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अरस्तू

🧠 अरस्तू

यूनान के दार्शनिक 

अरस्तू का जन्म 384 ईसा पूर्व में मेसीडोनिया के स्टेजिरा/स्तातागीर (Stagira) नामक नगर में हुआ था।

अरस्तू के पिता निकोमाकस मेसीडोनिया (राजधानी–पेल्ला) के राजा तथा सिकन्दर के पितामह एमण्टस (Amyntas) के मित्र और चिकित्सक थे।

माता फैस्टिस गृहणी थी।

अन्त में प्लेटो के विद्या मन्दिर (Academy) के शान्त कुंजों में ही आकर आश्रय ग्रहण करता है।

प्लेटो की देख-रेख में उसने आठ या बीस वर्ष तक विद्याध्ययन किया।

अरस्तू यूनान की अमर गुरु-शिष्य परम्परा का तीसरा सोपान था। 

यूनान का दर्शन बीज की तरह सुकरात में आया, लता की भांति प्लेटो में फैला और पुष्प की भाँति अरस्तू में खिल गया। गुरु-शिष्यों की इतनी महान तीन पीढ़ियाँ विश्व इतिहास में बहुत ही कम दृष्टिगोचर होती हैं। 

सुकरात महान के आदर्शवादी तथा कवित्वमय शिष्य प्लेटो का यथार्थवादी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला शिष्य अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। मानव जीवन तथा प्रकृति विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो, जो उनके चिन्तन से अछूता बचा हो। उसकी इसी प्रतिभा के कारण कोई उसे 'बुद्धिमानों का गुरु' कहता है तो कोई 'सामाजिक विज्ञान में नवीन विषयों का जन्मदाता' कहता है। 

मैक्सी ने उसे प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक (First political scientist) की संज्ञा दी है। 

उसे तर्कशास्त्र का जनक भी कहा जाता है। 

फॉस्टर ने लिखा है-"मानव इतिहास में बौद्धिक उपलब्धियों की विशालता तथा उसके प्रभाव की गहनता की सीमा में सम्भवतः उसका कोई दूसरा समकक्ष नहीं।" 

प्लेटो अपने शिष्य की प्रतिभा से इतना प्रसन्न था कि वह उसे अकादमी विधा मंदिर की शरीर धारिणी बुद्धिमत्ता (Nous) कहा करता था।उसके अनुसार अकादमी के दो भाग थे-उसका धड़ विद्यार्थी थे और मस्तिष्क अरस्तू। 

अरस्तू को ग्रन्थ संग्रह करने का शौक था, अतः प्लेटो उसके घर को 'पाठक का घर/विद्यार्थी का घर' कहता था। 

अरस्तू ने कहा प्लेटो की मृत्यु के साथ ही पांडित्य का अंत हो जाएगा। 

दूसरी ओर प्लेटो का अपने इस शिष्य के संबंध में कथन था कि वह घोड़े या गदहे के उस बच्चे की तरह है, जो अपनी मां का दूध चूस लेने के बाद उसे लात मार देता है।

केटलिन के शब्दों में 'अरस्तू सामान्य बुद्धि तथा स्वर्णिम मध्यक का सर्वोच्च देवदूत है।'

केटलिन के शब्दों में "अरस्तू विद्या का सर्वश्रेष्ठ एवं प्रमुख विश्वकोशी था।"

कुछ जीवनी लेखकों ने कहा है कि अरस्तू ने आइसोक्रेट्स (Isocrates) विचारकों की प्रतिद्वन्द्विता में एक विद्यालय की स्थापना की थी जहां व्याख्यान देने की कला की शिक्षा दी जाती थी।  इस विद्यालय में हर्मियास (Hermias) नामक उसका एक धनी शिष्य भी था, जो बाद में एटारनॉस (Atarneus) के नगर राज्य का स्वेच्छाचारी शासक बन गया था। हर्मियास ने उस उच्च पद पर पहुंचने के बाद अरस्तू को अपने दरबार में आमंत्रित किया और उसकी पिछली सेवाओं या कृपाओं के बदले अपने गुरु के साथ अपनी बहन (या भतीजी) की 344 ई.पू. में शादी कर दी।

लगभग एक वर्ष पश्चात् ही मेसीडोनिया के राजा फिलिप ने अरस्तू को सिकन्दर की शिक्षा का कार्य सौंपने के लिए उसे पेल्ला के अपने दरवार में बुला लिया था।

जब अरस्तू शिक्षा देने आया था तब सिकन्दर तेरह वर्ष का उद्दण्ड युवक था, जो बहुत ही क्रोधी, हठीला और मदमस्त भी था। उसे ऐसे घोड़े पालने का शौक था जिन्हें वश में करना मनुष्यों के लिए कठिन हो।

प्लूटार्क (Plutark) का कहना है-"सिकन्दर का अरस्तू के प्रति उतना ही प्रेम और उतनी ही श्रद्धा थी जितनी कि अपने पिता के प्रति थी। उसका कहना था कि यदि उसने अपने पिता से जीवन पाया है तो गुरु ने उसे जीवन की कला दी है।"

सिकन्दर ने अपने एक पत्र में अरस्तू को लिखा था, "मैंने अपने को शक्ति और साम्राज्य बढ़ाने की कला की अपेक्षा इस ज्ञान में अधिक श्रेष्ठ बना लिया है कि अच्छाई क्या है।"

सिकन्दर ने राज-सिंहासन पर आसीन होने तथा विश्व को वश में करने की इच्छा से दो वर्ष बाद दर्शनशास्त्र को त्याग दिया।

अरस्तू ने 53वें वर्ष की आयु में अपने विद्यालय लिसीयम (Lyceum) की स्थापना की तो इतने अधिक छात्र इकट्ठे हो गये कि व्यवस्था बनाये रखने के लिए जटिल नियम बनाना आवश्यक हो गया। छात्रों ने स्वयं उन नियमों की रचना की थी और वे हर दसवें दिन अपने में से एक छात्र को विद्यालय की देखरेख के लिए निर्वाचित करते थे।

खेलकूद के मैदान के ही नाम पर उस विद्यालय का भी नाम 'लिसीयम' पड़ा था।

प्लेटो के विद्या मन्दिर (Academy) में सबसे अधिक ध्यान गणित तथा विचार एवं राजनीतिक दर्शनशास्त्र के अध्ययन पर दिया जाता था, जबकि अरस्तू के विद्यालय में जीव विज्ञान तथा प्राकृतिक विज्ञानों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था।

प्लिनी के कथन पर विश्वास करें तो यह मानना पड़ेगा कि सिकन्दर ने अपने शिकारियों, आखेट करने वालों, मालियों तथा मछुओं को आदेश दे रखा था कि वे अरस्तू को उसकी इच्छानुसार प्राणीशास्त्र संबंधी तथा वनस्पतिशास्त्र सम्बन्धी सामग्री देते रहें।

सिकन्दर ने अरस्तू को भौतिक तथा प्राणी विद्या संबंधी सामान खरीदने और अनुसन्धान करने के लिए 800 यूनानी गिन्नियाँ दी थीं (आधुनिक समय में उनका क्रय मूल्य चालीस लाख डालर होगा)।

अरस्तू के लिए 158 राजनीतिक विधानों की रूपरेखा वाले विधि संग्रह की रचना की।

अरस्तू के जीवन की अवसान वेला अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण एवं कष्टमय बीती। स्वतन्त्रता के भूखे यूनानवासी अरस्तू को भला-बुरा कहने लगे और जब सिकन्दर ने विरोधी नगर के बीचोंबीच इस दार्शनिक की प्रतिमा स्थापित कर दी तो उनकी कटुता और बढ़ गयी। प्लेटो की अकादमी के उत्तराधिकारी तथा कुछ जनसमूह जो डेमोस्थनीज की तीखी वाकपटुता से प्रभावित थे, षड्यन्त्र रचने लगे और अरस्तू को देश निकाला देने या मृत्युदण्ड देने की मांग का शोर मचाने लगे।

इसी दौरान एक दिन अचानक (323 ई. पू.) सिकन्दर की मृत्यु हो गयी। एथेन्सवासी देश प्रेम के आनंद से पागल हो गये। मेसेडोनियन दल का तख्ता उलट दिया गया और एथेन्स की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी गयी। 

यूरोमेडन नामक एक प्रमुख पुरोहित ने अरस्तू के विरुद्ध अभियोग पत्र रखा जिसमें उस पर आरोप थे कि वह प्रार्थना और बलि को व्यर्थ मानने की शिक्षा देता है। अरस्तू ने देखा कि उसका भाग्य अब उन न्यायाधीशों और जनसमूह के हाथों में है जो उनसे भी अधिक विरोधी हैं जिन्होंने सुकरात की हत्या की थी। अतः उसने बुद्धिमानी की और यह कहकर नगर छोड़कर चला गया कि मैं एथेन्सवासियों को दर्शन के विरुद्ध दूसरी बार पाप करने का अवसर देना नहीं चाहता। 

कैलसिस (यूबोइया टापू) आकर अरस्तू बीमार पड़ गया। 

डायगनिस लार्टियस का कहना है कि इस वृद्ध दार्शनिक ने एकदम निराश होकर विषपान द्वारा आत्महत्या कर ली थी।

एथेन्स छोड़ने के कुछ माह बाद (322 ई.पू.) कैलसिस में एकान्तवासी अरस्तू ने संसार त्याग दिया।


अरस्तू की रचनाएँ संक्षिप्त परिचय (Works of Aristotle: Brief Introduction):–


अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा का विलक्षण व्यक्ति था फॉस्टर के अनुसार, "अरस्तू की महानता उसके जीवन में नहीं, किन्तु उसकी रचनाओं में प्रदर्शित होती है।"

उसने तर्कशास्त्र, प्राणीशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, मनोविज्ञान, प्राकृतिक विज्ञान, अध्यात्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, भाषणकला, लेखनकला और काव्यकला पर अनेक ग्रन्थ लिखे। 

उसके समस्त ग्रन्थों की सही संख्या बता पाना सम्भव नहीं है। दियोगेनेस लायर्तिस ने अरस्तू के जीवन चरित्र के साथ जो सूची दी है, उसमें अरस्तू की रचनाओं की संख्या 400 बतलाई है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से यह समूचा ग्रन्थ संग्रह 3500 पृष्ठों के लिए 12 खण्डों में प्रकाशित हुआ है। वह अपने समय के यूनानी ज्ञान-विज्ञान का विश्वकोश माना जाता है। 

दांते के शब्दों में वह 'ज्ञानियों का गुरु' कहलाता है। 

दुर्भाग्यपूर्णवश अरस्तू की अनेक कृतियाँ काल के प्रवाह में लुप्त हो चुकी हैं और उपलब्ध कृतियों में भी रचना शैली की वह प्रौढ़ता, सुसम्बद्धता, रोचकता तथा प्रवाह दृष्टिगोचर नहीं होता जो प्लेटो की रचनाओं में है। 

विद्वानों की धारणा है कि ये ग्रन्थ सम्भवतः अरस्तू द्वारा अथवा उसके शिष्यों द्वारा लिखे गये उसके व्याख्यानों के नोट्स मात्र हैं। इन्हीं को बाद में सम्पादकों ने अपनी समझ के अनुसार विभिन्न ग्रन्थों में प्रस्तुत कर दिया है। अरस्तू ने इनका अन्तिम रूप में सम्पादन या संशोधन नहीं किया इसीलिए इनमें अनेक असंगतियाँ और त्रुटियां पायी जाती हैं।

विभिन्न विषयों पर उसके प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित हैं:-

(1) राजनीति पर:- The Politics, The Constitutions.

(2) साहित्य पर:- Eademus or Soul, Protepicus, Poetics तथा Rhetoric आदि।

(3) तर्कशास्त्र व दर्शन पर:- Physics, De Anima, The Prior Metaphysics, Categories, Interpretation, The Posterior Analytics तथा The Topics आदि।

(4) भौतिक विज्ञान पर:- Meteorology (चार भाग) तथा अन्य ग्रन्थ।

(5) शरीर विज्ञान पर:- Histories of Animals तथा दस अन्य ग्रन्थ।


The Politics:–

पॉलिटिक्स (Greatest Work of Aristotle: The Politics) अरस्तू की महानतम रचना है जिसे राजनीतिशास्त्र पर लिखी गई बहुमूल्य निधि माना जाता है। इसमें पहली बार राजनीति को एक वैज्ञानिक रूप दिया गया है।

'पॉलिटिक्स' के विषय में अनेक विरोधी भावनाएँ और विचार विद्यमान हैं। एक ओर जैलर और फॉस्टर जैसे विद्वान हैं तो दूसरी ओर विरोधी विचार प्रकट करने वाले टेलर तथा मैक्इल्वेन जैसे लेखक हैं। 

जैलर के अनुसार, "अरस्तू की पॉलिटिक्स प्राचीनकाल में हमें प्राप्त होने वाली सर्वाधिक मूल्यवान निधि है तथा राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में हमें प्राप्त होने वाला महानतम् योगदान है।" 

फॉस्टर का कहना है- "यदि यूनानी राजनीतिक दर्शन का सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधित्व करने वाला कोई ग्रन्थ हो सकता है तो वह यही है।" 

प्रो. बार्कर ने इसे राजनीति के क्षेत्र में 'सर्वश्रेष्ठ रचना' (Magnum opus) कहा है।' 

ब्राउले के शब्दों में "अपने विषय पर 'पॉलिटिक्स' सबसे अधिक प्रभावक और सबसे अधिक गम्भीर ग्रन्थ है जिसका अध्ययन सबसे पहले किया जाना चाहिए।"

इस मत के सर्वथा विपरीत विचार, ए. ई. टेलर का है। 

ए. ई. टेलर के अनुसार, "पॉलिटिक्स के अतिरिक्त अरस्तू का कोई दूसरा ग्रन्थ एक बहुमुखी विषय की विवेचना में इतना साधारण कोटि का नहीं रहा है तथा सत्य यह है कि सामाजिक विषयों में उसकी अभिरुचि तीक्ष्ण नहीं थी।" 

मैकइल्वेन के अनुसार, "यह (पॉलिटिक्स) यदि अत्यन्त महत्वपूर्ण भी नहीं है तो भी राजनीति दर्शन के शास्त्रीय ग्रन्थों में अत्यन्त हैरानी पैदा करने वाला ग्रन्थ तो है ही।"

'पॉलिटिक्स' की रचना के विषय में विद्वानों में विरोधी विचार पाये जाते हैं। इसके रचना काल और क्रम के सम्बन्ध में जायगार (Joegar) और आर्नीम (Arnim) आदि विद्वानों के दृष्टिकोणों में प्रतिकूल विचार पाये जाते हैं। 

जायगार के अनुसार पॉलिटिक्स की सातवीं तथा आठवीं पुस्तकों की रचना सबसे पहले हुई और इन पुस्तकों में अरस्तू पर प्लेटो के प्रभाव की स्पष्ट छाप नजर आती है। ऐसा लगता है कि इन दोनों पुस्तकों की रचना अरस्तू ने 347 ईसा पूर्व की होगी जब वह अकादमी त्यागकर अस्सुस (Assus) में रहले लगा था। 

इसके विपरीत आर्नीस के अभिमत में इन दो पुस्तकों की रचना अरस्तू ने अन्य सब पुस्तकों की रचना के बाद उस युग में की थी जब वह प्लेटो के प्रभाव से मुक्त हो चुका था, किन्तु इस विषय में प्रो. बार्कर का मत उपयुक्त जान पड़ता है। उनका यह कहना है कि इसकी रचना अरस्तू के एथेन्स में दूसरे निवासकाल में, आयु के अन्तिम 12 वर्षों में (335 ई.पू.) हुई है। यद्यपि यह अरस्तू की प्रौढ़तम आयु की रचना है, किन्तु उसकी अन्य रचनाओं के समान यह सम्भवतः उसके व्याख्यानों के नोट्स मात्र हैं जिन्हें भली-भाँति संशोधित एवं पूर्ण नहीं किया गया। 

पॉलिटिक्स के बारे में इस प्रकार उलझनपूर्ण धारणाओं का कारण यही है कि उसमें कहीं-कहीं तो किसी विषय का उल्लेख इस ढंग से किया गया है जैसे उसका प्रसंग पूर्व में ही हो चुका हो और कहीं-कहीं उन बातों का उल्लेख कर दिया गया है जिनका विवेचन आगे चलकर हुआ है। अर्थात् सारा ग्रन्थ अव्यवस्थित विषय परिवर्तन से भरा पड़ा है। जो 'पॉलिटिक्स' आज हमें उपलब्ध है वह एक अपूर्ण कृति लगती है। 

अरस्तू की 'पॉलिटिक्स' के अनुशीलन से यह एक एकीकृत अथवा सुगठित रचना नहीं मालूम पड़ती। इसे एक सम्पूर्ण ग्रन्थ की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती। अधिक से अधिक यह एक प्रकार से विभिन्न निबन्धों का संकलन है। 

डेविस के शब्दों में, "पॉलिटिक्स को युक्तियों की तथा सिद्धांतों की खान समझा जाना चाहिये न कि एक कलात्मक ढंग से रचा हुआ साहित्यिक ग्रन्थ।"

संक्षेप में, "पॉलिटिक्स' अरस्तू की ऐसी रचना है जिसमें अपूर्णता एवं अस्पष्टता इसलिए दिखाई देती है क्योंकि इसे अरस्तू ने एक साथ क्रमबद्ध रूप से नहीं लिखा था।

'पॉलिटिक्स' निम्नलिखित आठ भागों में विभक्त है-

  • पहला भाग:- इसमें राज्य की प्रकृति और दास प्रथा का वर्णन है। 
  • दूसरा भाग:–  इसमें प्लेटो के आदर्श राज्य की आलोचना की गई है।
  • तीसरा भाग:– इसमें संविधानों के विभिन्न स्वरूपों का विवेचन है।
  • चौथा भाग:– इसमें राजतन्त्र के अतिरिक्त अन्य सब प्रकार के संविधानों का विवेचन किया गया है। राजतंत्र का वर्णन तीसरे भाग में है।
  • पांचवां भाग:– इसमें क्रांतियाँ, उनके कारण और उनको दूर करने का वर्णन किया गया है।
  • छठा भाग:- इसमें उपरोक्त विषय को पूर्ण किया गया है।
  • सातवाँ भाग:- इसमें आदर्श राज्य का वर्णन है।
  • आठवाँ भाग:- इसमें आदर्श राज्य और आदर्श संविधान का विवेचन किया गया है।

'पॉलिटिक्स' में आदर्श की स्थापना तथा यथार्थ का विश्लेषण एक ही साथ कर अरस्तू ने एक नवीन राजनीति विज्ञान को जन्म दिया। उसने यह मत प्रतिपादित किया कि यथार्थ आदर्श से कितना ही दूर क्यों न हो उसकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। संक्षेप में, इसमें हमें अरस्तू के सामाजिक और राजनीतिक तत्वों, वास्तविक संविधानों, उनके सम्मिश्रण और तज्जनित परिणामों का एक अनुभवात्मक अध्ययन मिलता है।

नोट:– प्लेटो राजनीति और नैतिकता में कोई भेद नहीं समझता था जबकि अरस्तू ने इस ग्रन्थ में न केवल राजनीति को नैतिकता अथवा नीति से भिन्न बताया अपितु राजनीति को सर्वोत्तम विज्ञान (Master Science) कहा।

अरस्तू के चिन्तन पर प्रभाव (Influences on Aristotle's Philosophy):–


अरस्तू एक मौलिक विचारक है फिर भी उसका विचार दर्शन अपने युग की परिस्थितियों, अपने समकालीन व्यक्तियों और पैतृक पृष्ठभूमि से प्रभावित है। 

(1) प्लेटो का प्रभाव:- 

अरस्तू पर सर्वाधिक प्रभाव अपने गुरु प्लेटो का दिखलाई देता है। यद्यपि वह अपने गुरु के प्रति अन्धभक्त नहीं था तथापि वह प्लेटो की महान् दार्शनिक योग्यता के प्रभाव से ओतप्रोत अवश्य था। अरस्तू ने यद्यपि अपनी कृतियों में प्रत्येक मोड़ पर प्लेटो का खण्डन किया तथापि वह प्रत्येक पृष्ठ पर उसका ऋणी था। उसने अपने जीवन के लगभग 20 वर्ष प्लेटो के चरणों में अध्ययन करते हुए बिताए। जिन दिनों अरस्तू प्लेटो के सम्पर्क में आया उन दिनों प्लेटो 'लॉज' की रचना में लगा हुआ था। वस्तुतः अरस्तू के राजनीतिक विचारों के निर्माण में 'लॉज' में अभिव्यक्त प्लेटो के विचारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 

अरस्तू पर प्लेटो का प्रभाव निम्नलिखित हैः-

(i) राज्य का सद्गुण व्यक्ति के सद्‌गुण से अभिन्न है।

(ii) राज्य एक स्वाभाविक, नैतिक एवं आध्यात्मिक सत्ता है जो व्यक्ति को नैतिक रूप से बलवान बनाती है।

(iii) मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है।

(iv) राजनीतिक समस्या नैतिक समस्या है क्योंकि राज्य का उद्देश्य व्यक्ति का नैतिक विकास करना है।

(v) एक मिश्रित संविधान वाला राज्य अव्यावहारिक नहीं होता है।

(vi) अरस्तू ने अपने विचारों में अनिवार्य शिक्षा के सिद्धान्त को मान्यता दी है।

(vii) प्लेटो की तरह अरस्तू भी प्रजातन्त्र का विरोध करता है।

(ix) प्लेटो के समय अरस्तू व्यक्ति धर्म को सर्वोच्च मानता है।

(x) छोटे आकार का नगर राज्य ही जीवन के लिए अच्छा होता है।

(xi) राज्य के कार्यों को क्रियान्वित करना कुछ एक नागरिकों का एकाधिकार होना चाहिए।


अरस्तू पर सबसे अधिक प्रभाव प्लेटो और उसकी दूसरी महानतम् कृति 'लॉज' का दिखलाई देता है। ऐसा कहा जाता है कि जहाँ प्लेटो की 'लॉज' की चिन्तनधारा का अवसान होता है, वहां से अरस्तू के 'पॉलिटिक्स' की विचारगंगा का प्रवाह आरम्भ होता है। अरस्तू की 'पॉलिटिक्स' तथा 'लॉज' में निम्नलिखित सादृश्य प्लेटो के प्रभाव को सूचित करते हैं:-

(i) अरस्तू लॉज की भांति कानून की सर्वोच्च प्रभुसत्ता का सिद्धांत तथा शासकों को कानून का संरक्षक और सेवक मानता है।

(ii) अरस्तू राज्यहित में मनुष्य को देवता या पशु मानता है। यह 'लॉज' के एक सन्दर्भ का रूपान्तर है और ऐसा प्रतीत होता है कि इसे लिखते समय उसके सामने लॉज का उपर्युक्त उद्धरण था।

(iii) परिवार से राज्य के विकास का वर्णन करते हुए अरस्तू ने लॉज की तीसरी पुस्तक का अनुसरण किया है और होमर के ग्रन्थ से उद्धरण भी वही दिया है, जो प्लेटो ने दिया था।

(iv) वह प्लेटो की इस युक्ति को दोहराता है कि स्पार्टा की भाँति युद्ध अपने आप में एक लक्ष्य नहीं है, किन्तु इसका प्रयोजन शान्ति की स्थापना होना चाहिए।

(v) मिश्रित संविधान की कल्पना दोनों ग्रंथों में समान रूप से पायी जाती है और दोनों स्पार्टा को इसका उदाहरण बताते हैं।

(vi) अरस्तू ने कृषि की महत्ता, व्यापार और सूदखोरी के बारे में पॉलिटिक्स की पहली पुस्तक में जो बातें लिखी हैं वे 'लॉज' की आठवीं तथा ग्यारहवीं पुस्तक की व्यवस्थाओं से मिलती हैं।

(vii) 'पॉलिटिक्स' की पहली पुस्तक में वर्णित आदर्श राज्य की 'लॉज' के आदर्श राज्य से गहरी समानता है। इसके कुछ सादृश इस प्रकार है:-

  • आदर्श राज्य का समुद्र के पास होना।
  • नगर राज्य की इमारतों का वर्णन दोनों में एक जैसा है। 
  • अरस्तू की शिक्षा योजना 'लॉज' में प्रतिपादित योजना आदि।

इन समानताओं के आधार पर बार्कर ने यह परिणाम निकाला है कि यद्यपि अरस्तू ने 'पॉलिटिक्स' के आरम्भ में 'रिपब्लिक' तथा 'लॉज' के सिद्धांतों की आलोचना की है, किन्तु वह 'पॉलिटिक्स' के सामान्य सिद्धांतों के लिए लॉज का ऋणी है। यद्यपि 'पॉलिटिक्स' उसने अपने दार्शनिक सिद्धांतों के आधार पर लिखी है, किन्तु इसके अधिकांश विचार प्लेटो के हैं। "पालिटिक्स में पूर्णरूप से नई बात इतनी ही कम है, जिनकी मैग्नाकार्टा में है। इनमें कोई भी नया नहीं है, दोनों का उद्देश्य पूर्ववर्ती विकास को संहिताबद्ध (Codified) करना है।" 

मैक्सी के शब्दों में, "अरस्तू के अभाव में प्लेटो और उसका विद्यालय अपूर्ण रहता है और प्लेटो के अभाव में अरस्तू और उसका विद्यालय असम्भव ही था।"

प्रो. रास का विचार है- "प्लेटो की दार्शनिक और अरस्तू की वैज्ञानिक धारणा की विभिन्नता को छोड़कर अरस्तू की विचारधारा का कोई ऐसा पन्ना नहीं है, जिस पर प्लेटो का प्रभाव न पड़ा हो। जब वह प्लेटो के सिद्धान्त की आलोचना भी कर रहा होता है तब भी यह प्रभाव दिखाई देता है।"

(2) समकालीन परिस्थितियों का प्रभाव:– 

अन्य दार्शनिकों की भांति अरस्तू भी अपने युग का शिशु था। अतः उसकी रचनाओं पर उसके युग का पर्याप्त मात्रा में प्रभाव पड़ा है। अरस्तू के जीवन के 62 वर्ष (384 ई.पू. 322 ई.पू.) यूनानी इतिहास के अत्यन्त महत्वपूर्ण और हलचल वाले वर्ष थे। यूनानी नगर राज्यों के जीवन में वह ह्रास का काल था, स्वतंत्रता के अवसान तथा पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े जाने का काल था, यह वह काल था जिसमें स्पार्टा का पतन हुआ तथा यूनानी नगर राज्यों को मेसेडोनिया का संरक्षण स्वीकार करना पड़ा। यह वह युग था जिसमें नगर राज्यों का पतन प्रारम्भ हो चुका था। इन परिस्थितियों ने अरस्तू को यह सोचने के लिए प्रेरित किया कि यूनानी नगर राज्यों के पतन के क्या कारण थे। अरस्तू ने अपने अनुशीलन से यह मत प्रतिपादित किया कि एकता के अभाव के कारण ही यूनानियों को इस प्रकार के बुरे दिन देखने पड़े हैं।
समकालीन परिस्थितियों में राजनीतिक चिन्तन का आदर्श नगर राज्य ही थे। यद्यपि अरस्तू ने मेसेडोनिया के साम्राज्यवाद के दर्शन कर लिये थे, फिर भी वह यूनानियों के हृदयों में नगर राज्यों के प्रति पाये जाने वाले सहज झुकाव से अपने को नहीं बचा सका। अतः नगर राज्य को ही उसने अपने अनुशीलन का केन्द्र बिन्दु बनाया। तात्कालिक परिस्थितियों तथा दासों की मेहनत पर आधारित सभ्यता में पला अरस्तू दास प्रथा को प्राकृतिक घोषित करे तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं।
यूनानी सभ्यता का प्रभाव (Influence of Greek Civilization):–
(i) यूनानी जाति अन्य सभी जातियों में श्रेष्ठ व सभ्य है।
(ii) दास-प्रथा प्रकृति के अनुकूल है।
(iii) नगर-राज्य ही सर्वश्रेष्ठ सामाजिक व राजनीतिक संगठन है।
(iv) समाज व्यक्ति से पहले है तथा समाज हित में व्यक्ति का हित त्यागा जा सकता है।
(v) नागरिकता एक स्वतन्त्र मानव की सबसे बड़ी विशेषता है।
(vi) प्रकृति विकास की दिशा में चल रही है।

(3) पैतृक पृष्ठभूमि का प्रभाव:- 

अरस्तू के राजनीतिक दर्शन के निर्माण में उसकी पैतृक पृष्ठभूमि का भी गहरा प्रभाव रहा है। अरस्तू में जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण परिलक्षित होता है, वह एक बड़ी सीमा तक उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि की ही देन थी। इसी पृष्ठभूमि के कारण उसे अपने विभिन्न क्षेत्रों के वैज्ञानिक अध्ययन को आगे बढ़ाने के समुचित अवसर प्राप्त होते चले गये। 

बार्कर के अनुसार, "चूंकि चिकित्सक का पैसा अरस्तू के परिवार में अनेक पीढ़ियों (उसके पिता मैसीडोन के राजा एवं सिकन्दर के दादा अमितास द्वितीय के दरबार में राज-वैद्य थे) से चला आ रहा था, अतएव अपने चिन्तन में अरस्तू ने जीव विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति में जो दिलचस्पी दिखलाई उसका सम्भवतः उस पर अपने पारिवारिक वातावरण का ही प्रभाव था।"

(4) समकालीन व्यक्तियों का प्रभाव:–  

अरस्तू अपने समय के कतिपय मित्रों और प्रभावशाली व्यक्तियों से भी प्रभावित हुआ है। वह अपने समय के दो शासकों हेरमियास तथा सिकन्दर महान् एवं शासनाधिकारी एण्टीपीटर के निकट सम्पर्क में आया था। हेरमियास उसका अभिन्न मित्र था। उसकी जीवन लीला का जिस निर्मम ढंग से अन्त हुआ, उस दुःखद घटना का अरस्तू के विचारों तथा शिक्षाओं पर अमिट प्रभाव पड़ा है। 

सिकन्दर के एक अधिकारी एण्टीपीटर का अरस्तू पर इतना अधिक प्रभाव था कि बार्कर ने लिखा है, "एण्टीपीटर के विचारों तथा सिद्धांतों ने अरस्तू के विचारों को भी प्रभावित किया है।" 

जहां तक सिकन्दर के प्रभाव का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में विद्वानों में काफी मतान्तर है। कुछ विद्वान यह मानते हैं कि गुरु ने शिष्य को पूर्ण प्रभावित किया है। इसके विपरीत बट्रॅण्ड रसेल की मान्यता है कि गुरु का शिष्य पर सम्भवतः कोई प्रभाव न पड़ा। इसका कारण यह है कि जहाँ अरस्तू एक नगर राज्य का समर्थक था वहां सिकन्दर को एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने की धुन थी। इस सम्बन्ध में बार्कर ने लिखा है, जहाँ तक सिकन्दर का प्रश्न है, ऐसा प्रतीत होता है कि न तो वह (अरस्तू) सिकन्दर को कुछ अधिक दे सका और न ही उसे सिकन्दर से कुछ महत्वपूर्ण प्राप्त हो सका। दोनों में अल्पकाल तक कुछ मधुर सम्बन्ध अवश्य ही रहे थे, किन्तु जीवन के अन्तिम काल में उनमें कटुता भी बड़ी मात्रा में पैदा हो गयी थी।

 

अरस्तू राजनीति विज्ञान का जनक (Aristotle: The Father of Political Science):–


मैक्सी ने अरस्तू को प्रथम वैज्ञानिक विचारक कहा है। 

डनिंग के अनुसार, पश्चिमी जगत में राजनीति विज्ञान अरस्तू से ही प्रारम्भ हुआ। 

उसकी महानतम कृति 'पॉलिटिक्स' को राजनीति विज्ञान की अनुपम निधि माना जाता है। 

यद्यपि अरस्तू से पूर्व प्लेटो ने राजनीति पर विचार किया था, किन्तु उसका सम्पूर्ण ज्ञान कल्पनावादी था। प्लेटो हवाई योजनाएँ बनाने वाला और वप्निल उड़ान भरने वाला दार्शनिक था। जिसको वास्तविक तथ्यों से कोई मतलब नहीं था। प्लेटो की पद्धति निगमनात्मक है और वह केवल इस बात पर विचार करता है कि आदर्श राज्य कैसा होना चाहिए, यथार्थ राजनीतिक स्थिति से उसे कोई मतलब नहीं। उसकी दृष्टि में स्थूल रूप से दिखाई देने वाला वास्तविक जगत मिथ्या है और विचारों का काल्पनिक जगत वास्तविक है। ऐसी स्थिति में प्लेटो को हम अधिक से अधिक कवि, कलाकार या दार्शनिक कह सकते हैं, विषय पर क्रमबद्ध रूप से विचार करने वाला वैज्ञानिक नहीं। इसके अतिरिक्त प्लेटो के द्वारा राजनीति विज्ञान को स्वतंत्र विज्ञान का दर्जा भी प्रदान नहीं किया गया। वह राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का ही पुच्छल्ला (अंग) मानता है। 

राजनीति विज्ञान को एक स्वतंत्र विज्ञान की गरिमा प्रदान करने का कार्य अरस्तु के द्वारा ही किया गया। उसने नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में अन्तर किया। उसने राजनीतिशास्त्र को उच्चकोटि का शास्त्र माना क्योंकि यह राज्य जैसी सर्वोच्च संस्था का अध्ययन करता है। अरस्तू को निम्नलिखित कारणों के आधार पर राजनीति विज्ञान का जनक अथवा प्रथम राजनीतिक वैज्ञानिक कहा जा सकता है:–

1. आगमनात्मक विधि का अनुसरण:-

अधिकतर विद्वानों ने अरस्तू को राजनीतिशास्त्र के क्षेत्र में आगमनात्मक विधि के प्रणेता के रूप में स्वीकार किया है। इस विधि की विशेषता यह है कि इसमें विचारक जो कुछ देखता है या जिन ऐतिहासिक तथ्यों की खोज करता है उनका निष्पक्ष रूप से बिना अपनी किसी पूर्व धारणा के अध्ययन करता है और इस अध्ययन के फलस्वरूप जो कुछ भी निष्कर्ष निकलता है उसमें वैज्ञानिकता का पुट होता है। इस दृष्टि से अरस्तू ने अपने समय में प्रचलित 158 संविधानों का अध्ययन किया और उस अध्ययन के सन्दर्भ में निकले निष्कर्षों के आधार पर ही राज्य के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया।

2. राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र से पृथक करना:- 

प्लेटो ने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र का एक अंग माना है। उसने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र में ही समाहित कर दिया जिससे राजनीतिशास्त्र का अपना स्वतंत्र और पृथक स्थान नहीं रहा। इसके विपरीत, अरस्तू वह प्रथम विचारक है, जिसने राजनीतिशास्त्र को नीतिशास्त्र से पृथक कर उसे स्वतंत्र स्थान प्रदान किया। उसने नीतिशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में अन्तर किया है। अरस्तू के अनुसार नीतिशास्त्र का सम्बन्ध उद्देश्यों (ends) से है, जबकि राजनीतिशास्त्र का सम्बन्ध उन साधनों (means) से है जिनके द्वारा उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

3. यथार्थवादी विचारक:– 

अरस्तू प्रथम विचारक है जिसने राजनीति पर यथार्थवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण से विचार किया। उसने सदैव ही अतिवादिता से बचते हुए मध्यममार्ग का अनुसरण किया। केटलिन के शब्दों में, "क्फ्यूशियस के बाद अरस्तू सामान्य ज्ञान और मध्यम माग्र का सबसे बड़ा प्रतिपादक है। व्यावहारिक विचारक होने के कारण अरस्तू ने मध्य मार्ग के अनुसरण पर सबसे अधिक जोर दिया। वह यह मानता था कि विकास के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध असन्तुलन है, चाहे वह राजनीति असन्तुलन हो अथवा सामाजिक और आर्थिक असन्तुलन। यह असन्तुलन 'अतियों' (Extermes) के कारण पैदा होता है। साम्यवाद, निरंकुशता, आंगिक समानता आदि सभी को वह अति समझता था। इसलिए वह इनके बीच का मार्ग अपनाने का समर्थन करता था। पालिटी का सिद्धांत एक मध्यम मार्ग है जिसके अनुसरण द्वारा अरस्तु ने राजनीतिक और आर्थिक असन्तुलन को सदैव के लिए दूर करने का प्रयत्न किया। इस प्रयत्न को एक वैज्ञानिक उपचार कहा जा सकता है।

4. राज्य के पूर्ण सिद्धांत का क्रमबद्ध निरूपण:–  

अरस्तू ही वह पहला विचारक है जिसने राज्य का पूर्ण सैद्धान्तिक वर्णन किया है। राज्य के जन्म और उसके विकास से लेकर उसके स्वरूप, संविधान की रचना, सरकार के निर्माण, नागरिकता की व्याख्या, कानून की सर्वोच्चता और क्रान्ति आदि अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर उसने विस्तार से प्रकाश डाला है। ये सभी आधुनिक राजनीतिशास्त्रियों के चिन्तन के विषय हैं और इन विषयों पर इतना क्रमबद्ध विवेचन प्लेटो के दर्शन में भी नहीं मिलता है। 

बार्कर के शब्दों में, "अरस्तू के विचार प्रायः आधुनिकतम हैं, भले ही अरस्तू का राज्य केवल एक नगर राज्य ही रहा है।"

अरस्तू ही वह पहला विचारक था जिसने यह प्रतिपादित किया कि "मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है।" अरस्तू का यह कथन आज भी राजनीतिशास्त्र की अमूल्य धरोहर है।

5. संविधानों का वैज्ञानिक वर्गीकरण:- 

बार्कर ने अरस्तू की महान कृति 'पॉलिटिक्स' के अनुवाद में लिखा है, "अगर कोई यह पूछे कि अरस्तू की 'पॉलिटिक्स' ने सामान्य यूरोपीय विचारधारा को उत्तराधिकार के रूप में क्या दिया तो इसका उत्तर एक ही शब्द में दिया जा सकता है- 'संविधानशास्त्र'।" 

वास्तव में संविधान के बारे में जितना विस्तृत अध्ययन हमें अरस्तू की 'पॉलिटिक्स' में मिलता है उतना अन्यत्र नहीं और उस समय जबकि दुनिया में राजनीतिक विचारधाराओं का उदय हो रहा था, संविधान पर व्यक्त अरस्तू के विचार कल के विचारों जैसे मालूम होते हैं। 

अरस्तू को संविधान और संविधानवाद का जनक कहा जाता है। संविधानों का वर्गीकरण उसे प्लेटो से उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ पर उसने इस विषय पर अपने 'लिसियम' (Lyceum) में विस्तृत अध्ययन किया और इस प्रकार से प्लेटो के सैद्धान्तिक विवेचन पर अपनी अनुसंधानिक पुष्टि कर दी। 

संविधानों और राज्यों का वर्गीकरण इसीलिए मूल रूप में अरस्तू के नाम के साथ जोड़ा जाता है। संविधानों का अध्ययन आधुनिक राजनीति विज्ञान का प्रमुख विषय है और समूचा राजनीतिशास्त्र इसके लिए अरस्तू का ऋणी है।

6. नागरिकता की व्याख्या:- 

अरस्तू द्वारा नागरिकता की जो व्याख्या की गई है वह राजनीतिशास्त्र के लिए बहुत सहायक और आधुनिक नागरिकता की परिभाषा को निर्धारित करने में मार्गदर्शक सिद्ध हुई है। नागरिकता संबंधी विषय के अध्ययन के लिए आगे चलकर विद्वानों ने अरस्तू के मूल विचारों को ही आधार बनाया। नागरिकता का विचार अरस्तू की एक मौलिक देन है जिसके लिए राजनीतिशास्त्र उसका सदा ऋणी रहेगा।

7. कानून की सर्वोच्चता का प्रतिपादन:- 

अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता के बारे में एक सम्यक् विचार प्रस्तुत किया है। अरस्तू सर्वाधिक बुद्धिसम्पन्न व्यक्तियों के विवेक के स्थान पर परम्परागत नियमों और कानूनों की श्रेष्ठता में विश्वास करता है जबकि प्लेटो अतिमानव के शासन में विश्वास करता है। 

प्लेटो एक ऐसे अतिमानव (Superman) की खोज करना चाहता है जो आदर्श राज्य का निर्माण कर सके, अरस्तू एक ऐसे अतिविज्ञान (Super Science) का अन्वेषण करना चाहता है, जो राज्य का अच्छे से अच्छा बना सके। प्लेटो अपने दार्शनिक राजा के द्वारा आदर्श राज्य का निर्माण करना चाहता है, परन्तु अरस्तू एक ऐसे शास्त्र की रचना करना चाहता है, जिसके निर्धारित नियमों का अनुसरण कर आदर्श राज्य की सृष्टि सम्भव हो सके। 

संक्षेप में, अरस्तू का विश्वास कानून के शासन में है। कानून की सर्वोच्चता तथा संवैधानिक शासन की वांछनीयता में विश्वास उसकी ऐसी धारणाएँ हैं जिनके आधार पर उसे 'संविधानवाद का पिता' (Father of Constitutionalism) कहा जाता है।

अरस्तू ने कानून की सर्वोच्चता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है उसमें वैधानिक सम्प्रभुता के बीज निहित हैं। आगे चलकर ग्रोशियस, बेन्थम, हॉब्स, ऑस्टिन और लास्की ने अरस्तू की व्याख्या के आधार पर ही वैधानिक सम्प्रभुता की अवधारणा का प्रतिपादन किया। सम्प्रभुता के बारे में आधुनिक राजनीतिशास्त्र बहुत कुछ सीमा तक अरस्तू का ऋणी है।

8. सरकार के अंगों का निर्धारण:– 

अरस्तू ने सरकार के निम्न तीन अंगों का निरूपण किया है:-

  1. नीति निर्धारक
  2. प्रशासकीय  
  3. न्यायिक 

ये शासकीय अंग वर्तमान समय के व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के समान ही हैं। अरस्तू ने इन विभिन्न शासकीय अंगों के संगठन, कार्यक्षेत्र और शक्तियों के बारे में विस्तार से विचार किया है। अरस्तू की यह खोज आगे चलकर शक्ति पृथक्करण सिद्धांत तथा नियन्त्रण और सन्तुलन के सिद्धांत की रूपरेखा बनी

9. राजनीति पर भौगोलिक एवं आर्थिक प्रभावों का अध्ययन:- 

अरस्तू ने राजनीति पर पड़ने वाले भौगोलिक और आर्थिक प्रभावों को बहुत महत्व दिया है। उसने इन मूलभूत तथ्यों का प्रतिपादन किया कि सम्पत्ति का लक्ष्य और वितरण शासन व्यवस्था के रूप को निश्चित करने में निर्णयकारी तत्व होता है, राज्य की समस्याओं का एक बहुत बड़ा कारण अत्यधिक धनी एवं निर्धनों के बीच चलने वाला संघर्ष है; व्यक्तियों का व्यवसाय उनकी राजनीतिक योग्यता और प्रवृत्ति को प्रभावित करता है, यदि सम्पत्ति पर स्वामित्व व्यक्तिगत रहे, लेकिन उसका उपयोग सार्वजनिक हो तो राज्य की समस्याएँ सरलता से हल हो सकती हैं। राज्य की भौगोलिक स्थिति की चर्चा करते हुए अरस्तू कहता है कि राज्य सागर तट के पास होना चाहिए ताकि विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध रखे जा सकें।

संक्षेप में, अरस्तू पहला राजनीतिक वैज्ञानिक है। उसने राजनीति को एक पूर्ण विज्ञान का सम्मान प्रदान किया। वह प्लेटो की भांति कल्पनावादी और आदर्शवादी नहीं था वरन् एक पूर्णतः व्यावहारिक एवं यथार्थवादी दार्शनिक था जिसने राजनीति को नीतिशास्त्र से अलग करके उसे एक स्वतंत्र विज्ञान का रूप प्रदान किया।






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