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अरस्तू की मानवीय प्रकृति एवं राज्य की अवधारणा (Aristotle's Conception of Human Nature and State)

👨‍👩‍👦🗺️  अरस्तू की मानवीय प्रकृति एवं राज्य की अवधारणा (Aristotle's Conception of Human Nature and State) अरस्तू अपने गुरु प्लेटो की भांति सोफिस्ट वर्ग के इस विचार का खण्डन करता है कि राज्य की उत्पत्ति समझौते से हुई है और उसका अपने नागरिकों की शक्ति पर कोई वास्तविक अधिकार नहीं है।  अरस्तू  के अनुसार  व्यक्ति अपनी प्रकृति से ही एक राजनीतिक प्राणी है और राज्य व्यक्ति की इस प्रवृत्ति का ही परिणाम है । उसका मत था कि  राज्य का जन्म विकास के कारण हुआ है , वह एक स्वाभाविक संस्था है, उसके उद्देश्य और कार्य नैतिक हैं, वह सब संस्थाओं में श्रेष्ठ और उच्च है। अरस्तू के अनुसार राज्य की उत्पत्ति जीवन की आवश्यकताओं से होती है, परन्तु उसका  अस्तित्व सजीवन की सिद्धि के लिए बना रहता है।  अतः यदि समाज के आरम्भिक रूप प्राकृतिक हैं, तो राज्य की भी वही स्थिति है, क्योंकि वह उनका चरम लक्ष्य है और किसी वस्तु की प्रकृति उसका चरम लक्ष्य होती है।  अरस्तू  के शब्दों में,  "इसलिए यह जाहिर है कि राज्य प्रकृति की रचना है और मनुष्य प्रकृति से राजनीतिक प्राणी है, और...

अरस्तू का राज्य के विकास का स्वरूप (Nature of the State Evolution)

🗺️  राज्य के विकास का स्वरूप (Nature of the State Evolution) अरस्तू के अनुसार राज्य एक जीवधारी के समान है, अतः जिस प्रकार एक सावयवी जीवधारी का विकास होता है उसी प्रकार राज्य का भी विकास होता है। अरस्तू के विचार को मानव शरीर के उदाहरण से समझाया जा सकता है। मानव शरीर में हाथ, पैर, नाक, कान आदि अनेक अंग होते हैं, इन अंगों को अलग-अलग कार्य करने पड़ते हैं और इन्हें करने के लिए वे शरीर पर निर्भर रहते हैं। यदि शरीर का कोई अंग अपना कार्य करना बन्द कर देता है या उसे ठीक प्रकार से नहीं करता है तो शरीर निर्बल हो जाता है। जो बात शरीर के बारे में कही गयी है, वही राज्य के बारे में भी कही जा सकती है। जिस प्रकार शरीर का विकास स्वाभाविक ढंग से होता है, उसी प्रकार राज्य का भी हुआ है। शरीर के समान राज्य भी अनेक अंगों से मिलकर बना है। ये अंग हैं-व्यक्ति और उनकी संस्थाएँ, परिवार, ग्राम आदि। जिस प्रकार शरीर के सब अंगों को अपने-अपने निर्धारित कार्य करने पड़ते हैं, उसी प्रकार राज्य के सब अंगों को भी अपने निर्धारित कार्य करने आवश्यक हैं। इस प्रकार  राज्य के विकास का स्वरूप सावयवी (Organic) या जैविक ह...

अरस्तू का दासता का सिद्धान्त (Theory of Slavery)

  दासता का सिद्धान्त (Theory of Slavery):– अरस्तू के अनुसार दास-प्रथा नगर-राज्यों के सम्पूर्ण विकास के अति आवश्यक है।  यूनानी जगत् में यह प्रथा होमर के समय से ही प्रचलित थी। ग्रीक सभ्यता के विकास में दासों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। दास को तत्कालीन यूनानी समाज का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। दास की तत्कालीन यूनानी समाज का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता था जो कुलीनवर्ग के लिए जी-तोड़ परिश्रम करता था। इस वर्ग में दरिद्र व्यक्ति या युद्ध बन्दी सैनिक शामिल होते थे। दासों की विशाल सेना को राष्ट्रीय सम्पत्ति माना जाता था। यूनान में यह प्रथा रोमन साम्राज्य की तरह अमानवीय नहीं थी, एक सामाजिक बुराई अवश्य थी। इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध सोफिस्ट विद्वानों ने सर्वप्रथम यूनान में आवाज उठाई। सोफिस्टों ने कहा कि "मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है।" (Man is born free)। सभी मानव समान होते हैं और इसलिए समाज से दास प्रथा का बहिष्कार किया जाना चाहिए। लेकिन  अरस्तू जैसे विद्वानों ने सोफिसट विचारकों का विरोध करते हुए इसे ग्रीक सभ्यता की उन्नति के लिए अति आवश्यक बताया।  अरस्तू ने यह अनुभव किया कि ...

अरस्तू का नागरिकता का सिद्धान्त (Theory of Citizenship)

👨‍🎤  अरस्तू का नागरिकता का सिद्धान्त (Theory of Citizenship) अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचार उसके ग्रन्थ ' पॉलिटिक्स' (Politics) की तीसरी पुस्तक में  वर्णित हैं। उसके अनुसार राज्य (Polis) नागरिकों (Polita) का एक समुदाय (Kainonia) है। वह कहता है कि राज्य स्वतन्त्र मनुष्यों का एक समुदाय है। अतएव राज्य को समझने के लिए नागरिकता की व्याख्या करना आवश्यक हो जाता है।  इसकी व्याख्या से प्रश्न उठता है कि नागरिक कौन है तथा नागरिकता किसे कहते हैं ? अपने इन प्रश्नों का उत्तर अरस्तू ने  विश्लेषणात्मक विधि का प्रयोग  करके दिया है। अरस्तू ने नागरिकता की परिभाषा नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर दी है। वह स्पष्ट करता है कि नागरिक कौन नहीं है ? इस बारे में उसने कुछ तर्क दिए हैं। 1. नागरिक कौन नहीं है ? (Who is not a Citizen ?):– अरस्तू ने निम्नलिखित व्यक्तियों को नागरिक नहीं माना है :- राज्य में निवास करने मात्र से ही नागरिकता नहीं मिलती।  स्त्री, दास और विदेशी नागरिक नहीं  हैं। अल्पायु के कारण  बच्चे तथा नागरिकता के कर्त्तव्य से मुक्त वृद्ध नागरिक नहीं  हो सकते।...

अरस्तू का क्रांति संबंधी सिद्धांत (Aristotle's Theory of Revolution)

🚨  अरस्तू का क्रांति संबंधी सिद्धांत (Aristotle's Theory of Revolution) अरस्तू ने  पॉलिटिक्स की पांचवीं पुस्तक में  एक अत्यन्त अनुभवी एवं योग्य चिकित्सक की भांति अपने प्रौढ़ राजनीतिक विवेक की सहायता से यूनानियों के राजनीतिक जीवन की इस रुग्णता का विश्लेषण किया है तथा इनका प्रतिकार करने के महत्वपूर्ण उपाय सुझाए हैं। इसमे उसने अपनी परिपक्व राजनीतिक बुद्धिमत्ता तथा यूनानी इतिहास के गम्भीर तथा विशद् ज्ञान का सुन्दर परिचय दिया है, इतिहास के बीसियों शिक्षाप्रद तथा मनोरंजक उदाहरणों का उल्लेख किया है।  डनिंग के अनुसार अपने इस चिन्तन के लिए उसने बड़ी मात्रा में ऐतिहासिक तथ्यों तथा वैज्ञानिक विश्लेषण को आधार बनाया है एवं समुचित चिन्तन के उपरान्त अनेक उपयोगी सुझाव दिए हैं। क्रान्ति संबंधी अपने समग्र चिन्तन में अरस्तू एक वैज्ञानिक, विश्लेषणकर्ता अधिक रहा है और राजनीतिक अथवा सामाजिक सुधारक कम....एक तटस्थ राजनीतिक चिकित्सक के रूप में उसने राजनीतिक रुग्णता के कारणों को खोजने एवं उनके हर सम्भव उपचार ढूंढ निकालने का प्रयत्न किया है। रोगी के अच्छे अथवा बुरे होने से उसका कोई मतलब नहीं ...