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गुहिल वंश

  गुहिल वंश  उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़, प्रतापगढ़ तथा इनके आस-पास का क्षेत्र मेवाड़ कहलाता था। गुहिल वंश ने मुख्यतः मेवाड़ में शासन किया। इस वंश का नामकरण इस वंश के प्रतापी शासक ' गुहिल' के नाम से हुआ। गुहिल वंश की उत्पत्ति और मूल स्थान के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं ।  अबुल  फजल इन्हें ईरान के शासक नौशेखाँ से संबंधित करता है, तो  कर्नल टॉड इन्हें वल्लभी के शासकों से संबंधित मानता है,  डी.आर. भण्डारकर   ब्राह्मण वंश का बताते हैं क्योंकि बप्पा के लिए विप्र शब्द का प्रयोग किया गया है, जैसा कि आहड़ (Ātpur) के शिलालेख में उल्लेखित है। वहीं नैणसी आदि रूप में ब्राह्मण व जानकारी से क्षेत्रीय, जबकी गोपीनाथ शर्मा इनके ब्राह्मण होने का मत प्रतिपादित करते हैं।  गुहिल वंश की उत्पत्ति :- डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इन्हें सूर्यवंशी मानते हैं जो पुराणों के समय से चले आ रहे हैं। उनके अनुसार राजा गुहदत्त, जो गुहिलोत वंश के आदिपुरुष थे, स्वयं ‘विप्र’ नहीं थे, बल्कि वे आनंदपुर से आए ब्राह्मणों के ‘आनंददाता’ अर्थात् “उनके लिए आनंद देने वाले” थे। आहड़ के शिल...

राजपूतों की उत्पत्ति

  राजपूतों की उत्पत्ति  हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के बाद भारत की राजनीतिक एकता जो गुप्तों के समय स्थापित हुई थी, पुनः समाप्त होने लगी । उत्तर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई। ये राज्य आपस में संघर्षरत थे। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप जो नये राजवंश उभरे, वे राजपूत राजवंश कहलाते हैं । इन नवीन राजवंशों का महत्त्व इसी तथ्य से पुष्ट होता है कि भारत का पूर्व - मध्यकालीन इतिहास इन राजपूत राजवंशों का इतिहास ही है, इसलिये इस काल को राजपूत - काल कहा जाता है। प्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है कि " वे (राजपूत) हर्ष की मृत्यु के बाद से उत्तरी भारत पर मुसलमानों के आधिपत्य तक इतने प्रभावशाली हो गये थे कि सातवीं शताब्दी के मध्य से 12वीं शताब्दी की समाप्ति तक के समय को राजपूत - युग कहा जा सकता है। " राजपूत कौन थे? यह प्रश्न आज भी उलझा हुआ है। विद्वानों ने इस विषय में अनेक मत प्रतिपादित किये हैं, किंतु कोई भी मत ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह सर्वमान्य हो। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि "राजपूत शब्द का प्रयोग नया नहीं हैं । प्राचीन...

राजस्थान के जनपद

  राजस्थान के जनपद आर्यों के प्रसार के अन्तर्गत और उसके पश्चात् भारत के अन्य भागों की भाँति राजस्थान में भी अनेक जनपदों का उदय, विकास और पतन हुआ। लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी ईस्वी के काल में राजस्थान के केन्द्रीय भागों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार था, परन्तु यौधेय तथा मालवों के यहाँ आने से ब्राह्मण धर्म को प्रोत्साहन मिलने लगा और बौद्ध धर्म के हास के चिह्न दिखाई देने लगे।  बौद्ध साहित्य (बौद्ध ग्रंथ अंगुत्तर निकाय से हमें 16 महाजनपदों की सूची प्राप्त होती हैं।  इसमें मत्स्य जनपद तो राजस्थान में ही स्थित था और राजस्थान के अनेक भाग कुरु, शूरसेन और अवन्ति महाजनपदों के अन्तर्गत थे। इसके अतिरिक्त चित्तौड़ के आस-पास का क्षेत्र शिवि जनपद कहलाता था। 327 ई. पू. में सिकन्दर के आक्रमणों के कारण पंजाब और टक्क की कुछ जातियाँ अपनी सुरक्षा और अस्तित्व की रक्षा के लिये पश्चिमोत्तर सीमा से कुछ कबीले - मालव, यौधेय और आर्जुनायन राजस्थान में आकर बस गये।   गुप्त राजाओं ने इन जनपदीय गणतन्त्रों को समाप्त नहीं किया, परन्तु इन्हें अर्द्ध-आश्रित रूप में बनाए रखा। ये गणतन्...