🗺 ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)
2017 में मोरक्को में पाए गए अवशेषों को मानव (Homo sapiens) के रूप में पहचाना गया, जो विश्व इतिहास की समझ में एक महत्वपूर्ण क्षण था। इस साक्ष्य से पता चलता है कि मनुष्य अफ्रीकी महाद्वीप में 3 लाख साल से भी अधिक पहले अस्तित्व में थे। आमतौर पर यह माना जाता था कि पहले मानव 'गार्डन ऑफ ईडन(Grden of Eden)' जैसी स्थिति में लगभग 2 लाख साल पहले विकसित हुए थे। इन शुरुआती मानव समाजों के बारे में बहुत कुछ जानना कठिन है लेकिन पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि ये समाज आकार और संगठन की दृष्टि से बहुत छोटे और सरल थे। यह समझ पाना मुश्किल है कि ऐसे छोटे साधारण और अलग-थलग समाज जो पुरातात्विक रूप से निएंडरथल(Neanderthals) से अलग करना कठिन हैं। इक्कीसवीं सदी की अत्यधिक जुड़े हुए और जनसंख्या में वृद्धि वाले वैश्विक समाज में कैसे परिवर्तित हो गए।
लिखित विश्व इतिहास की शुरुआत अक्सर प्राचीन सभ्यताओं की स्थापना से मानी जाती है, जिसने पूर्व समय के शिकारी-संग्रहकर्ता(hunter-gatherer) समुदायों का स्थान लिया।
इन प्रारंभिक सभ्यताओं की दो मुख्य विशेषताएं थीं:-
1. कृषि, जिसने स्थायी निवास और शहरी जीवन के उद्भव को संभव बनाया।
2. लिपि का विकास, जो लगभग 3000 ईसा पूर्व में हुआ। (प्रारंभिक रूपों में मेसोपोटामियन क्यूनिफॉर्म और मिस्र की चित्रलिपियां शामिल थीं)।
मेसोपोटामिया जो आधुनिक इराक के क्षेत्र में टिगरिस और यूफ्रेट्स नदियों के बीच स्थित था। मेसोपोटामिया को अक्सर 'सभ्यता का पालना' कहा जाता है, जिसने तीन प्रमुख सभ्यताओं सुमेरियन, बाबिलोनियन और असीरियन(Sumerian, Babylonian and Assyrian) को जन्म दिया। लेकिन अन्य सभ्यताएँ लगभग हर क्षेत्र में उभरीं।
प्राचीन मिस्र की सभ्यता जो नील नदी के किनारे विकसित हुई थी लगभग साढ़े तीन हजार वर्षों तक बनी रही। दक्षिण एशिया(प्राचीन भारत) में सबसे प्रारंभिक सभ्यता सिंधु नदी की घाटी में विकसित हुई, जो अब पाकिस्तान में है, और 2600 से 1900 ईसा पूर्व के बीच फली-फूली। प्राचीन भारत, जो सिंधु से गंगा के मैदानों तक फैला था और आधुनिक अफगानिस्तान से लेकर बांग्लादेश तक विस्तृत था, लगभग 500 ईसा पूर्व में शुरू हुआ। इसी समय शास्त्रीय हिंदू संस्कृति का 'स्वर्ण युग'(golden age of classical Hindu culture) आरंभ हुआ, जो संस्कृत साहित्य में झलकता है।
जिस अवधि को आमतौर पर 'शास्त्रीय प्राचीनता(classical antiquity)' के रूप में जाना जाता है। यह लगभग 1000 ईसा पूर्व से शुरू होती है। इस दौरान भूमध्य सागर क्षेत्र में विभिन्न सभ्यताओं का उदय हुआ। इट्रस्कन संस्कृति(Etruscan culture) के विकास और फिनीशियाई समुद्री व्यापार संस्कृति(Phoenician maritime trading culture ) के विस्तार के साथ शुरुआत हुई। फिनीशियाई समुद्री व्यापार संस्कृति प्राचीन फिनीशिया (आधुनिक लेबनान, सीरिया और इज़राइल के कुछ हिस्सों) की एक विशिष्ट विशेषता थी। फिनीशियाई लोग कुशल नाविक और व्यापारी थे जिन्होंने भूमध्य सागर के तटों पर कई व्यापारिक केंद्र स्थापित किए। वे समुद्री व्यापार के माध्यम से मूल्यवान वस्तुएँ जैसे बैंगनी रंग (टायरियन पर्पल), कांच, लकड़ी, और धातुएँ अन्य सभ्यताओं तक पहुँचाते थे।
उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक अक्षरमाला का विकास था, जो बाद में ग्रीक और लैटिन लिपियों की नींव बनी। फिनीशियाई संस्कृति ने व्यापार, संचार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के माध्यम से प्राचीन विश्व पर गहरा प्रभाव डाला।
सबसे महत्वपूर्ण विकास प्राचीन ग्रीस और प्राचीन रोम का उदय था। प्राचीन ग्रीस को अक्सर पश्चिमी सभ्यता की आधारभूत संस्कृति माना जाता है।
प्राचीन रोम एक विशाल साम्राज्य के रूप में विकसित हुआ जो पूर्वी भूमध्यसागर से लेकर उत्तरी अफ्रीका और यूरोप के अधिकांश हिस्सों तक फैला हुआ था।
राजनीति और इतिहास एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं। सरल शब्दों में, राजनीति वर्तमान का इतिहास है, जबकि इतिहास अतीत की राजनीति है। इसलिए, इतिहास की समझ राजनीति के छात्रों के लिए दो लाभ प्रदान करती है।
पाँचवीं शताब्दी के दौरान शास्त्रीय विश्व(classical world) धीरे-धीरे संकट में गिर गया जिसका कारण घुड़सवार घुमंतू जनजातियों(mounted nomadic peoples) द्वारा इन स्थापित प्राचीन सभ्यताओं के बड़े अर्धचंद्राकार क्षेत्र पर आक्रमण था। इससे 'डार्क एज(Dark Ages)' की शुरुआत हुई। यूरेशिया की सभी स्थापित सभ्यताएँ इससे प्रभावित हुईं। केवल चीन ने इन आक्रमणकारियों का सफलतापूर्वक सामना किया लेकिन यहाँ भी उनकी उपस्थिति ने राजनीतिक विखंडन(political fragmentation) की स्थिति उत्पन्न कर दी।
चीन की सभ्यता की शुरुआत शांग वंश (1600 ईसा पूर्व) की स्थापना से होती है, जो कांस्य युग के उद्भव के समानांतर है। 403-221 ईसा पूर्व के युद्धरत राज्यों की अवधि के बाद, चीन को अंततः चिन वंश के तहत एकीकृत किया गया, जिसका नाम 'चीन' शब्द का मूल है।
यूरोप उस समय रोमन साम्राज्य के रूप में सीमित रूप से परिभाषित था। यूरोप में गैर-यूरोपीय आक्रमणकारियों और बसने वालों को असभ्य(barbarians) के रूप में वर्णित किया गया। इनमें जर्मनिक और स्लाविक(Germanic and Slavic) जनजातियाँ शामिल थीं जिनके वंशज आज 'सफेद' और 'यूरोपीय'(white and Eropean )माने जाते हैं। पाँचवीं और छठी शताब्दियों में इन आक्रमणों की लहर आई और नौवीं व दसवीं शताब्दियों में वाइकिंग्स, मैगयार्स और सारासेन्स के आक्रमणों ने इसे और बढ़ाया।
इन घुमंतू जनजातियों में सबसे प्रभावशाली मंगोल थे जिन्होंने 1206 से 1405 के बीच एक अभूतपूर्व साम्राज्य बनाया। मंगोल साम्राज्य पूर्वी जर्मनी की सीमाओं से लेकर आर्कटिक महासागर, तुर्की और फारस की खाड़ी तक फैला था। इसका विश्व इतिहास पर गहरा प्रभाव पड़ा। एशिया और यूरोप के बड़े हिस्सों की राजनीतिक व्यवस्था बदल गई।
पूरी की पूरी जनजातियाँ विस्थापित और बिखरीं जिससे कई क्षेत्रों का जातीय स्वरूप स्थायी रूप से बदल गया (विशेषकर तुर्की जनजातियों के पश्चिमी एशिया में फैलाव के कारण)। यूरोप को एशिया और सुदूर पूर्व तक फिर से पहुँचने का रास्ता मिला।
नौकायन युग का उदय(THE DAWN OF THE AGE OF SAIL)
इन महान सभ्यताओं के ऐतिहासिक विकास ने अफ्रीका, यूरोप और एशिया के लोगों को आपसी संपर्क, व्यापार, और सांस्कृतिक विरासत साझा करने के महत्वपूर्ण अवसर दिए। कुछ इतिहासकार इसे 'अफ्रो-यूरेशिया/Afro urasia' (Adelman et al. 2021) के एकल क्षेत्र के रूप में संदर्भित करते हैं। लेकिन पंद्रहवीं सदी के अंत और सोलहवीं सदी के दौरान नए संबंध विकसित हुए जो बड़ी समुद्र योग्य जहाजों की तकनीकी खोज का प्रत्यक्ष परिणाम थे। ये जहाज पहले की तुलना में कहीं अधिक दूरी तक सामान और लोगों को ले जा सकते थे जिससे एक ऐसा 'नौकायन युग' शुरू हुआ जो उन्नीसवीं सदी तक चला।
चौदहवीं सदी की 'ब्लैक डेथ' या 'प्लेग'(Black Death or Plague) महामारी जिसने अनुमानित 10 करोड़ से अधिक लोगों की जान ले ली थी। इस तबाही से एशिया और यूरोप के समाजों के लिए इस समुद्री युग का उदय वैश्विक व्यापार और संपर्क को पुनर्जीवित और तेज करने वाला साबित हुआ।
इस अवधि की सबसे प्रसिद्ध 'खोज यात्राओं(voyages of discovery)' में से एक इतालवी अन्वेषक क्रिस्टोफर कोलंबस (1451–1506) की यात्रा थी। 1492 में कोलंबस ने स्पेन से ईस्ट इंडीज (जो उस समय दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए यूरोप में प्रयुक्त सामान्य शब्द था) की ओर नौकायन करने की कोशिश की। ईस्ट इंडीज के बजाय वह कैरिबियाई द्वीपों गुआनाहानी, क्यूबा और हैती(Guanahani, Cuba, and Haiti) पहुँचा। इस तरह यूरोपीय लोगों और अमेरिका की भूमि व लोगों के बीच पहला संपर्क स्थापित किया।
यूरोपीय उपनिवेशवाद की शुरुआत और 'न्यू वर्ल्ड' की खोज
यूरोपियनों द्वारा जिसे 'न्यू वर्ल्ड' कहा गया उसकी पहली खोज ने भविष्य में होने वाली घटनाओं का स्वरूप निर्धारित कर दिया। जब कोलंबस ने भूमि पर कदम रखा तो उसने स्पेन के राजा का झंडा फहराया (जिनके आदेश पर वह यात्रा कर रहा था) और इन द्वीपों और उनके लोगों पर स्पेन के लिए अधिकार कर लिया। कोलंबस ने जिन ताइनो आदिवासियों से मुलाकात की उन्हें निहत्था और सरल बताया। उन्होंने कोलंबस और उसके दल को उपहार दिए व व्यापार किया। कोलंबस ने लिखा, "मैंने उन्हें तलवारें दिखाईं जिन्हें उन्होंने धार से पकड़ लिया और अज्ञानता में खुद को घायल कर लिया।" कोलंबस ने यह भी जोड़ा कि उन्हें विश्वास था कि ताइनो "अच्छे सेवक बनेंगे और... आसानी से ईसाई बन जाएंगे।"
अंततः, कोलंबस ने सात ताइनो लोगों का अपहरण कर लिया और स्पेन में अपने शाही नियोक्ताओं को लिखे एक पत्र में यह दावा किया कि वह "पचास पुरुषों के साथ पूरे द्वीप पर कब्जा कर सकता है और जैसा चाहे उन्हें नियंत्रित कर सकता है।"
कोलंबस के इन द्वीपों के स्वदेशी लोगों के साथ पहले संपर्क और उनके विवरण यूरोपीय उपनिवेशवाद की उभरती प्रवृत्ति को दर्शाते हैं। इसमें प्राकृतिक संसाधनों और ताइनो लोगों की भूमि के मूल्यवान सामानों के प्रति एक शोषणकारी दृष्टिकोण उनके क्षेत्रों और लोगों पर मालिकाना दावा (जिसमें उनमें से कुछ को जबरन यूरोप ले जाना शामिल था) और उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति एक उपेक्षापूर्ण रवैया शामिल था, जिसे कोलंबस के यूरो-सेंट्रिक दृष्टिकोण से भोला समझा गया।
आने वाले दशकों में स्पेन ने मध्य और दक्षिण अमेरिका के विशाल क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इस दौरान स्वदेशी जनसंख्या या तो सीधी हिंसा और बीमारियों के कारण समाप्त हो गई या जीवित बचने वालों को गुलाम बना लिया गया। उन्हें चीनी, कॉफी, और तंबाकू की खेती या खानों में काम करने के लिए मजबूर किया गया। इसी तरह पुर्तगाल जिसके प्रसिद्ध खोजकर्ता फर्डिनेंड मैगलन (1480–1521) ने सोलहवीं सदी की शुरुआत में ईस्ट इंडीज तक सफलतापूर्वक यात्रा की। इसने दक्षिण अमेरिका के पूर्वी हिस्से (जो बाद में ब्राजील बना) को उपनिवेशित और शोषित किया।
सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड, फ्रांस, और नीदरलैंड्स ने भी स्पेन और पुर्तगाल के उदाहरणों का अनुसरण करते हुए 'न्यू वर्ल्ड' के उपनिवेशीकरण के अपने प्रयास शुरू किए।
खोज यात्राएँ और यूरोपीय उपनिवेशवाद का प्रारंभिक चरण कभी-कभी वैश्वीकरण का सबसे पहला रूप कहा जाता है क्योंकि यह वह समय था जब दुनिया के अधिकांश बड़े भू-भाग आपस में जुड़ने लगे। व्यापार और उपनिवेशवाद के माध्यम से एक वास्तविक वैश्विक विश्व आकार लेने लगा।
राजनीति और इतिहास का अटूट संबंध
राजनीति और इतिहास गहरे रूप से आपस में जुड़े हुए हैं। सरल शब्दों में राजनीति वर्तमान का इतिहास है जबकि इतिहास अतीत की राजनीति है। राजनीति के छात्रों के लिए इतिहास को समझने के दो महत्वपूर्ण लाभ हैं:-
1. वर्तमान को समझने का साधन:-
अतीत खासतौर वर्तमान को समझने में मदद करता है क्योंकि यह आवश्यक संदर्भ और पृष्ठभूमि प्रदान करता है।
2. वर्तमान परिस्थितियों पर अंतर्दृष्टि:-
इतिहास वर्तमान परिस्थितियों पर अंतर्दृष्टि के माध्यम सेराजनीतिक नेताओं के लिए मार्गदर्शन प्रदान कर करता है क्योंकि अतीत की घटनाएँ वर्तमान से मिलती-जुलती हो सकती हैं। इस संदर्भ में इतिहास सबक सिखाता है।
9/11 के बाद, राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध(war on terror)' को इस तर्क के साथ सही ठहराया कि 1930 के दशक में नाजी विस्तारवाद को रोकने में विफल 'तुष्टिकरण की नीति(Appeasement Policy) की ओर इशारा किया है।
हालांकि, 'इतिहास के सबक(lessons of history)' की धारणा बहस का विषय है, क्योंकि इतिहास स्वयं हमेशा एक बहस है। क्या हुआ और क्यों हुआ, इसे वैज्ञानिक सटीकता के साथ कभी भी तय नहीं किया जा सकता। इतिहास हमेशा किसी न किसी हद तक वर्तमान के दृष्टिकोण से समझा जाता है, क्योंकि आधुनिक चिंताएं, समझ और दृष्टिकोण हमें अतीत को 'गढ़ने' में मदद करते हैं। यह याद रखना भी महत्वपूर्ण है कि 1960 के दशक में जब चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई(Chou En-lai) से 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के सबक के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने जवाब दिया, "यह कहना अभी बहुत जल्दी है।"
फिर भी, आधुनिक विश्व का कोई मतलब नहीं बनता यदि हमें उन महत्वपूर्ण घटनाओं की समझ न हो, जिन्होंने विशेष रूप से बीसवीं सदी के आगमन के बाद विश्व इतिहास को आकार दिया। प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के प्रकोप से पहले की घटनाएँ हमें युद्ध के कारणों के बारे में क्या बताती हैं और 1945 के बाद से विश्व युद्ध की अनुपस्थिति हमें किन कारणों की जानकारी देती है?
1914, 1945 और 1990 जैसे वर्ष विश्व इतिहास में किस अर्थ में महत्वपूर्ण मोड़ थे?
विश्व इतिहास हमें वैश्विक राजनीति के संभावित भविष्य के बारे में क्या बताता है?
इतिहास विहीन राष्ट्र सुखी है (Happy is the nation without history):- CESARE, MARQUIS OF BECCARIA, On Crimes and Punishments (1764)
चेसारे, मार्क्विस ऑफ़ बेक्कारिया द्वारा "अपराध और दंड" (1764)
चेसारे बेक्कारिया की "अपराध और दंड" एक प्रभावशाली कृति है, जिसमें उन्होंने आपराधिक न्याय प्रणाली और दंड के नैतिक और व्यावहारिक आधारों की पड़ताल की। यह पुस्तक न्याय, मानवाधिकारों, और कानून के संबंध में आधुनिक विचारों की नींव मानी जाती है।
ऐतिहासिक दृष्टिकोण:-
यथार्थवादी दृष्टिकोण(Realist view):–
यथार्थवादी मानते हैं कि इतिहास में एक स्थायी स्वभाव होता है। उनके दृष्टिकोण से, ऐतिहासिक युगों के बीच समानताएँ हमेशा भिन्नताओं से अधिक महत्वपूर्ण होती हैं। विशेष रूप से, शक्ति राजनीति, संघर्ष और युद्ध की संभावना इतिहास के अपरिहार्य तथ्य हैं। इतिहास आगे नहीं बढ़ता बल्कि यह खुद को बार-बार दोहराता है। इसके तीन मुख्य कारण हैं:-
पहला, मानव स्वभाव कभी नहीं बदलता: मनुष्य स्वार्थी और शक्ति-प्रवृत्त प्राणी होते हैं, जो लालसाओं और प्रवृत्तियों से ग्रस्त होते हैं जिन्हें न तो कारण या नैतिक विचारों से नियंत्रित किया जा सकता है। सांस्कृतिक, प्रौद्योगिकीय और आर्थिक प्रगति इन जीवन के तथ्यों को नहीं बदल सकती।
दूसरा, इतिहास स्वार्थी राजनीतिक इकाइयों द्वारा आकारित होता है। ये राजनीतिक इकाइयाँ विभिन्न ऐतिहासिक अवधियों में अलग-अलग रूपों में हो सकती हैं – जनजातियाँ, साम्राज्य, नगर-राज्य, राष्ट्र राज्य आदि – लेकिन अन्य राजनीतिक इकाइयों के साथ इनका मूल व्यवहार हमेशा एक जैसा रहता है, यानी आपसी प्रतिद्वंद्विता (संभावित या वास्तविक)।
तीसरा, अराजकता इतिहास का एक स्थायी तथ्य है, जिसे कभी-कभी 'अराजकेंद्रवाद(anarcho-centrism)' कहा जाता है। विभिन्न सभ्यताओं, साम्राज्यों, महान शक्तियों या सुपरपावरों द्वारा लंबे समय तक प्रभुत्व स्थापित किए जाने के बावजूद, कोई भी वैश्विक सर्वोच्चता स्थापित करने में सफल नहीं हुआ है। विश्व सरकार की अनुपस्थिति यह सुनिश्चित करती है कि हर ऐतिहासिक अवधि भय, संदेह और प्रतिद्वंद्विता से चिह्नित होती है, क्योंकि सभी राजनीतिक इकाइयाँ, अंततः, हिंसक आत्म-सहायता पर निर्भर होने के लिए मजबूर होती हैं।
उदारवादी दृष्टिकोण(Liberal view):-
उदारवादी दृष्टिकोण इतिहास की प्रगति में विश्वास रखता है। इतिहास मानव समाज के उच्च और उच्चतर स्तरों को प्राप्त करते हुए आगे बढ़ता है। यह धारणा रखता है कि इतिहास ‘अंधकार से प्रकाश की ओर' बढ़ता है। यह मुख्य रूप से तर्क में विश्वास पर आधारित है। तर्क मानव जाति को अतीत की पकड़ और परंपरा और रिवाज के बोझ से मुक्त करता है। प्रत्येक पीढ़ी पिछली पीढ़ी के मानव के ज्ञान और समझ के भंडार से आगे बढ़ सकती है।
अंतरराष्ट्रीय मामलों में, प्रगति का अर्थ शक्ति की तलाश वाले व्यवहार (जिसमें आक्रामकता और हिंसा को अक्सर राज्य की नीति के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जाता है) से एक ऐसी स्थिति की ओर संक्रमण है जो परस्पर आर्थिक निर्भरता, अंतरराष्ट्रीय कानून का उभरना और लोकतंत्र की उन्नति के कारण सहयोग और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व से परिभाषित होती है।
यह सोच किसी हद तक आदर्शवादी (utopian dimension) है, क्योंकि यह ‘स्थायी शांति’ (perpetual peace’ - Kant) की संभावना पर जोर देती है। यह सुझाव देती है (जैसा कि फुकुयामा ने कहा) कि उदार लोकतंत्र की विश्वव्यापी विजय इतिहास का अंत होगी। हालांकि भविष्य के प्रति उदारवादी आशावाद की सीमा और स्तर समय के साथ बदलता रहा है। जबकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद और 1990 के दशक की शुरुआत में साम्यवाद के पतन के बाद उदारवाद फला-फूला। यह 1945 के बाद के दौर और 11 सितंबर के बाद के समय में काफी हद तक कमजोर हो गया।
आलोचनात्मक दृष्टिकोण(Critical views):-
इतिहास के प्रति सबसे प्रभावशाली आलोचनात्मक दृष्टिकोण मुख्य रूप से मार्क्सवाद से विकसित हुए हैं। मार्क्सवादी इतिहास सिद्धांत, जिसे अक्सर ऐतिहासिक भौतिकवाद (Historical Materialism) कहा जाता है, इस विचार पर जोर देता है कि इतिहास के मुख्य प्रेरक तत्व भौतिक या आर्थिक कारक हैं।
1. मार्क्सवादी दृष्टिकोण
मार्क्स के अनुसार, इतिहास एक के बाद एक उत्पादन प्रणाली (Modes of Production) से आगे बढ़ता है। यह यात्रा आदिम साम्यवाद, दासप्रथा, सामंतवाद, और पूंजीवाद से होकर गुजरती है और अंततः साम्यवाद (Communism) पर पहुँचती है।
प्रत्येक ऐतिहासिक चरण अपनी आंतरिक विरोधाभासों (Contradictions) के कारण गिर जाता है, जो वर्ग संघर्ष (Class Conflict) के रूप में प्रकट होते हैं।
साम्यवाद को इतिहास का अंतिम चरण माना जाता है क्योंकि यह संपत्ति के सामूहिक स्वामित्व पर आधारित होने के कारण वर्गहीन (Classless) समाज का निर्माण करता है।
मार्क्सवाद के आलोचनात्मक सिद्धांतों ने इतिहास को आर्थिक दृष्टिकोण से देखने का नया तरीका दिया, लेकिन इसे अन्य विचारधाराओं द्वारा चुनौती दी गई है। उत्तरसंरचनावाद, सामाजिक निर्माणवाद और नारीवाद ने इतिहास को वैकल्पिक दृष्टिकोणों से देखने की आवश्यकता पर जोर दिया है, जहाँ विचार, मान्यताएँ और शक्ति संबंध भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि भौतिक कारक।
2. आर्थिक नियतिवाद और उसका खंडन
पारंपरिक मार्क्सवादियों ने इसे अक्सर आर्थिक नियतिवाद (Economic Determinism) के रूप में देखा।
फ्रैंकफर्ट स्कूल के आलोचनात्मक विचारकों, जैसे रॉबर्ट कॉक्स, ने इस नियतिवाद को खारिज करते हुए कहा कि राज्य और राज्यों के बीच के संबंध भी इतिहास को प्रभावित कर सकते हैं, केवल भौतिक उत्पादन के बल नहीं।
3. उत्तरसंरचनावादियों (Poststructuralists):-
उत्तरसंरचनावादी, विशेष रूप से मिशेल फूको, इतिहास के वंशवृत्तीय अध्ययन (Genealogy) का उपयोग करते हैं।
वे इतिहास में छिपे हुए अर्थों और प्रतिनिधित्वों को उजागर करने का प्रयास करते हैं, जो प्रभुत्व (Domination) के हितों को बढ़ावा देते हैं और हाशिए पर पड़े समूहों और समुदायों को बाहर कर देते हैं।
4. सामाजिक निर्माणवादी (Social Constructivists):-
ये विचारक भौतिकवाद की आलोचना करते हैं और इस बात पर जोर देते हैं कि विचारों, मानदंडों और मूल्यों की शक्ति विश्व इतिहास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
5. नारीवादी (Feminists):-
नारीवादी अक्सर पितृसत्ता (Patriarchy) को एक ऐतिहासिक निरंतरता के रूप में प्रस्तुत करती हैं। उनका मानना है कि पितृसत्ता हर ऐतिहासिक और समकालीन समाज में मौजूद रही है।
वे इस बात पर जोर देती हैं कि इतिहास में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज किया गया है और प्रभुत्व की संरचनाओं में महिलाओं को हाशिए पर रखा गया है।
आधुनिक विश्व का निर्माण(MAKING OF THE MODERN WORLD)
The West(पश्चिम)
'पश्चिम' शब्द के दो परस्पर जुड़े हुए अर्थ हैं। एक सामान्य अर्थ में, यह यूरोप की सांस्कृतिक और दार्शनिक विरासत को संदर्भित करता है, जिसे अक्सर प्रवासन या उपनिवेशवाद(migration or colonialism) के माध्यम से अन्य क्षेत्रों में फैलाया गया है। इस विरासत की जड़ें यहूदी-ईसाई धर्म और 'शास्त्रीय' ग्रीस एवं रोम के ज्ञान में निहित हैं, जिन्हें आधुनिक युग में उदारवाद के विचारों और मूल्यों ने आकार दिया है।
एक संकीर्ण अर्थ(narrower sense) में, जो शीत युद्ध(Cold War) के दौरान विकसित हुआ, 'पश्चिम' का मतलब यूएसए-प्रभुत्व वाले पूंजीवादी गुट(USA dominated capitalist bloc) से था, जो यूएसएसआर-प्रभुत्व वाले 'पूर्व'(USSR-dominated East) के विपरीत था।
शीत युद्ध की समाप्ति के साथ इस अर्थ की प्रासंगिकता कमजोर हो गई, जबकि पहले अर्थ का महत्व तथाकथित पश्चिमी शक्तियों के बीच राजनीतिक और अन्य विभाजनों के कारण प्रश्नों के घेरे में आ गया है।
पश्चिम का उदय(Rise of the West)
एक प्रक्रिया जो लगभग 1500 ई. से शुरू हुई, उसमें एक एकल, मूल रूप से यूरोपीय सभ्यता दुनिया की प्रमुख सभ्यता बन गई। गैर-पश्चिमी समाजों ने तेजी से अपने आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ढांचे को पश्चिमी समाजों के मॉडल पर आधारित करना शुरू कर दिया। यहां तक कि आधुनिकीकरण(modernization) को पश्चिमीकरण का पर्याय माना जाने लगा। यह काल तथाकथित 'खोज का युग' या 'अन्वेषण का युग'(age of discovery or the age of exploration) से शुरू हुआ। पंद्रहवीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ तक, पहले पुर्तगाली जहाज, फिर स्पेनिश और अंत में ब्रिटिश, फ्रेंच और डच जहाज नई दुनिया की खोज के लिए निकले। इस प्रक्रिया के पीछे मजबूत आर्थिक उद्देश्य थे, जो भारत और सुदूर पूर्व में सीधे मार्ग खोजने की इच्छा से शुरू हुए ताकि मसालों की प्राप्ति हो सके। फिर चाय, गन्ने की चीनी, तंबाकू, कीमती धातुओं और दासों के व्यापारिक साम्राज्यों की स्थापना की ओर बढ़े (लगभग 8 से 10.5 मिलियन अफ्रीकियों को जबरन अमेरिका ले जाया गया)। फिर भी पश्चिम के उदय के महत्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक परिणाम भी सामने आए।
[आधुनिकीकरण(Modernization):- वह प्रक्रिया जिसके माध्यम से समाज 'आधुनिक' या 'विकसित' बनते हैं, जिसमें आमतौर पर आर्थिक प्रगति, तकनीकी विकास और राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन का तर्कसंगत संगठन शामिल होता है।
राजनीतिक संदर्भ में पश्चिम के उदय का संबंध सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी के दौरान संप्रभु राज्यों की स्थापना से था, जिनकी केंद्रीय सरकारें सशक्त थीं। यह विशेष रूप से वेस्टफेलिया की संधि (1648) के माध्यम से हुआ, जिसने तीस साल के युद्ध को समाप्त किया, जो बीसवीं शताब्दी के दो विश्व युद्धों से पहले यूरोपीय इतिहास का सबसे बर्बर और विनाशकारी युद्ध था। संप्रभु राज्य व्यवस्था के आगमन ने यूरोप में सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता का एक स्तर विकसित किया। इसने तकनीकी नवाचार और आर्थिक विकास को प्रोत्साहित किया।
पश्चिम के उदय के सामाजिक-आर्थिक पहलू यूरोप में सामंतवाद के विघटन(breakdown of feudalism) और उसकी जगह एक बाजार या पूंजीवादी समाज(market or capitalist society) के विकास में निहित थे। इसने सबसे महत्वपूर्ण रूप से औद्योगीकरण की वृद्धि को प्रेरित किया, जिसकी शुरुआत अठारहवीं शताब्दी के मध्य में ब्रिटेन (जिसे "दुनिया की कार्यशाला /workshop of the world" कहा जाता था) से हुई और उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान उत्तरी अमेरिका और पूरे पश्चिमी और मध्य यूरोप में फैल गई। औद्योगीकृत राज्यों ने अत्यधिक विस्तारित उत्पादन क्षमता प्राप्त की, जिसने अन्य कारकों के साथ-साथ उनकी सैन्य शक्ति को भी मजबूत किया। कृषि और औद्योगिक प्रौद्योगिकी की प्रगति ने बेहतर आहार और जीवन स्तर में वृद्धि में भी योगदान दिया, जिसका समय के साथ विश्व की जनसंख्या के आकार पर गहरा प्रभाव पड़ा।
[सामंतवाद(Feudalism):- कृषि आधारित उत्पादन की एक प्रणाली, जो स्थिर सामाजिक पदानुक्रमों और कर्तव्यों के कठोर ढांचे द्वारा चिह्नित होती है।]
सांस्कृतिक संदर्भ में, पश्चिम के उदय को पुनर्जागरण(Renaissance) द्वारा बढ़ावा मिला, जिसने मध्य युग के अंत में इटली से शुरू होकर दर्शन, राजनीति, कला और विज्ञान जैसे क्षेत्रों में यूरोपीय बौद्धिक जीवन को नया स्वरूप दिया। इससे व्यापक विश्व के प्रति रुचि और जिज्ञासा को बल मिला और यह विज्ञान के उदय तथा वाणिज्यिक गतिविधियों और व्यापार के विकास से जुड़ा हुआ था।[पुनर्जागरण(Renaissance):- फ्रेंच शब्द जिसका अर्थ है 'पुनर्जन्म'; यह एक सांस्कृतिक आंदोलन था जो प्राचीन ग्रीस और रोम में नई रुचि से प्रेरित था और इसमें शिक्षा और कला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विकास हुए।]
प्रबोधन काल (The Enlightenment) जो अठारहवीं शताब्दी के अंत में अपने चरम पर पहुंचा, ने पश्चिमी बौद्धिक जीवन को तर्क, वाद-विवाद और आलोचनात्मक जांच में मजबूत विश्वास से प्रेरित किया। इसने न केवल यह विचार प्रोत्साहित किया कि समाज को तर्कसंगत आधार पर संगठित किया जाना चाहिए, बल्कि इसने वैज्ञानिक सभ्यता और तकनीकी प्रगति के विकास में भी योगदान दिया।
[प्रबोधन काल(Enlightenment):- एक बौद्धिक आंदोलन जिसने धर्म, राजनीति और सामान्य रूप से शिक्षा में पारंपरिक विश्वासों को तर्क और प्रगति के नाम पर चुनौती दी।]
साम्राज्यवाद(Imperialism):-
साम्राज्यवाद व्यापक रूप से एक ऐसी नीति है जिसके तहत राज्य अपनी शक्ति या शासन को अपनी सीमाओं से परे एक साम्राज्य की स्थापना के माध्यम से बढ़ाता है।
इसके शुरुआती उपयोग में, साम्राज्यवाद एक ऐसी विचारधारा थी जो सैन्य विस्तार और औपनिवेशिक अधिग्रहण का समर्थन करती थी, आमतौर पर इसे राष्ट्रवादी और नस्लवादी सिद्धांतों पर आधारित किया जाता था।
पारंपरिक रूप में, साम्राज्यवाद का मतलब औपचारिक राजनीतिक प्रभुत्व या उपनिवेशवाद की स्थापना है। यह एक विजय और बसावट की प्रक्रिया के माध्यम से राज्य की शक्ति के विस्तार को दर्शाता है।
हालांकि, आधुनिक और अधिक सूक्ष्म रूपों में साम्राज्यवाद में बिना राजनीतिक नियंत्रण स्थापित किए आर्थिक प्रभुत्व शामिल हो सकता है, जिसे नव-उपनिवेशवाद (neo-colonialism) कहा जाता है।
साम्राज्यवाद का युग(Age of imperialism)
यूरोप का विश्व के बाकी हिस्सों पर प्रभाव साम्राज्यवाद के विस्तार के माध्यम से काफी बढ़ गया, जो विशेष रूप से उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में और अधिक तीव्र हो गया। इस अवधि को 'औपनिवेशिक संघर्ष' (Scramble for Colonies) कहा गया, जिसमें मुख्य रूप से अफ्रीका पर ध्यान केंद्रित किया गया। प्रथम विश्व युद्ध के प्रकोप तक, विश्व के अधिकांश भाग को यूरोपीय नियंत्रण में लाया जा चुका था। अकेले ब्रिटिश, फ्रांसीसी, बेल्जियन और डच साम्राज्यों(British, French, Belgian and Dutch empires) ने विश्व की लगभग एक-तिहाई आबादी पर नियंत्रण कर लिया था।
'बेल एपोक' (Belle Époque) के दौरान आर्थिक वैश्वीकरण का एक ऐसा स्तर स्थापित हुआ जो आधुनिक युग के वैश्वीकरण के बराबर माना जा सकता है। वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के अनुपात के रूप में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में उतना ही अधिक था जितना बीसवीं शताब्दी के अंत में। वास्तव में, इस युग में यूके, जो विश्व का सबसे प्रमुख साम्राज्यवादी शक्ति था, व्यापार पर उतना ही निर्भर था जितना आज के समय में कोई भी समकालीन राष्ट्र, यहां तक कि अमेरिका भी नहीं।
[बेल एपोक(Belle époque): यह फ्रेंच शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है 'सुंदर युग'। यह उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और प्रथम विश्व युद्ध के प्रकोप के बीच यूरोप में शांति और समृद्धि का एक काल था, जिसे एक 'स्वर्ण युग' माना जाता है।]
यह अवधि बड़े पैमाने पर सीमाओं के पार प्रवासन प्रवाह (cross-border migration flows) के लिए भी जानी जाती है, जो 1870 और 1910 के बीच अपने चरम पर था।
संयुक्त राज्य अमेरिका में आप्रवासन उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लगातार बढ़ता गया। इसमें मुख्य रूप से जर्मनी और आयरलैंड से लोग आए, लेकिन साथ ही नीदरलैंड, स्पेन, इटली, स्कैंडिनेवियाई देशों और पूर्वी यूरोप से भी लोग पहुंचे।
इसके अलावा, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका ने भी यूरोप के सबसे गरीब हिस्सों और एशिया के कुछ क्षेत्रों से बड़ी संख्या में प्रवासियों को आकर्षित किया।
वस्तुओं, पूंजी और लोगों के इन अपेक्षाकृत तेज़ प्रवाह को परिवहन और संचार में तकनीकी प्रगति ने आसान बना दिया। इसमें विशेष रूप से भाप-चालित जहाजों (steam-powered shipping) का विकास, रेलवे नेटवर्क का विस्तार और टेलीग्राफ के आविष्कार और उसके व्यावसायिक उपयोग की अहम भूमिका थी।
इन प्रगतियों ने उन्नीसवीं शताब्दी को मानव समाज का पहला वास्तविक सार्वभौमिक युग बना दिया (Bisley 2007)।
हालांकि, इस अवधि को Scholte (2005) ने 'प्रारंभिक वैश्वीकरण' (incipient globalization) कहा, लेकिन यह प्रथम विश्व युद्ध के प्रकोप के साथ अचानक समाप्त हो गई। इस युद्ध ने 'मुक्त व्यापार के स्वर्ण युग' (golden age of free trade) को खत्म कर दिया और आर्थिक राष्ट्रवाद (economic nationalism) और आप्रवासन के खिलाफ प्रतिक्रिया को जन्म दिया।
समकालीन वैश्विक युग के लिए एक चेतावनी के रूप में, कुछ लोगों ने प्रथम विश्व युद्ध के प्रकोप को बेल एपोक वैश्वीकरण (belle époque globalization) का परिणाम माना है। उनका तर्क है कि यह यूरोपीय देशों को एक सिकुड़ती दुनिया में संसाधनों और प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करते हुए आपसी टकराव में ले आया।
बेल एपोक वैश्वीकरण (Belle Époque Globalization):-
बेल एपोक वैश्वीकरण (Belle Époque Globalization) उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर प्रथम विश्व युद्ध के प्रकोप तक की उस अवधि को संदर्भित करता है, जब वैश्विक अर्थव्यवस्था, व्यापार, और प्रवासन में तेजी से वृद्धि हुई। इस समय को "सुंदर युग" कहा गया क्योंकि यह शांति, समृद्धि और तकनीकी प्रगति का युग था, जिसमें यूरोपीय देशों ने औद्योगिक और आर्थिक शक्ति में जबरदस्त उन्नति की।
इस दौरान:-
1. अंतरराष्ट्रीय व्यापार ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में अभूतपूर्व योगदान दिया।
2. बड़े पैमाने पर प्रवासन ने अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों को आबाद किया।
3. भौगोलिक सीमाओं के पार वस्तुओं, पूंजी और श्रमिकों का तेज़ी से प्रवाह हुआ।
4. परिवहन और संचार में प्रौद्योगिकीय प्रगति (जैसे भाप के जहाज, रेलवे और टेलीग्राफ) ने इस वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया।
हालांकि, इस वैश्वीकरण का अंत प्रथम विश्व युद्ध के प्रकोप के साथ हुआ, जिसने न केवल मुक्त व्यापार के स्वर्ण युग को समाप्त कर दिया बल्कि आर्थिक राष्ट्रवाद और आप्रवासन विरोधी रुख को भी जन्म दिया। कुछ इतिहासकार इसे वैश्वीकरण के बढ़ते दबाव और संसाधनों व प्रतिष्ठा के लिए यूरोपीय देशों के संघर्ष का परिणाम मानते हैं।
'संक्षिप्त' में बीसवीं सदी(THE 'SHORT' TWENTIETH CENTURY) 1914-90
प्रथम विश्व युद्ध की उत्पत्ति
1914 में युद्ध का प्रारंभ अक्सर "संक्षिप्त" बीसवीं सदी (हॉब्सबॉम/Hobsbawm, 1994) की शुरुआत के रूप में देखा जाता है।
यह वह समय था जब विश्व राजनीति पर पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच वैचारिक संघर्ष का प्रभुत्व(ideological struggle between capitalism and communism) था और जिसका अंत 1989-91 में हुआ। प्रथम विश्व युद्ध को विश्व इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण युद्ध माना गया है। यह पहला ऐसा युद्ध था जिसे पूर्ण युद्ध (Total War) कहा गया, जिसका अर्थ है कि इससे घरेलू आबादी और नागरिक जीवन (home front) पर पहले के युद्धों की तुलना में कहीं अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।
[समग्र युद्ध (Total war):- ऐसा युद्ध जो समाज के सभी पहलुओं को शामिल करता है, जिसमें बड़े पैमाने पर जबरन भर्ती (conscription), अर्थव्यवस्था को सैन्य उद्देश्यों के लिए समर्पित करना, और शत्रु के लक्ष्यों (सैन्य और नागरिक दोनों) के व्यापक विनाश के माध्यम से बिना शर्त आत्मसमर्पण प्राप्त करने का उद्देश्य शामिल है।]
यह युद्ध वास्तव में एक "विश्व युद्ध" था, न केवल इसलिए कि तुर्की की भागीदारी के कारण युद्ध यूरोप से बाहर मध्य पूर्व तक फैल गया, बल्कि इसलिए भी कि यूरोपीय साम्राज्यों से सैनिकों की भर्ती की गई और इसमें अमेरिका ने भी भाग लिया।
प्रथम विश्व युद्ध पहला "आधुनिक युद्ध(modern war)" था, क्योंकि यह औद्योगिकीकृत था। इसने पहली बार टैंकों, रासायनिक हथियारों (जहर गैस और फ्लेम-थ्रोअर्स/flame-throwers), और विमानों का उपयोग देखा, जिसमें लंबी दूरी के रणनीतिक बमबारी(strategic bombing) शामिल थी।
युद्ध के दौरान विभिन्न पक्षों द्वारा लगभग 6.5 करोड़ सैनिकों को लामबंद किया गया, जिनमें से 80 लाख से अधिक सैनिक मारे गए। साथ ही, लगभग 1 करोड़ नागरिक युद्ध के दौरान मारे गए या 1918-19 की सर्दियों में फैले स्पैनिश फ्लू महामारी(Spanish influenza) के कारण अपनी जान गंवा बैठे।
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत जून 1914 में ऑस्ट्रिया के राजकुमार आर्चड्युक फ्रांज फर्डिनेंड(Archduke Franz Ferdinand) की हत्या से हुई। उनकी हत्या एक सर्बियाई राष्ट्रवादी संगठन ब्लैक हैंड(Black Hand) द्वारा की गई थी। इस घटना ने ऑस्ट्रिया-हंगरी और रूस के बीच युद्ध की घोषणा को प्रेरित किया। पिछले दशक में बने गठबंधनों की प्रणाली के कारण, यह संघर्ष ट्रिपल अलायंस (ब्रिटेन, फ्रांस और रूस) और सेंट्रल पॉवर्स (जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी) के बीच व्यापक युद्ध में बदल गया।
अन्य देश भी इस संघर्ष में शामिल हुए:-
सेंट्रल पॉवर्स की ओर से:-
तुर्की (1914)
बुल्गारिया (1915)
मित्र राष्ट्रों (Allied Powers) की ओर से:-
सर्बिया, बेल्जियम, लक्जमबर्ग, जापान (सभी 1914 में)
इटली (1915)
रोमानिया, पुर्तगाल (1916)
ग्रीस और, सबसे महत्वपूर्ण, संयुक्त राज्य अमेरिका (1917)
इन गठबंधनों और देशों की भागीदारी ने इस युद्ध को वैश्विक स्तर पर फैला दिया।
मित्र राष्ट्रों (Allies) की अंतिम जीत संभवतः उनकी अधिक सफलताओं के कारण थी, जो शायद उनकी लोकतांत्रिक प्रणालियों से जुड़ी हुई थीं। उन्होंने मानव संसाधन और उपकरणों को संगठित करने में सफलता पाई, यांत्रिक युद्ध (Mechanized Warfare) का पहले और अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग किया, और अंततः युद्ध में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रवेश ने उनकी जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालांकि, युद्ध के कारणों को लेकर काफी बहस हुई है और आज भी जारी है। प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ से जुड़े मुख्य कारण निम्नलिखित थे: -
1. 'जर्मन समस्या' (The German Problem):- यह जर्मनी की बढ़ती शक्ति और आक्रामक नीतियों से जुड़ी चिंता को संदर्भित करता है, जिसने यूरोपीय संतुलन को अस्थिर कर दिया।
2. 'पूर्वी प्रश्न' (The Eastern Question):- यह मुख्य रूप से ऑटोमन साम्राज्य के पतन और बाल्कन क्षेत्र में शक्ति संतुलन को लेकर प्रतिस्पर्धा पर केंद्रित था।
3. साम्राज्यवाद (Imperialism):- वैश्विक स्तर पर उपनिवेशों और संसाधनों के लिए शक्तियों के बीच संघर्ष ने तनाव को और बढ़ा दिया।
4. राष्ट्रीयतावाद (Nationalism):-यूरोप में बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलनों, विशेष रूप से सर्बियाई राष्ट्रवाद, ने क्षेत्रीय अस्थिरता और युद्ध को बढ़ावा दिया।
'जर्मन समस्या' कई प्रकार की व्याख्याओं वाला एक ऐसा विषय है जो विभिन्न दृष्टिकोणों को उजागर करता है।
यथार्थवादी सिद्धांतकारों (Realist Theorists), जो मानते हैं कि राज्य शक्ति प्राप्त करने और राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के प्रति स्वाभाविक रूप से प्रवृत्त होते हैं और इन्हें केवल शक्ति संतुलन (Balance of Power) के माध्यम से ही सीमित किया जा सकता है। इस मत के अनुसार, यूरोप की अस्थिरता एक संरचनात्मक असंतुलन से उत्पन्न हुई थी। यह असंतुलन जर्मनी के 1871 में एकीकरण के माध्यम से मध्य यूरोप में एक प्रमुख शक्ति के उदय के कारण हुआ। इस असंतुलन ने जर्मनी की शक्ति प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा को बढ़ावा दिया, जो उपनिवेशों की प्राप्ति की उसकी इच्छा (जर्मनी का 'सूरज के नीचे स्थान/place in the sun') और ब्रिटेन के साथ बढ़ती रणनीतिक और सैन्य प्रतिस्पर्धा, विशेष रूप से नौसेना शक्ति के संदर्भ में, में स्पष्ट रूप से दिखाई दी।
हालांकि, 'जर्मन समस्या' की वैकल्पिक व्याख्याएँ जर्मनी के विस्तारवाद का स्रोत इसके साम्राज्यवादी शासन (Imperial Regime) और इसके राजनीतिक और सैन्य अभिजात वर्ग (Elites) की अधिग्रहणवादी महत्वाकांक्षाओं में देखती हैं। इसका सबसे प्रसिद्ध उदाहरण जर्मन इतिहासकार फ्रिट्ज फिशर/Fritz Fischer (1968) की रचनाओं में मिलता है। उन्होंने जर्मनी की आक्रामक और विस्तारवादी विदेश नीति को वेल्टपोलिटिक या विश्व नीति (Weltpolitik, या world policy) के माध्यम से समझाने पर जोर दिया, जो कैसर विल्हेम II (1888-1918) के शासनकाल के दौरान उभरी।
यह दृष्टिकोण प्रभावी रूप से प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ के लिए जर्मनी (या कम से कम उसके राजनीतिक नेताओं) को दोषी ठहराता है। इसी विचार को मित्र राष्ट्रों ने वर्साय संधि/Treaty of Versailles (1919) की 'युद्ध अपराध' (War Guilt Clause) धारा में व्यक्त किया।
पहले विश्व युद्ध का बाल्कन में शुरू होना और रूस तथा ऑस्ट्रिया-हंगरी द्वारा युद्ध की घोषणाओं का प्रारंभिक रूप से शामिल होना तथाकथित 'पूर्वी प्रश्न' (Eastern Question) के महत्व को उजागर करता है। 'पूर्वी प्रश्न' से तात्पर्य 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में बाल्कन क्षेत्र की संरचनात्मक अस्थिरताओं से है। ये अस्थिरताएँ उस शक्ति शून्यता (power vacuum) का परिणाम थीं, जो ओटोमन साम्राज्य के क्षेत्रीय और राजनीतिक पतन के कारण उत्पन्न हुई थी। ओटोमन साम्राज्य कभी मध्य पूर्व, दक्षिण-पूर्वी यूरोप के बड़े हिस्से और उत्तरी अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों तक फैला हुआ था।
इसका अर्थ था कि बाल्कन, एक ऐसा क्षेत्र जिसमें जातीय और धार्मिक समूहों का जटिल पैटर्न था और जो 19वीं शताब्दी के अंत तक राष्ट्रीयतावादी आकांक्षाओं से प्रेरित हो रहा था, ने यूरोप की दो पारंपरिक महाशक्तियों, रूस और ऑस्ट्रिया-हंगरी, की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को प्रज्वलित कर दिया। यदि ऐसा न होता, तो जून 1914 में ऑस्ट्रियाई आर्चड्यूक फ्रांज फर्डिनेंड की हत्या एक स्थानीय घटना बनी रह सकती थी। लेकिन इसके कारण रूस और ऑस्ट्रिया-हंगरी के बीच युद्ध हुआ, जिसने एक महाद्वीपीय युद्ध और अंततः एक विश्व युद्ध का रूप ले लिया।
पहले विश्व युद्ध के प्रकोप की व्यापक व्याख्याओं ने साम्राज्यवाद (imperialism) के उदय और राष्ट्रवाद (nationalism) के प्रभाव जैसे विकासों की ओर ध्यान आकर्षित किया है। जैसा कि पहले चर्चा की गई थी, 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध ने उपनिवेशीय विस्तार की एक उल्लेखनीय अवधि देखी, विशेष रूप से अफ्रीका पर अधिकार जमाने की होड़ (scramble for Africa)। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने अक्सर वी. आई. लेनिन का अनुसरण करते हुए साम्राज्यवाद को विश्व युद्ध के लिए मुख्य व्याख्या माना है। लेनिन (1916) ने यह तर्क देते हुए कि कच्चे माल और सस्ते श्रम की खोज में उपनिवेशीय प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, जो अंततः युद्ध को जन्म देगी साम्राज्यवाद को पूंजीवाद का 'उच्चतम चरण' कहा।
हालांकि, लेनिन की इस मार्क्सवादी व्याख्या की आलोचना करने वालों ने तर्क दिया है कि साम्राज्यवाद को मुख्यतः एक आर्थिक घटना के रूप में व्याख्या करते समय उन्होंने राष्ट्रवाद के रूप में एक अधिक शक्तिशाली शक्ति की अनदेखी की। 19वीं शताब्दी के अंत से, राष्ट्रवाद ने सैन्यवाद (militarism) और अंधराष्ट्रवाद (chauvinism) के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित कर लिया था, जिसने राजनीतिक अभिजात वर्ग और आम जनता दोनों के बीच विस्तारवादी और आक्रामक विदेशी नीतियों के लिए बढ़ते समर्थन को जन्म दिया। इस दृष्टिकोण के अनुसार, अंधराष्ट्रवादी या विस्तारवादी राष्ट्रवाद के प्रसार ने नए साम्राज्यवाद को बढ़ावा दिया और तीव्र अंतरराष्ट्रीय संघर्ष पैदा किए, जो अंततः 1914 में युद्ध का कारण बने।
[शोविनिज्म (Chauvinism):- किसी विचारधारा या समूह के प्रति अंधभक्तिपूर्ण और तर्कहीन समर्पण, जो आमतौर पर उसकी श्रेष्ठता में विश्वास पर आधारित होता है, जैसे कि 'राष्ट्रीय अंधराष्ट्रवाद' (national chauvinism)।]
[साम्राज्य (Empire):- प्रभुत्व की एक संरचना जिसमें विभिन्न संस्कृतियाँ, जातीय समूह या राष्ट्रीयताएँ एकल सत्ता स्रोत के अधीन होती हैं।]
द्वितीय विश्व युद्ध(World War II)
प्रथम विश्व युद्ध को 'सभी युद्धों को समाप्त करने वाला युद्ध(war to end all wars)' कहा गया था, लेकिन एक पीढ़ी के भीतर ही दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। द्वितीय विश्व युद्ध विश्व का सबसे बड़ा सैन्य संघर्ष था। 90 मिलियन से अधिक सैनिकों को युद्ध में उतारा गया और युद्ध में मारे गए लोगों की संख्या (जिसमें नागरिक भी शामिल थे) का अनुमान 40 से 60 मिलियन के बीच है। यह युद्ध प्रथम विश्व युद्ध से अधिक समग्र था, क्योंकि इसमें नागरिक हताहतों का अनुपात बहुत अधिक था (नाज़ी शासन की हत्यारी नीतियों, विशेष रूप से यहूदी लोगों के प्रति, और अंधाधुंध हवाई हमलों के कारण) और घरेलू समाज में व्यवधान अधिक तीव्र था, क्योंकि अर्थव्यवस्थाओं को युद्ध के प्रयासों को समर्थन देने के लिए पुनर्गठित किया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध का दायरा वास्तव में वैश्विक था। युद्ध की शुरुआत यूरोप में हुई जब 1 सितंबर 1939 को नाज़ी जर्मनी और सोवियत संघ ने पोलैंड पर आक्रमण किया, जिसके कुछ ही दिनों बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। 1940 में, डेनमार्क, नॉर्वे, बेल्जियम और नीदरलैंड जर्मनी के ब्लिट्जक्रेग/Blitzkrieg ('वज्र युद्ध/lightning war') हमलों के कारण युद्ध में घिर गए। 1941 में, जर्मनी द्वारा यूगोस्लाविया, ग्रीस और सबसे महत्वपूर्ण रूस पर आक्रमण के कारण एक पूर्वी मोर्चा खुल गया।
एशिया में युद्ध जापान द्वारा 7 दिसंबर 1941 को हवाई के पर्ल हार्बर में अमेरिकी सैन्य अड्डे पर हमले से शुरू हुआ, जिसने अमेरिका को जर्मनी और इटली के खिलाफ युद्ध में खींच लिया। इससे बर्मा, दक्षिण-पूर्व एशिया और प्रशांत क्षेत्र में लड़ाई हुई। 1942 के बाद युद्ध उत्तरी अफ्रीका तक भी फैल गया।
यूरोप में युद्ध मई 1945 में जर्मनी के आत्मसमर्पण के साथ समाप्त हुआ, और एशिया में युद्ध अगस्त 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद समाप्त हुआ।
WWII के परिणाम को निर्धारित करने वाले कारकों में USSR और USA की भागीदारी महत्वपूर्ण थी। रूस के खिलाफ युद्ध ने जर्मनी को दो मोर्चों पर लड़ने के लिए मजबूर कर दिया, जिसमें पूर्वी मोर्चे पर जर्मन सेना का अधिकांश जनशक्ति और संसाधन आकर्षित हुए। 1942-43 की सर्दियों में स्टालिनग्राद की लड़ाई के बाद, जर्मनी को एक थकाने वाली लेकिन निरंतर पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। USA की भागीदारी ने आर्थिक शक्ति का संतुलन पूरी तरह से बदल दिया, क्योंकि इसने दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक शक्ति के संसाधनों को जर्मनी और जापान की हार सुनिश्चित करने में लगा दिया। हालांकि, WWII की उत्पत्ति WWI की तुलना में कहीं अधिक ऐतिहासिक विवाद का विषय रही है। WWII के शुरू होने के मुख्य कारण जो जोड़े गए हैं, वे हैं:-
- WWI शांति समझौते(The WWI peace settlements)
- वैश्विक आर्थिक संकट(The global economic crisis)
- नाजी विस्तारवाद(Nazi expansionism)
- एशिया में जापानी विस्तारवाद(Japanese expansionism in Asia)
कई इतिहासकारों ने WWII को प्रभावी रूप से WWI का पुनः खेल माना है, जिसमें वर्साय संधि (1919) को युद्ध की ओर बढ़ने का प्रारंभिक बिंदु माना गया। इस अर्थ में 1919-39 के वर्ष एक ‘बीस वर्षीय युद्धविराम(twenty-year truce)’ के बराबर थे। वर्साय संधि के आलोचक यह तर्क करते हैं कि इसे दो असंगत उद्देश्यों द्वारा आकारित किया गया था।
पहला उद्देश्य था यूरोपीय साम्राज्यों को तोड़कर एक उदारवादी वैश्विक व्यवस्था बनाने की कोशिश करना और उन्हें स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यों के संग्रह से बदलना जिन्हें संघ राष्ट्र(League of Nations) द्वारा नियंत्रित किया जाता, जो वैश्विक शासन की पहली कोशिश थी।
[संघ राष्ट्र(League of Nations):- एक अंतरराष्ट्रीय संगठन था जिसे प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1919 में वर्साय संधि के तहत स्थापित किया गया था। इसका उद्देश्य वैश्विक शांति और सुरक्षा बनाए रखना, युद्धों को रोकना और देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना था। यह संगठन देशों के बीच विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने के लिए काम करता था और इसके सदस्य देशों ने अपनी संप्रभुता को त्यागते हुए अंतरराष्ट्रीय समझौतों और निर्णयों का पालन करने का संकल्प लिया।
हालाँकि, लीग ऑफ नेशंस को कमजोर माना गया क्योंकि इसमें प्रमुख शक्तियाँ जैसे अमेरिका शामिल नहीं थीं और इसका कोई प्रभावी सैन्य बल नहीं था। इसके परिणामस्वरूप, यह संगठन 1930 के दशक में बढ़ते संघर्षों और WWII के प्रकोप को रोकने में विफल रहा। इसके बाद, लीग ऑफ नेशंस को 1945 में समाप्त कर दिया गया और इसके स्थान पर संयुक्त राष्ट्र (United Nations) की स्थापना की गई।]
दूसरा उद्देश्य विशेष रूप से फ्रांस और जर्मनी से लगते देशों द्वारा व्यक्त किया गया। यह था कि जर्मनी को युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराया जाए और उसकी हार से भूगोलिक और आर्थिक लाभ प्राप्त किया जाए। इसने ‘युद्ध दोष(war guilt)’ धारा जर्मन सीमा पर पश्चिमी और पूर्वी दोनों मोर्चों पर जर्मनी का क्षेत्र हटा देने और पुनःस्थापना (reparations) के प्रावधान को जन्म दिया। हालांकि इसका उद्देश्य यूरोपीय शक्ति संतुलन को सुधारना था। वर्साय संधि ने चीजों को और बिगाड़ दिया। यथार्थवादी अक्सर E.H. Carr का अनुसरण करते हुए यह तर्क करते हैं कि 1939 में युद्ध की ओर ले जाने वाले ‘तीस वर्षीय संकट(thirty-year crisis)’ का एक प्रमुख कारण था ‘उत्पीड़नवाद’ या उदारवादी अंतर्राष्ट्रीयतावाद में व्यापक विश्वास(faith in utopianism or liberal internationalism)। इसने ‘संपन्न’ (WWI विजेताओं) को यह मानने के लिए प्रोत्साहित किया कि भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय मामलों को हितों के सामंजस्य से मार्गदर्शित किया जाएगा जिससे उन्होंने ‘वंचितों/असंपन्न(have-nots)’ (विशेष रूप से जर्मनी और इटली) द्वारा शक्ति के लिए की गई कोशिशों की अनदेखी की।
[प्रतिपूर्ति(Reparations):- मुआवजा, जो आमतौर पर वित्तीय भुगतान या वस्तुओं की भौतिक आपूर्ति के रूप में होता है, जिसे विजेताओं द्वारा पराजित शक्तियों पर दंड के रूप में या पुरस्कार के रूप में लगाया जाता है।]
यूरोप में बढ़ती अंतरराष्ट्रीय तनाव को बढ़ावा देने वाला दूसरा प्रमुख कारक था वैश्विक आर्थिक संकट(global economic crisis) 1929–33। अक्टूबर 1929 के वॉल स्ट्रीट क्रैश से शुरू होकर इस संकट ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की आपसी जुड़ाव की उच्च स्तर को उजागर किया। यह उद्योगिक दुनिया में तेजी से फैल गया और विशेष रूप से इसके वित्तीय प्रणालियों की संरचनात्मक अस्थिरता को भी उजागर किया। आर्थिक संकट का मुख्य राजनीतिक प्रभाव बेरोज़गारी में वृद्धि और गरीबी का बढ़ना था जिसने जर्मनी जैसे राजनीतिक रूप से अस्थिर राज्यों में उग्र या अतिवादी राजनीतिक समाधानों को अधिक प्रभावशाली बना दिया। आर्थिक रूप से इस संकट के परिणामस्वरूप मुक्त व्यापार को छोड़कर संरक्षणवाद की ओर रुझान बढ़ा और यहां तक कि स्वावलंबन की ओर भी मोड़ आया जिससे आर्थिक राष्ट्रवाद(economic nationalism ) का उत्थान हुआ और राजनीतिक राष्ट्रवाद(political nationalism) और अंतर्राष्ट्रीय अविश्वास(international distrust) को बढ़ावा मिला।
[स्वावलंबन(Autarky):- आर्थिक आत्मनिर्भरता, जिसे अक्सर विस्तारवाद और विजय से जोड़ा जाता है, ताकि आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण सुनिश्चित किया जा सके और अन्य देशों पर आर्थिक निर्भरता को कम किया जा सके।]
हालाँकि, WWII की उत्पत्ति को लेकर मुख्य विवाद नाजी जर्मनी की भूमिका और महत्व के बारे में हैं। इतिहासकारों ने युद्ध के फैलने को समझाने में विचारधारा के महत्व पर असहमतियाँ जताई हैं (क्या जर्मन आक्रामकता और विस्तारवाद को मुख्य रूप से फासीवाद और विशेष रूप से नाजीवाद के उदय के संदर्भ में समझाया जा सकता है?) और इस बात पर भी कि युद्ध एडोल्फ हिटलर के उद्देश्यों और जानबूझकर इरादों का परिणाम था या नहीं।

जर्मन विदेश नीति निश्चित रूप से 1933 में हिटलर और नाजियों के सत्ता में आने के बाद अधिक आक्रामक हो गई। 1936 में Rhineland(राइनलैंड) पर कब्जा किया गया। 1938 में ऑस्ट्रिया का आक्रमण किया गया। 1938-39 में चेकोस्लोवाकिया के Sudetenland(सुडेटनलैण्ड) हिस्से पर कब्जा किया गया और शेष चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण किया गया और फिर सितंबर 1939 में पोलैंड पर आक्रमण किया गया। इसके अलावा यह तथ्य कि फासीवादी और विशेष रूप से नाजी विचारधारा ने समाजिक डार्विनवाद(social Darwinism) को उग्र रूप में देशभक्ति राष्ट्रवाद के साथ जोड़ा, ने हिटलर के जर्मनी को एक मिशनरी या उन्मादी मिशन का अहसास दिलाया: युद्ध और विजय के माध्यम से राष्ट्रीय पुनर्जन्म और राष्ट्रीय गौरव का पुनः प्रकट होना। दूसरी ओर, कुछ ने यह तर्क किया कि नाजी विदेश नीति कम विचारधारा से प्रभावित थी और अधिक भौगोलिक कारकों या एक राजनीतिक संस्कृति द्वारा निर्धारित की गई थी, जिसे उन्नीसवीं सदी की एकता प्रक्रिया ने आकार दिया था। इस दृष्टिकोण से, नाजी शासन की विदेश नीति के लक्ष्यों में Weimar Republic/वाइमार गणराज्य (1919-33) और प्रारंभिक विल्हेल्मिन जर्मनी(Wilhelmine Germany) के विदेश नीति लक्ष्यों के बीच महत्वपूर्ण निरंतरता थी। 1930 के दशक में आक्रामक विस्तार की ओर मोड़ को विचारधारा से अधिक अवसर के दृष्टिकोण से समझाया जा सकता है।
[संतुष्टि (Appeasement):- एक विदेश नीति रणनीति, जिसमें आक्रामक राष्ट्र को कुछ रियायतें दी जाती हैं यह उम्मीद करते हुए कि इसके राजनीतिक उद्देश्यों में बदलाव होगा और विशेष रूप से युद्ध से बचा जा सकेगा।
सामाजिक डार्विनवाद (Social Darwinism):- यह विश्वास कि सामाजिक अस्तित्व प्रतियोगिता या संघर्ष द्वारा परिभाषित होता है, 'सर्वश्रेष्ठ का उत्तरजीविता' (survival of the fittest) का सिद्धांत, जो यह संकेत करता है कि अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष और शायद युद्ध अवश्यंभावी हैं।]
हालाँकि WWI के विपरीत WWII एक यूरोपीय युद्ध के रूप में उत्पन्न नहीं हुआ था जो अन्य हिस्सों में फैलकर प्रभाव डाले। महत्वपूर्ण घटनाएँ एशिया में हुईं। विशेष रूप से जापान की बढ़ती शक्ति और साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं से जुड़ी हुई थीं। कई तरीकों से युद्ध के बीच की अवधि में जापान की स्थिति WWI से पहले जर्मनी की स्थिति से मिलती-जुलती थी। एक राज्य की बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति ने महाद्वीपीय शक्ति संतुलन को बिगाड़ दिया और विस्तारवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया। 1920 और 1930 के दशक में जापान की उपनिवेशों के लिए बोली तेज़ हो गई, विशेष रूप से 1931 में मांचुरिया के कब्जे और मांचुको राज्य की स्थापना के साथ। 1936 में जापान ने जर्मनी और इटली के साथ मिलकर एंटी-कॉमिनटर्न पैक्ट(Anti-Comintern Pact) पर हस्ताक्षर किए जो 1939 में एक पूर्ण सैन्य और राजनीतिक गठबंधन, 'पैक्ट ऑफ स्टील(Pact of Steel)' में विकसित हुआ और अंततः 1940 में त्रैतीयक पैक्ट(Tripartite Pact) में बदल गया। हालाँकि, एशिया में विस्तारवाद ने जापान और यूके तथा USA के बीच बढ़ते तनाव को जन्म दिया। यह अनुमान लगाते हुए कि 1941 तक उसकी पैसिफिक में नौसेना की ताकत USA और UK के बराबर हो गई थी। जर्मनी द्वारा जून 1941 में रूस पर आक्रमण के बाद युद्ध के ध्यान केंद्रित होने का फायदा उठाते हुए जापान ने जानबूझकर USA के साथ टकराव को उकसाने का निर्णय लिया और पर्ल हार्बर पर प्री-एम्प्टिव स्ट्राइक(pre-emptive strike on Pearl Harbour) किया। USA को WWII में खींचकर इस कृत्य ने वास्तव में युद्ध के परिणाम को निर्धारित कर दिया।
एंटी-कॉमिनटर्न पैक्ट(Anti-Comintern Pact)1936:- यह एक राजनीतिक और सैन्य गठबंधन था, जिसे 1936 में जर्मनी, जापान और इटली ने हस्ताक्षरित किया। इसका उद्देश्य सोवियत संघ (USSR) और उसके साम्यवादी प्रभाव का विरोध करना था। "कॉमिनटर्न" शब्द सोवियत संघ द्वारा प्रायोजित अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए उपयोग किया जाता था, और इस पैक्ट ने सदस्य देशों को एकजुट होकर साम्यवाद के खिलाफ लड़ने का संकल्प लिया। इस पैक्ट ने बाद में 1939 में "पैक्ट ऑफ स्टील" के रूप में एक सैन्य और राजनीतिक गठबंधन का रूप लिया और 1940 में इसे त्रैतीयक पैक्ट के रूप में और अधिक मजबूत किया गया।
पैक्ट ऑफ स्टील(Pact of Steel)1939:- यह 1939 में जर्मनी और इटली के बीच एक सैन्य और राजनीतिक गठबंधन था। यह एंटी-कॉमिनटर्न पैक्ट का विस्तार था, जिसे पहले 1936 में जर्मनी और जापान ने हस्ताक्षरित किया था। इस पैक्ट के तहत जर्मनी और इटली ने एक दूसरे के साथ सैन्य और राजनीतिक सहयोग बढ़ाने का वचन लिया और युद्ध की स्थिति में एक-दूसरे का समर्थन करने का निर्णय लिया। इसे "पैक्ट ऑफ स्टील" कहा गया क्योंकि यह दोनों देशों के बीच मजबूत और अडिग सहयोग को दर्शाता था, जैसे धातु की तरह मजबूत। यह पैक्ट द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व संकेतों में से एक था, जिसमें जर्मनी और इटली का गठबंधन स्पष्ट रूप से सामने आया।
त्रिपक्षीय समझौता(Tripartite Pact)1940:- यह 1940 में जर्मनी, इटली और जापान के बीच एक सैन्य और राजनीतिक गठबंधन था। इस पैक्ट के तहत, तीनों देशों ने एक-दूसरे की सुरक्षा की गारंटी देने का वचन लिया और यदि इनमें से कोई भी देश युद्ध में फंसा, तो बाकी दो देश उसका समर्थन करेंगे। त्रैतीयक पैक्ट ने इन तीनों देशों को "धुरी शक्तियाँ" (Axis Powers) के रूप में एकजुट किया, जो अंततः द्वितीय विश्व युद्ध के मुख्य पक्ष बन गए। इस समझौते ने युद्ध के दौरान उनके सामूहिक हितों और सैन्य सहयोग को मजबूत किया और यह गठबंधन अन्य देशों के खिलाफ संघर्ष में महत्वपूर्ण था।
ई. एच. कैर/E. H. Carr (1892–1982)
ब्रिटिश इतिहासकार, पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतकार। कैर ने विदेश मंत्रालय में काम किया और WWI के अंत में पेरिस शांति सम्मेलन(Paris Peace Conference) में भाग लिया। 1936 में उन्हें वेल्स विश्वविद्यालय के एबरीस्टविथ में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वुडरो विल्सन प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया। इसके बाद वह लंदन के द टाइम्स के सहायक संपादक बने और 1953 में शैक्षिक जीवन में लौटे। कैर को The Twenty Years’ Crisis 1919–1939 (1939) के लिए सबसे अधिक जाना जाता है, जिसमें 1919 के शांति समझौते और 'utopianism' के कूटनीतिक मामलों पर प्रभाव की आलोचना की गई है विशेष रूप से लीग ऑफ नेशंस(League of Nations) जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं पर निर्भरता।

उन्हें अक्सर प्रमुख यथार्थवादी सिद्धांतकारों में से एक के रूप में देखा जाता है, जिन्होंने 'संपन्न' और 'असंपन्न'(have and have-not) राज्यों के बीच संघर्ष को अनदेखा करने की बजाय उसे प्रबंधित करने की आवश्यकता पर ध्यान आकर्षित किया। हालांकि उन्होंने नैतिक निर्णय की कमी के कारण 'निंदक वास्तविक राजनीति(cynical realpolitik)' की आलोचना की। कैर की अन्य प्रमुख रचनाएँ नेशनलिज़म एंड आफ्टर/Nationalism and After(1945) और क्वासी-मार्क्सवादी/quasi-Marxist 14-खंडों में ए हिस्ट्री ऑफ़ सोवियत रशिया/A History of Soviet Russia (1950–78) हैं।
हिटलर का युद्ध(Hitler’s war)?
द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर की व्यक्तिगत जिम्मेदारी को लेकर बहस विशेष रूप से तीव्र रही है। जो लोग 'हिटलर का युद्ध' के सिद्धांत का समर्थन करते हैं वे Mein Kampf (1924) में हिटलर द्वारा जर्मनी के लिए निर्धारित तीन लक्ष्यों और 1930 के दशक में नाजी विस्तारवाद(Nazi expansionism) के बीच स्पष्ट संबंध पर जोर देते हैं। हिटलर के 'युद्ध उद्देश्य' थे:-
- पहला एक बड़ा जर्मनी(Greater Germany) प्राप्त करना (जो ऑस्ट्रिया और सुदेतन जर्मनों/Sudetan Germans को तीसरे राइख/Third Reich में शामिल करके प्राप्त किया गया)
- दूसरा lebensraum या 'जीवित स्थान(living space)' की खोज में पूर्वी यूरोप में विस्तार (जो रूस पर आक्रमण करके प्राप्त किया गया); और
- तीसरा दुनिया की प्रमुख समुद्री शक्तियों ब्रिटेन और USA को हराकर विश्व शक्ति प्राप्त करना। यह दृष्टिकोण इस तथ्य से भी समर्थित है कि नाजी जर्मनी प्रभावी रूप से हिटलर का राज्य था जिसमें शक्ति एक ही चुनौतीहीन नेता के हाथों में केंद्रित थी।
दूसरी ओर इस दृष्टिकोण के विरोधियों ने इतिहास के 'महान व्यक्ति(great man)' सिद्धांत की सीमाओं पर जोर दिया है (जिसमें इतिहास को नेताओं द्वारा बनाया गया माना जाता है जो बड़े राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक शक्तियों से स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं)। उदाहरण के लिए मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस बात पर ध्यान आकर्षित किया है कि नाजी विस्तारवाद जर्मन बड़े व्यवसायों के हितों के साथ किस हद तक मेल खाता था। दूसरों ने हिटलर और उन लोगों की गलत गणना की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिन्होंने नाजी आक्रामकता को रोकने की कोशिश की। यहाँ प्रमुख दोषियों के रूप में आमतौर पर यूरोप के अधिकांश हिस्सों में उभरते हुए उदारवादी अंतर्राष्ट्रीयतावाद(liberal internaionalism) के विश्वास को पहचाना जाता है जिसने राज्यों को शक्ति राजनीति की वास्तविकताओं से अंधा कर दिया और ब्रिटेन की संतुष्टि नीति जिसने हिटलर को यह विश्वास दिलाया कि वह पोलैंड पर आक्रमण कर सकता है बिना ब्रिटेन और अंततः USA के साथ युद्ध के जोखिम को उत्पन्न किए।
तीसरी दुनिया (Third World):-
'तीसरी दुनिया' शब्द ने उन हिस्सों की ओर ध्यान आकर्षित किया जो शीत युद्ध के दौरान पूंजीवादी तथाकथित 'प्रथम दुनिया' या साम्यवादी तथाकथित 'द्वितीय दुनिया' में नहीं आते थे। अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के कम विकसित देश 'तीसरे' थे, क्योंकि वे आर्थिक रूप से निर्भर थे और अक्सर व्यापक गरीबी से जूझ रहे थे। इस शब्द का यह भी संकेत था कि ये देश 'गैर-संरेखित' थे और तीसरी दुनिया अक्सर वह मैदान होती थी जहां प्रथम और द्वितीय दुनिया के बीच भू-राजनीतिक संघर्ष लड़ा जाता था। 1970 के दशक से तीसरी दुनिया शब्द को इसके नकारात्मक वैचारिक प्रभावों, साझा उपनिवेशी अतीत के महत्व में कमी, और विशेष रूप से एशिया में आर्थिक विकास के कारण धीरे-धीरे छोड़ दिया गया है।
साम्राज्यों का अंत(END OF EMPIRES)
1945 का वर्ष विश्व इतिहास में कई मायनों में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। मुख्य रूप से इसने उपनिवेशवाद के अंत की प्रक्रिया को आरंभ किया जिसने यूरोपीय साम्राज्यों के क्रमिक लेकिन नाटकीय विघटन को देखा। 'साम्राज्य का अंत' न केवल यूरोप के बड़े पैमाने पर पतन का प्रतीक था बल्कि इसने विशेष रूप से एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के अधिकांश भागों में राजनीतिक, आर्थिक और वैचारिक विकास(political, economic, and ideological developments) को गति दी जिनका वैश्विक राजनीति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
यूरोपीय नियंत्रण वाले विदेशी क्षेत्रों और लोगों को धीरे-धीरे समाप्त करने की प्रक्रिया प्रथम विश्व युद्ध के बाद शुरू हुई थी। जर्मनी को वर्साय की संधि (Treaty of Versailles) के तहत अपनी उपनिवेशों को छोड़ने के लिए मजबूर किया गया, और ब्रिटिश उपनिवेशों को 1931 में लगभग स्वतंत्रता प्राप्त हो गई थी। हालांकि, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह प्रक्रिया तीन प्रमुख कारणों से बहुत तेज हो गई:
1. साम्राज्यवादी अतिविस्तार (Imperial Over-reach):- पारंपरिक साम्राज्यवादी शक्तियां (विशेष रूप से ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम और नीदरलैंड) साम्राज्यवादी विस्तार के बोझ से जूझ रही थीं।
2. औपनिवेशिक विरोधी कूटनीति (Diplomatic Shift):- यूरोपीय औपनिवेशवाद के खिलाफ कूटनीतिक स्तर पर एक निर्णायक बदलाव हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साम्राज्यवाद को समाप्त करने के लिए अमेरिकी दबाव अधिक मुखर और अवरोधक हो गया।
3. औपनिवेशिक प्रतिरोध (Resistance to Colonialism):- एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ प्रतिरोध अधिक तीव्र और राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गया। इसका एक हिस्सा कई कट्टरपंथी राजनीतिक विचारों के प्रभाव के फैलाव से जुड़ा था:-
- पैन-अफ्रीकनिज्म (Pan-Africanism):- स्वदेशी प्रतिरोध के सिद्धांत, जो प्रायः राष्ट्रवाद के रूपों के साथ जुड़े थे।
- धार्मिक मुक्ति सिद्धांत (Liberation Theologies):- ईसाई और मुस्लिम परंपराओं से उत्पन्न धार्मिक विचारधाराएं, जो मानव समानता और नस्लवाद एवं गरीबी की बुराइयों पर जोर देती थीं।
- मार्क्सवाद-लेनिनवाद (Marxism-Leninism):- पश्चिमी साम्राज्यवाद और पूंजीवाद विरोधी विचारधारा।
इन सभी विचारों के संयोजन ने राष्ट्रीय मुक्ति(National Liberation) के लिए एक शक्तिशाली औपनिवेशिक विरोधी राष्ट्रवाद को जन्म दिया। इसका अर्थ केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं बल्कि सामाजिक क्रांति भी था जो राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता की संभावनाओं को प्रस्तुत करता था।
ब्रिटिश साम्राज्य का अंत
600 मिलियन से अधिक लोगों पर शासन करने वाला ब्रिटिश साम्राज्य जो अपने चरम पर पूरे विश्व में फैला हुआ था। इसका पतन विशेष रूप से महत्वपूर्ण था।
1947 में भारत ने शोषणकारी ब्रिटिशों से कड़े संघर्ष के बाद अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की।
इसके बाद 1948 में बर्मा व श्रीलंका और 1957 में मलाया को स्वतंत्रता मिली। ब्रिटेन की अफ्रीकी उपनिवेशों ने 1950 के दशक के अंत और 1960 के दशक की शुरुआत में स्वतंत्रता प्राप्त की। 1980 में ज़िम्बाब्वे की स्वतंत्रता के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के पतन ने 49 नए राज्यों को जन्म दिया।
हालांकि ब्रिटेन को कुछ सशस्त्र औपनिवेशिक विरोध का सामना करना पड़ा विशेष रूप से मलाया और केन्या में लेकिन उपनिवेशवाद समाप्त होने की प्रक्रिया को रोका नहीं जा सका।
इसके विपरीत फ्रांस ने अपनी साम्राज्यवादी स्थिति को छोड़ने से इनकार कर दिया जिसके कारण वियतनाम (1945–54) और अल्जीरिया (1954–62) की स्वतंत्रता को रोकने के लिए लंबे, क्रूर, और अंततः असफल संघर्ष छिड़े।
इसी तरह, पुर्तगाल को अपनी अफ्रीकी उपनिवेशों गिनी बिसाऊ, मोज़ाम्बिक और अंगोला में छोटे लेकिन अत्यधिक प्रेरित और संगठित औपनिवेशिक विरोधी संघर्षों के कारण अपनी औपनिवेशिक शक्ति हिंसक रूप से खोनी पड़ी। इन 1961 से 1975 के संघर्षों को सामूहिक रूप से 'पुर्तगाली औपनिवेशिक युद्ध (Portuguese Colonial War)' कहा जाता है।
यह तर्क दिया जा सकता है कि उपनिवेशवाद की समाप्ति (decolonization) के प्रभाव शीत युद्ध (Cold War) के प्रभावों की तुलना में अधिक गहरे थे और निश्चित रूप से इसका प्रभाव अधिक लंबे समय तक रहा। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के प्रारंभिक दशकों में विश्व इतिहास में सबसे नाटकीय और तीव्र राज्य निर्माण की प्रक्रिया देखी गई। तीसरी दुनिया (Third World) में यूरोपीय उपनिवेशवाद के अंत ने संयुक्त राष्ट्र (UN) की सदस्यता को तीन गुना से अधिक बढ़ा दिया जो 1945 में लगभग 50 देशों से 1978 तक 150 से अधिक देशों तक पहुंच गई।
इसका मतलब था कि 17वीं सदी में उत्पन्न यूरोपीय राज्य प्रणाली 1945 के बाद एक सचमुच वैश्विक प्रणाली बन गई। हालांकि साम्राज्य के अंत ने महाशक्ति प्रभाव (superpower influence) के दायरे को भी व्यापक रूप से बढ़ाया। द्विध्रुवीय(bipolar) शक्ति संतुलन के रूप में यूएसएसआर और अमेरिका आमने-सामने दिखाई देने लगे। इसने यह उजागर किया कि उपनिवेशवाद का अंत और शीत युद्ध अलग और स्वतंत्र प्रक्रियाएं नहीं थीं बल्कि आपस में गहराई से जुड़ी और ओवरलैप करने वाली थीं।
विकासशील दुनिया (developing world) पूर्व-पश्चिम संघर्ष (East–West conflict) का प्रमुख युद्धक्षेत्र बन गई। इस प्रकार एक वैश्विक राज्य प्रणाली की स्थापना और संप्रभु स्वतंत्रता (sovereign independence) के सिद्धांत की प्रतीत होने वाली जीत ने वैश्वीकरण (globalization) के एक महत्वपूर्ण क्षण के साथ मेल खाया। लगभग पूरी दुनिया किसी न किसी स्तर पर विरोधी शक्ति ब्लॉकों में समाहित हो गई।
इस प्रक्रिया ने न केवल रणनीतिक और सैन्य परस्पर निर्भरता (strategic and military interdependence) का जाल बनाया बल्कि नव स्वतंत्र राज्यों (newly independent states) में आर्थिक और सांस्कृतिक हस्तक्षेप (penetration) के उच्च स्तर भी उत्पन्न किए।
किसी भी गुट का समर्थन नहीं करने करने वाले गुटनिरपेक्ष देशों के समूह है रूप में अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के उपनिवेशित और नए स्वतंत्र देश उभर कर सामने आए। इन्हें तीसरी दुनिया के रूप में जाना गया। वर्तमान में यह देश बहुध्रुविय(Multipolar) शक्ति संतुलन का समर्थन करते हैं, जिसमें विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश भारत भी शामिल है।
अंततः औपचारिक स्वतंत्रता (formal independence) प्राप्त करने का विकासशील देशों पर आर्थिक और सामाजिक विकास के संदर्भ में मिला-जुला प्रभाव पड़ा।
पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया की तथाकथित स्तरीय अर्थव्यवस्थाओं (tier economies) और खाड़ी क्षेत्र के कई तेल उत्पादक देशों ने उच्च विकास दर हासिल की, गरीबी को समाप्त किया और व्यापक समृद्धि लाई। चीन में माओ काल (1949–75) के राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद स्थिर आर्थिक विकास ने 1980 के दशक से बाजार अर्थव्यवस्था (market economy) और बढ़ती विकास दरों की नींव रखी।
हालांकि कई अन्य क्षेत्र इतने सौभाग्यशाली नहीं थे। 1970 के दशक से 'वैश्विक दक्षिण (Global South)' कहलाने वाले क्षेत्रों विशेष रूप से उप-सहारा अफ्रीका में व्यापक और कभी-कभी गंभीर गरीबी बनी रही।
[साम्राज्यवादी अतिविस्तार (Imperial Over-reach):- यह एक साम्राज्यवादी शक्ति द्वारा आवश्यकता से अधिक क्षेत्रों या लोगों पर नियंत्रण स्थापित करने का अहंकारी प्रयास है, जिसके लिए उसके पास पर्याप्त भौतिक संसाधन (जैसे वित्तीय और सैन्य क्षमताएं) नहीं होते, जिससे वह सफलतापूर्वक इस नियंत्रण को बनाए रख सके।]
सुपरपावर(SUPERPOWER)
"सुपर-पावर" शब्द का पहली बार उपयोग विलियम फॉक्स ने 1944 में किया था। यह शब्द एक ऐसी शक्ति को संदर्भित करता है जो पारंपरिक "महाशक्ति" से भी अधिक शक्तिशाली होती है। फॉक्स के अनुसार सुपरपावर के पास महान शक्ति के साथ-साथ शक्ति को संचालित करने की महान क्षमता भी होती है।
यह शब्द विशेष रूप से शीत युद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ को संदर्भित करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इसलिए इसका अवधारणात्मक महत्व के बजाय ऐतिहासिक महत्व अधिक है। अमेरिका और सोवियत संघ को सुपरपावर के रूप में वर्णित करने का अर्थ यह था कि उनके पास: -
1. वैश्विक पहुंच थी
2. अपने-अपने वैचारिक गुटों या प्रभाव क्षेत्रों में प्रमुख आर्थिक और रणनीतिक भूमिका थी
3. विशेष रूप से परमाणु हथियारों के संदर्भ में विशाल सैन्य क्षमता थी
शीत युद्ध का उदय और पतन(RISE AND FALL OF THE COLD WAR)
यदि संक्षिप्त में बीसवीं सदी को पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच वैचारिक संघर्ष(ideological battle between capitalism and communism) द्वारा चिह्नित किया जाए तो 1945 के इस संघर्ष के बाद तीव्र और नाटकीय बदलाव आया जिसने विश्व व्यवस्था को बदल दिया था।
हालांकि प्रथम विश्व युद्ध से बुरी तरह प्रभावित होने और विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में आर्थिक गिरावट का सामना करने के बावजूद यूरोपीय शक्तियां 1939 से पहले की दुनिया में विश्व राजनीति को आकार देने वाली प्रमुख ताकतें थीं।
1945 के बाद की दुनिया में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ सुपरपावर के रूप में उभरे जो विश्व मंच पर प्रमुख अभिनेता बन गए और पुरानी "महाशक्तियों" की तुलना में कहीं अधिक प्रभावशाली दिखे।
सुपरपावर युग को शीत युद्ध द्वारा चिह्नित किया गया जो एक ऐसा काल था जब अमेरिका प्रधान पश्चिम(US-dominated West) और सोवियत प्रधान पूर्व(Soviet-dominated East) के बीच तनाव रहा। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले के बहुध्रुवीयता के दौर की जगह शीत युद्ध की द्विध्रुवीयता ने ले ली।
शीत युद्ध का पहला चरण यूरोप में लड़ा गया। जर्मनी की हार के बाद यूरोप का जो विभाजन हुआ (जिसमें सोवियत रेड आर्मी ने पूर्व से आगे बढ़ते हुए और संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम और उनके सहयोगियों ने पश्चिम से आगे बढ़ते हुए जर्मनी पर कब्जा किया) वह जल्दी ही स्थायी हो गया।
जैसा कि विंस्टन चर्चिल ने 1946 में मिसौरी के फुल्टन(Fulton, Missouri) में अपने प्रसिद्ध भाषण में कहा था "एक लोहे का परदा(iron curtain)" पूर्व और पश्चिम के बीच ल्यूबेक (उत्तर जर्मनी) से लेकर एड्रियाटिक के ट्रिएस्ट तक उतर गया है।
कुछ लोग शीत युद्ध की शुरुआत 1945 के पॉट्सडम सम्मेलन(Potsdam Conference) से मानते हैं जहां अमेरिका, यूके और सोवियत संघ के नेताओं के बीच जर्मनी और बर्लिन को चार क्षेत्रों में विभाजित करने को लेकर असहमति हुई थी।
दूसरे लोग इसे 1947 में स्थापित तथाकथित "Truman Doctrine (ट्रूमैन डॉक्ट्रिन)" से जोड़ते हैं जिसके तहत संयुक्त राज्य अमेरिका ने मुक्त लोगों का समर्थन करने की प्रतिबद्धता जताई। इसके बाद मार्शल योजना(Marshall Plan) शुरू की गई जिसने युद्धग्रस्त यूरोप के पुनर्निर्माण के लिए आर्थिक सहायता प्रदान की ताकि वह साम्यवाद के आकर्षण का विरोध कर सके।
विभाजन की प्रक्रिया 1949 में 'दो जर्मनी (पश्चिमी जर्मनी और पूर्वी जर्मनी)' के निर्माण और प्रतिद्वंद्वी सैन्य गठबंधनों की स्थापना के साथ पूरी हुई। विभाजित यूरोप में सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप में अपने प्रभाव का विस्तार किया, जबकि पश्चिमी यूरोप अमेरिका-प्रभुत्व वाले पूंजीवादी गुट का हिस्सा बन गया। इन गठबंधनों में 1949 में नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (NATO) और 1955 में वारसा संधि (Warsaw Pact) शामिल थे। इसके बाद शीत युद्ध वैश्विक स्तर पर फैल गया।
कोरियाई युद्ध (1950-53) ने 1949 की चीनी क्रांति के बाद शीत युद्ध को एशिया तक फैला दिया। लेकिन सवाल उठता है कि शीत युद्ध की शुरुआत आखिरकार कैसे हुई?
शीत युद्ध की ओर ले जाने वाली व्यापक परिस्थितियों को लेकर बहुत कम विवाद है:-
यथार्थवादी सिद्धांतकारों के अनुमानों के अनुसार सुपरपावर राज्यों का अस्तित्व स्वाभाविक रूप से विस्तार और शक्ति बढ़ाने का एक प्रबल अवसर प्रदान करता था जिससे दुनिया की दो सुपरपावरों के बीच प्रतिद्वंद्विता लगभग अवश्यम्भावी बन गई।
संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के मामले में यह प्रतिद्वंद्विता यूरोप में उनके सामान्य भू-राजनीतिक हितों और आपसी गहरी वैचारिक अविश्वास(common geopolitical interests in Europe and a mutual deep ideological distrust)के कारण बढ़ गई।
संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच अपूरणीय वैचारिक विरोध जो शीत युद्ध के दो प्रमुख ध्रुव थे, साम्यवाद और उदार पूंजीवाद के बीच विरोधाभास में निहित था। साम्यवाद जो एक सामूहिकतावादी विचारधारा(communism) थी जिसमें जनकल्याण की व्यवस्था और अत्यधिक राज्य 'नियंत्रित अर्थव्यवस्था(command economy)' थी। उदार पूंजीवाद(liberal capitalism) जो एक व्यक्तिगत विचारधारा थी जिसमें प्रतिनिधि सरकार और 'मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था(free market economy)' का समर्थन किया गया था।
इन दोनों सुपरपावरों के बीच तनावों के पीछे उनका लगभग समान सैन्य क्षमता का होना था जो विशेष रूप से परमाणु हथियारों(सामूहिक विनाश के सबसे भयानक हथियार) के कब्जे से उत्पन्न हुआ था।
इन घटनाओं के परिणामस्वरूप पूर्वी (सोवियत संघ के नेतृत्व में) और पश्चिमी (अमेरिका के नेतृत्व में) गुटों के बीच वैचारिक, राजनीतिक और सैन्य तनाव उत्पन्न हुआ जिसे "शीत युद्ध" कहा गया।
फिर भी, शीत युद्ध के प्रारंभ के लिए जिम्मेदारी को लेकर महत्वपूर्ण बहसें उत्पन्न हुईं और ये बहसें उन प्रतिद्वंद्विताओं और वैचारिक धारणाओं(rivalries and ideological perceptions) से गहरे जुड़ी हुई थीं, जिन्होंने शीत युद्ध को बढ़ावा दिया। शीत युद्ध के लिए पारंपरिक या ऑर्थोडॉक्स व्याख्या(traditional or orthodox explanation) ने जिम्मेदारी को सोवियत संघ पर मढ़ा। यह दृष्टिकोण पूर्वी यूरोप पर सोवियत संघ के नियंत्रण को रूस के साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति मानता है जिसे वैश्विक वर्ग संघर्ष की मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारा(Marxist–Leninist doctrine) से नया बल मिला था और जिसके परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद(international communism) की स्थापना हुई।
फिर भी शीत युद्ध की एक पुनरीक्षणवादी व्याख्या(revisionist interpretation) विकसित की गई जिसने वियतनाम युद्ध (1964–75) के दौरान बढ़ते समर्थन को आकर्षित किया। इसे अकादमिक जैसे गैब्रियल कोल्को (Gabriel Kolko,1985) ने समर्थित किया। इस दृष्टिकोण के अनुसार सोवियत विस्तारवाद को पूर्वी यूरोप में आक्रामक नहीं बल्कि रक्षात्मक के रूप में देखा गया जो मुख्य रूप से अपनी सुरक्षा के लिए एक बफर ज़ोन बनाने की इच्छा से प्रेरित था ताकि वह शत्रुतापूर्ण पश्चिम से सुरक्षित रह सके और इसके साथ ही एक स्थायी रूप से कमजोर जर्मनी देखना चाहता था।
[बफर ज़ोन(Buffer zone):- यह एक क्षेत्र या राज्य या राज्यों का समूह होता है जो विरोधियों के बीच स्थित होता है और विशेष रूप से संभावित भूमि-आधारित हमलों की संभावना को कम करता है।]
कई उत्तर-पुनरीक्षणवादी(post-revisionist) व्याख्याएं भी विकसित की गई हैं। इनमें से कुछ सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को स्वीकार करती हैं। यह तर्क करते हुए कि शीत युद्ध जर्मनी और जापान की हार और साथ ही ब्रिटेन की थकावट से उत्पन्न शक्ति के खालीपन का अपरिहार्य परिणाम था (येरगिन/Yergin,1980)।
वैकल्पिक व्याख्याएं गलतफहमियों और खोई हुई अवसरों पर अधिक जोर देती हैं। उदाहरण के लिए राष्ट्रपति रूजवेल्ट के शांतिपूर्ण सहयोग में विश्वास के शुरुआती संकेत थे जो नए बनाए गए संयुक्त राष्ट्र के तहत था और साथ ही स्टालिन का युगोस्लाविया में टीटो और चीन में माओ के प्रति विशेष रूप से हतोत्साहित करने वाला रवैया भी था।
शीत युद्ध एक ऐसा दौर नहीं था जिसमें निरंतर और अनवरत तनाव(consistent and unremitting tension) था। इसमें गर्म और ठंडे चरण थे। कभी-कभी यह एक गर्म युद्ध(Hot war) में बदलने की धमकी देता था। 1962 का क्यूबा मिसाइल संकट(Cuban Missile Crisis of 1962) शायद वह पल था जब सुपरपावरों के बीच सीधे टकराव के सबसे करीब पहुंचने का खतरा था। यह तथ्य कि यह तनावपूर्ण स्थिति शांतिपूर्वक समाप्त हो गई और शायद इस बात का प्रमाण था कि "Mutually Assured Destruction(परस्पर सुनिश्चित विनाश)" की स्थिति तनाव को सैन्य संघर्ष(brinkmanship) में बदलने से रोकने में प्रभावी थी।
[Brinkmanship:- एक रणनीति है जिसमें संघर्ष को बढ़ाया जाता है यहां तक कि युद्ध के खतरे तक ताकि एक प्रतिद्वंदी को पीछे हटने के लिए मजबूर किया जा सके (युद्ध के किनारे तक जाना)।
Mutually Assured Destruction (MAD):- एक स्थिति जिसमें किसी भी राज्य द्वारा परमाणु हमला केवल अपनी खुद की विनाश को सुनिश्चित करेगा क्योंकि दोनों के पास अपरिहार्य दूसरा प्रहार करने की क्षमता होती है।]
हालाँकि, शीत युद्ध का द्विध्रुवीय मॉडल(Bipolar Model )1970 के दशक के बाद धीरे-धीरे अधिक असंगत और गलत साबित होने लगा। इसका कारण पहले तो यह था कि साम्यवादी दुनिया में विभाजन बढ़ रहा था (विशेष रूप से, मॉस्को और बीजिंग के बीच गहरी दुश्मनी) और दूसरा जापान और जर्मनी का 'आर्थिक सुपरपावर' के रूप में उभरना था। 1963–71 का काल एक उभरती हुई बहुध्रुवीयता(emerging multipolarity) को दर्शाता था। इसके बाद 1972–80 के बीच पूर्व और पश्चिम के बीच शांति की स्थिति(détente) का दौर स्पष्ट रूप से शुरू हुआ।
[Détente:- (फ्रेंच) शिथिलता, पहले से शत्रुतापूर्ण राज्यों के बीच तनाव में ढील, आमतौर पर इसे ठंडी युद्ध के एक चरण के रूप में प्रयोग किया जाता है।]
हालाँकि जब शीत युद्ध समाप्त हुआ, तो यह नाटकीय, तेज़ और अपेक्षाकृत अप्रत्याशित था। साम्यवाद के सात दशकों का पतन सिर्फ दो वर्षों (1989–91) में हो गया और जहाँ साम्यवादी शासन जीवित रहे जैसे कि चीन में वहाँ पर भी एक समग्र परिवर्तन की प्रक्रिया चल रही थी। 1989 के ऐतिहासिक वर्ष में पूर्वी यूरोप में साम्यवादी शासन को सोवियत संघ की सीमाओं तक पीछे हटा दिया गया। 1990 में CSCE(यूरोप में सुरक्षा और सहयोग पर सम्मेलन) पेरिस सम्मेलन ने शीत युद्ध के समाप्त होने की औपचारिक घोषणा की और 1991 में स्वयं सोवियत संघ का 15 स्वतंत्र गणराज्यों विघटन हो गया। फिर भी शीत युद्ध के अंत पर बहस उतनी ही वैचारिक विवादों से घिरी हुई है जितनी कि इसके प्रारंभ पर बहस।
साम्यवाद के पतन और शीत युद्ध के अंत से जुड़ी विभिन्न कारकों में निम्नलिखित शामिल हैं:-
- सोवियत शैली के साम्यवाद की संरचनात्मक कमजोरियाँ(the structural weaknesses of Soviet-style communism)
- गोर्बाचेव की सुधार प्रक्रिया का प्रभाव(the impact of Gorbachev’s reform process)
- अमेरिकी विदेश नीति(US foreign policy)
- आर्थिक और सांस्कृतिक वैश्वीकरण(economic and cultural globalization)
कुछ का कहना है कि साम्यवाद का पतन एक ऐसी दुर्घटना था जिसे होना ही था क्योंकि यह संरचनात्मक दोषों का अपरिहार्य परिणाम था जो सोवियत-शैली के शासन को निश्चित रूप से पतन की ओर ले जा रहे थे। इससे भी अधिक प्रभावी तरीके से जैसा कि मार्क्स ने पूंजीवादी प्रणाली के घातक दोष के रूप में पहचाना था। ये कमजोरियाँ दो प्रकार की थीं :-
आर्थिक कमजोरियाँ(economic weaknesses):- यह केंद्रीय नियोजन अर्थव्यवस्था(Centrally planned economies) की अंतर्निहित विफलताओं से जुड़ी थीं। केंद्रीय रूप से नियोजित अर्थव्यवस्थाएँ पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में सामान्य समृद्धि प्रदान करने और आधुनिक उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करने में कम प्रभावी साबित हुईं। 1980-91 में राजनीतिक असंतोष की घटनाएँ इस प्रकार महत्वपूर्ण रूप से आर्थिक पिछड़ेपन का प्रतिनिधित्व करती थीं, जो पश्चिमी शैली के जीवन स्तर और वस्तुओं के उपभोग को प्राप्त करना चाहती थी।
राजनीतिक कमजोरियाँ(political weaknesses) :- इस तथ्य से उत्पन्न हुईं कि साम्यवादी शासन(communist regimes) संरचनात्मक रूप से जन दबाव के प्रति असंवेदनशील थे। विशेष रूप से प्रतिस्पर्धी चुनावों, स्वतंत्र हित समूहों, और स्वतंत्र मीडिया की अनुपस्थिति में एकल-पार्टी साम्यवादी राज्यों में राजनीतिक असंतोष को व्यक्त करने और शासकों और जनता के बीच संवाद स्थापित करने के लिए कोई तंत्र नहीं था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आर्थिक निराशा के अतिरिक्त 1989-91 की अवधि में जनता के प्रदर्शनों ने उन नागरिक स्वतंत्रताओं और राजनीतिक अधिकारों की मांग की जिन्हें पश्चिमी उदार लोकतंत्रों में सामान्य माना जाता था।
हालाँकि संरचनात्मक कमजोरियाँ साम्यवाद की पतनशीलता को समझा सकती हैं। वे इसके समय और गति को नहीं समझातीं। दशकों से जमा आर्थिक और राजनीतिक निराशा कैसे कुछ महीनों या हफ्तों में शासन के पतन का कारण बनी? इसका उत्तर मिखाइल गोर्बाचेव(Mikhail Gorbachev) द्वारा 1985 से सोवियत संघ में शुरू किए गए सुधारों के प्रभाव में है। सुधार प्रक्रिया के तीन प्रमुख पहलू थे:-
1. पहला, जो पेरस्त्रोइका/perestroika(पुनर्निर्माण) के नारे पर आधारित था। इसमें सोवियत केंद्रीय नियोजन की दीर्घकालिक कमियों को दूर करने के लिए बाजार प्रतिस्पर्धा और निजी संपत्ति के तत्वों को पेश किया गया था, जो पहले के 'बाजार समाजवाद' के प्रयोगों (विशेष रूप से यूगोस्लाविया में) पर आधारित था। हालांकि गोरबाचोव की आर्थिक सुधारों के परिणाम विनाशकारी साबित हुए। पहले से ही कमजोर और धीमी गति से चल रही योजना आधारित अर्थव्यवस्था को सुधारों ने और अधिक अस्थिर बना दिया। पुरानी प्रणाली जो कम से कम किसी हद तक काम कर रही थी अब पूरी तरह से अव्यवस्थित हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि उत्पादन ठप होने लगा, आवश्यक वस्तुओं की कमी हो गई और जनता को भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा।
[Perestroika(पुनर्गठन):- सोवियत संघ में इस शब्द का उपयोग नियंत्रित या नियोजित अर्थव्यवस्था में बाजार सुधारों की शुरुआत के लिए किया गया था। इसका उद्देश्य अर्थव्यवस्था को अधिक प्रभावी और प्रतिस्पर्धी बनाना था।]
2. दूसरा पहलू था ग्लासनोस्ट/glasnost (खुलापन) के नारे के तहत विचारों और राजनीतिक बहस की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंधों को समाप्त करना। हालांकि ग्लासनोस्ट ने न केवल गोर्बाचेव के विपक्षियों को राजनीतिक आवाज दी बल्की कड़े कम्युनिस्टों को भी राजनीतिक आवाज प्रदान की। यह विरोधी किसी भी ऐसे सुधार के खिलाफ थे जो राज्य अभिजात वर्ग के विशेषाधिकारों और शक्ति को खतरे में डाल सकते हैं। यह कट्टरपंथी केंद्रीय नियोजन और साम्यवादी शासन को पूरी तरह से समाप्त करना चाहते थे। Gorbachev धीरे-धीरे अलग-थलग पड़ने लगे। उन्होंने 'सुधार साम्यवाद' (reform communism) से पीछे हटते हुए अधिक कट्टरपंथी बदलावों की ओर रुख किया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था साम्यवादी पार्टी के सत्ता पर एकाधिकार (monopoly of power) को औपचारिक रूप से समाप्त करना।
[Glasnost(खुलापन):- सोवियत संघ में इसका उपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए किया गया था लेकिन यह केवल एक पार्टी साम्यवादी राज्य की सीमाओं के भीतर ही लागू था। इसका उद्देश्य जनता के विचारों और समस्याओं पर चर्चा को प्रोत्साहित करना था।]
3. तीसरा सबसे महत्वपूर्ण पहलू Gorbachev के सुधारों का था संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के साथ रिश्तों को नया दृष्टिकोण। जिसका आधार ब्रीजनव डॉक्ट्रिन (Brezhnev Doctrine) का परित्याग था। इसका स्थान लेने वाला 'सिनात्रा डॉक्ट्रिन(Sinatra doctrine)' पूर्वी यूरोप के देशों को ‘अपना तरीका अपनाने’ की अनुमति देता था। इसका मतलब था कि गोर्बाचेव और सोवियत संघ ने हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया। जब एक-एक करके 1989-90 में साम्यवादी शासन गिरने लगे तो सोवियत संघ ने उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया। इस बदलाव का सबसे बड़ा प्रतीक बर्लिन की दीवार का गिरना था जो 1989 में हुआ। यह घटना केवल जर्मनी के एकीकरण का संकेत नहीं थी बल्कि पूर्वी यूरोप में साम्यवाद के पतन और शीत युद्ध के अंत की शुरुआत भी मानी जाती है।
[Brezhnev Doctrine:- यह सिद्धांत 1968 में लियोनिद ब्रेज़नेव द्वारा घोषित किया गया था। इसके तहत वारसॉ पैक्ट के देशों को केवल 'सीमित संप्रभुता' (limited sovereignty) का अधिकार था। इसका अर्थ था कि यदि साम्यवादी व्यवस्था को खतरा होता है तो सोवियत संघ हस्तक्षेप करने का अधिकार रखता था। उदाहरण:- 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सैन्य हस्तक्षेप।]
ठंडी युद्ध के अंत के वैकल्पिक व्याख्याएँ(Alternative explanations) सोवियत संघ और सामान्य रूप से साम्यवादी खेमे के आंतरिक विकास से ध्यान हटाकर उस परिवर्तित संदर्भ पर ध्यान केंद्रित करती हैं जिसमें साम्यवाद संचालित हो रहा था। साम्यवाद के पतन में योगदान देने वाले प्रमुख बाहरी कारक थे:-
- संयुक्त राज्य अमेरिका में रीगन प्रशासन की नीतियाँ और
- आर्थिक और सांस्कृतिक वैश्वीकरण की प्रगति
रीगन प्रशासन का इस प्रक्रिया में योगदान था 1980 के दशक में अमेरिकी सैन्य निर्माण को फिर से शुरू करना। विशेष रूप से 1983 में 'स्ट्रैटेजिक डिफेंस इनिशिएटिव/Strategic Defense Initiative (SDI) जिसे 'स्टार वार्स पहल(the ‘star wars’ initiative)' भी कहा जाता है। इसका उद्देश्य अंतरिक्ष-आधारित रक्षा प्रणाली विकसित करना था, जो परमाणु मिसाइलों को अंतरिक्ष में ही नष्ट कर सके। चाहे अमेरिका का इरादा हो या न हो इसने सोवियत संघ को एक शस्त्रागार दौड़ में शामिल कर लिया। यह दौड़ उसकी पहले से ही कमजोर अर्थव्यवस्था सहन नहीं कर सकी। इससे आर्थिक पतन को बढ़ावा मिला और साथ ही आर्थिक सुधार के लिए दबाव बढ़ने लगा।
आर्थिक वैश्वीकरण का योगदान यह था कि इसने पूर्व और पश्चिम के बीच जीवन स्तर(living standards )के अंतर को और अधिक चौड़ा कर दिया। 1970 के दशक से अमेरिकी प्रभुत्व वाले पश्चिम में व्यापार और निवेश के अंतर्राष्ट्रीयकरण ने तकनीकी और आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया। इसके विपरीत सोवियत प्रभुत्व वाले पूर्वी वैश्विक बाजारों पर आर्थिक प्रतिबंधके माध्यम से बहिष्कार किया गया से जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करता था कि सोवियत-प्रभुत्व वाले पूर्व को आर्थिक नानी का सामना करना पड़े और इसके दबाव में वे अमेरिका के पक्ष में आ जाएं। सांस्कृतिक वैश्वीकरण की प्रक्रिया (रेडियो और टेलीविजन प्रौद्योगिकी के प्रसार) के माध्यम से पश्चिमी विचारों, सूचनाओं, और छवियों को फैलाने में मदद की। इससे एक स्वतंत्र और अधिक समृद्ध पश्चिम की छवि विकसित हुई।
इसके परिणामस्वरूप पूर्व में साम्यवादी विचारधारा रखने वाले लोगों में असंतोष में वृद्धि हुई इसके साथ ही पश्चिमी शैली की अर्थव्यवस्था और राजनीति के प्रति आकर्षण बढ़ा। आर्थिक और राजनीतिक सुधारों के लिए समर्थन बढ़ा।
वैश्वीकरण ने आर्थिक और सांस्कृतिक दोनों स्तरों पर पूर्वी और पश्चिमी दुनिया के बीच की खाई को और अधिक चौड़ा कर दिया।
क्या शीत युद्ध अपरिहार्य था(WAS THE COLD WAR INEVITABLE)?
पक्ष में दृष्टिकोण
द्विध्रुवीयता की गतिशीलता (Dynamics of Bipolarity):-
यथार्थवादी सिद्धांत और शीत युद्ध
यथार्थवादी सिद्धांतकारों (Realist Theorists) का मानना है कि शीत युद्ध को शक्ति राजनीति (Power Politics) और अंतरराष्ट्रीय प्रणाली (International System) के स्वभाव के संदर्भ में सबसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। इस दृष्टिकोण में:-
- राज्यों की प्राथमिक चिंता:- प्रत्येक राज्य अपनी सुरक्षा और अस्तित्व को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है।
- सैन्य और सुरक्षा पर जोर:- राज्यों की प्राथमिकता सैन्य और सुरक्षा चिंताओं पर केंद्रित होती है।
- अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन:- राज्यों की शक्ति बनाए रखने की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में शक्ति का वितरण कैसा है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक बहुध्रुवीय विश्व (Multiple Great Powers) से एक ऐसा विश्व बना जिसमें दो महाशक्तियों का वर्चस्व था।
जर्मनी, जापान और इटली की हार और ब्रिटेन और फ्रांस जैसे विजयी देशों के दीर्घकालिक पतन ने शक्ति मैं बदलाव आया जिसने एक द्विध्रुवीय विश्व व्यवस्था (Bipolar World Order) को जन्म दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की परिस्थितियों ने शीत युद्ध को अपरिहार्य बना दिया। अमेरिका और सोवियत संघ के पास वैश्विक राजनीति में प्रमुख प्रभाव था। द्विध्रुवीयता का मतलब था कि अमेरिका और सोवियत संघ के बीच प्रतिद्वंद्विता और शत्रुता अनिवार्य थीं। दोनों महाशक्तियाँ अपने प्रभाव क्षेत्र (Sphere of Influence) को मजबूत करने और यदि संभव हो तो उसका विस्तार करने का प्रयास कर रही थीं। इस प्रक्रिया ने अमेरिका के प्रभुत्व वाले पश्चिम और सोवियत संघ के प्रभुत्व वाले पूर्व के बीच बढ़ते हुए शत्रुतापूर्ण संबंधों को जन्म दिया।
शांति और सहयोग क्यों असंभव था?
वैचारिक मतभेद:- पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच वैचारिक संघर्ष ने सहयोग की संभावना को समाप्त कर दिया।
सत्ता संघर्ष:- शक्ति को लेकर दोनों महाशक्तियों के बीच संघर्ष अपरिहार्य था।
अतः यथार्थवादी विचारधारा के अनुसार द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय शक्ति संतुलन में बदलाव और द्विध्रुवीयता ने शीत युद्ध को अनिवार्य बना दिया। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शांति और सहयोग इसलिए संभव नहीं था क्योंकि दोनों अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने और वैश्विक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे।
वैचारिक लंबा युद्ध (Ideological Long War)
शीत युद्ध की अपरिहार्यता का वैकल्पिक दृष्टिकोण(alternative version of the Cold War)
शीत युद्ध की अपरिहार्यता को वैचारिक संघर्ष की अनिवार्यता के रूप में भी देखा जा सकता है। इस दृष्टिकोण में, शीत युद्ध वैश्विक वैचारिक संघर्ष (Global Ideological Struggle) का एक हिस्सा था जो पूंजीवाद (Capitalism) और साम्यवाद (Communism) के बीच था। यह संघर्ष उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ और 1917 की रूसी क्रांति के बाद और अधिक ठोस रूप में प्रकट हुआ
पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच संघर्ष का मुख्य कारण यह था कि ये दो अलग-अलग और असंगत आर्थिक व्यवस्थाओं (Economic Organization) का प्रतिनिधित्व करते थे। ये दोनों व्यवस्थाएँ भविष्य की अलग-अलग दृष्टियों (Competing Visions) को दर्शाती थीं, जो एक-दूसरे के विपरीत थीं। शीत युद्ध को पूंजीवादी पश्चिम (Capitalist West) और साम्यवादी पूर्व (Communist East) के बीच एक युद्ध के रूप में देखा गया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1945 में फासीवाद (Fascism) के पराजित होने के बाद शीत युद्ध आवश्यक ह गया जो वैश्विक राजनीति में पूर्व और पश्चिम के बीच संघर्ष में बदल गया
अतः वैकल्पिक दृष्टिकोण के अनुसार शीत युद्ध का आरंभ पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच वैचारिक संघर्ष का परिणाम था। यह संघर्ष तब अपरिहार्य हो गया जब द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फासीवाद को समाप्त कर दिया गया और वैश्विक राजनीति पूर्व-पश्चिम संघर्ष (East-West Conflict) से संचालित होने लगी।
इस प्रकार से यथार्थवादी दृष्टिकोण और वैकल्पिक दृष्टिकोण ने शीत युद्ध को अपरिहार्य बताया।
विपक्ष में दृष्टिकोण
सोवियत संघ के प्रति पश्चिमी गलत धारणाएँ (Western Misperceptions about the Soviet Union)
शीत युद्ध न तो केवल द्विध्रुवीयता (Bipolarity) से प्रेरित था और न ही केवल वैचारिक संघर्ष (Ideology) से यह गलतियाँ, गलत अनुमान, और गलत व्याख्याओं के कारण उभरा। दोनों प्रमुख पक्ष (अमेरिका और सोवियत संघ) ने शांति और सहयोग के अवसरों को चूककर ऐसी स्थिति बना दी जिसमें आपसी अविश्वास और दुश्मनी अपरिहार्य लगने लगी।
पश्चिमी देशों ने यह मान लिया था कि सोवियत संघ की विदेश नीति विचारधारा (Ideology) से प्रेरित है जबकि इसका असल उद्देश्य भौगोलिक सुरक्षा (Territorial Security) सुनिश्चित करना था।
सोवियत प्राथमिकताएँ जर्मनी को स्थायी रूप से कमजोर करना और पूर्वी यूरोप में अनुकूल राज्यों का एक बफर ज़ोन (Buffer Zone) बनाना था।
1946–47 तक अमेरिकी नीति विश्लेषकों ने सोवियत ब्लॉक के निर्माण को इस रूप में देखना शुरू किया की यह रूसी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं (Russian Imperial Ambitions) का हिस्सा है। यह मार्क्सवादी-लेनिनवादी वर्ग संघर्ष (Marxist–Leninist Doctrine of Worldwide Class Struggle) का परिणाम है। ट्रूमैन प्रशासन के प्रमुख लोग यह मानने लगे कि सोवियत संघ विश्व क्रांति (World Revolution) के लिए प्रयासरत है। इस धारणा के आधार पर उन्होंने अपनी नीतियों और कार्यों को निर्देशित किया।
इस तरह से पश्चिमी देशों की सोवियत संघ के प्रति गलत धारणाओं और भय ने शीत युद्ध को जन्म दिया। अमेरिकी प्रशासन ने सोवियत विदेश नीति के उद्देश्यों को गलत समझा और इसने आपसी अविश्वास और टकराव को बढ़ावा दिया।
सोवियत संघ की पश्चिम के प्रति गलत धारणाएँ (Soviet Misperceptions about the West)
सोवियत संघ विशेष रूप से स्टालिन के नेतृत्व में पश्चिम के प्रति गहरे अविश्वास से प्रभावित था। यह अविश्वास "पूंजीवादी घेराबंदी" (Capitalist Encirclement) के प्रति अंतरयुद्ध के भय से उपजा था।
सोवियत नेताओं का मानना था कि अमेरिकी विदेश नीति रणनीतिक चिंताओं (Strategic Concerns) की बजाय मुख्य रूप से वैचारिक कारकों (Ideological Considerations), खासतौर पर कम्युनिज्म विरोध (Anti-Communism) से प्रेरित थी।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति तेजी से घटी। मई 1945 में अमेरिकी बलों की संख्या 35 लाख से घटकर मार्च 1946 तक 4 लाख हो गई। बाद में यह केवल 81,000 तक सिमट गई। हालांकि सोवियत नीति निर्धारकों ने इसे महत्व नहीं दिया। वे समझ नहीं पाए कि अमेरिका युद्ध के बाद सहयोग करना चाहता था भले ही वह अपने शर्तों पर हो।
सोवियत संघ और अमेरिका दोनों का उद्देश्य रक्षा खर्च को कम करना और घरेलू पुनर्निर्माण (Domestic Reconstruction) में संसाधन लगाना था। यह साझा हित उनके बीच दीर्घकालिक संबंध स्थापित करने के लिए पर्याप्त मजबूत नहीं था। आपसी अविश्वास और गलत धारणाओं ने सहयोग के बजाय डर और शत्रुता को बढ़ावा दिया।
इस प्रकार से वियत संघ ने पश्चिम, विशेषकर अमेरिका की नीतियों और उद्देश्यों को गलत समझा। इसका परिणाम यह हुआ कि शीत युद्ध का आरंभ अविश्वास और आपसी डर से हुआ, जिससे संभावित सहयोग की संभावनाएँ समाप्त हो गईं।
बर्लिन दीवार का गिरना(Fall of the Berlin Wall)
9 नवंबर 1989 को पूर्वी जर्मनी की सरकार के एक प्रवक्ता ने यात्रा प्रतिबंध हटाने की घोषणा की और जल्दबाजी में कहा कि यह निर्णय तुरंत प्रभावी होगा। इस घोषणा ने जनता को उत्साहित कर दिया। पोलैंड और हंगरी में साम्यवादी शासन के पतन और लीपज़िग सहित अन्य शहरों में बड़े जन प्रदर्शनों से प्रेरित होकर पश्चिम और पूर्वी बर्लिन के लोग दीवार की ओर दौड़े। वहां उत्सव जैसा माहौल बन गया लोग दीवार पर चढ़कर नाचने लगे और एक-दूसरे को दीवार के दोनों ओर जाने में मदद करने लगे। 10 नवंबर की सुबह तक बर्लिन की दीवार को तोड़ने का काम शुरू हो गया। अगले कुछ हफ्तों में पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच सीमाएं पूरी तरह से खुल गईं। इस घटना ने अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों को भी प्रेरित किया। दिसंबर 1989 में चेकोस्लोवाकिया में साम्यवादी शासन गिर गया और रोमानिया में विद्रोह के बाद निकोले चाउसेस्कु और उनकी पत्नी को क्रिसमस के दिन फांसी दी गई। बर्लिन दीवार का पतन शीत युद्ध के अंत का प्रतीक बन गया।

बर्लिन दीवार का पतन 1989 के ऐतिहासिक वर्ष का प्रतीकात्मक क्षण था जिसने पूर्वी यूरोप में क्रांतियों की शुरुआत की जिसने साम्यवाद की सीमाओं को सोवियत संघ की सीमाओं तक पीछे धकेल दिया और पूरे साम्यवादी विश्व में सुधार की प्रक्रिया को प्रज्वलित किया। 1989 को विश्व इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण वर्षों में से एक माना जाता है जिसे 1648 (यूरोपीय राज्य प्रणाली का जन्म), 1789 (फ्रांसीसी क्रांति), 1914 (प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत) और 1945 (द्वितीय विश्व युद्ध का अंत और शीत युद्ध की शुरुआत) के साथ जोड़ा जाता है। 1989 से उत्पन्न गति ने कई विश्व-ऐतिहासिक घटनाओं को जन्म दिया। 1990 में जर्मनी का पुन: एकीकरण हुआ जिससे यूरोप के पुन: एकीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई, जिसमें यूरोपीय संघ और नाटो का विस्तार हुआ। 1990 में ही Warsaw Pact और NATO के प्रतिनिधि पेरिस में मिले और औपचारिक रूप से शत्रुता समाप्त करने की घोषणा की जिससे शीत युद्ध का आधिकारिक रूप से अंत हुआ। अंततः दिसंबर 1991 में दुनिया का पहला साम्यवादी राज्य सोवियत संघ आधिकारिक रूप से भंग हो गया।
फ्रांसिस फुकुयामा (1989) के अनुसार वर्ष 1989 ने 'इतिहास के अंत' को चिह्नित किया, क्योंकि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का वैश्विक ऐतिहासिक शक्ति के रूप में पतन यह दर्शाता था कि उदार लोकतंत्र अब दुनिया भर में एकमात्र जीवित आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली बन गया था। वहीं फिलिप बॉबिट (2002) के अनुसार 1989 द्वारा प्रेरित घटनाओं ने उदारवाद, फासीवाद और साम्यवाद के बीच लंबे युद्ध का अंत किया जो राष्ट्र-राज्य के संवैधानिक रूप को परिभाषित करने के लिए लड़ा जा रहा था। हालांकि कुछ ने 1989 विशेष रूप से बर्लिन दीवार के पतन के ऐतिहासिक महत्व पर सवाल उठाए हैं। पहला यह तर्क किया जा सकता है कि 1989 और उससे पहले की अवधि में महत्वपूर्ण निरंतरता है क्योंकि दोनों में संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रधान स्थिति को ही प्रमुख रूप से देखा जा सकता है। दरअसल 1989 केवल संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व की लंबी यात्रा में एक और कदम हो सकता है। दूसरा 1989-91 ने रूस की शक्ति में केवल एक अस्थायी कमजोरी को चिह्नित किया जा सकता है जो 1990 के दशक के संकट वर्षों से उबरने के बाद और पुतिन के तहत अपनी प्रभावशीलता फिर से स्थापित करने के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ शीत युद्ध जैसे प्रतिद्वंद्विता की वापसी का कारण बना।

1990 के बाद की दुनिया(THE WORLD SINCE 1990)
'नया विश्व व्यवस्था(A NEW WORLD ORDER)'?
शीत युद्ध के बाद की दुनिया का जन्म एक आशावाद और आदर्शवाद(Optimism and Idealism) की लहर के साथ हुआ था। सुपरपावर युग(SuperPower Era) पूर्व-पश्चिम प्रतिद्वंद्विता से चिह्नित था। यह पूरी दुनिया में फैली हुई थी और एक परमाणु निर्माण को बढ़ावा दिया था, जिसने ग्रह को नष्ट करने का खतरा उत्पन्न किया था। जैसे ही पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का पतन हुआ और सोवियत शक्ति घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर पीछे हट रही थी संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बुश (वरिष्ठ) ने 'नया विश्व व्यवस्था(New World Order)' के उदय की घोषणा की। हालांकि नया विश्व व्यवस्था का विचार अक्सर स्पष्ट परिभाषा से रहित था। यह निस्संदेह रूप से उदारवादी आशाओं और अपेक्षाओं को व्यक्त करता था। जबकि शीत युद्ध वैचारिक संघर्ष और आतंक के संतुलन पर आधारित था। सुपरपावर प्रतिद्वंद्विता के अंत ने 'उदारवादी शांति(libral peace)' की संभावना को खोल दिया, जो अंतरराष्ट्रीय मानदंडों और नैतिकता के मानकों की सामान्य स्वीकृति पर आधारित थी। इस उभरती हुई विश्व व्यवस्था का केंद्रीय बिंदु विवादों को शांतिपूर्वक सुलझाने, आक्रामकता और विस्तारवाद का प्रतिरोध करने(resist aggression and expansionism), सैन्य शस्त्रागारों को नियंत्रित कर घटाने(reduce military arsenals) और मानवाधिकारों का सम्मान करके घरेलू जनसंख्या के प्रति न्यायपूर्ण व्यवहार सुनिश्चित करने की आवश्यकता को पहचानना था। 'इतिहास का अंत' के सिद्धांतकारों जैसे फ्रांसिस फुकुयामा/Francis Fukuyama (1989, 1991) ने तर्क किया कि अब दुनिया के सभी हिस्से एकल आर्थिक और राजनीतिक विकास के मॉडल की ओर अपरिहार्य रूप से आकर्षित होंगे जो उदार लोकतंत्र पर आधारित होगा।

शीत युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था ने अपनी प्रमुख परीक्षा की पहली श्रृंखला को आसानी से पार किया जिससे उदारवादी आशावाद को बढ़ावा मिला। अगस्त 1990 में इराक द्वारा कुवैत का कब्जा करने के बाद इराकी सेनाओं को बाहर निकालने के लिए कार्रवाई की गई। 1991 में युगोस्लाविया का विघटन, जिसने सर्बिया और क्रोएशिया के बीच युद्ध को जन्म दिया। इसने यूरोप में सुरक्षा और सहयोग सम्मेलन/Co-operation in Europe/CSCE का पहला उपयोग देखा, जिसे अंतरराष्ट्रीय संकटों से निपटने के लिए एक तंत्र के रूप में स्थापित किया गया था। CSCE जिसे 1994 में यूरोप में सुरक्षा और सहयोग संगठन/Organization for Security and Co-operation in Europe/OSCE के रूप में पुनर्नामित किया गया। इससे यह उम्मीदें थीं कि यह अंततः वारसॉ पैक्ट और नाटो(Warsaw Pact and NATO) दोनों को बदल देगा। हालांक CSCE को 1975 में हेलसिंकी सम्मेलन/Helsinki Conference में अपनी स्थापना के बाद से सुपरपावर की शत्रुता द्वारा प्रभावी रूप से हाशिए पर डाल दिया गया था, फिर भी 1990 के नवम्बर में पेरिस में CSCE के प्रमुखों की बैठक ने वह संधि बनाई जिसने औपचारिक रूप से शीत युद्ध का अंत किया। हालांकि अंतरराष्ट्रीय सद्भावना और सहयोग की प्रारंभिक उम्मीदें जल्दी ही भ्रांतिपूर्ण साबित हुईं क्योंकि असंतोष और अस्थिरता के नए रूप सतह पर उभरने लगे।

नई विश्व व्यवस्था में तनाव उन संघर्षों और संघर्षों के कारण उत्पन्न हुए जिन्हें शीत युद्ध ने नियंत्रित करने में मदद की थी। बाहरी खतरे (चाहे वह 'अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद' हो या 'पूंजीवादी घेराव') का अस्तित्व आंतरिक एकता को बढ़ावा देता है और समाजों को उद्देश्य और पहचान का अहसास दिलाता है। कुछ हद तक उदाहरण के लिए पश्चिम ने स्वयं को पूर्व के प्रति शत्रुता के माध्यम से परिभाषित किया और पूर्व ने स्वयं को पश्चिम के प्रति शत्रुता के माध्यम से परिभाषित किया। कई राज्यों में इस बात के प्रमाण हैं कि बाहरी खतरे के समाप्त होने से केंद्री विभाजक दबाव बढ़ गए जो आमतौर पर नस्लीय, जातीय और क्षेत्रीय तनावों के रूप में उभरे। यह साक्ष्य है कि कई राज्यों में बाहरी खतरे के पतन ने केन्द्रीय बलों को मुक्त किया जो आमतौर पर नस्लीय, जातीय और क्षेत्रीय तनावों के रूप में उभरे। यह दुनिया के कई हिस्सों में हुआ लेकिन विशेष रूप से पूर्वी यूरोप में जैसा कि सर्बों, क्रोएशियनों और मुसलमानों(Serbs, Croats, and Muslims) के बीच लंबे समय तक खून-खराबे से युगोस्लाविया का विघटन है। बोस्नियाई युद्ध/Bosnian War(1992-1995) ने बीसवीं शताब्दी के दूसरे आधे हिस्से में यूरोप का सबसे लंबा और सबसे हिंसक युद्ध देखा। न्याय और मानवाधिकारों का सम्मान करने पर आधारित विश्व व्यवस्था स्थापित करने के बजाय अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने 1999 के कोसोवो संकट तक सर्बिया को विस्तार युद्ध छेड़ने की अनुमति दी। इस दौरान सर्बिया ने नस्लीय सफाया (Ethnic Cleansing) और नरसंहार जैसी नीतियां अपनाईं जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों की क्रूरताओं की याद दिलाती थीं। यह नीतियाँ विशेष रूप से बोस्निया और कोसोवो में दिखाई दीं जहां सर्बियाई सरकार ने मुस्लिम और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाया। अंतरराष्ट्रीय समुदाय (जिसमें संयुक्त राष्ट्र और पश्चिमी शक्तियां शामिल थी), ने इस संकट को रोकने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए। वे बस देखते रहे और हस्तक्षेप करने में देरी करते रहे। जब 1999 में कोसोवो संकट अपने चरम पर पहुंचा तब जाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इस पर ध्यान दिया और नाटो ने हस्तक्षेप किया। फिर भी ये प्रारंभिक प्रवृत्तियाँ चाहे आशावादी हों या न हों शीत युद्ध के बाद विश्व इतिहास में अचानक बाधा उत्पन्न हो गई जब 2001 में वैश्विक आतंकवाद का उदय हुआ।
[पूंजीवादी घेराव(Capitalist encirclement):- यह सिद्धांत जो रूसी गृह युद्ध (1918–21) के दौरान विकसित हुआ। इस धारणा के अनुसार पूंजीवादी राज्य सक्रिय रूप से सोवियत संघ को उपेक्षित करने और साम्यवाद को समाप्त करने के प्रयासों में लगे हुए थे।]
9/11 क्या इतिहास का पुनरागमन?
कई लोगों के लिए 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुए हमले को विश्व इतिहास के एक निर्णायक क्षण के रूप में देखा गया। उस बिंदु के रूप में जहां शीत युद्ध के बाद के युग की असली प्रकृति का खुलासा हुआ और वैश्विक संघर्ष व अस्थिरता की अभूतपूर्व अवधि की शुरुआत हुई। दूसरी ओर 9/11 के प्रभाव को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना भी संभव है। जैसा कि रॉबर्ट कागन (2004) ने कहा, "अमेरिका 11 सितंबर को नहीं बदला बल्कि वह और अपने स्वभाव का बन गया।(America did not change on September 11. It only became more itself )" 1990 के दशक में, संयुक्त राज्य अमेरिका ने 'वैश्विक पुलिस अधिकारी(global police officer)' की भूमिका अपनाई थी जो मानवीयता के तहत संयुक्त राष्ट्र और नाटो समर्थित सैन्य हस्तक्षेपों का नेतृत्व कर रहा था। असफल और दुष्ट राज्यों को स्थिर करने और उन तानाशाहों को हताश करने की कोशिश कर रहा था जो अपने नागरिकों या पड़ोसी देशों के लिए खतरा थे। ये हस्तक्षेप इराक (1990-1991) से लेकर सोमालिया (1992-1993) और पोस्ट-सोवियत पूर्वी यूरोप के कोसोवो (1999) तक फैले हुए थे। 9/11 के बाद विदेश नीति की चर्चा में स्पष्ट रूप से बदलाव आया जिसमें 'वैश्विक आतंकवाद' और विशेष रूप से मुस्लिम बहुल देशों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया। इसके परिणामस्वरूप जो 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' की शुरुआत जॉर्ज डब्ल्यू. बुश जूनियर द्वारा की गई उसमें अफगानिस्तान (2001) और इराक (2003) पर अमेरिकी नेतृत्व में हमले शामिल थे, जिसके परिणामस्वरूप लंबे और जटिल संघर्ष हुए जो स्पष्ट और निर्णायक अंत तक नहीं पहुंचे।
आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जिसने जल्दी ही अन्य पश्चिमी शक्तियों विशेष रूप से यूके की भागीदारी प्राप्त की। यह शुरू में अल-कायदा पर केंद्रित था, जो इस्लामवादी' उग्रवादियों का नेटवर्क था। अल-कायदा ने ही 9/11 हमलों की जिम्मेदारी ली थी। हालांकि 2000 और 2010 के दशकों में इसका दायरा व्यापक हो गया और इसमें एशिया, मध्य पूर्व और अफ्रीका के अन्य इस्लामिक उग्रवादी संगठनों के साथ-साथ पश्चिमी देशों के मुस्लिम नागरिकों को भी शामिल किया गया। जबकि यह एक विदेश नीति में बदलाव और शीत युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था में परिवर्तन को दर्शाता था। कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं में इस अवधि के दौरान अमेरिकी विदेश नीति में कुछ ऐतिहासिक निरंतरताएँ भी बनी रही। विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका (और कुछ हद तक व्यापक पश्चिम) को कई लोगों द्वारा मध्य पूर्व के मुस्लिम बहुल देशों में अपनी आर्थिक निर्भरता के कारण इन देशों द्वारा नियंत्रित तेल के कारण अपनी निहित स्वार्थों के रूप में देखा गया। 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' के आलोचकों ने अक्सर यह सुझाव दिया कि इराक युद्ध विशेष रूप से इराकी लोगों के लिए मानवीय चिंता या इस्लामवादी उग्रवादियों के बीच आतंकवादी रणनीतियों को बढ़ावा देने को रोकने के बारे में कम था (जो किसी भी हालत में सद्दाम हुसैन की धर्मनिरपेक्ष तानाशाही में अवांछनीय थे) और यह अमेरिकी रणनीतिक स्वार्थों को इस तेल-सम्पन्न क्षेत्र में बनाए रखने और विस्तार करने के बारे में था। यह एक प्रकार की रीयलपॉलिटिक(realpolitik) थी।
पश्चिमी देशों की क्षेत्र में उपनिवेशीकरण से लेकर विउपनिवेशीकरण तक की प्रक्रिया को अक्सर भ्रष्टाचार व तानाशाही को बढ़ावा देने और अस्थिरता के बीज बोने के रूप में देखा जाता है। विशेष रूप से 1947 में इज़राइल राज्य की स्थापना को आसपास के नव-स्वतंत्र अरब राज्यों के द्वारा पश्चिमी उपनिवेशवाद का विस्तार माना गया था। इसे एक पश्चिमी चौकी की स्थापना के रूप में देखा गया, जिसे अरब दुनिया को कमजोर करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। अरब–इज़राइली युद्धों की निरंतर पराजय ने केवल अरब दुनिया में हताशा और अपमान की भावना को गहरा किया। 'फ़िलिस्तीन समस्या(Palestine problem)' का राजनीतिक और सांकेतिक प्रभाव 1948 युद्ध के बाद सैकड़ों हजारों फ़िलिस्तीनी अरबों का विस्थापन और 1967 में छह दिन(5 जून से 10 जून) युद्ध के बाद कब्जे वाले क्षेत्र की स्थापना अत्यधिक महत्वपूर्ण था। इजरायल ने मिस्र, जॉर्डन और सीरिया को हराया और सिनाई प्रायद्वीप, गाजा पट्टी, पश्चिमी तट, पूर्वी यरुशलम और गोलान हाइट्स पर कब्जा कर लिया।

विशेष रूप से न की अरब दुनिया में बल्कि कई अन्य मुस्लिम देशों में भी। पश्चिमी प्रभावों के प्रति बढ़ते असंतोष की भावना को बढ़ावा देने के अलावा जो इज़राइल राज्य में निहित मानी जाती हैं इसने भ्रष्ट और आत्मसंतुष्ट सैन्य तानाशाही को सत्ता में आने और बनाए रखने के लिए एक अवसर भी प्रदान किया। यह अवसर यह जानते हुए भी प्रदान किया गया कि वे हमेशा इज़राइल और फलस्तीन के मुद्दे का उपयोग लोकप्रिय समर्थन जुटाने के लिए कर सकते थे। 7 October 2023 से दुबारा शुरू हुए इजराइल- हमास संघर्ष की जड़ें हम अतीत के इतिहास में देख सकते हैं।
2008 के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका में ओबामा प्रशासन के आगमन को प्रारंभ में 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' के लिए 'अंत की शुरुआत' के रूप में देखा गया था, जिसे अक्सर 'अंतहीन युद्ध(war without end)' के रूप में पेश किया गया था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ओबामा ने बुश प्रशासन द्वारा पहचाने गए मुस्लिम बहुल देशों में लक्ष्यों को निशाना बनाते हुए अमेरिकी ड्रोन हमलों के कार्यक्रम का बड़े पैमाने पर विस्तार किया। उनके प्रशासन ने अन्य विवादास्पद प्रथाओं को भी बनाए रखा – जिन्हें व्यापक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून का उल्लंघन माना गया। इसमें अन्य देशों से संदिग्धों का 'असाधारण प्रत्यारोपण/extraordinary rendition’' (अपहरण/kidnapping) करना व उनकी बाद में तीसरे पक्ष के देशों में 'ब्लैक साइट' जेलों में गुप्त रूप से हिरासत में रखना और संभवतः यातना देना शामिल था। यहाँ पर मानवाधिकार लागू करने में ढिलाई थी, जो दोहरे मानदंड को दर्शाता है। जब डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन 2017 में सत्ता में आया तो यह बुश जूनियर के राष्ट्रपति पद से भी राजनीतिक रूप से दाहिने(right) था। लेकिन यह अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में कुछ कम हस्तक्षेपात्मक दृष्टिकोण अपनाने वाला था। जब जनवरी 2020 में प्रशासन ने शायद अपनी सबसे विवादास्पद विदेश नीति निर्णय लिया जिसमें इराक दौरे के दौरान ईरानी जनरल कासिम सुलेमानी को ड्रोन हमले द्वारा हत्या कर दी तो ट्रम्प ने बुश और ओबामा द्वारा पहले से स्थापित तंत्र और मानदंडों का पालन किया। बाइडन प्रशासन ने 2021 में अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को विवादास्पद रूप से वापस बुला लिया और बीस वर्षों के युद्ध के बाद तालिबान को फिर से अफगानिस्तान पर नियंत्रण सौंप दिया। हालांकि अमेरिकी प्रशासन अफगानिस्तान पर नियंत्रण करने में असफल रहा। अफगानिस्तान 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' का प्रतीक संघर्ष था जिसे 9/11 हमलों के प्रतिशोध में शुरू किया गया था। बाइडन प्रशासन ने 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' के तंत्र में संलिप्त रहकर ड्रोन हमलों का उपयोग करते हुए बिना न्यायिक प्रक्रिया के 'लक्षित हत्याएं(targeted killings)' करना जारी रखा।
अफगानिस्तान पर आक्रमण: क्या इतिहास से सीखा गया?
जब सोवियत संघ ने 1980 में अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और 2001 में अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया तो क्या वे अफगानिस्तान को जीतने के पिछले प्रयासों से सबक सीखने में विफल हो रहे थे? क्या इस संदर्भ में इतिहास चेतावनियाँ देता है? उन्नीसवीं सदी में अफगानिस्तान महान शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्धा का केंद्र था क्योंकि यह रूस के साम्राज्य से उत्तर में और ब्रिटिश भारत से पूर्व में स्थित था। इसका परिणाम दो युद्धों के रूप में हुआ। पहला एंग्लो-अफगान युद्ध (1839–42) शायद उन्नीसवीं सदी का ब्रिटेन का सबसे बड़ी साम्राज्यवादी आपदा थी। ब्रिटिश सेनाओं ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया था जिसका उद्देश्य शाह शुजा को फिर से सिंहासन पर स्थापित करके ब्रिटेन के प्रभाव को बढ़ाना था। हालांकि 1842 में काबुल में शुजा की हत्या ने ब्रिटिश सैनिकों को एक असंभव स्थिति में डाल दिया। दो महीने की घेराबंदी के बाद उन्होंने 'काबुल से वापसी' की शुरुआत की। काबुल छोड़ने वाली 18,500 सदस्यीय पार्टी में से सिर्फ एक व्यक्ति ब्रिटिश गढ़ जलालाबाद (जो आज के पाकिस्तान में है) तक पहुंच सका। फिर भी लगभग चालीस साल बाद दूसरा एंग्लो-अफगान युद्ध (1878–80) हुआ। इस बार ब्रिटिश अपने मुख्य उद्देश्य को पूरा करने में सफल रहे। इसका उद्देश्य अफगान विदेश नीति को नियंत्रित करके रूस के प्रभाव को सीमित करना था। हालांकि अफगान अपने आंतरिक शासन में स्वतंत्र रहे और 1919 में ब्रिटिश प्रभाव से पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त की।
अफगानिस्तान पर आक्रमण करने का विचार करने वाले किसी भी राज्य द्वारा उठाए गए कदमों में 'साम्राज्यों का कब्रिस्तान(graveyard of empires)' के रूप में वर्णित अफगानिस्तान निश्चित रूप से कई चुनौतियों का सामना करता है। इन चुनौतियों में दुर्गम भौगोलिक स्थितियाँ (ज्यादातर पहाड़ों और रेगिस्तानों से बना), कठोर सर्दियाँ, बुनियादी ढांचे की कमी, जटिल जनजातीय मिश्रण, विभिन्न जातीयताएँ, केंद्रीकृत शासन का कम इतिहास और विदेशी कब्जे के प्रति पारंपरिक शत्रुता शामिल हैं। इन कारकों का संयोजन अफगानिस्तान को पारंपरिक सैन्य रणनीतियों के उपयोग के लिए विशेष रूप से अनुपयुक्त बनाता है जो आक्रमणकारी बल के पास होने वाले किसी भी तकनीकी लाभ को संतुलित करता है। कहा जा सकता है कि 2001 का आक्रमण पिछले आक्रमणों की तरह राजनीतिक दृष्टि से बहुत कम सफलताएँ लेकर समाप्त हुआ। 2021 में नाटो की वापसी और तालिबान सरकार की पुनर्स्थापना के बाद हम इस असफलता को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। यह Marx के कथन को उद्धृत करता है कि (जो उन्होंने नेपोलियन I और नेपोलियन III के संदर्भ में कहा था) कि इतिहास स्वयं को दोहराता है 'पहले त्रासदी के रूप में, फिर हास्य के रूप में(history repeats itself, first as tragedy, then as farce)। हमेशा इतिहास में निर्धारक पढ़ने की कोशिश करना खतरनाक होता है क्योंकि कोई दो ऐतिहासिक परिस्थितियाँ कभी भी एक जैसी नहीं होतीं। उदाहरण के लिए 2001 में अमेरिकी नेतृत्व वाले आक्रमण के मामले में इसके लक्ष्य पहले के उपनिवेशी आक्रमणों से कहीं अधिक महत्वाकांक्षी थे क्योंकि अल-कायदा पर हमला करने और तालिबान को सत्ता से हटाने के अलावा इसका उद्देश्य अफगानिस्तान को आंतरिक रूप से प्रतिनिधि लोकतंत्र के आधार पर नया रूप देना था।

बहुध्रुवीयता की वापसी(THE RETURN OF MULTIPOLARITY)
सोवियत संघ का पतन और शीत युद्ध का अंत एक नए एकध्रुवीय युग की शुरुआत का संकेत देते हुए प्रतीत हुआ क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व की एकमात्र महाशक्ति के रूप में खड़ा था। लेकिन 9/11 हमलों के बाद यह 'वैश्विक वर्चस्व' धीरे-धीरे अस्तित्वगत चुनौतियों का सामना करने लगा। 21वीं सदी के पहले दशक में चीन का आर्थिक पुनरुत्थान और साथ ही विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के व्यापक 'ब्रिक्स' समूह ने यह संकेत दिया कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद और 20वीं सदी के अंत में कॉर्पोरेट वैश्वीकरण के आगमन के माध्यम से संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा स्थापित विशाल आर्थिक शक्ति शायद अस्थायी हो सकती है।
समकालीन इतिहास यह सुझाव देता है कि विश्व मामलों में संयुक्त राज्य अमेरिका का महत्व कई मामलों में घट रहा है। विशेष रूप से चीन एक बढ़ता हुआ वैश्विक अभिनेता बन गया है। 21वीं सदी की शुरुआत में चीन की आर्थिक वृद्धि वैश्विक स्तर पर अप्रतिम रही है। 20वीं सदी के अंतिम दशक में डेंग शियाओपिंग (1904-1997) के नेतृत्व में कम्युनिस्ट चीन की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक पूंजीवादी बाजार के लिए खुलने के बाद से देश वैश्विक उत्पादन श्रृंखलाओं का केंद्रीय हिस्सा बन गया।चीन ने 2009 में संयुक्त राज्य अमेरिका को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बन गया। सस्ती इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर वस्त्र, खिलौने और खेल उपकरण तक की वस्तुओं के वैश्विक निर्माण और व्यापार में प्रभुत्व स्थापित किया। प्रमुख पश्चिमी राज्य जिनकी अर्थव्यवस्थाएँ कुछ दशकों पहले तक चीन से बेहतर प्रदर्शन करती थीं अब चीन से भारी मात्रा में आयात पर निर्भर हो गई हैं। यहाँ तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका (सबसे बड़ी पश्चिमी महाशक्ति) भी इससे बच नहीं सका। अमेरिका ने हाल ही में अपनी अर्थव्यवस्था के लिए 'अमेरिका फर्स्ट' संरक्षणवादी दृष्टिकोण अपनाया है और अक्सर वैश्विक राजनीति में चीन के प्रति विरोधी दृष्टिकोण अपनाया है। ट्रम्प अमेरिका फर्स्ट नीति के जोरदार समर्थक हैं। 2024 में ट्रम्प के चुनाव का मुख्य मुद्दा अमेरिका फर्स्ट नीति के तहत Make America Grate Again/MAGA भी रहा है।
चीन की आर्थिक शक्ति, दुनिया के उपभोक्ता सामान के असामान्य उत्पादन के अलावा चीनी 'सॉफ़्ट पावर', सांस्कृतिक प्रभाव, साथ ही उसकी सैन्य व तकनीकी ताकत और क्षेत्रीय प्रभाव सभी इसे एक उभरते हुए संभावित वैश्विक आधिपत्य(global hegemon) के रूप में पहचान दिलाते हैं। चीन और भारत के बीच अपनी साझा सीमा पर बढ़ता तनाव जिससे जून 2020 में लद्दाख में दोनों देशों के बीच 45 वर्षों में पहली बार घातक झड़पें हुईं, जो यह संकेत हैं कि वैश्विक व्यवस्था में 'बहुध्रुवीयता(multipolarity)' का पुनः उदय हो सकता है। प्रमुख परमाणु हथियारों से संपन्न राज्य जिनमें अमेरिका, चीन, भारत और रूस शामिल हैं। ये आर्थिक संसाधनों, वैश्विक राजनीतिक प्रभाव और क्षेत्रीय नियंत्रण के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। इस संदर्भ में ट्रम्प प्रशासन की अपेक्षाकृत 'पृथकतावादी(isolationist)' नीति शायद आश्चर्यजनक नहीं है।
post-Cold War में दक्षिण और मध्य अमेरिका में भी नाटकीय परिवर्तन हुए हैं जिन्होंने अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दी है। यहां तक कि उस क्षेत्र में भी जहां ऐतिहासिक रूप से अमेरिका ने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए हैं। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत से राष्ट्रपति जेम्स मोनरो (1758–1831) का 'मोनरो डॉक्ट्रिन(Monroe Doctrine)' एक अलगाववादी अमेरिकी विदेश नीति की स्थिति निर्धारित करता था और लैटिन अमेरिका में आगे यूरोपीय उपनिवेशीकरण को निषेध करता था। हालांकि Theodore Tddy Roosevelt (1858–1919) के मोनरो डॉक्ट्रिन के 'रूज़वेल्ट कॉरोलरी(Roosevelt Corollary)' ने बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोपीय शक्तियों के पक्ष में लैटिन अमेरिका में अमेरिकी हस्तक्षेप के अधिकार का वर्णन किया। जैसे-जैसे कोल्ड वॉर शुरू हुआ अमेरिका का यह अधिक हस्तक्षेपकारी दृष्टिकोण जिसे उसने अपनी 'बैकयार्ड' मानते हुए अपनाया राष्ट्रपति हैरी ट्रूमन (1884–1972) के 'ट्रूमन डॉक्ट्रिन(Truman Doctrine)' के तहत 'कम्युनिस्ट देशों' पर नियंत्रण के लिए और 'हेमिस्फेरिक डिफेंस(hemispheric defence)' की प्रतिबद्धता के साथ तेज़ हो गया। कोल्ड वॉर अवधि में जब भी अमेरिका ने (यहां तक कि जो साधारण समाजवादी भी सत्ता में आते थे) किसी देश में कम्युनिज़्म का खतरा देखा तो उस देश में सीधे और परोक्ष रूप से कई अमेरिकी रणनीतिक हस्तक्षेप किये। उदाहरण के लिए चिली और ग्वाटेमाला से लेकर क्यूबा और निकारागुआ के द्वीपों तक।
कोल्ड वॉर के अंत के कुछ ही वर्षों के भीतर वामपंथी राजनीतिक आंदोलन लैटिन अमेरिका में महत्वपूर्ण सफलता देखने लगे। जहां कई समाजों में गहरी असमानताएँ बनी हुई थी। 2000 के दशक की तथाकथित 'पिंक टाइड(pink tide)' का उदाहरण वेनेजुएला के लोकतांत्रिक समाजवादी नेता ह्यूगो चावेज़ का उदय था, जिनके देश के संविधान में सुधार और तेल-सम्पन्न देश के बारीओस (शहरी स्लम) और झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली जनसंख्या को मतदान का अधिकार देने के प्रयासों ने उन्हें घरेलू और विदेशी स्तर पर वामपंथियों के बीच एक लोकप्रिय व्यक्ति बना दिया। चावेज़, बोलिविया और इक्वाडोर के अन्य लैटिन अमेरिकी समाजवादी नेताओं के साथ मिलकर जो उन्होंने 'बोलिवेरियन क्रांति(Bolivarian revolution)' कहा। यह नाम सिमोन बोलिवर के बाद रखा गया जिन्होंने इन देशों और अन्य लैटिन अमेरिकी देशों को 19वीं सदी की शुरुआत में स्पेन से स्वतंत्रता दिलाई थी। इस आंदोलन में सामाजिक सुधारों का एक व्यापक पैकेज शामिल था जिसका उद्देश्य असमानताओं को संबोधित करना और जीवन स्तर को सुधारना था। इन्होंने इस क्षेत्र में 21वीं सदी के 'अमेरिकी साम्राज्यवाद' के खिलाफ खुला विरोध किया। हालांकि 2010 के दशक के अंत तक पिंक टाइड का रुख बदलने लगा जब चावेज़ की 2013 में कैंसर से असमय मृत्यु के बाद वेनेजुएला उनके उत्तराधिकारी निकोलस मादुरो के तहत गहरे संकट में डूबने लगा और अन्य महत्वपूर्ण लैटिन अमेरिकी देशों में दाएं-पंथी सरकारें सत्ता में आईं। वामपंथी राजनीति की पराजय कहीं से भी ब्राजील में ज्यादा गूंजने वाली नहीं थी जो महाद्वीप का सबसे बड़ा और सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है और BRICS शक्तियों में से एक है। यहां 2003 से 2010 तक की लुइज़ इनासियो लूला दा सिल्वा (जिन्हें बस 'लूला' के नाम से जाना जाता है) और 2011 से 2016 तक की दिल्मा रूसेफ की लोकप्रिय वामपंथी अध्यक्षताओं को न केवल भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करना पड़ा जिसके चलते लूला को जेल भेजा गया और रूसेफ को महाभियोग का सामना करना पड़ा। 2018 में फार-राइट उम्मीदवार जायर बोलसोनारो की सफलता के बाद वामपंथी राजनीति की हार भी हुई।

हालाँकि BRICS के विकास की दिशा पर संदेह व्यक्त किया गया है। 2010 के दशक में चीन की आर्थिक वृद्धि में महत्वपूर्ण मंदी आई फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं है कि 2020 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका वैश्विक राजनीति में उतना केंद्रीय नहीं है जितना कि 2000 के दशक में था। यह कहा जा सकता है कि हालिया घटनाएँ संयुक्त राज्य अमेरिका की वैश्विक सर्वोच्चता और अनौपचारिक अमेरिकी साम्राज्य के अंत की शुरुआत का संकेत देती हैं। लेकिन यह गिरावट धीरे-धीरे और सीमित होगी। वर्तमान में डी डोलराइजेसन की मांग, एकतरफ़े अमेरिकी प्रतिबंध का विरोध आदि हमें वैश्विक राजनीति में देखने को मिलता है। जबकि प्राचीन रोम, हान राजवंश और ब्रिटिश साम्राज्य जैसे अन्य महान साम्राज्य यह दिखा चुके हैं कि साम्राज्य का पतन अपरिहार्य लगता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के मामले में कुछ ऐतिहासिक कारण हैं जो इसे अलग करते हैं। इनमें से सबसे पहले इसका परमाणु हथियारों का मालिक होना है। जबकि यह सुझाव नहीं दिया जाना चाहिए कि संयुक्त राज्य अमेरिका परमाणु युद्ध का सहारा हल्के में ले सकता है या कि ऐसा करने से किसी तरह इसका वैश्विक राजनीति पर घटते प्रभाव को रोका जा सकता है। ऐसे किसी देश के लिए जिसने इतनी बड़ी सैन्य शक्ति हासिल की हो यह अचानक से वैश्विक व्यवस्था की सीढ़ी से नीचे धकेल दिया जाना का कोई हालिया उदाहरण नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी वैश्विक राजनीति में अपने हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करेगा जो इसे नए उभरते महान शक्तियों के साथ अधिक या कम प्रत्यक्ष संघर्ष में ला सकता है जिन्होंने इसके घटते प्रभाव में योगदान दिया है।
Nice post 👏
जवाब देंहटाएंExplained very briefly 👍😊👍👍👍
जवाब देंहटाएं📚🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएं📖✏️❣️
जवाब देंहटाएंGlobal politics ka historical definition acha kiya hai
जवाब देंहटाएं🙏🙏👍