आदि प्रमुख थे।

मण्डन के पुत्र गोविन्द ने कलानिधि, उद्वार घोरणी व द्वारदीपिका नामक ग्रंथों की रचना की। 'कलानिधि' देवालयों के शिखर विधान पर केन्द्रित है जिसे शिखर रचना व शिखर के अंग-उपांगों के सम्बन्ध में कदाचित एकमात्र स्वतंत्र ग्रंथ कहा जा सकता है। आयुर्वेद के रूप में गोविन्द की रचना 'सार समुच्चय' में विभिन्न व्याधियों के निदान व उपचार की विधियाँ दी गई हैं।

हरबिलास सरदा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “कुम्भा” में उन्हें “मेवाड़ का सर्वश्रेष्ठ शासक” कहा है।

कुंभा निःसंदेह प्रतापी शासक था, किंतु उसका अंतिम समय कष्टमय रहा। अपने जीवन के अंतिम काल में कुंभा को उन्माद रोग हो गया और उसके पुत्र उदा ने 1468 ई. में उसकी हत्या कर दी। उदा/उदयकरण ने लगभग पाँच वर्ष तक शासन किया, परंतु उसकी अत्याचारी नीतियों और अमानवीय कार्यों के कारण उसे प्रजा ने अस्वीकार कर दिया। अंततः उसके छोटे भाई रायमल ने उसे परास्त कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया। रायमल के शासनकाल में मालवा के गियासुद्दीन ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था, परंतु उसे पराजय का सामना करना पड़ा।


राणा सांगा (1509 - 1528 ई.):-

सांगा (संग्राम सिंह) व उसके तीनों भाई पृथ्वीराज, जयमल व राजसिंह, चारों ही स्वयं को अपने पिता का उत्तराधिकारी मानते थे । इस कारण उनमें संघर्ष होना स्वाभाविक था, पर इस संघर्ष में अंततः सांगा विजयी रहा और मेवाड़ का शासक बना। इतिहास में 'हिन्दूपत' के नाम से प्रसिद्ध महाराणा सांगा 1509 ई. में मेवाड़ का शासक बना। इस समय मालवा पर सुल्तान नासिरूद्दीन शासन कर रहा था। 1511 ई. में सुल्तान की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ गया जिसमें एक राजपूत सरदार मेदिनीराय के सहयोग से महमूद खिलजी द्वितीय को सफलता मिली। इस सफलता से मेदिनीराय का कद बहुत बढ़ गया तथा अब वह एक तरह से मालवा का अप्रत्यक्ष शासक बन गया। अंततः मालवा के अमीरों ने गुजरात की सहायता से मेदिनीराय को इस स्थिति से हटा दिया । मेदिनीराय राणा सांगा की शरण में चला गया, जिससे मालवा एवं मेवाड़ में युद्ध हुआ । मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय पराजित हुआ और राणा द्वारा बंदी बना लिया गया ।

ईडर के उत्तराधिकार का प्रश्न, नागौर पर अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास व मालवा को सहयोग आदि ऐसे मसले थे, जिनको लेकर सांगा व गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर के बीच संघर्ष हुआ, पर अंतिम रूप से सफलता किसी पक्ष को न मिली। 1517 ई. में महाराणा सांगा ने खातौली (वर्तमान में कोटा जिले में) के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को परास्त किया। इस युद्ध में राणा सांगा ने इब्राहिम लोदी के पुत्र को बंदी बना लिया तथा महाराणा सांगा स्वयं युद्ध में लंगड़ा हो गया था। राणा सांगा की सेना ने बाड़ी (धौलपुर) के युद्ध में भी इब्राहिम लोदी की सेना को परास्त किया। 

गागरोण युद्ध (1519 ई.):- राणा साँगा ने मेदिनीराय को गागरोण दुर्ग दे दिया, अतः मालवा के महमूद खिजली द्वितीय एवं गुजरात के मुजफ्फरशाह ने मिलकर गागरोण दुर्ग पर आक्रमण किया। इस युद्ध में साँगा को निर्णायक विजय प्राप्त हुई। महमूद को बन्दी बना लिया गया। लेकिन बाद में राणा ने उसके साथ मानवीय व्यवहार करते हुए उसे क्षमादान देकर मालवा लौटा दिया। इस युद्ध में पहली बार मेवाड़ द्वारा रक्षात्मक युद्ध के स्थान पर आक्रमण युद्ध का आरम्भ हुआ। मालवा को मेवाड़ से अपनी ही भूमि पर पराजय मिली।

इससे राणा की प्रतिष्ठा बढ़ गयी और राणा सांगा उत्तर भारत का शक्तिशाली शासक बन गया । 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के युद्ध में इब्राहिम लोदी को परास्त कर आगरा पर अधिकार कर लिया। बाबर ने राणा सांगा पर विश्वासघात का आरोप लगाकर उसके विरुद्ध कूच किया। बाबर के अनुसार राणा सांगा ने उससे वादा किया था, कि जब वह इब्राहीम लोदी पर आक्रमण करेगा, तो सांगा उसकी मदद करेगा, किंतु राणा सांगा ने उसकी कोई मदद नहीं की, मगर इस आरोप की पुष्टि नहीं होती है। बाबर से पराजित होने के बाद कुछ अफगान सेनापति जैसे हसन खां मेवाती महाराणा साँगा की शरण में आ गये। चूंकि दोनों ही शासक शक्तिशाली एवं महत्त्वाकांक्षी थे। अतः दोनों के मध्य युद्ध निश्चित था । यद्यपि खानवा के मैदान में सांगा पराजित हुआ था, पर इससे पहले बयाना के युद्ध (16 फरवरी, 1527 ई.) में उसने बाबर की सेना को पराजित किया था। खानवा का मैदान आधुनिक भरतपुर जिले की रूपवास तहसील में गंभीर नदी के किनारे है। बयाना की विजय के बाद साँगा ने सीकरी जाने का सीधा मार्ग छोड़कर भुसावर होकर सीकरी जाने का मार्ग पकड़ा। वह भुसावर में लगभग एक माह ठहरा रहा। लेकिन इससे बाबर को खानवा के मैदान में उपयुक्त स्थान पर पड़ाव डालने और उचित सैन्य संचालन का समय मिल गया। सांगा द्वारा बयाना के युद्ध में बाबर को पराजित करने के बाद वाद्य यंत्र 'अरबी ताशा' मेवाड़ के सैनिक यंत्रों में शामिल किया गया। 17 मार्च, 1527 को खानवा के मैदान में बाबर और राणा सांगा के बीच युद्ध हुआ । तोपखाने एवं तुलुगमा युद्ध पद्धति के कारण बाबर की विजय हुईजब खानवा का युद्ध (1527 ई. में) हुआ तो मारवाड़ के शासक राव गांगा ने अपने पुत्र राव मालदेव के नेतृत्व में 4000 सैनिक(मारवाड़ी सैना) भेजकर राणा साँगा की मदद की खानवा के युद्ध में राणा सांगा की सेना में अफगान सुल्तान महमूद लोदी, मेव शासक हसन खां मेवाती, मारवाड़ के राव गांगा का पुत्र मालदेव, बीकानेर के राव जैतसी का पुत्र कुँवर कल्याणमल, आमेर का राजा पृथ्वीराज, ईडर का राजा भारमल, मेड़ता का रायमल राठौड़, रायसीन का सलहदी तँवर (अंतिम समय पर समर्थन वापिस), चंदेरी का मेदिनीराय, नागौर का खाना जादा, सिरोही का अखैराज, वागड़ (डूंगरपुर) का रावल उदयसिंह, सलूम्बर का रावत रतनसिंह, वीरमदेव मेड़तिया, देवलिया का रावत बाघसिंह, नरबद हाड़ा, वीरसिंह देव, गोकुल दास परमार, झाला अज्जा आदि सम्मिलित थे। राणा साँगा ने खानवा के युद्ध से पहले 'पाती पेरवन' की राजपूत परम्परा को पुनर्जीवित करके राजस्थान के प्रत्येक सरदार को अपनी ओर से युद्ध में शामिल होने का निमंत्रण दिया था। खानवा युद्ध के दौरान राणा साँगा के सिर पर एक तीर लगा जिससे वे मूर्छित हो गये थे। तब झाला अज्जा को सब राज्यचिह्नों के साथ महाराणा के हाथी पर सवार किया और उसकी अध्यक्षता में सारी सेना लड़ने लगी। झाला अज्जा ने इस युद्ध संचालन में अपने प्राण दिये। थोड़ी ही देर में महाराणा के न होने की खबर सेना में फैलने से सेना का मनोबल टूट गया। राणा सांगा युद्ध में घायल हुआ एवं उसे युद्ध के मैदान से दूर ले जाया गया। जब राणा सांगा ने अपनी पराजय का बदला लिये बिना चित्तौड़ लौटने से इनकार कर दिया तब उसके सामंतों ने जो युद्ध नहीं करना चाहते थे, एरिच(Erich) में सांगा को विष दे दिया । जिसके फलस्वरूप 30 जनवरी, 1528 को बसवा/कालपी (दौसा) में सांगा की मृत्यु हो गई। माण्डलगढ़ में सांगा का  दाह संस्कार किया गया जहां  समाधि स्थल है।

बाबर ने अपनी आत्मकथा “तुजुक-ए-बाबरी” में लिखा कि “भारत के समस्त राजाओं में केवल विजय नगर के राजा और महाराणा सांगा ही ऐसे थे, जिनसे बिना सहायता के कोई भी सुल्तान सामना नहीं कर सकता था।”

प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिख “पिछली एक शताब्दी में हिन्दू समाज ने नई शक्ति और चेतना प्राप्त की थी, केवल एक प्रतिभाशाली नेता की आवश्यकता थी जो इस्लामी शासन से भारत को मुक्त करा सके। यह नेतृत्व महाराणा सांगा ने प्रदान किया।”

टॉड के अनुसार "महाराणा सांगा ने अपने जीवन में अनेक घाव झेले — एक आंख खोई, हाथ टूटा, और तलवार और भाले से कम से कम 80 घाव प्राप्त किए।"


मीरा बाई

मीरा बाई का जन्म मेड़ता के राठौड़ राजघराने में हुआ था। उनके दादा राव दूदा, राव जोधा (जोधपुर नगर के संस्थापक) के पुत्र थे। राव दूदा ने मेड़ता जागीर की स्थापना की और अपने पुत्र राव रतन सिंह को 12 गाँव प्रदान किए। इन्हीं राव रतन सिंह और उनकी पत्नी के यहाँ मीरा बाई का जन्म कुर्की गाँव में हुआ। बचपन में ही मीरा अपने माता-पिता से अनाथ हो गईं। उनका पालन-पोषण दादा राव दूदा और बाद में चाचा राव वीरमदेव ने किया।युवावस्था में उनका विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ। दुर्भाग्यवश, विवाह के कुछ समय बाद ही भोजराज का निधन हो गया, और शीघ्र ही महाराणा सांगा भी दिवंगत हो गए। मीरा बाई ने पहले चित्तौड़ से मेड़ता का रुख किया। फिर वहाँ से वे वृंदावन पहुँचीं, जहाँ उन्होंने भगवान कृष्ण की निरंतर साधना की। अंततः वे द्वारका चली गईं, जहाँ उन्होंने अपने जीवन के अंतिम 15 वर्ष प्रभु भक्ति में व्यतीत किए। चित्तौड़ के राणा ने उन्हें कई बार वापस मेवाड़ लाने का प्रयास किया, परंतु मीरा ने लौटना स्वीकार नहीं किया। कहा जाता है कि द्वारका के रंछोड़जी मंदिर (भगवान कृष्ण) में नृत्य करते हुए वे अपने आराध्य में लीन होकर इस संसार से विदा हो गईं। 


राणा सांगा की मृत्यु (1528 ई.) के बाद उनके पुत्र राणा रतनसिंह द्वितीय(1528-1531 ई.) ने मेवाड़ का शासन संभाला। लगभग 1531 ई. में उनकी मृत्यु बूंदी के राव सूरजमल हाड़ा के साथ एक द्वंद्वयुद्ध (duel) में हुई


रतन सिंह के बाद विक्रमादित्य सिंह गद्दी पर बैठे। वे अत्यंत अहंकारी और अपमानजनक व्यवहार करने वाले शासक थे। उनके व्यवहार से मेवाड़ के सामंत और सरदार उनसे नाराज हो गए और अपनी-अपनी जागीरों में लौट गए। इस समय गुजरात का सुल्तान बहादुर शाह अत्यंत शक्तिशाली बन चुका था।वह पहले ही मालवा को जीत चुका था और अब मुगलों की सत्ता को चुनौती देने लगा था। उसे लगा कि यदि वह चित्तौड़ पर विजय प्राप्त कर लेगा तो उसकी प्रतिष्ठा और बढ़ जाएगी।  इसलिए उसने पहले चित्तौड़ पर आक्रमण की योजना बनाई।  पहले आक्रमण में उसने केवल दबाव बनाया और मेवाड़ के लिए प्रतिकूल संधि (Treaty) कराई। जब बहादुर शाह ने 1533 ई. में चित्तौड़ पर दूसरा आक्रमण किया, तब राणा विक्रमादित्य की माता रानी हादी कर्मावती ने मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी। हुमायूँ ने प्रारंभ में चित्तौड़ की ओर प्रस्थान किया और ग्वालियर तक पहुँचा, लेकिन फिर आगरा लौट आया, और इस प्रकार मेवाड़ की सहायता नहीं की।  

इतिहासकार कर्नल टॉड ने चित्तौड़ के पतन से पहले की घटनाओं का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है —

"चित्तौड़ नाम में ही एक पवित्रता है,

जिसने सदैव अपने रक्षकों को प्रेरित किया। जब फिर एक बार ‘बर्बर आक्रमणकारी’ ने खतरा पैदा किया, तो सूरजमल के उत्तराधिकारी ने अपने नए नगर देवला को त्याग दिया और अपने पूर्वजों की भूमि की रक्षा में अपना रक्त बहाने को तत्पर हुआ।"

बूंदी के राव सूरजमल के पुत्र लगभग 500 वीर हाड़ा योद्धाओं के साथ चित्तौड़ की रक्षा के लिए पहुँचे। "रूमी खाँ" ने ‘बीका रॉक’ नामक स्थान पर बारूद का विस्फोट कर दिया, जिससे किले की दीवार का 45 हाथ (cubits) लंबा भाग उड़ गया और वही स्थान जहाँ वीर हाड़ा तैनात थे नष्ट हो गया।

राठौड़ वंश की महारानी जवाहर बाई ने कवच पहनकर रणक्षेत्र में प्रस्थान किया और युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की। जब सभी उपाय समाप्त हो गए, तो देवता की मर्यादा हेतु एक प्रतीकात्मक बलिदान राजा का राज्याभिषेक किया गया। देवला के राजकुमार बाघजी ने इस ‘बलिदान का ताज’ धारण करने की स्वेच्छा व्यक्त की, और मेवाड़ का ध्वज उनके ऊपर लहराया।

जब बहादुर शाह (गुजरात का सुल्तान) ने चित्तौड़ दुर्ग पर दूसरा भीषण आक्रमण किया, तो दुर्ग के रक्षक वीर योद्धाओं ने असाधारण साहस दिखाया। "सबसे वीर योद्धा उस स्थान पर शहीद हो गए जहाँ से दुर्ग की दीवार टूट गई थी।" जब यह स्पष्ट हो गया कि अब दुर्ग की रक्षा असंभव है, तब रानी कर्मावती (जो वीर अर्जुन हाड़ा की बहन और राणा विक्रमादित्य की माता थीं) ने चित्तौड़ की सभी स्त्रियों का नेतृत्व करते हुए जौहर किया। 

दूसरी ओर, दुर्ग के शेष रक्षक, प्रातापगढ़ (देवला) के रावत बाघ सिंह के नेतृत्व में, केसरिया वस्त्र धारण कर खुले द्वारों से बाहर निकले और अंधे उत्साह में वीरगति को प्राप्त हुए।

यह घटना, जिसे चित्तौड़ का दूसरा शाका(Second Sack of Chittaur) कहा जाता है, 1534 ईस्वी में घटित हुई। चित्तौड़ की इस त्रासदी के कुछ समय बाद, राणा विक्रमादित्य की हत्या बनबीर नामक व्यक्ति ने कर दी। बनबीर, राणा सांगा के भाई पृथ्वीराज का अवैध पुत्र (illegitimate son) था। विक्रमादित्य की हत्या के बाद उसने मेवाड़ की गद्दी हड़प ली। बनबीर ने आगे राणा के छोटे भाई, उदयसिंह की हत्या करने का भी प्रयास किया, लेकिन उस समय मेवाड़ की सबसे महान त्यागमयी नारी पन्ना धाय ने अपने स्वयं के पुत्र का बलिदान देकर बालक उदयसिंह का जीवन बचाया। 

पन्ना धाय ने बालक उदयसिंह को पहले देवला (प्रातापगढ़) और डूंगरपुर ले जाकर छिपाया, और फिर सुरक्षित रूप से कुंभलगढ़ दुर्ग पहुँचा दिया। इस प्रकार मेवाड़ वंश की रक्षा हुई। बनबीर का शासन जागीरदारों और सरदारों को अत्यंत अप्रिय था। सबने मिलकर उसके विरुद्ध विद्रोह किया। अंततः 1537 ई. में बनबीर पराजित हुआ और राणा उदयसिंह अपने पूर्वजों की गद्दी पर बैठे। 


राणा उदयसिंह (1537 - 1572 ई.) :-

राजस्थान के इतिहास में अपने महान बलिदान के कारण ख्याति प्राप्त पन्नाधाय ने अपने पुत्र चंदन का बलिदान करके उदयसिंह को बनवीर से बचाया था । उदयसिंह को बचाकर कुंभलगढ़ के किले में रखा गया था । यहीं मालदेव के सहयोग से 1537 ई. में उदयसिंह का राज्याभिषेक हुआ । उदयसिंह ने 1559 ई. में उदयपुर नगर बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। यहाँ उसने उदयसागर झील तथा मोती मगरी के सुंदर महलों का निर्माण करवाया। उदयसिंह ने मांडू के सुल्तान बाज बहादुर को ऐसे समय शरण दी जब अकबर उससे शासन छीनने की कोशिश कर रहा था। 12 अक्टूबर, 1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया । अपने सरदारों की सलाह पर उदयसिंह किले की रक्षा का भार जयमल और फत्ता नामक अपने दो सेनानायकों को सौंपकर पहाड़ियों में चला गया। बदकिस्मत से एक दिन रात को दीवार की मरम्मत करते समय जयमल अकबर की संग्राम नामक बंदूक की गोली से मारा गया। किले की रक्षा के दौरान जयमल व फत्ता वीर गति को प्राप्त हुए । अकबर ने जयमल - फत्ता की वीरता से मुग्ध होकर आगरा के किले के बाहर उनकी हाथी पर सवार पत्थर की मूर्तियाँ लगवाईं। 25 फरवरी, 1568 में अकबर का चित्तौड़ पर अधिकार हो गया। यह चित्तौड़ दुर्ग का 'तुतीय शाका' था।

राणा उदयसिंह के शासनकाल में दिल्ली का नया अफ़ग़ान शासक शेरशाह सूरी ने मेवाड़ पर आक्रमण किया। शेरशाह ने जोधपुर के मालदेव राठौड़ को हराने के बाद मेवाड़ के कुछ हिस्सों पर अधिकार कर लिया, लेकिन उसने चित्तौड़ दुर्ग की घेराबंदी को अविवेकपूर्ण (unwise) मानकर टाल दिया। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार, राणा उदयसिंह ने शेरशाह सूरी के साथ एक संधि (Treaty) की थी।


महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.):- 

9 मई 1540 को कुंभलगढ़ में जन्मे प्रताप 1572 ई. में मेवाड़ के शासक बने। मुस्लिम इतिहासकार उन्हें राणा कीका भी कहते हैं। महाराणा उदयसिंह ने जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया था, मगर सरदारों ने उसे स्वीकार नहीं किया और प्रताप को गद्दी पर बिठा दिया। प्रताप के उत्तराधिकार के दावे को उनके छोटे भाई जगमल ने चुनौती दी। शक्तिसिंह, जो उदयसिंह के दूसरे पुत्र थे, पहले ही अपने पिता से क्रोधित होकर चित्तौड़ छोड़ चुके थे और अकबर के दरबार में सेवा स्वीकार कर चुके थे, इसलिए उनका दावा निरस्त कर दिया गया।

उदयसिंह की मृत्यु के बाद, रानी भटियानी के पुत्र जगमल ने अपने समर्थकों के साथ मिलकर गद्दी पर कब्ज़ा करने की साज़िश रची। परंतु अखैराज सोनगरा, रामप्रसाद (ग्वालियर), सलूंबर और देवगढ़ के सरदारों ने प्रताप का साथ दिया और जगमल की योजना को विफल कर दिया। अंततः 28 फरवरी 1572 ई. को गोगुंदा में महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक हुआ। इस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था। प्रताप के सामने दो मार्ग थे या तो वह अकबर की अधीनता स्वीकार कर सुविधापूर्ण जीवन बिताये या अपना स्वतंत्र अस्तित्व और अपने देश की प्रतिष्ठा बनाये रखे। दूसरा विकल्प चुनने की स्थिति में उसे अनेक कष्ट उठाने थे, फिर भी प्रताप ने दूसरे विकल्प 'संघर्ष' को ही चुना । इस संघर्ष की तैयारी में उसने सबसे पहले मेवाड़ को संगठित करने का बीड़ा उठाया । अपने कर्त्तव्य और विचारों से उसने सामन्तों और भीलों का एक गुट बनाया जो सदैव देश की रक्षा के लिए उद्यत रहे । प्रताप ने प्रथम बार इन्हें अपनी सैन्य व्यवस्था में उच्च पद देकर इनके सम्मान को बढ़ाया। मुगलों से बचकर युद्ध का प्रबन्ध करने के लिए उसने गोगुंदा से अपना निवास स्थान कुंभलगढ़ स्थानांतरित कर लिया | अकबर किसी भी तरह से मेवाड़ को अपने अधीन करना चाहता था । अतः उसने समझौते के प्रयास किये। 1572 ई. से 1576 ई. के मध्य उसने चार शिष्ट मण्डल क्रमशः जलाल खाँ(November 1572 -गुजरात अभियान के लिए जाते समय बागोर से भेजो), मानसिंह(June 1973), भगवानदास(October 1973) एवं टोडरमल(December 1573) के नेतृत्व में भेजे मगर महाराणा ने संधि करने में किसी प्रकार की रूचि नहीं दिखाई । अतः मेवाड़ को मुगल आक्रमण का सामना करना पड़ा। 1576 ई. के प्रारंभ में अकबर मेवाड़ अभियान की तैयारी हेतु अजमेर पहुँचा और वहीं उसने मानसिंह को मेवाड़ अभियान का नेतृत्व सौंपा।

18 जून 1576 ई. को बनास नदी के निकट खमनौर गाँव (राजसमंद) के पास मुगल सेना का प्रताप से युद्ध हुआ जो इतिहास में हल्दीघाटी के युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। इस युद्ध में मुगल सेना का मुख्य सेनापति आमेर का मानसिंह था जबकि प्रताप की सेना के हरावल (अग्रिम दस्ता) का नेतृत्व हकीम खां सूर कर रहा था। कुंवर मानसिंह के साथ आसफ खान, सैयद अहमद, सैयद हाशिम बेहरा, राजा जगन्नाथ कछवाहा, राय लूणकरण कछवाहा और अन्य कुशल सेनापति थे। मुग़ल सेना मंडलगढ़ पहुँची और लगभग एक महीने तक वहीं डेरा डाले रही। महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ से निकलकर लोसिंग गाँव (हल्दीघाटी दर्रे से आठ मील पश्चिम) में शिविर लगाया। प्रताप अपने अंगरक्षकों से घिरे हुए सीधे कुंवर मानसिंह के हाथी की ओर बढ़े। उन्होंने अपनी भाला (लांस) फेंका, जिससे मानसिंह का महावत मारा गया। दोनों ओर के राजपूतों ने अत्यंत वीरता से युद्ध किया, और चारों ओर भीषण रक्तपात हुआ। युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप घायल हो गए और उनका प्रिय घोड़ा चेतक भी घायल हुआ। उसके एक पैर को मानसिंह के हाथी की तलवार ने लगभग काट डाला था। इस संकट में, युद्ध में प्रताप के जीवन को संकट में देखकर झाला बीदा ने प्रताप का मुकुट धारण कर युद्ध किया और प्रताप को युद्धभूमि से दूर भेज दिया। उनके इस बलिदान की स्मृति में, झाला वंशजों को मेवाड़ के राजचिह्न धारण करने का अधिकार और राजकुमारों के दाहिने ओर प्रथम आसन का सम्मान प्राप्त है। यह युद्ध अनिर्णायक रहा। राजप्रशस्ति, राजप्रकाश, जगदीश मंदिर प्रशस्ति, राजविलास आदि राजस्थानी स्रोत हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप को विजयी मानते हैं। राजस्थान सरकार द्वारा यह दावा किया गया है कि हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर की नहीं वरन् महाराणा प्रताप की विजय हुई। इसके पीछे सरकार ने राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय में उदयपुर में मीरा महाविद्यालय के प्रो. इतिहासकार डॉ. चन्द्रशेखर शर्मा के शोध का हवाला दिया है। उसके अनुसार युद्ध के बाद अगले एक साल तक महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के आसपास के गांवों की जमीनों के पट्टे ताम्रपत्र के रूप में जारी किए गए थे। जमीनों के पट्टे जारी करने का अधिकार केवल राजा का था। वीर विनोद में उल्लिखित है कि मेवाड़ की ख्यातों के अनुसार मानसिह के अधीन 80,000 सैनिक और प्रताप के पास 20,000 सैनिक थे नैणसी के अनुसार मानसिंह के पास 40,000 सैनिक और प्रताप के पास 9-10 हजार सैनिक थे। युद्ध में उपस्थित इतिहासकार बदायूँनी के अनुसार मानसिंह की सेना में 5000 सैनिक तथा प्रताप की सेना में 3000 घुड़सवार थे। इस युद्ध का वर्णन युद्ध में एकमात्र उपस्थित इतिहासकार बदायूँनी ने मुन्तखब-उत-तवारीख में किया है। इस युद्ध को बदायूनी ने गोगुंदा का युद्ध, अबुल फजल ने खमनौर का युद्ध तथा जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी का युद्ध कहा है। 


हल्दीघाटी युद्ध :-

महाराणा प्रताप की सेना का जनरल - प्रताप

प्रताप की सेना के कमाण्डर - मुस्लिम सेनापति हकीम खाँ सुरि (हरावल भाग का नेतृत्व), सलुम्बर का चूडावत कृष्णदास, ग्वालियर राजा रामशाह तोमर (तँवर) व उसके तीन पुत्र (शालिवान, भवानी सिंह तथा प्रताप सिंह), सादड़ी झाला बीदा, सरदारगढ़ का भीमसिंह, देवगढ़ का रावत साँगा, झाला मानसिंह थे तथा भील नेता पूँजा भील (सेना के पीछे वाले चंदावल भाग का नेतृत्व), पुरोहित गोपीनाथ, चारण जैसा, जयमल मेहता, जगन्नाथ, भामाशाह, ताराचंद प्रताप के चंदावल दस्ते में शामिल थे।

अकबर की सेना का जनरल आसफ खाँ

अकबर की सेना के कमाण्डर:- मुगल सूबेदार मानसिंह, राणा प्रताप के भाई-जगमाल, शक्तिसिंह व सगर । मुगल सेना में हरावल (सेना का सबसे आगे वाला भाग) का नेतृत्व सैयद हाशिम कर रहा था। उसके साथ मुहम्मद बादख्शी रफी, जगन्नाथ कच्छवाहा, आसफ खाँ थे। चंदावल भाग का नेतृत्व माधोसिंह कच्छवाहा (अग्रिम), मिहतर खाँ कर रहे थे।

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने पहाड़ों में रहते हुए वहीं से मुगलों को परेशान करने के लिए वे मारना शुरू कर दिया । मानसिंह न तो राणा को पकड़ सका और न ही मेवाड़ को अधीन कर सका — वह स्वयं गोगुंदा में लगभग घेरे में फँस गया। इसके बाद राणा प्रताप ने गुरिल्ला युद्धनीति (छापामार युद्ध) अपनाई। वे हल्दीघाटी छोड़कर गोगुंदा के पश्चिम में अरावली के कोलियारी गाँव पहुँचे और अपने घायल सैनिकों की सहायता तथा नई सेनाएँ संगठित करने में लग गए। लगभग दो वर्ष बाद अकबर स्वयं गोगुंदा पहुँचा और वहाँ से राणा को पकड़ने के लिए सेना भेजी, किंतु यह प्रयास असफल रहा। दूसरा प्रयास भी विफल हुआ, तब तीसरी बार शहबाज़ ख़ान के नेतृत्व में, भगवानदास और आमेर के मानसिंह के साथ एक विशाल सेना भेजी गई जिसने कुम्भलगढ़ और गोगुंदा के किलों पर अधिकार कर लिया और आसपास का क्षेत्र नष्ट कर दिया। राणा चारों ओर से घिर गए और आर्थिक संकट में भी थे, फिर भी उन्होंने संघर्ष जारी रखा। इस कठिन समय में उनके मंत्री भामा शाह ने आगे आकर मेवाड़ का संचित धन और मालवा से लाया गया युद्ध-लाभ राणा को अर्पित किया और उन्हें पुनः संघर्ष करने को प्रेरित किया।

1576 से 1585 तक अकबर ने मेवाड़ पर अधिकार करने के लिए अनेक अभियान भेजे किन्तु अधिक सफलता नहीं महाराणा प्रताप मिली। इस कालखण्ड में दो महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई। महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने 1580 में अचानक शेरपुर के मुगल शिविर पर आक्रमण कर अब्दुर्रहीम खानखाना के परिवार की महिलाओं को बंदी बना लिया। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की जानकारी मिलने पर प्रताप ने मुगल महिलाओं को ससम्मान सुरक्षित भिजवाने के आदेश दिये । नारी सम्मान की भारतीय परम्परा का यह अनुपम उदाहरण है। 1582 में दिवेर की मुगल चौकी पर आक्रमण के समय कुंवर अमरसिंह ने वहां पर तैनात मुगल अधिकारी सुल्तान खां को भाले के एक ही वार से परलोक पहुंचा दिया । दिवेर की विजय के बाद इस पर्वतीय भाग पर प्रताप का अधिकार हो गया। एक छोटी सी मेवाड़ी सेना की यह बहुत बड़ी सफलता थी । यही कारण था कि कर्नल टॉड ने दिवेर को 'मेवाड़ का मेराथन' कहा है।

1585 ई. के बाद अकबर मेवाड़ की तरफ कोई अभियान नहीं भेज सका। 1585 से 1597 ई. के बीच प्रताप ने चित्तौड़ एवं माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया, चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया और राज्य में सुव्यवस्था स्थापित की। 19 जनवरी, 1597 को प्रताप की मृत्यु हो गई। महाराणा प्रताप को यह एहसास था कि उनका कार्य अधूरा है, क्योंकि चित्तौड़ अब भी मुग़लों के अधीन था। मृत्यु शय्या पर उन्होंने अपने सरदारों से यह शपथ दिलाई कि “जब तक चित्तौड़ पुनः प्राप्त न हो जाए, तब तक उदयपुर में कोई महल न बनाया जाए।” चावण्ड के पास 'बाडोली' नामक गाँव में प्रताप का अंतिम संस्कार किया गया । प्रताप के संबंध में कर्नल टॉड लिखते हैं कि आलप्स पर्वत के समान अरावली में कोई भी ऐसी घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी न किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र न हुई हो । हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मोपल्ली और दिवेर मेवाड़ का 'मेराथन' है।

यहाँ तक कि अकबर, जो प्रताप का आजीवन विरोधी था, उनके निधन का समाचार सुनकर गहरे मौन में डूब गया। दरबार में उपस्थित कवि आधा दुरसा आढ़ा ने तत्काल यह छप्पय सुनाया —

“गहलोत राणा, तू मृत्यु में भी विजयी रहा,

क्योंकि तेरे निधन का समाचार सुनकर बादशाह अकबर मौन हो गया,

उसने जीभ दबाई, आह भरी और आँखों में आँसू भर आए।

तूने अपने घोड़ों पर मुग़ल निशान नहीं लगवाए,

कभी किसी के आगे सिर नहीं झुकाया।

तूने अपने कंधे पर राज्य का भार उठाया और

लोकगीतों में अमर होकर गया।

तू नवरोज़ में नहीं गया, न बादशाह के झरोखे के नीचे खड़ा हुआ,

और इस प्रकार तूने अपनी महानता जग को दिखा दी।”

सब दरबारी यह सोच रहे थे कि अकबर क्रोधित होगा परंतु सभी को आश्चर्य हुआ जब अकबर ने उस कवि को पुरस्कृत किया।


राणा अमरसिंह (1597 - 1620 ई.)

अमरसिंह 1597 ई. में मेवाड़ का शासक बना। शासक बनने के उपरांत उसे मुगल आक्रमणों का सामना करना पड़ा। 1613 ई. में जहाँगीर स्वयं अजमेर पहुँचा और शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को मेवाड़ अभियान का नेतृत्व सौंपा। उसने मेवाड़ में लूटमार एवं आगजनी  द्वारा संकट की स्थिति उत्पन्न कर दी। मेवाड़ के सामंत युद्धों से ऊब गये थे एवं उनकी जागीरें भी वीरान हो गई थी। अतः उन्होंने कुँवर कर्णसिंह को अपने पक्ष कर राणा पर मुगलों से संधि करने का दबाव डाला। सरदारों के दबाव के कारण अमरसिंह को झुकना पड़ा और मुगलों से संधि की स्वीकृति देनी पड़ी। फरवरी 1615 में मेवाड़ - मुगल संधि हुई। 

संधि के लिए निम्नलिखित शर्तें रखीं—

1. महाराणा स्वयं खुर्रम से मिलें।

2. महाराणा को दिल्ली दरबार में उपस्थित होने से छूट रहेगी।

3. वे दरबार के अन्य राजाओं की तरह मुग़ल दरबार के सेवक माने जाएँगे।

4. महाराणा अपने पुत्र करण सिंह को बादशाह की सेवा में भेजेंगे।

5. चित्तौड़गढ़ महाराणा को वापस दिया जाएगा, परन्तु उसकी दीवारें और किलेबंदी पुनः नहीं की जाएगी।

6. आवश्यकता पड़ने पर महाराणा 1000 घुड़सवारों की सेना देंगे।

5 फरवरी 1615 ई. को महाराणा अमर सिंह ने गोगुंदा में प्रिंस खुर्रम से मुलाकात की। दोनों ने एक-दूसरे को हाथी, घोड़े, बहुमूल्य रत्न और वस्त्र उपहारस्वरूप दिए।

संधि के अनुसार, महाराणा के उत्तराधिकारी करण सिंह ने स्वयं सम्राट जहाँगीर से मुलाकात की और उन्हें 5000 का मानसब तथा सम्मानित उपहार प्राप्त हुए।

चित्तौड़ पुनः मेवाड़ को लौटा दिया गया, मगर उसकी मरम्मत नहीं की जा सकती थी । इस प्रकार विगत 90 वर्षों से चले आ रहे मेवाड़ - मुगल संघर्ष का अंत हुआ । राणा अमरसिंह अपने इस कार्य से स्वयं खुश न था और उसने स्वयं को राजकार्य से विरक्त कर लिया । जहाँगीर के जीवन की यह एक बड़ी सफलता मानी जाती है ।

राणा करण सिंह (1620–1628 ई.):-

महाराणा अमर सिंह के निधन के बाद उनके पुत्र करण सिंह गद्दी पर बैठे। 1615 की संधि के कारण उनके शासनकाल में आंतरिक और बाहरी शांति बनी रही। उन्होंने प्रशासनिक और आर्थिक सुधारों की दिशा में कार्य किया। उन्होंने राज्य को परगनों में विभाजित किया और गाँवों में पटेल, पटवारी और चौकीदार नियुक्त किए। 1628 ई. में करण सिंह का निधन हुआ।


महाराणा जगत सिंह (1628–1652 ई.):-

करण सिंह के बाद उनके पुत्र जगत सिंह महाराणा बने। प्रारंभ में मुग़ल दरबार से अच्छे संबंध रहे, परंतु धीरे-धीरे मतभेद बढ़ गए। जगत सिंह महत्वाकांक्षी थे और उन्होंने शाही दरबार के व्यस्त होने का लाभ उठाते हुए सीरोही, डूंगरपुर, प्रतापगढ़ और बांसवाड़ा के कार्यों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। अपने शासन के अंतिम वर्षों में उन्होंने चित्तौड़गढ़ के किले की मरम्मत करवाई, जिससे शाहजहाँ नाराज़ हो गया। परिणामस्वरूप, उनके उत्तराधिकारी के समय शाहजहाँ ने मेवाड़ पर चढ़ाई की।  जगत सिंह का निधन 1652 ई. में हुआ। वे अत्यंत दानशील शासक थे। उन्होंने प्रत्येक वर्ष रजत तुला-दान (Silver Tula Daan) किया और 1648 से स्वर्ण तुला-दान (Gold Tula Daan) प्रारंभ किया। उनके प्रमुख दानों में कल्पवृक्ष, सप्तसागर, रत्नधेनु और विश्वचक्र दान शामिल हैं। उन्होंने उदयपुर में जगन्नाथ राय मंदिर का निर्माण कई लाख रुपए की लागत से कराया। वे वही महाराणा थे जिन्होंने जहाँगीर के विद्रोही पुत्र प्रिंस खुर्रम (शाहजहाँ) को आश्रय दिया था।


महाराणा राजसिंह (1652 - 80 ई.):– 

राजसिंह ने शासक बनते ही चित्तौड़ की मरम्मत के कार्य को पूरा करने का निश्चय किया। लेकिन मुगल सम्राट ने इसे 1615 ई. की मेवाड़ - मुगल संधि की शर्तों के प्रतिकूल मानते हुए चित्तौड़ दुर्ग को ढहाने के लिए तीस हजार सेना के साथ सादुल्ला खाँ को भेजा राजसिंह ने मुगलों से संघर्ष करना उचित न समझकर अपनी सेना को वहाँ से हटा लिया। मुगल सेना कंगूरे एवं बुर्ज गिराकर लौट गयी। 1658 ई. में मुगल शाहजादों में उत्तराधिकार का युद्ध छिड़ा, मगर महाराणा किसी भी पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहता था । अतः महाराणा टालमटोल करता रहा । जब औरंगजेब दिल्ली का शासक बना, तो प्रारम्भ में तो उसके संबंध राजसिंह से अच्छे रहे। औरंगजेब ने उसे 6000 जात एवं सवार का मनसब भी प्रदान किया, किंतु किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमति, जिसका विवाह औरंगजेब से होने वाला था, से विवाह करके राजसिंह ने 1660 ई. में औरंगजेब को अप्रसन्न कर दिया। इसके बाद 1679 ई. में औरंगजेब द्वारा जजिया कर लगाने का राजसिंह ने विरोध किया । मुगल- मारवाड़ संघर्ष छिड़ने पर महाराणा राजसिंह ने राठौड़ों का साथ दिया। मारवाड़ के महाराजा जसवंत सिंह जो ख़ैबर और पेशावर की मुगल चौकियों की रक्षा कर रहे थे, सन् 1678 ई. में जामरूद में निधन हो गया। औरंगज़ेब ने इसका लाभ उठाते हुए मारवाड़ पर अधिकार कर लिया और उसे सीधे मुगल शासन के अधीन कर दिया। परंतु औरंगज़ेब राठौड़ों को पूरी तरह वश में नहीं कर पाया और अजीत सिंह व रानी माता का पता नहीं लगा सका। तब राठौड़ों ने मेवाड़ से सहायता माँगी और दुर्गादास राठौर ने राणा राज सिंह को पत्र लिखकर तुरंत मदद की गुहार की। राणा ने उदारतापूर्वक सहायता दी क्योंकि वे जानते थे कि यदि औरंगज़ेब राठौड़ों को कुचलने में सफल हो गया, तो अगला निशाना सिसोदिया वंश ही होगा। अतः राणा ने प्रस्ताव स्वीकार किया और अजीत सिंह को राठौड़ सेना की सुरक्षा में मेवाड़ लाया गया। 

श्रीनाथजी और द्वारिकाधीश की मूर्तियाँ, जिन्हें औरंगज़ेब ने मथुरा से नष्ट करने का आदेश दिया था, राणा राज सिंह ने मेवाड़ में सुरक्षित स्थान दिया। राणा ने इन मूर्तियों की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया, उन्हें नाथद्वारा और कंकरोली में स्थापित किया और उनकी देखरेख के लिए जागीरें प्रदान कीं। 

अकाल प्रबंधन के उद्देश्य से राजसिंह ने गोमती नदी के पानी को रोककर राजसमंद झील का निर्माण करवाया तथा इस झील के उत्तरी किनारे पर नौ चौकी नामक स्थान पर 'राज प्रशस्ति' नामक शिलालेख लगवाया। संस्कृत भाषा में लिखित राजप्रशस्ति शिलालेख की रचना रणछोड़ भट्ट द्वारा की गई थी। यह प्रशस्ति 25 काले संगमरमर की शिलाओं पर खुदी हुई है। इसे संसार का सबसे बड़ा शिलालेख माना जाता है। 

राणा राज सिंह का निधन सन् 1680 ई. में हुआ। उनके पुत्र जयसिंह ने गद्दी संभाली।मुगल–मेवाड़ संधि निम्न शर्तों पर हुई—

1️⃣ राणा मंडल, पूर और बडनौर के परगने जज़िया के बदले मुगलों को देगा।

2️⃣ मुगल सेना मेवाड़ से हट जाएगी।

3️⃣ राणा के पूर्वजों की भूमि उसे लौटाई जाएगी।

4️⃣ जय सिंह को ‘राणा’ की उपाधि की औपचारिक मान्यता और पाँच हज़ार का मनसब दिया जाएगा।

इस संधि के बाद से लेकर जय सिंह की मृत्यु (1698 ई.) तक मेवाड़ में पूर्ण शांति रही। जयसिंह ने इस काल में आंतरिक सुधारों पर ध्यान दिया और ‘जयसमुद्र झील’ का निर्माण करवाया, जिसका क्षेत्रफल 23 वर्ग मील था और यह लंबे समय तक विश्व की सबसे बड़ी कृत्रिम झील रही।

उनके बाद अमर सिंह द्वितीय (1698–1710) गद्दी पर बैठे। उन्होंने जोधपुर और जयपुर के महाराजाओं के साथ गठबंधन किया ताकि मुगलों की साजिशों का सामना किया जा सके। इस गठबंधन में यह तय हुआ कि दोनों राजघरानों को उदयपुर परिवार से विवाह का अधिकार पुनः मिलेगा, पर राणा ने एक शर्त जोड़ी — “यदि उदयपुर की राजकुमारी से पुत्र होगा, तो वही उत्तराधिकारी होगा, चाहे अन्य रानियों के बड़े पुत्र क्यों न हों।”

यह शर्त बाद में तीनों राजघरानों के बीच मतभेद और युद्धों का कारण बनी, जिससे मराठों को राजस्थान पर चढ़ाई का अवसर मिला। अमर सिंह द्वितीय की मृत्यु 1710 ई. में हुई। 

संग्राम सिंह द्वितीय (1710–1734) के समय में राज्य ने समृद्धि पाई। उन्होंने सत्ता सँभालते ही मुगल अधिकारियों को निष्कासित किया और हिंदू मंदिरों पर बने मस्जिदों को ध्वस्त कराया। बाद में सम्राट से एक संधि हुई जो नाममात्र की अधीनता को स्वीकार करती थी लेकिन व्यवहारिक रूप से मेवाड़ के हित में थी। संग्राम सिंह द्वितीय का निधन 1734 ई. में हुआ, उस समय मुगल साम्राज्य क्षीण हो रहा था और मराठों का प्रभाव बढ़ रहा था।

उनके बाद जगत सिंह द्वितीय (1734 ई.) गद्दी पर बैठे। मराठों ने अब मध्य भारत में वर्चस्व स्थापित कर लिया था और मुहम्मद शाह को ‘चौथ’ कर देने पर मजबूर किया।पेशवा बाजीराव मेवाड़ आए, जहाँ उनका स्वागत हुआ और संधि के अनुसार मेवाड़ को प्रतिवर्ष 1,60,000 रुपये कर देना पड़ा। परंतु शीघ्र ही उदयपुर–जयपुर–जोधपुर गठबंधन की विवाह शर्त विवाद का कारण बनी। जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह के दो पुत्र हुए —

बड़े ईश्वरी सिंह (अन्य रानी से)

छोटे माधो सिंह (उदयपुर की राजकुमारी से)।

संधि की शर्त के अनुसार माधो सिंह उत्तराधिकारी होना चाहिए था, पर जयसिंह ने इस भूल को सुधारने हेतु ईश्वरी सिंह का विवाह सलूंबर के रावत की पुत्री से कर दिया ताकि उसे मेवाड़ का समर्थन मिले। जयसिंह की मृत्यु (1743 ई.) के बाद, ईश्वरी सिंह गद्दी पर बैठे, लेकिन राणा जगत सिंह ने माधो सिंह का समर्थन किया। युद्ध में हारने पर राणा ने मल्हारराव होलकर से मदद खरीदी, जिसने भारी धनराशि के बदले सहायता दी। ईश्वरी सिंह ने आत्महत्या कर ली और रांपुरा जिला (जो माधो सिंह को जागीर में मिला था) होलकर के अधीन चला गया। यह घटना मेवाड़ की क्षेत्रीय हानि की शुरुआत थी। अब मराठा साम्राज्य राजस्थान के विवादों का निर्णायक बन गया और लगातार धन वसूलने व गाँवों को लूटने लगा। राणा जगत सिंह के उत्तराधिकारी उनके पुत्र प्रताप सिंह द्वितीय (1751–1754) और पौत्र राज सिंह द्वितीय (1754–1761) थे। इस काल में मराठों ने सात बार मेवाड़ पर चढ़ाई की, जिससे राज्य कंगाली की स्थिति में पहुँच गया। राज सिंह के निष्संतान निधन पर उनके चाचा अरीसिंह द्वितीय (1761–1773) राजा बने। उनके क्रोधी स्वभाव और गलत नीतियों से राज्य में अस्थिरता फैल गई। मराठा हमले जारी रहे। 1764 ई. में भयंकर अकाल पड़ा, जहाँ आटा और इमली की कीमत बराबर हो गई — एक रुपया डेढ़ पाव के बराबर था। कुछ वर्षों बाद गृहयुद्ध छिड़ गया। असंतुष्ट सरदारों ने एक “रत्नसिंह” नामक दावेदार को (जो राणा राजसिंह का कथित पुत्र था) सिंहासन पर बैठाने का षड्यंत्र किया और सिंधिया को आमंत्रित किया। उज्जैन के निकट क्षिप्रा नदी के तट पर दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ  आरंभ में मेवाड़ी सेना को सफलता मिली, पर लूट में व्यस्त होकर वे बिखर गईं। सिंधिया की सेना को पुनः बल मिला और मेवाड़ी सेना की करारी हार हुई। सलूंबर के रावत, शाहपुरा और बनेरा के राजा युद्ध में मारे गए और राजराणा जालिम सिंह घायल हुए। सिंधिया ने राजधानी का घेराव कर लिया, जो छह महीने तक चला। अंततः मंत्री अमरचंद ने कुशलता से बातचीत कर 63 लाख रुपये के बदले संधि करवाई। इसमें से आधा रत्न-स्वर्ण-रजत में दिया गया और शेष के बदले जावद, जिरान, नीमच और मोरवन जिले सौंप दिए गए। 

दो वर्ष बाद (1771 ईस्वी में) गोडवाड़ का समृद्ध प्रदेश, जिसे जोधपुर नगर के निर्माण से पहले मेवाड़ के राणा ने मांडोर के परिहार सरदार से जीत लिया था और जिसे अस्थायी रूप से महाराजा बिजय सिंह (मारवाड़) को सौंपा गया था ताकि दावेदार रत्ना उस पर अधिकार न कर सके — राठौड़ों द्वारा उसे राणा को वापस न करने के कारण मेवाड़ के हाथ से निकल गया। सिंधिया की वापसी से रत्ना की सारी आशाएँ टूट गईं। बहुत से असंतुष्ट सरदार फिर से राणा के पक्ष में लौट आए, परंतु इस गृहयुद्ध के कारण उपरोक्त मूल्यवान क्षेत्र का नुकसान हुआ और राज्य की वित्तीय स्थिति इतनी बिगड़ गई कि 1818 में अंग्रेजों के साथ संधि होने तक वह कभी ठीक न हो सकी।

राणा अरी सिंह की 1773 ईस्वी में बूंदी के राव राजा अजीत सिंह द्वारा विश्वासघात से हत्या कर दी गई, जब वे साथ में शिकार पर निकले हुए थे। उनके बाद उनके बड़े पुत्र हमीर सिंह गद्दी पर बैठे।

हमीर सिंह के अल्प शासनकाल में मराठों की लूटखसोट और बढ़ गई तथा मेवाड़ को और भूमि से हाथ धोना पड़ा। सिंधिया ने राणा के अधिकारियों को उन जिलों से निकाल दिया जो उसे केवल अस्थायी रूप से सौंपे गए थे और उसने रतांगर और सिंगोली के परगनों पर कब्जा कर लिया। वहीं होल्कर ने इरनिया, भीचौरे, नदवाई और निंबाहेरा पर अधिकार कर लिया। अनुमान लगाया गया है कि 1778 ईस्वी तक, जब हमीर सिंह की मृत्यु हुई, मराठों ने मेवाड़ से लगभग 181 लाख रुपये नकद और 28 लाख रुपये वार्षिक आय वाले प्रदेश छीन लिए थे।

हमीर सिंह के बाद उनके भाई भीम सिंह (1778–1828 ईस्वी) ने शासन संभाला। उनके शासन का प्रारंभकाल सरदारों के बीच खूनी झगड़ों से भरा था, जिससे मेवाड़ मराठों के लिए आसान शिकार बन गया। सिंधिया, होल्कर, अमीर खाँ और पिंडारी लुटेरों की सेनाओं ने मेवाड़ को उजाड़ दिया, जबकि राजपूत सरदारों ने भी राज्य की भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया। नगर वीरान हो गए, ग्रामीण क्षेत्र उजड़ गए और राणा इतनी निर्धनता में पहुँच गए कि उन्हें कोटा के रीजेंट जालिम सिंह की सहायता से मात्र ₹1,000 प्रतिमाह भत्ता लेकर गुजर-बसर करनी पड़ी।

महाराणा भीम सिंह के शासनकाल में ही वह दुखद घटना घटी जिसे कर्नल टॉड ने अपनी पुस्तक “Annals and Antiquities of Rajasthan” में अत्यंत मार्मिक ढंग से वर्णित किया है — अर्थात राजकुमारी कृष्णा कुमारी की त्रासदी। इससे जयपुर व जोधपुर के मध्य विवाद उत्पन्न हो गया और अंततः 21 जुलाई 1810 को कृष्णा कुमारी को जहर दे दिया गया।





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