राजपूतों की उत्पत्ति
हर्षवर्धन की मृत्यु (647 ई.) के बाद भारत की राजनीतिक एकता जो गुप्तों के समय स्थापित हुई थी, पुनः समाप्त होने लगी । उत्तर भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हुई। ये राज्य आपस में संघर्षरत थे। इन संघर्षों के परिणामस्वरूप जो नये राजवंश उभरे, वे राजपूत राजवंश कहलाते हैं । इन नवीन राजवंशों का महत्त्व इसी तथ्य से पुष्ट होता है कि भारत का पूर्व - मध्यकालीन इतिहास इन राजपूत राजवंशों का इतिहास ही है, इसलिये इस काल को राजपूत - काल कहा जाता है।
प्रसिद्ध इतिहासकार स्मिथ ने लिखा है कि "वे (राजपूत) हर्ष की मृत्यु के बाद से उत्तरी भारत पर मुसलमानों के आधिपत्य तक इतने प्रभावशाली हो गये थे कि सातवीं शताब्दी के मध्य से 12वीं शताब्दी की समाप्ति तक के समय को राजपूत - युग कहा जा सकता है।"
राजपूत कौन थे? यह प्रश्न आज भी उलझा हुआ है। विद्वानों ने इस विषय में अनेक मत प्रतिपादित किये हैं, किंतु कोई भी मत ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह सर्वमान्य हो। डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि "राजपूत शब्द का प्रयोग नया नहीं हैं । प्राचीनकाल के ग्रन्थों में इसका व्यापक प्रयोग मिलता है । चाणक्य के 'अर्थशास्त्र', कालिदास के नाटकों व बाणभट्ट के 'हर्षचरित' तथा 'कादम्बरी' में इस शब्द का प्रयोग किया गया है। चीनी यात्री हवेनसांग ने भी जो हर्षवर्धन के समय आया था, राजाओं को कहीं क्षत्रिय और कहीं राजपूत लिखा है।" डा. ओझा द्वारा सुझाया गया, यह मत सर्वमान्य नहीं है। राजपूत शब्द का प्रयोग एक जाति के अर्थ में मुसलमानों के आगमन से पूर्व प्राप्त नहीं हुआ है, यद्यपि शासक वर्ग यानी क्षत्रियों के लिए 'राजपुत्र' शब्द का प्रयोग अवश्य किया जाता था। आगे की पंक्तियों में हम इस संबंध में महत्त्वपूर्ण विद्वानों के मतों का अध्ययन करेंगे, उनके मत व उस पर अन्य विद्वानों की टिप्पणियों को भी हम जानेंगे।
वैदिक आर्यों की संतान:-
डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा तथा सी.वी. वैद्य राजपूतों को भारतीय आर्यों के क्षत्रिय वर्ण (राजन्य वर्ग) की सन्तान मानते हैं। उनके कथनानुसार राजपूत प्राचीन क्षत्रियों की तरह अश्व तथा अस्त्र की पूजा करते हैं। प्राचीन आर्यों की भाँति यज्ञ और बलि में भी उनका विश्वास रहा है। उनके सुडौल शारीरिक गठन, लम्बी नाक और लम्बे सिर से भी यह प्रमाणित होता है कि वे आर्यों की सन्तान हैं ।
अग्निकुण्ड से उत्पन्न:-
चन्दबरदायी (अजमेर के शासक पृथ्वीराज - तृतीय का दरबारी विद्वान) ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ पृथ्वीराज रासो में राजपूतों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से बताई है। उसने लिखा है कि आबू पर्वत पर निवास करने वाले विश्वामित्र, गौतम, अगस्त्य तथा अन्य ऋषि धार्मिक अनुष्ठान करते थे। इन अनुष्ठानों को राक्षस माँस, हड्डी और मल-मूत्र डालकर अपवित्र कर देते थे । वशिष्ठ मुनि ने इनसे निपटने हेतु यज्ञ कुण्ड से तीन योद्धा उत्पन्न किये, जो परमार, चालुक्य और प्रतिहार कहलाए । किन्तु जब ये तीनों भी रक्षा करने में असमर्थ सिद्ध हुए तो वशिष्ठ ने चौथा योद्धा उत्पन्न किया जो प्रथम तीन से ज्यादा ताकतवर और हथियार से सुसज्जित था, जिसका नाम चौहान रखा गया । चन्दबरदाई के अनुसार इस तरह राजपूतों की उत्पत्ति मुनि वशिष्ठ द्वारा अग्निकुण्ड (यज्ञ कुण्ड) से की गई।
यद्यपि आज के वैज्ञानिक युग में इस कथा को स्वीकार नहीं किया जा सकता, किंतु इस कथा में अंतर्निहित संकेतों को विद्वानों ने समझने का प्रयास किया है । विद्वानों के अनुसार संभवतः प्राचीनकाल के क्षत्रिय जो बौद्ध बन गये थे या प्राचीन आदिवासी भील, मीणा आदि या विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों शक, हूण, यूची आदि की यज्ञ (अग्नि) द्वारा शुद्धि करके क्षत्रिय वर्ण में शामिल किया गया हो और यह कथा इसी घटना की साहित्यिक प्रस्तुति हो ।
ब्राह्मणों से उत्पत्ति का सिद्धांत:-
सर्वप्रथम डॉ. डी.आर. भण्डारकर ने गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से बतलाई । राजपूतों के ब्राह्मणवंशी होने के साक्ष्य के रूप में डॉ. भण्डारकर बिजौलिया शिलालेख का उल्लेख करते हैं, जिसमें वासुदेव चौहान के उत्तराधिकारी सामंत को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। इसके अतिरिक्त उनके अनुसार राजशेखर ब्राह्मण का विवाह अवंति सुंदरी के साथ होना चौहानों का ब्राह्मण वंश से उत्पत्ति का अकाट्य प्रमाण है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने भी मेवाड़ के गुहिलोतों को नागर जाति के ब्राह्मण गुदत्त का वंशज बताया है। मेवाड़ के महाराणा कुंभा ने भी जयदेव के गीत गोविन्द की टीका में यह स्वीकार किया कि गुहिलोत, नागर ब्राह्मण गुहेदत्त की सन्तान हैं । किन्तु कुछ अन्य इतिहासकार खासकर डॉ. दशरथ शर्मा इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार कई बार राजपूत अपने पुरोहित का गोत्र अपना लेते हैं, इस कारण यह भ्रम हो जाता है, कि राजपूत ब्राह्मण थे। डॉ. दशरथ शर्मा इस मत का तर्क -सहित खण्डन करते हैं।
विदेशियों की सन्तान:-
राजस्थान के इतिहास - लेखक जेम्स टॉड ने लिखा कि, “राजपूत शक अथवा सीथियन जाति के वंशज हैं।” टॉड ने अग्निकुण्ड की कहानी को स्वीकार करते हुए इसी आधार पर राजपूतों को विदेशी जाति का प्रमाणित करने का प्रयास किया है। उनका मत है कि यह विदेशी जातियाँ छठी शताब्दी के लगभग आक्रमणकारी के रूप में भारत आयीं और इन्हीं विदेशी विजेताओं को, जब वे शासक बन बैठे तो उन्हें अग्नि संस्कार द्वारा पवित्र कर वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय वर्ण में ले लिया। टॉड ने राजपूतों को शक व सीथियन प्रमाणित करने के लिए तर्क दिया है कि राजपूतों के रीति-रिवाज शक, सीथियन और हूणों से मिलते हैं, जैसे- अश्वपूजा, अश्वमेध, अस्त्रपूजा, अस्त्र - शिक्षा आदि अतः दोनों जातियाँ एक ही हैं। 'ब्रोचगुर्जर' नामक ताम्रपत्र के आधार पर राजपूतों को यू-ची जाति का वंशज मानते हुए कनिंघम ने इनका सम्बन्ध कुषाण जाति से किसने जोड़ा है। प्रसिद्ध इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने लिखा है कि राजपूत जाति आठवीं या नवीं शताब्दी में अचानक प्रकट हुई थी और स्मिथ ने राजपूतों को हूणों की संतान बताया है।
इन मतों को स्वीकार नहीं किया जा सकता । प्रथम तो राजपूतों ने स्वयं को कभी विदेशी नहीं बताया है। इसके विपरीत वे अपनी उत्पत्ति सूर्य व चन्द्र से बताते हैं । राजपूतों के रीति-रिवाजों की शक या सीथियन के रीति-रिवाजों से साम्यता स्थापित करना भी अनुचित है, क्योंकि उनके रीति-रिवाज शक - कुषाणों के आने के पूर्व भी भारत में प्रचलित थे । सूर्य की पूजा भारत में वैदिक काल से ही प्रचलित थी और अश्वमेध यज्ञ भी यहाँ पहले से ही ज्ञात था, जैसा कि महाकाव्यों के साक्ष्य से प्रमाणित होता है।
उपर्युक्त समस्त विवरण से स्पष्ट है कि राजपूतों की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के बीच मतभेद हैं। ऐसी परिस्थिति में अधिकांश विद्वान राजपूतों को भारतीय आर्यों के वंशज स्वीकार करते हैं, जिसमें विदेशी रक्त भी सम्मिलित है । यह भी स्थापित सत्य हैं, कि जो भी विदेशी जातियाँ भारत में आयीं और स्थायी रूप से यहीं निवास करने लगीं, उन्होंने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को अपना लिया तथा हिन्दू समाज ने उन्हें स्वयं में समाहित कर लिया। डॉ. कानूनगो ने ठीक ही लिखा है कि, "अग्निकुण्ड की कहानी इस प्रगति के युग में नहीं चल सकती, उनकी सूर्य अथवा चन्द्र से उत्पत्ति एक काल्पनिक सत्य हो सकता है राजपूत चाहे किसी भी रूप में जन्मे हों लेकिन यह सत्य है कि इतिहास में उन्होंने महाकाव्य - काल के क्षत्रियों की परम्पराओं को बनाये रखा है । "
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