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राष्ट्रीय हित की भूमिका(Role of National Interest)

राष्ट्रीय हित की भूमिका(Role of National Interest)

सारांश

‘राष्ट्रीय हित’ की अवधारणा का उदय आधुनिक विश्व इतिहास की उस अवधि में हुआ जब राष्ट्र-राज्य (Nation States) विश्व पटल पर विकसित होकर सामने आए। राष्ट्रीय हित वह है जिसे राज्य एक-दूसरे के संबंध में संरक्षित करने या प्राप्त करने का प्रयास करते हैं(National interest is what the states seek to protect or achieve in relation to each other)। विभिन्न राष्ट्र अपने-अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनी दिशा तय करते हैं और प्राथमिकताओं का निर्धारण करते हैं। परिणामस्वरूप, इसका विदेश नीति के साथ अत्यंत गहरा संबंध है, जिसके माध्यम से राष्ट्र अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास करता है। विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय हितों की रक्षा करना और उन्हें यथासंभव आगे बढ़ाना है।

चूँकि राष्ट्रों के राष्ट्रीय हित समय-समय पर बदलते रहते हैं, इसलिए उनकी विदेश नीतियाँ भी बदलती रहती हैं। राष्ट्रीय हित विचारधाराओं से भी प्रभावित होते हैं। विभिन्न राष्ट्रों ने विचारधाराओं का उपयोग और व्याख्या अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप किया है। राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्र कूटनीति, प्रचार, साम्राज्यवाद, आर्थिक साधन, गठबंधन, युद्ध आदि जैसे विभिन्न साधनों का प्रयोग करते हैं। राष्ट्र अपनी विदेश नीति का निर्माण अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार करता है और उन्हीं साधनों का चयन करता है।

राष्ट्रीय हित की कठिनाई यह है कि कई बार यह वैश्विक आदर्शों से टकरा जाता है। राष्ट्रीय हितों की अभिव्यक्ति काफी हद तक नीति-निर्माताओं पर निर्भर करती है। वही अपने राष्ट्रीय हितों को निर्धारित करते हैं और उन्हें आगे बढ़ाने के लिए कार्य करते हैं। अतः यह आवश्यक है कि विभिन्न राष्ट्रों के राष्ट्रीय हित आपस में संगत हों ताकि वैश्विक सौहार्द और शांति बनी रहे।

राष्ट्रीय हित की अवधारणा का इतिहास आधुनिक राज्य प्रणाली के विकास से जुड़ा हुआ है। राष्ट्र अपनी-अपनी प्राथमिकताओं के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय मामलों में अपनी दिशा तय करते हैं, जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उनके दाँव-पेंच को भी दर्शाता है—जैसे सुरक्षा, शक्ति, प्रतिष्ठा, आर्थिक आत्मनिर्भरता, आत्म-संरक्षण इत्यादि।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में राष्ट्रीय हित की अवधारणा को यथार्थवादी (Realist) दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यथार्थवाद विचारों का ऐसा समूह है जो सुरक्षा और शक्ति के कारकों के निहितार्थों को ध्यान में रखता है। यथार्थवादी विद्वान राजनीति को शक्ति के लिए संघर्ष के रूप में परिभाषित करते हैं और राष्ट्रीय हित को अत्यधिक महत्त्व देते हैं, क्योंकि इसी संदर्भ में इस संघर्ष को समझा जा सकता है। [1930 के दशक के उत्तरार्ध और फिर 1940 के दशक में, राइनहोल्ड नीबुहर, एन. जे. स्पाइकमैन, एच. जे. मॉर्गेन्थाउ, क्विंसी राइट, एफ. एल. शूमैन, जी. एफ. केनन, अर्नोल्ड वोल्फर्स, केनेथ थॉम्पसन आदि जैसे बड़ी संख्या में विद्वान प्रमुखता से सामने आए। ये सभी यथार्थवादी विचारधारा (Realist school) से संबंधित थे।] समकालीन यथार्थवादी विद्वान जॉर्ज केनन और हंस मॉर्गेन्थाउ यह विश्वास रखते हैं कि राष्ट्रीय हित उतना ही बुद्धिमत्तापूर्ण नीतिनिर्माण का विश्वसनीय मार्गदर्शक है, जितना कि विदेश नीतियों के शैक्षणिक विश्लेषण के लिए। लेकिन राष्ट्रीय हित और नैतिक सिद्धांतों के बीच संबंध की प्रकृति को लेकर उनके विचार एक-दूसरे से भिन्न हैं। यहाँ तक कि यथार्थवादियों के बीच भी इस बात पर कोई वास्तविक सर्वसम्मति नहीं है कि राष्ट्रीय हित को किस हद तक प्राथमिकता दी जानी चाहिए। केवल एक बिंदु पर सहमति है कि सामान्य दृष्टिकोण यह होना चाहिए कि हमारी विदेश नीति और संबंधों का मार्गदर्शन नैतिक सिद्धांतों के बजाय राष्ट्रीय हित द्वारा होना चाहिए (कुमार, 1976: 42-43)।

राज्य अपने राष्ट्रीय हितों में कार्य करते हैं। इसलिए यह जानना बहुत महत्वपूर्ण है कि राज्य अपने राष्ट्रीय हितों को कैसे परिभाषित करते हैं। राष्ट्रीय हित को परिभाषित करने में कठिनाई इस कारण है कि यह अक्सर वैश्विक आदर्शों से टकरा जाता है।

कई विद्वानों ने 'राष्ट्रीय हित' को परिभाषित किया है। वर्नन वैन डाइक (मोहंती, 2010: 200 से उद्धृत) के अनुसार, राष्ट्रीय हित वह है "जिसे राज्य एक-दूसरे के संबंध में सुरक्षित रखना या प्राप्त करना चाहते हैं(National interest is what the states seek to protect or achieve in relation to each other)।"

रॉबर्ट कैंटर के शब्दों में, "राष्ट्रीय हित की अवधारणा यह संकेत देती है कि एक सुसंगत विदेश नीति हो सकती है जो आपस में जुड़े राष्ट्रीय चिंताओं का प्रतिनिधित्व करती हो।" (कैंटर, 1986: 51)

ये राष्ट्रीय चिंताएँ पूरे राष्ट्र के लोगों के व्यापक हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं, न कि केवल शासकों के संकीर्ण हितों का।

यथार्थवादियों (Realists) के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में किसी राज्य की स्थिति उसके राष्ट्रीय हितों को निर्धारित करती है और उसकी विदेश नीति की भविष्यवाणी करती है।

उदारवादियों (Liberals) के मतानुसार, राष्ट्रीय हित किसी राज्य की घरेलू समाज और उसकी संस्कृति पर निर्भर करता है (नाई, 2008: 49-50)।

जोसेफ फ्रेंकल के अनुसार, राष्ट्रीय हित “सभी राष्ट्रीय मूल्यों का योग है — ‘राष्ट्रीय’ शब्द के दोनों अर्थों में, अर्थात् राष्ट्र और राज्य दोनों से संबंधित…। सामान्य समझ की एक परिभाषा इसे उन सामान्य और निरंतर लक्ष्यों के रूप में वर्णित करती है जिनके लिए राष्ट्र कार्य करता है।” (फ्रेंकल, 1969: 103)।

चार्ल्स लर्चे और अबुल सईद ने इसे परिभाषित किया है: “सामान्य, दीर्घकालिक और निरंतर उद्देश्य, जिसे राज्य, राष्ट्र और सरकार — सभी अपने-आप को सेवा करते हुए देखते हैं।” (कुमार, 1976: 258 में उद्धृत)।

राष्ट्र अपने संसाधनों के आधार पर अपनी प्राथमिकताओं का निर्धारण करते हैं। इन प्राथमिकताओं में सुरक्षा को सबसे महत्त्वपूर्ण माना गया है। शक्तिशाली राष्ट्र, जिनकी राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य गतिविधियाँ पूरे विश्व में फैली हुई हैं — जैसे अमेरिका और सोवियत संघ — ने सुरक्षा को अत्यधिक प्राथमिकता दी, जबकि छोटे राष्ट्र, जिनकी रुचियाँ और संसाधन सीमित हैं — जैसे स्विट्ज़रलैंड और स्वीडन — ने अपने हितों का अनुसरण किया और उन्हें कूटनीतिक रूप से सुरक्षित किया।

ये सीमित संसाधन राष्ट्रों को अपनी प्राथमिकताओं को पुनः क्रमबद्ध (reorder) करने के लिए बाध्य करते हैं। कोई भी राष्ट्र असीमित संसाधनों से संपन्न नहीं है, इसलिए प्राथमिकताओं को क्रम में रखना आवश्यक होता है।

उदाहरण के लिए, कोई राष्ट्र जो अपने पड़ोसियों से खतरे में है, वह अपनी कार्यसूची (agenda) में सुरक्षा को शीर्ष पर रखेगा, लेकिन जो राष्ट्र अपेक्षाकृत सुरक्षित है, वह आर्थिक विकास पर ध्यान केंद्रित कर सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी शक्ति और क्षेत्रों (territories) का बड़ा हिस्सा त्यागकर अपने आर्थिक समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया।

जनरल चार्ल्स डी गॉल ने फ्रांस को पुनः उसकी पूर्व स्थिति में सबसे शक्तिशाली राष्ट्रों में शामिल करने के लिए परमाणु हथियार विकास कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित किया। इस प्रकार राष्ट्र अपनी प्राथमिकताओं को इस तरह से व्यवस्थित करते हैं कि विदेश नीति के निर्णय घरेलू राजनीति तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति दोनों में यथार्थवादी आकलनों (realistic projections) पर आधारित हो सकें।

ये प्राथमिकताएँ ही राष्ट्रीय हितों के घटक होती हैं। सभी राष्ट्रों के पास आर्थिक आत्मनिर्भरता का एक न्यूनतम स्वीकार्य स्तर होता है। स्वाभाविक रूप से, उस स्तर की सुरक्षा और सुधार राष्ट्रीय हित का हिस्सा बन जाते हैं।

अरब देशों द्वारा तेल को इज़राइल के साथ अपने संघर्ष में एक कूटनीतिक हथियार (diplomatic weapon) के रूप में इस्तेमाल करने से कई राष्ट्रों को अपनी विदेश नीति की प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। अरब तेल प्रतिबंध (Arab oil embargo) के बाद, कई राष्ट्र—जो सामान्यतः इज़राइल के मित्र थे—ने यह निर्णय लिया कि उनके राष्ट्रीय हित तेल तक पहुँच बनाए रखने में ही निहित हैं (Cantor, 1986: 50-53)। उदाहरणः- OPEC गठबंधन के माध्यम से 

राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने या उन्हें प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। यही विदेश नीति के उद्देश्य भी होते हैं। इन उद्देश्यों को लक्ष्य (Goals) और उद्देश्य (Objectives) में विभाजित किया जा सकता है।दोनों में अंतर उनके द्वारा कवर किए गए समय-आधार (time span) में निहित है। लक्ष्य (Goal) उस अधिकतम समयावधि को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाता है जिसे विश्लेषणात्मक रूप से अनुमानित किया जा सकता है। जबकि उद्देश्य (Objective) तात्कालिक या अल्पकालिक समयावधि (short range) तक ही सीमित होते हैं।
(Kumar, 1976: 269)

सुरक्षा को तत्काल या अंतिम राष्ट्रीय हित माना जाए, इस विषय पर बहस रही है। हालांकि, विद्वानों में यह सर्वसम्मति है कि सुरक्षा राष्ट्रीय हित का सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। सुरक्षा लक्ष्य (Goal) और उद्देश्य (Objective) दोनों हो सकती है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि इसे दीर्घकालिक (long run) या अल्पकालिक (short run) में प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। यदि इसे अल्पकालिक रूप में प्राप्त किया जाना है, तो यह उद्देश्य माना जाएगा; अन्यथा यह लक्ष्य होगी। एक महत्वपूर्ण दृष्टिकोण यह भी है कि चाहे यह उद्देश्य हो या नहीं, सभी देशों की विदेश नीति में यह हमेशा एक लक्ष्य रहा है। चूंकि यह देशों की महत्वपूर्ण चिंता का विषय है, इसे उनके राष्ट्रीय हितों से जोड़ा जाता है। राष्ट्रीय हित यह निर्धारित करते हैं कि सुरक्षा को कब उद्देश्य के रूप में और कब लक्ष्य के रूप में प्राप्त किया जाना चाहिए।

अमेरिका की वियतनाम में भागीदारी को लक्ष्य और उद्देश्य के बीच भ्रम का उदाहरण माना जा सकता है। वियतनाम में अमेरिका की भागीदारी का तर्क कम्युनिज़्म को रोकने के लिए था। यह भी एक बहुत महत्वपूर्ण उद्देश्य था, जिसका दीर्घकालिक प्रभाव था। लेकिन वियतनाम में कम्युनिस्ट गतिविधियों को अमेरिका की इस खतरे को रोकने की क्षमता के संदर्भ में आंका जाना चाहिए था। वास्तव में जो हुआ वह यह था कि दक्षिण वियतनाम में शासन की सुरक्षा को अपने आप में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य माना गया, जिसे प्रमुख राष्ट्रीय हित के कारण नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था, जबकि इसे केवल एक उद्देश्य के रूप में देखा जाना चाहिए था।

यह उल्लेख करना आवश्यक है कि देशों के राष्ट्रीय हित विभिन्न कारकों के कारण बदल सकते हैं। यह बदलाव सरकारों में परिवर्तन, सबसे प्रभावशाली समूहों के हितों में बदलाव, या अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में सामान्य परिवर्तन जैसे वैश्वीकरण का आरंभ या द्विध्रुवीयता से बहुध्रुवीय विश्व की ओर परिवर्तन के कारण हो सकता है।

किसी राज्य के राष्ट्रीय हित को अत्यावश्यक (Vital) हित और गैर-अत्यावश्यक (Non-vital) हित में विभाजित किया जाता है।

अत्यावश्यक हित वे होते हैं जिनके लिए राज्य किसी भी समझौते को स्वीकार नहीं करता और इसके लिए युद्ध तक करने को तैयार रहता है। इन्हें स्थायी या प्राथमिक हित भी माना जाता है। इसमें भौगोलिक अखंडता की रक्षा या कभी-कभी राष्ट्रीय प्रतिष्ठा शामिल होती है। ये अत्यावश्यक हित विभिन्न कारणों से परिवर्तित हो सकते हैं। कई बार, अत्यावश्यक हितों को राष्ट्रों के स्वार्थपरक हितों के अनुसार परिभाषित किया जाता है, बिना अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों का ध्यान रखे। यह विशेष रूप से महान शक्तियों के मामले में अधिक देखा जाता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका का वियतनाम, पश्चिम एशिया और अफगानिस्तान में हस्तक्षेप अपने अत्यावश्यक हितों की रक्षा के लिए आवश्यक माना गया।

गैर-अत्यावश्यक या गौण हित वे होते हैं जिनके लिए राज्य युद्ध नहीं करेगा, लेकिन चाहता है कि वे पूरे हों, जैसे व्यापार में सुधार या सांस्कृतिक संपर्कों का विकास।
अत्यावश्यक हित (Vital Interests) को विदेश नीति के लक्ष्यों (Goals) के रूप में और गौण हित (Secondary Interests) को विदेश नीति के उद्देश्यों (Objectives) के रूप में देखा जा सकता है। सबसे सामान्य उद्देश्य हैं:- अन्य देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना, विचारधारा की रक्षा, जनता की भलाई, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और शक्ति में वृद्धि। प्रत्येक राज्य अपने उद्देश्यों को अपने राष्ट्रीय हितों के अनुसार परिभाषित करता है।

फ्रैंकेल (Frankel) ने राष्ट्रीय हित (National Interest) के उपयोग को चार प्रकार में वर्गीकृत किया है:-

आकांक्षात्मक (Aspirational) – इस स्तर पर राष्ट्रीय हित कुछ आदर्श लक्ष्यों का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें राज्य संभव हो तो पूरा करना चाहता है।

संचालनात्मक (Operational) – इस स्तर पर राष्ट्रीय हित उन हितों और नीतियों का योग होता है जिन्हें वास्तव में लागू किया गया है।

व्याख्यात्मक (Explanatory) और विवादात्मक (Polemical) – राजनीतिक तर्क में राष्ट्रीय हित की अवधारणा का उपयोग विदेश नीति की व्याख्या, मूल्यांकन, औचित्य या आलोचना करने के लिए किया जाता है।
(Frankel, 1970: 17)


🖊️राष्ट्रीय हित और विदेश नीति(National Interest and Foreign Policy)

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक महत्वपूर्ण अवधारणा होने के नाते, राष्ट्रीय हित का विदेश नीति से कई महत्वपूर्ण संबंध हैं। Reynolds के अनुसार, "विदेश नीति में उन विविध क्रियाओं का समावेश होता है जो किसी राज्य की सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा की जाती हैं। ये क्रियाएँ अंतरराष्ट्रीय मंच पर कार्यरत अन्य संस्थाओं के संदर्भ में की जाती हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण अन्य राज्य होते हैं, लेकिन इनमें अंतरराष्ट्रीय, अधि-राष्ट्रीय (supranational) और अति-राष्ट्रीय (transnational) समूह और कभी-कभी व्यक्तिगत व्यक्ति भी शामिल होते हैं।" (Reynolds, 1971: 35)

राष्ट्रीय हित वह आधार है जिस पर विदेश नीतियाँ तैयार की जाती हैं। ये विदेश नीति संबंधी क्रियाएँ किसी उद्देश्य के साथ की जाती हैं। Reynolds आगे बताते हैं कि राज्य की अंतरराष्ट्रीय क्रियाएँ इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की जाती हैं और ये उद्देश्य आमतौर पर 'राष्ट्रीय हित' की अवधारणा में समाहित होते हैं (Reynolds, 1971: 36)।

इसलिए, विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा करना और उन्हें यथासंभव सर्वोत्तम लाभ के लिए बढ़ावा देना है। इसमें यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि उद्देश्य क्या है, और किसी विशेष उद्देश्य को कैसे प्राप्त किया जाना चाहिए। शत्रुतापूर्ण संबंधों के बावजूद, दो देशों के कुछ सामान्य हित हो सकते हैं और व्यापक मतभेदों के बावजूद उनकी नीतियाँ कई बिंदुओं पर मेल खा सकती हैं। उदाहरण के लिए भारत और चीन दोनों ही कार्बन टैक्स का विरोध करते हैं, बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का निर्माण का समर्थन करते हैं । पश्चिम एशियाई देशों का कई मुद्दों पर रुख काफी समान है, भले ही उनकी विदेश नीतियाँ भिन्न हों। दूसरी ओर, जब सभी सुरक्षा बनाए रखना चाहते हैं, तो इसे बनाए रखने के तरीकों पर उनके दृष्टिकोण अलग-अलग हैं।

राष्ट्रों के राष्ट्रीय हित लगातार बदलते रहते हैं और इसलिए उनकी विदेश नीतियाँ भी अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुकूल ढलने के लिए समय-समय पर परिवर्तित होती रहती हैं। देशों के हित समान भी हो सकते हैं या भिन्न भी। दो देशों के बीच समान हितों की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों की प्रकृति क्या है और राज्यों की विदेश नीतियाँ कैसी हैं। इसके अलावा, एक ही देश की सभी देशों के प्रति समान नीति नहीं होती। उदाहरण के लिए, अमेरिका की सऊदी अरब और ईरान के प्रति नीति धारणा अलग है। इसका इज़राइल और कुछ अरब देशों के प्रति दृष्टिकोण भी अलग है। यूरोपीय देश विकसित और विकासशील देशों को समान स्तर पर नहीं रखते और न ही रख सकते हैं। भारत की चीन और नेपाल के प्रति विदेश नीति अलग है। विभिन्न देशों की विदेश नीतियाँ लगातार बदलती रहती हैं क्योंकि विभिन्न देशों के हितों का दायरा बदलता रहता है। उदाहरण के लिए, 1950 के दशक की शुरुआत में भारत और ईरान के बीच हितों का दायरा 1980 के दशक की तुलना में अधिक था। 1950 के दशक में भारत और चीन के बीच हितों का दायरा अधिक था, लेकिन 1962 के आसपास यह कम हो गया। भारत और इज़राइल के बीच 1950 और 1960 के दशक में हितों का दायरा छोटा था, लेकिन 1990 के दशक में यह बढ़ गया और 2014 से 2025 तक और अधिक वृद्धि हो गई। परिणामस्वरूप, देशों की विदेश नीतियाँ भी परिवर्तित होती रहीं।

किसी भी मौजूदा स्थिति को स्थिर नहीं माना जा सकता; यह गतिशील होती है और भविष्य में बदलने की संभावना रहती है। कोई भी स्थिति अनिश्चितकाल तक स्थायी नहीं रहती। देशों के बीच समानताओं का क्षेत्र भी समय के साथ बदलता रहता है। पिछले 60 वर्षों में, भारत के कई देशों के साथ संबंधों में उतार-चढ़ाव देखा गया। भारत के कई देशों के साथ संबंध सुधरे—उदाहरण के लिए, अमेरिका, इज़राइल, ईरान, सऊदी अरब आदि के साथ। एक देश अन्य देशों के साथ अपने संबंध सुधारता हैं यदि यह उनके व्यक्तिगत राष्ट्रीय हितों के अनुकूल हो। उदाहरण के लिए वर्तमान में अमेरिका द्वारा भारत पर टैरिफ लगाने के बाद चीन के साथ संबंध सुधारने के लिए कदम उठाना राष्ट्रीय हित के अनुकूल समझ गया है। अमेरिका और चीन के बीच 1970 के दशक की शुरुआत में संबंधों का सामान्यीकरण, भारत और इज़राइल के बीच 1992 में संबंधों का सामान्यीकरण, 1990 के दशक में ईरान के अन्य गल्फ देशों के साथ संबंध, आदि इसके प्रासंगिक उदाहरण हैं।

देश आमतौर पर ऐसी विदेश नीतियाँ नहीं अपनाते जो अन्य देशों के हितों में हों, जब तक कि उनकी नीतियाँ किसी हद तक मेल न खाती हों। राष्ट्रीय हित के व्यावहारिक पहलुओं को अंततः वांछित लक्ष्यों के संदर्भ में स्थापित करना आवश्यक है और इसे अपनी शक्ति के अनुसार निर्धारित किया जाना चाहिए। साथ ही, अन्य देशों की शक्ति और इरादों का सही मूल्यांकन भी करना आवश्यक है।

हालाँकि राष्ट्रीय हित किसी देश की विदेश नीति के निर्माण में प्रमुख कारक हैं, प्रोफेसर रेनॉल्ड्स के अनुसार, विदेश नीति केवल राष्ट्रीय हितों पर आधारित नहीं होती। किसी राज्य की विदेश नीति केवल तभी राष्ट्रीय हितों पर आधारित हो सकती है जब विभिन्न देशों के हित समान हों। यदि राष्ट्रीय हित अलग-अलग हों, तो प्रत्येक राज्य उस विदेशी मूल्य प्रणाली के लागू होने का विरोध करेगा जो युद्ध का कारण बन सकती है। इसलिए, राष्ट्रीय हितों में सीमाएँ आवश्यक हैं। सभी परिस्थितियों में राष्ट्रीय हितों की पहचान समुदाय के मूल्यों से नहीं की जा सकती (Reynolds, 1971: 44)। साथ ही, राज्य के नेता हमेशा केवल अपने राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने का प्रयास नहीं करते; वे अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत करने के लिए विदेश नीति का एक उपकरण भी उपयोग करते हैं। कई बार तो नेता अपनी आंतरिक स्थिति मजबूत करने के लिए राष्ट्रहित के नाम पर युद्ध तक का सहारा ले लेते हैं ।

राष्ट्रीय हितों के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि कुछ उद्देश्य निर्धारित किए जाएँ। इन उद्देश्यों को उनके राष्ट्रीय हितों के अनुरूप माना जाता है। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में, नेताओं को यह समझना आवश्यक है कि उद्देश्य उनके राष्ट्रीय क्षमताओं के अनुसार होने चाहिए। उदाहरण के लिए, यूनाइटेड किंगडम और जापान की क्षमताओं की तुलना बांग्लादेश की क्षमताओं से नहीं की जा सकती। इसी प्रकार, भारत की क्षमताओं की तुलना मालदीव की क्षमताओं से नहीं की जा सकती।

देशों की क्षमताएँ भी उनके उद्देश्यों को प्रभावित करती हैं जिन्हें वे पूरा करना चाहते हैं। जितना सक्षम देश होगा, उतना ही बेहतर स्थिति में वह अपने उद्देश्यों को पूरा कर सकेगा। विदेश नीति को ऐसे उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय हित वास्तव में हमारे उद्देश्यों को मार्गदर्शन देते हैं। उदाहरण के लिए, सुरक्षा के मामले में, एक लैंडलॉक ( चारों ओर भूमि से घिरा) राज्य का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अपने पड़ोसियों के खिलाफ सुरक्षा सुनिश्चित करे या अच्छे, मित्रवत संबंध बनाए रखे।

नीतिनिर्माता अक्सर राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को शामिल करते हुए व्यापक उद्देश्य चुनते हैं। वे किसी क्षेत्र पर बलपूर्वक नियंत्रण करना चाह सकते हैं, या मानवाधिकारों को बढ़ावा देना, हथियारों की दौड़ को कम करना, व्यापार में सुधार करना, गरीबी घटाना और आर्थिक दक्षता बढ़ाना चाह सकते हैं। नीति का स्वभाव कभी-कभी अल्पकालिक होता है, जैसे कि संघर्षविराम (ceasefire) प्राप्त करना, या दीर्घकालिक होता है, जैसे कि आर्थिक नीतियों का निर्माण करना या कोई ऐसा समझौता करना जिसका दीर्घकालिक प्रभाव पड़े।

राज्य को खतरे भी झेलने पड़ते हैं और अवसर भी प्राप्त होते हैं, जो विदेश नीति के उद्देश्यों के निर्धारण को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए, मूल रूप से, विदेश नीति किसी राज्य के हितों, खतरों और अवसरों का परिणाम होती है [basically, foreign policy is the result of a state’s interests, threats and opportunities] (विस्तार के लिए देखें Viotti [2007: 88-92])।

भले ही नीति-निर्माता बुनियादी हितों पर सहमत हों, वे विदेश नीति के उद्देश्यों पर असहमति भी कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, किसी राज्य का उद्देश्य मानवाधिकारों को बढ़ावा देना हो, तो उसे उस देश के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने में कठिनाई होती है जिसे मानवाधिकारों के उल्लंघन में संदेहित माना जाता है। फ़िलिस्तीनियों के प्रति इज़राइल के व्यवहार के रिकॉर्ड ने उन देशों के लिए समस्याएँ पैदा की हैं जो इज़राइल के साथ अच्छे संबंध बनाए रखना चाहते हैं।

राष्ट्र खतरों और अवसरों पर भी असहमति कर सकते हैं। किसी स्थिति या किसी देश की नीतियाँ एक राष्ट्र के लिए खतरे जैसी प्रतीत हो सकती हैं लेकिन दूसरे के लिए नहीं। उदाहरण के लिए, ईरान और इराक अन्य खाड़ी देशों के लिए खतरे प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन भारत के लिए नहीं। रूस अमेरिका और पश्चिमी देश के लिए खतरा माना जाता है लेकिन भारतक लिए नहीं। इज़राइल फिलिस्तीनियों और उसके पड़ोसी देशों के लिए अधिक खतरा हो सकता है, लेकिन भारत के लिए नहीं। 1950 और 1960 के दशक में परंपरागत पश्चिम एशियाई देश भारत के प्रति अनुकूल नहीं थे, लेकिन 1990 के दशक से वे संबंध सुधारना चाहते हैं।

इसी प्रकार, अवसरों के मामले में, उदारीकरण विकसित देशों को विकासशील देशों की तुलना में अधिक अवसर प्रदान करता है। एक विकसित देश को किसी अन्य विकसित देश से व्यापार के बेहतर अवसर प्राप्त होते हैं बनिस्बत किसी विकासशील देश के।


🖊️राष्ट्रीय हित और विचारधारा(National Interest and Ideology)
राष्ट्रीय हित का घनिष्ठ संबंध विचारधारा (Ideology) से है। इसे समझना आवश्यक है कि विचारधारा क्या है। 'विचारधारा' एक व्यापक और आपस में संगत विचारों का समूह है जिसके माध्यम से कोई सामाजिक समूह दुनिया को समझता है (Mclean and McMillan, 2003: 256)।

हालांकि विचारधारा की कई परिभाषाएँ हैं, दो मुख्य तत्वों पर जोर दिया गया है:-  पहला, विश्वासों की एक प्रणाली और दूसरा, इसका राजनीतिक क्रिया-कलाप से संबंध।

विश्वासों की एक प्रणाली के अर्थ में, विचारधारा को एक आत्म-न्यायसंगत विश्वास प्रणाली के रूप में परिभाषित किया गया है जो किसी निश्चित दृष्टिकोण (worldview) पर आधारित होती है। यह मानव स्वभाव के बारे में कुछ पूर्वधारणाओं, मानव इतिहास के सिद्धांत, नैतिक आचार संहिता, मिशन की भावना और क्रियान्वयन कार्यक्रम से शुरू होती है। यह पूरे वास्तविकता की व्याख्या करने का दावा भी करती है।

राजनीतिक क्रिया-कलाप से संबंध के अर्थ में, यह अपने राजनीतिक क्रिया-कलाप से संबंध बताती है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कई बार, विचारधारा का उपयोग विदेश नीति को संचालित करने के बहाने के रूप में किया जाता है और नीति-निर्माता अपने राजनीतिक कार्यों की असली प्रकृति को राजनीतिक विचारधारा के आवरण के पीछे छिपाने का प्रयास करते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में विचारधारा का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि इसे कितना महत्व दिया गया है। विचारधारा विदेश नीति के पीछे प्राथमिक मार्गदर्शक सिद्धांत या द्वितीयक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में कार्य कर सकती है।

समय के साथ कई विचारधाराएँ विकसित हुई हैं—उदाहरण के लिए, राष्ट्रवाद (Nationalism)। राष्ट्रवाद की विचारधारा आधुनिक समय में राज्य गठन के सिद्धांत में प्रमुख शक्ति रही है। यद्यपि यह राष्ट्रीय समूह के भीतर सहयोग को प्रोत्साहित करती है, यह अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष की ओर भी ले जा सकती है। इस विचारधारा ने कई अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष उत्पन्न किए हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश संघर्ष राष्ट्र और राज्य के बीच संबंधों से उत्पन्न होते हैं। उदाहरण के लिए, जब कोई राष्ट्र राज्य की स्थापना चाहता है, तो संघर्ष उत्पन्न होता है (जैसे जर्मन और इटालियन एकीकरण के मामले में)। इसके अलावा, राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों या विभाजित देशों में अन्य मुद्दों पर भी संघर्ष होते हैं, जैसे कि चीन, जर्मनी, कोरिया आदि में।

फिर ऐसी विचारधाराएँ भी हैं जैसे उदारवाद (Liberalism), फासीवाद (Fascism), साम्यवाद (Communism) और समाजवाद (Socialism)। ये सभी विचारधाराएँ राष्ट्रीय राज्यों की सीमाओं से परे जाती हैं क्योंकि इन्हें कई राज्य या कई राज्यों के भीतर समूहों द्वारा अपनाया जा सकता है। राष्ट्रीय सीमाओं से परे होने के कारण, ये विचारधाराएँ अक्सर राष्ट्रवाद (Nationalism) के साथ संघर्ष में आती हैं, जिससे उपद्रव या अवरोध पैदा होता है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ये विचारधाराएँ इसलिए प्रासंगिक हो जाती हैं क्योंकि जो राष्ट्र इन्हें अपनाते हैं, वे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करते हैं।
उदारवाद (Liberalism) की मुख्य चिंता व्यक्ति, उसकी स्वतंत्रता और कल्याण होती है, न कि समुदाय की। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में, उदारवादी यह पसंद करते हैं कि सभी अन्य राज्य भी उदार विचारधारा में विश्वास करें। अतीत में, इससे हस्तक्षेपवाद (Interventionism), उपनिवेशवाद (Colonialism) और शोषण (Exploitation) जैसी प्रवृत्तियाँ भी पैदा हुईं।

फासीवाद (Fascism) मानता है कि सामूहिकता (Collective) मुख्य है और व्यक्ति केवल उसके उद्देश्य की पूर्ति करता है। यह विरोधी-उदारवादियों (Anti-Liberals) को आकर्षित करता है और राष्ट्रवाद (Nationalism) में उलझ गया। इसने राष्ट्रों को विस्तारवाद (Expansionism) की ओर प्रोत्साहित किया और इसलिए अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष को जन्म दिया। इसके उदाहरण हैं प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के बीच का जर्मनी, इटली और जापान, लेकिन 'फासीवादी' शब्द का उपयोग कई अंतरयुद्धकालीन और युद्धोपरांत शासन पर भी किया गया।

साम्यवाद (Communism) का उद्देश्य गैर-साम्यवादी (Non-Communist) शासन को समाप्त करना है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहन मिलता है।

समाजवाद (Socialism) समानता में विश्वास की एक व्यापक श्रृंखला को कवर करता है और सरकारी कार्रवाई के माध्यम से मानव कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करता है। लेकिन समकालीन विश्व में, समाजवाद की व्याख्या अक्सर राष्ट्रवाद के साथ इसके मिश्रण के साथ जुड़ी रही।

राष्ट्रों ने अपनी विदेश नीति को मजबूत करने के लिए विचारधारा (Ideology) का उपयोग किया है। विचारधारा के नाम पर नेता अपनी नीतियों को सही ठहराने और लागू करने का प्रयास करते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, मित्र राष्ट्रों (Allied Powers) ने तानाशाही (Dictatorships) के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, जिसमें धुरी शक्तियाँ (Axis Powers) शामिल थीं, लेकिन सोवियत संघ (Soviet Union) को शामिल नहीं किया गया। शीत युद्ध (Cold War) के दौरान, अमेरिका (US) ने सोवियत संघ का विरोध किया क्योंकि वह उसकी साम्यवादी विचारधारा का विरोध करता था।

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कई उदाहरण हैं जब राष्ट्रों ने अपने कार्यों को विचारधारा के नाम पर सही ठहराया। यदि घोषित विचारधारा उपयुक्त नहीं होती, तो उसे ढाला (Moulded), पुनर्व्याख्यायित (Reinterpreted) या किसी अन्य विचारधारा द्वारा प्रतिस्थापित (Superseded) कर दिया जाता है। लेकिन कई बार, विचारधारा को राष्ट्रीय हित (National Interest) के अधीन रखा जाता है।

चीन में माओ के शासन को यूनाइटेड किंगडम (UK) द्वारा मान्यता देना, 1970 के बाद अमेरिका का चीन के साथ संबंध और सऊदी अरब के साथ उसके संबंध ऐसे उदाहरण हैं, जब विचारधारा की तुलना में राष्ट्रीय हित अधिक महत्वपूर्ण थे। राष्ट्र अपने कार्यों—चाहे राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या मानवतावादी हों—को सही ठहराने के लिए विचारधारा का समर्थन करते हैं और राष्ट्रीय हित को विचारधारा से ऊपर रखते हैं।

राज्य की सुरक्षा (Security of the State) को राष्ट्रीय हितों में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। इस उद्देश्य के लिए, राज्य किसी भी विचारधारा का पालन किए बिना गठबंधनों (Alliances) और विरोधी गठबंधनों (Counter-alliances) में प्रवेश करता है। राष्ट्रीय हित और विचारधारा के बीच घनिष्ठ संबंध होता है; वे एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं क्योंकि राष्ट्रीय हित को विचारधारा द्वारा आकार दिया जा सकता है और इसके विपरीत भी संभव है।


🖊️नैतिकता बनाम राष्ट्रीय हित का प्रश्न(The Question of Ethics versus National Interest)

1990 के दशक में नैतिकता (Morality) और नैतिक सिद्धांतों (Ethics) बनाम राष्ट्रीय हित (National Interest) का प्रश्न तीव्र रूप से बहस का विषय बन गया। इस मुद्दे पर दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण बदलाव आया, खासकर लिबरल लोकतांत्रिक (Liberal Democratic) विचारधारा के भीतर, जिसने वैश्विक समाज में नए नैतिक-आधारित मानवतावादी दावों (Humanitarian Claims) को आगे बढ़ाने में नेतृत्व किया।

मानवतावादी हस्तक्षेप (Humanitarian Interventions) का तात्पर्य किसी देश में दूसरे देश या अंतर्राष्ट्रीय संगठन की सशस्त्र सेनाओं के प्रवेश से है, जिसका उद्देश्य नागरिकों को उत्पीड़न या उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन से बचाना होता है। गल्फ युद्ध (Gulf War) के बाद उत्तरी और दक्षिणी इराक में सुरक्षित क्षेत्रों (Safe Havens) का निर्माण, और सोमालिया, हैती, लीबिया, रवांडा, बोस्निया, कोसोवो और सिएरा लियोन में ज्यादातर अमेरिका-प्रेरित हस्तक्षेपों को जनसंख्या के कुछ समूहों की सुरक्षा के लिए सैन्य अभियान माना गया। रूसी सरकार ने तर्क दिया कि चेचन्या में उसका सैन्य हस्तक्षेप रूसी अल्पसंख्यक के अधिकारों की रक्षा के लिए आवश्यक था।

जब संकटग्रस्त देशों में सशस्त्र हस्तक्षेप का औचित्य हमेशा नैतिक और मानवतावादी आधार पर प्रस्तुत किया जाता है, तो यह भी सच है कि 'प्रतिबंधक' (Restrictionists) राष्ट्रीय हित (National Interest) की अवधारणा का उपयोग मानवतावादी सैन्य हस्तक्षेप का विरोध करने के लिए करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय कानून के सिद्धांत राष्ट्रीय हित, संप्रभुता (Sovereignty), गैर-हस्तक्षेप (Non-intervention) और बल के गैर-प्रयोग (Non-use of Force) के सिद्धांतों पर आधारित हैं।

रियलिस्ट (Realists) इस बात पर प्रश्न उठाते हैं कि क्या बल का प्रयोग 'असफल' राज्यों (Failed States) में मानवतावादी मूल्यों और दीर्घकालिक पुनर्निर्माण को बढ़ावा दे सकता है, या क्या हस्तक्षेप करने वाले राज्य 'सामान्य मानवता' के सशस्त्र एजेंट के रूप में कार्य करने की जिम्मेदारी निभाने के योग्य हैं। रियलिस्ट कहते हैं कि राज्य केवल राष्ट्रीय हित का पालन करते हैं और इसलिए, अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार में नैतिक सिद्धांतों की कोई जगह नहीं होती, जब तक कि राज्य यह न मानें कि मानवतावादी हस्तक्षेप उनके राष्ट्रीय हित में हैं। उनका मानना है कि किसी राज्य के लिए यह राष्ट्रीय हित में नहीं होगा कि वह मानवतावादी अभियानों के लिए अपनी सशस्त्र सेनाओं के जीवन को खतरे में डाले।

इसके विपरीत, लिबरल (Liberals) मानते हैं कि राज्यों का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे ऐसे नरसंहार (Genocide) की स्थिति में हस्तक्षेप करें, जो अंतर्राष्ट्रीय कानून और नैतिकता के न्यूनतम मानकों का उल्लंघन करते हैं। रियलिस्ट यह तर्क देते हैं कि चूंकि यह तय करने के लिए कोई निष्पक्ष तंत्र (Impartial Mechanism) नहीं है कि मानवतावादी हस्तक्षेप कब अनुमति योग्य है, इसलिए वास्तव में राज्य नैतिक और मानवीय कारणों को केवल राष्ट्रीय स्वार्थ को छिपाने के लिए आड़ के रूप में उपयोग कर सकते हैं।

🖊️राष्ट्रीय हित की उन्नति हेतु साधन(Instruments for the Promotion of National Interest)
राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों (National Interests) को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न तंत्रों (Mechanisms) का उपयोग करते हैं। पामर और पर्किंस (Palmer and Perkins, 1997: 83-208) तथा कई अन्य विद्वानों ने राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने के प्रमुख साधनों (Main Instruments) का विश्लेषण किया है।

कूटनीति (Diplomacy)

कूटनीति राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने के प्रमुख साधनों में से एक है। इसका उपयोग विदेश नीति और राज्यों के बीच संबंधों को संचालित करने के लिए किया जाता है। कूटनीति एक राष्ट्र को उसके विदेश नीति लक्ष्यों के पक्ष में सहयोगी खोजने में मदद करती है। एक कूटनीतिज्ञ (Diplomat) के कार्य राष्ट्रीय हितों के संरक्षण और संवर्धन में अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

कूटनीतिज्ञ के सभी कार्य उसके देश के राष्ट्रीय हितों की रक्षा की दिशा में केंद्रित होते हैं। उसके सबसे महत्वपूर्ण कार्यों में अपने सरकार को सभी प्रासंगिक सूचनाएँ प्रदान करना, अपने देश की नीतियों को लागू करना और उसके हितों की रक्षा करना शामिल है। वह उस देश में प्रमुख घटनाओं से अपनी सरकार को सूचित करता है, जहाँ वह तैनात है, ताकि आवश्यक विदेश नीति तैयार की जा सके।

एक कूटनीतिज्ञ केवल अपने विदेश कार्यालय और जिस राज्य में वह तैनात है, उसके कार्यालय के बीच संवाद का एजेंट ही नहीं होता, बल्कि वह अपने देश का प्रतिनिधित्व करता है, और उसके प्रभाव के आधार पर ही उसके देश की छवि बनाई जाती है।

कूटनीतिज्ञ से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने देश के नीति निर्माताओं द्वारा व्याख्यायित राष्ट्रीय हितों और अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार देश के सर्वोत्तम हितों को आगे बढ़ाए। केवल कूटनीति की सहायता से राष्ट्र अंतर-राज्यीय मतभेदों को काफी हद तक सुलझा सकते हैं।

प्रचार (Propaganda)

20वीं सदी में प्रचार राष्ट्रीय नीति का एक प्रमुख उपकरण बन गया है। इसके माध्यम से राज्य घरेलू स्तर पर प्रभाव डालते हैं या एक संयुक्त राय (unified opinion) उत्पन्न करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में विभिन्न राज्यों के विरोधाभासी हितों को सामंजस्य बनाने के लिए राज्य विभिन्न प्रचार तकनीकों का निर्माण करते हैं। राज्य अक्सर अन्य राज्यों—दोस्ताना और प्रतिकूल दोनों—पर प्रभाव डालना चाहते हैं, और इसके लिए वे प्रचार को एक साधन के रूप में उपयोग करते हैं।

सामान्य शब्दों में, किसी व्यक्ति को किसी विशेष दृष्टिकोण को स्वीकार करने या किसी निश्चित कार्रवाई को करने के लिए मनाने का प्रयास ही प्रचार कहलाता है। यह प्रचार की एक बहुत ही तटस्थ परिभाषा है। किसी को मनाना न तो अच्छा है और न ही बुरा।

Palmer और Perkins ने अपनी पुस्तक में प्रचार की तकनीकों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है, जिसमें प्रस्तुति के तरीके, ध्यान आकर्षित करने की तकनीकें, प्रतिक्रिया प्राप्त करने के उपकरण और स्वीकृति प्राप्त करने के तरीके शामिल हैं।

प्रस्तुति के तरीके (Methods of Presentation): -

स्वीकृति प्राप्त करने के लिए, राष्ट्र प्रचार का सहारा लेते हैं और अपनी स्थिति को इस तरह प्रस्तुत करते हैं जो उनके अनुकूल हो। कई बार, वे तटस्थ नहीं होते और केवल एक पक्ष को ही प्रस्तुत करते हैं। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है जब अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति प्राप्त करने के लिए प्रचार का उपयोग किया गया। पाकिस्तान ने अपनी स्थापना के बाद मुस्लिम देशों में भारत के खिलाफ प्रचार किया।

शीत युद्ध (Cold War) के दौरान, महाशक्तियों ने एक-दूसरे के खिलाफ प्रचार किया। अपने अत्याचारों के बावजूद, इज़राइल फ़िलिस्तीनियों के खिलाफ प्रचार करता रहा।

ध्यान आकर्षित करने की तकनीकें (Techniques for Gaining Attention): -

ध्यान आकर्षित करने के लिए, प्रचारक घोषणाओं, भाषणों, प्रस्तुतियों आदि का उपयोग करते हैं। ये सरकारों की घोषणाएँ विदेशी देशों की सरकारों तक पहुँचती हैं। राष्ट्रों के पास अनुकूल ध्यान आकर्षित करने के लिए बहुत संसाधन उपलब्ध हैं। दूतावास लेक्चर, यात्रा मार्गदर्शक, सांस्कृतिक अटैशे आदि का उपयोग करके अपने देश का गौरव बढ़ाते हैं। अमेरिका की सूचना एजेंसी (US Information Agency), कई देशों में अपने कर्मियों के साथ, अमेरिका को लोकप्रिय बनाने का प्रयास करती है। ब्रिटिश काउंसिल (British Council) वैश्विक स्तर पर ब्रिटेन के लिए समान कार्य करता है।

प्रतिक्रिया प्राप्त करने के उपकरण (Devices for Gaining Response): -

इसमें, राष्ट्र बुनियादी भावनाओं जैसे न्याय, देशभक्ति और स्वतंत्रता से अपील करने का प्रयास करते हैं। वे नारों का भी उपयोग करते हैं, जैसे स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व (liberty, equality, fraternity) के बारे में, और ग्राफ़िक प्रस्तुतीकरण (graphic representations), जैसे किसी जानवर या पक्षी के चित्र का उपयोग करते हैं।

स्वीकृति प्राप्त करने की विधि (Method of Gaining Acceptance): -

अंत में, राष्ट्र उस जनता या देश के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयास करते हैं जिसे वह प्रभावित करना चाहता है, समानताओं को उजागर करके। उदाहरण के लिए, पाकिस्तान इस्लामी देशों के साथ, पूंजीवादी देश अन्य पूंजीवादी देशों के साथ, कम्युनिस्ट देश अन्य कम्युनिस्ट देशों के साथ ऐसा करते हैं।

प्रचार राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने का एक प्रमुख उपकरण बन गया है। दुर्भाग्यवश, देश अपनी रुचियों के अनुसार प्रचार तकनीकों का उपयोग करते हैं और अक्सर इसे नकारात्मक तरीके से इस्तेमाल किया जाता है। शीत युद्ध (Cold War) के दिनों में, दोनों महाशक्तियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र को बनाए रखने के लिए एक-दूसरे के खिलाफ अपने प्रचार यंत्रों का उपयोग किया। अमेरिका ने अक्सर सोवियत संघ को 'ईविल एम्पायर' (Evil Empire) के रूप में पहचाना। शीत युद्ध के बाद, सोवियत संघ के विघटन के बाद, उसने लीबिया, इराक, ईरान और उत्तर कोरिया को 'एक्सिस ऑफ ईविल' (Axis of Evil) के रूप में पहचाना, यह शब्द पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इस्तेमाल किया था। फिर 9/11 आतंकवादी हमलों के बाद अपनी 'War on Terror' में, उसने सद्दाम हुसैन को ओसामा बिन लादेन का समर्थक और इराक को मानवता के लिए संभावित खतरा, परमाणु हथियारों का धनी, बताया। इन सभी मामलों में, इतिहास के विभिन्न कालखंडों में, अमेरिकियों ने अपने प्रचार यंत्र—जिसमें प्रेस, मीडिया, सोशल मीडिया, टेलीविजन और वेबसाइटें शामिल हैं का उपयोग करके कथित 'दुश्मनों' के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रचार अभियान चलाए।

हालाँकि, संचार पैटर्न में असमानता है। सार्वजनिक और निजी संचार के संदेश अधिकतर औद्योगिक देशों के बीच और बहुत कम परस्परता के साथ उपयोग किए जाते हैं। उत्तरी विकसित देश अपने नव-उपनिवेशवादी (neo-imperialist) उद्देश्यों को पूरा करने के लिए प्रचार तकनीकों का उपयोग करते हैं और संचार माध्यमों और जानकारी के प्रवाह के नियंत्रण के माध्यम से दक्षिण पर एक प्रकार का सांस्कृतिक साम्राज्यवाद (cultural imperialism) थोपते हैं।

साम्राज्यवाद (Imperialism) और उपनिवेशवाद (Colonialism) :-

साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने के अन्य महत्वपूर्ण साधन हैं। साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की नीतियों का लंबे समय तक इसके समर्थकों द्वारा बचाव किया गया। उन्होंने इसे इस आधार पर उचित ठहराया कि यह उन्नत राष्ट्रों का कर्तव्य है कि वे पिछड़े देशों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सहायता करें और उनका विकास करें। उन्होंने उपनिवेशवाद को इस आधार पर भी न्यायोचित ठहराया कि यह एशिया और अफ्रीका के अधिकांश देशों के विश्व मंच पर संप्रभु राष्ट्र के रूप में उदय के लिए आवश्यक पूर्वाभ्यास था।

हालांकि, आलोचक इसके विपरीत दृष्टिकोण रखते हैं। उनके अनुसार, साम्राज्यवादी शक्तियाँ बड़े साम्राज्य बनाने के लिए संघर्ष करती रहीं और उनका साम्राज्य बनाने की लालसा लगातार बढ़ती गई। उन्होंने उपनिवेशों के मूल निवासियों का शोषण भी किया और उनकी नीतियों के माध्यम से उनसे अत्यधिक लाभ उठाया। चूंकि साम्राज्यवाद ने मेट्रोपोलिटन राज्य (European powers) के लिए अधिक और अधिक समृद्धि और विकास पैदा किया, इसलिए यूरोपीय देशों ने इस नीति को आक्रामक रूप से अपनाया। साम्राज्यवाद के मुख्य उद्देश्य आर्थिक लाभ, राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में वृद्धि, राष्ट्रीय रक्षा, बिना प्रतिस्पर्धा के बाज़ारों और कच्चे माल के स्रोतों की खोज, तथा साम्राज्यवादी शक्तियों की पूंजीवादी वर्ग के लिए निवेश के क्षेत्र थे। इसमें, केवल आर्थिक लाभ ही नहीं, बल्कि मानसिक (psychological) उद्देश्यों की भी बड़ी भूमिका थी, क्योंकि यह माना जाता था कि विदेशी विशाल उपनिवेश साम्राज्यों से राष्ट्रों को प्रतिष्ठा और महिमा मिलती है।

साम्राज्यवादियों ने अपनी नीतियों का उपयोग राष्ट्रीय रक्षा की सेवा के लिए भी किया। उन्होंने राज्य या उसके संचार मार्गों की रक्षा के लिए क्षेत्र और अड्डे उपलब्ध कराए, आवश्यक कच्चे माल और बाजार प्रदान किए, और ऐसे जनसंख्या क्षेत्रों का उपयोग किया जिनसे सैनिक और मजदूर जुटाए जा सकते थे। राज्यों ने अक्सर अपने आप को सुरक्षित बनाने के लिए बाहरी और सीमा क्षेत्रों पर नियंत्रण हासिल किया, या तो उन क्षेत्रों को पूरी तरह अधीन करके, या नाममात्र स्वतंत्र राज्यों (जिन्हें बफर स्टेट कहा जाता था) पर प्रभाव प्राप्त करके। कुछ राज्यों ने रबर, टिन और अन्य कच्चे माल के उपनिवेशीय स्रोतों को बहुत महत्व दिया। उपनिवेश मानव संसाधन के मूल्यवान स्रोत भी हो सकते थे।

साम्राज्यवादी नियंत्रण कई तरीकों से स्थापित किया गया। कभी-कभी इसे पूरी सैन्य विजय के माध्यम से लागू किया गया, और कभी-कभी यह दो असमान राज्यों के प्रतिनिधियों के बीच बातचीत के रूप में हुआ, जिसमें साम्राज्य निर्माताओं ने स्थानीय नेताओं को ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित या मजबूर किया, जिन्हें वे समझ नहीं पाते थे। साम्राज्यवादियों ने अन्य उपाय भी अपनाए, जैसे बल के प्रयोग की धमकी, आर्थिक पैठ और स्थापित शासन को कमजोर करना। उपनिवेशों को युद्ध की लूट के रूप में भी जोड़ा गया, जिसमें उपनिवेशों पर सीधे विजय प्राप्त नहीं की गई, बल्कि उन्हें बिक्री के माध्यम से अन्य राज्यों से जोड़ दिया गया।

जबरदस्ती के साधन (Coercive Means) :-

राज्य अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों को पूरा करने के लिए युद्ध के बिना भी जबरदस्ती के साधनों का उपयोग करते हैं। कुछ लोकप्रिय जबरदस्ती के साधनों में प्रतिबंध (embargos), बहिष्कार (boycotts), प्रतिशोध (reprisals), संधियों का निलंबन (suspension of treaties), प्रतिशोधात्मक कार्रवाई (retaliation) और संबंधों को समाप्त करना (severance of relations) शामिल हैं। जबरदस्ती के इस तरीके का एक चरम रूप युद्ध है, जिसके माध्यम से एक राज्य अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग करके अपने इच्छित उद्देश्य को प्राप्त करता है।

युद्ध के भयावह प्रभावों के बावजूद, राज्य इसे अपने राष्ट्रीय हित की सेवा के लिए उपयोग करते हैं। ऐसा माना जाता है कि युद्ध अपना उद्देश्य पूरा करता है, अन्यथा सरकारें और जनता इसका उपयोग नहीं करतीं। जैसा कि क्लाइड ईगलटन (Clyde Eagleton) ने कहा है (Palmer और Perkins [1997] से उद्धृत) — ‘युद्ध एक उद्देश्य प्राप्त करने की विधि है’।

युद्ध के समर्थन या विरोध में विभिन्न राय हैं। जो लोग इसका समर्थन नहीं करते, उनका कहना है कि यह विनाश की ओर ले जाता है और कुछ भी हासिल नहीं करता। समर्थक कहते हैं कि इसके स्पष्ट लाभ हैं, और यही कारण है कि यह राष्ट्रीय नीति का एक उपकरण बना हुआ है। पल्मर और पर्किन्स का तर्क है कि युद्ध अपनी सामाजिक उपयोगिता के कारण बना हुआ है — यह उन कार्यों को पूरा करता है, जिनके लिए अन्य कोई व्यावहारिक प्रक्रिया नहीं थी। इसके अलावा, युद्ध का उपयोग उत्पीड़न से बचने के लिए किया गया है, लेकिन इसका उपयोग लोगों को दबाने और अन्य भूमि पर हावी होने के लिए भी किया गया है।

आर्थिक साधन (Economic Instruments) :-

आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण एक और ऐसा साधन है जिसके माध्यम से राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाया जा सकता है। राष्ट्रीय हितों की पूर्ति के लिए राज्य जानबूझकर आर्थिक नीतियों के नियंत्रण और स्वतंत्रता दोनों को अपनाते हैं। एक राज्य अपनी आंतरिक भलाई को बढ़ावा देने के लिए आर्थिक नीतियाँ अपना सकता है, बिना किसी अन्य राज्य को नुकसान पहुँचाने के उद्देश्य के, लेकिन यह अन्य राज्य को नुकसान पहुँचाने के लिए भी आर्थिक नीतियाँ अपना सकता है।

कुछ प्रमुख आर्थिक साधन जिनका उपयोग राष्ट्रीय हितों को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है, उनमें शुल्क (Tariffs), आर्थिक समझौते (Economic Agreements), विदेशी सहायता (Foreign Aid), डंपिंग (Dumping) आदि शामिल हैं।

शुल्क (Tariff) आयात और निर्यात को नियंत्रित करने का एक साधन है। इसका उपयोग अन्य देशों से आने वाले माल के प्रवाह को घरेलू बाजारों में रोकने के लिए किया जा सकता है और घरेलू उद्योगों को हानिकारक विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने के लिए किया जाता है। राज्य इसका उपयोग विदेशी व्यापार को नियंत्रित करने और राज्य की आर्थिक शक्ति बढ़ाने के लिए करते हैं। विभिन्न प्रकार के शुल्क होते हैं—जैसे कस्टम शुल्क (Custom Tariff), राजस्व शुल्क (Revenue Tariff), सुरक्षात्मक शुल्क (Protective Tariff) आदि। उदाहरण के लिए अमेरिका का टैरिफ वॉर ।

अंतर-सरकारी वस्तु समझौते (Intergovernmental Commodity Agreements) सरकार को उत्पादन और वितरण के नियमित कार्यक्रम और लाभ के निश्चित अनुपात को बनाए रखने में मदद करते हैं। ये राज्यों के हितों की सुरक्षा में सहायक साबित हुए हैं।

आर्थिक सहायता और ऋण (Economic Aid and Loans) का उपयोग अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अपने हितों को सुरक्षित करने के लिए किया जाता है। हालांकि, इन साधनों का अधिकतर उपयोग विकसित देशों ने अपने बेहतर सौदेबाजी की स्थिति के कारण किया। विकासशील देश न केवल तकनीकी ज्ञान के लिए बल्कि औद्योगिक हथियारों जैसे अन्य वस्तुओं के आयात के लिए भी अमीर देशों पर निर्भर हैं। उन्हें अपने कच्चे माल को विकसित देशों को बेचना भी पड़ता है।
अमेरिका (US) ने विभिन्न रूपों में आर्थिक सहायता कार्यक्रमों का उपयोग किया—युद्ध के लिए राहत, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक आधुनिकीकरण, और साम्यवाद के विस्तार को रोकने के लिए। मार्शल प्लान (The Marshall Plan/मार्शल योजना, जिसे औपचारिक रूप से यूरोपीय पुनरुद्धार कार्यक्रम (European Recovery Programme) कहा जाता है, की घोषणा अमेरिका के विदेश सचिव जॉर्ज सी. मार्शल (George C. Marshall) ने 5 जून 1947 को की थी। इस योजना के तहत 16 यूरोपीय देशों को अमेरिकी अनुदानों (American grants) का लाभ मिला।) के तहत उसने यूरोप में अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयास किया। सोवियत संघ (Soviet Union) ने भी यूरोप के कम्युनिस्ट राज्यों को आर्थिक सहायता दी ताकि पूर्वी यूरोप में अपने हितों की रक्षा कर सके।

अमेरिका ने समय-समय पर मिस्र, पाकिस्तान और तुर्की के लिए भी आर्थिक सहायता कार्यक्रमों का उपयोग किया ताकि वे उसके पक्ष में रहें। इसी तरह, विकसित देशों ने अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए ऋण और अनुदान का उपयोग बढ़ाया। ऋण आमतौर पर दाता देशों से विशेष वस्तुओं की खरीद के लिए दिया जाता है। अनुदान (Grants) मानवीय आधार पर दिया जाता है, लेकिन इसका उद्देश्य दाता देशों के हितों की सेवा करना भी होता है।

विकसित देश विभिन्न उद्देश्यों के लिए डंपिंग (Dumping) का भी उपयोग करते हैं। इसका अर्थ है कि वे वस्तुओं का निर्यात ऐसे मूल्य पर करते हैं जो घरेलू खरीदारों से लिए जाने वाले मूल्य से कम होता है।

संधियाँ और गठबंधन (Alliances and Treaties):-

इसके अलावा, राज्य अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए गठबंधनों में शामिल होते हैं और संधियों (Treaties) पर हस्ताक्षर करते हैं। गठबंधन केवल सामान्य हितों की रक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि सामान्य शत्रुओं के खिलाफ भी बनाए जाते हैं। गठबंधन किसी भी प्रकार के हो सकते हैं—राजनीतिक, सैन्य या सामाजिक-आर्थिक।

कुछ सैन्य गठबंधनों के उदाहरण हैं:-

नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी ऑर्गेनाइजेशन (NATO):- 
  • उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन एक सैन्य गठबंधन है । इसका मुख्यालय ब्रुसेल्स में है। 
  • वाशिंगटन संधि - या उत्तरी अटलांटिक संधि - उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन - या नाटो का आधार बनती है।
  • इस संधि पर 4 अप्रैल 1949 को वाशिंगटन डी.सी. में 12 संस्थापक सदस्यों द्वारा हस्ताक्षर किये गये थे। वर्तमान में इस के 32 सदस्य हैं। फ़िनलैंड ने 4 अप्रैल 2023 को उत्तरी अटलांटिक संधि में अपना परिग्रहण दस्तावेज़ जमा कर दिया और नाटो का 31वाँ सदस्य देश बन गया। स्वीडन ने 18 मई 2022 को अपना आधिकारिक आवेदन पत्र प्रस्तुत किया। स्वीडन ने 7 मार्च 2024 को उत्तरी अटलांटिक संधि में अपना परिग्रहण दस्तावेज़ जमा कर दिया और नाटो का 32वाँ सदस्य देश बन गया। 
  • यह संधि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 51 से अपना अधिकार प्राप्त करती है, जो स्वतंत्र राज्यों के व्यक्तिगत या सामूहिक रक्षा के अंतर्निहित अधिकार की पुष्टि करता है।
  • सामूहिक रक्षा संधि का मूल है और अनुच्छेद 5 में इसका उल्लेख है। यह सदस्यों को एक-दूसरे की रक्षा करने के लिए प्रतिबद्ध करता है और गठबंधन के भीतर एकजुटता की भावना स्थापित करता है।
  • यह संधि छोटी है - इसमें केवल 14 अनुच्छेद हैं - तथा इसमें सभी मोर्चों पर अंतर्निहित लचीलापन प्रदान किया गया है।
  • बदलते सुरक्षा परिवेश के बावजूद, मूल संधि को कभी संशोधित नहीं करना पड़ा तथा प्रत्येक सहयोगी के पास अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों के अनुसार इसके पाठ को क्रियान्वित करने की संभावना है।



साउथ-ईस्ट एशिया ट्रिटी ऑर्गेनाइजेशन (SEATO) :-
  • साउथ-ईस्ट एशिया ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (SEATO) एक सामूहिक रक्षा संधि संगठन था जिसकी स्थापना 8 सितंबर 1954 को मनीला, फिलीपींस में की गई थी ।
  • कम्युनिस्ट विरोधी द्विपक्षीय और सामूहिक रक्षा संधियों के निर्माण के अमेरिकी ट्रूमैन सिद्धांत का हिस्सा था। 
  • इसके कुल आठ सदस्य थे।
  • बैंकॉक में इसका मुख्यालय था ।
  • 30 जून 1977 को SEATO को भंग कर दिया गया, क्योंकि इसके कई सदस्यों ने इसमें रुचि खो दी और इससे अलग हो गए।

सेंट्रल ट्रिटी ऑर्गेनाइजेशन (CENTO) :-
  • केंद्रीय संधि संगठन ( CENTO ), जिसे पहले मध्य पूर्व संधि संगठन ( METO ) के नाम से जाना जाता था और जिसे बगदाद संधि के नाम से भी जाना जाता था , शीत युद्ध का एक सैन्य गठबंधन था। 
  • इसकी स्थापना 24 फ़रवरी 1955 को ईरान , इराक , पाकिस्तान , तुर्की और यूनाइटेड किंगडम द्वारा की गई थी । 
  • यह गठबंधन 16 मार्च 1979 को भंग कर दिया गया था।

ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड-अमेरिका संधि (ANZUS) :-
  • ऑस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड, संयुक्त राज्य अमेरिका सुरक्षा संधि ( एएनजेडयूएस या एएनजेडयूएस संधि ) ऑस्ट्रेलिया , न्यूजीलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच एक सामूहिक सुरक्षा समझौता है जिस पर 1 सितंबर 1951 में हस्ताक्षर किए गए थे ।
  • न्यूजीलैंड को 1986 से आंशिक रूप से निलंबित कर दिया गया है।


अन्य गठबंधन हैं:-

यूरोपीय संघ (European Union) :-
  • यूरोपीय संघ यूरोप के 27 देशों का एक समूह है।
  • ये देश लोगों के लिए चीज़ों को बेहतर, आसान और सुरक्षित बनाने के लिए एक साथ आए।

गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल (Gulf Cooperation Council) :-
  • खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) 1981 में गठित एक राजनीतिक और आर्थिक गठबंधन है, जिसमें छह फ़ारसी खाड़ी देश शामिल हैं: बहरीन, कुवैत, सऊदी अरब, ओमान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात।

अफ्रीकन यूनियन (African Union) :-
  • अफ़्रीकी संघ (एयू) एक महाद्वीपीय निकाय है जिसमें अफ़्रीकी महाद्वीप के 55 सदस्य देश शामिल हैं। इसे आधिकारिक तौर पर 2002 में अफ़्रीकी एकता संगठन (ओएयू, 1963-1999) के उत्तराधिकारी के रूप में स्थापित किया गया था।

दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (SAARC) :-
  • दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) की स्थापना 8 दिसंबर 1985 को ढाका में सार्क चार्टर पर हस्ताक्षर के साथ हुई थी। सार्क में आठ सदस्य देश शामिल हैं: अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, भारत, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका। 
  • इस संगठन का सचिवालय 17 जनवरी 1987 को काठमांडू में स्थापित किया गया था।

अरब लीग (Arab League) :-
  • अरब लीग एक क्षेत्रीय संगठन है जिसकी स्थापना 22 मार्च 1945 को मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के अरबी भाषी देशों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने के लिए की गई थी।
  • वर्तमान में, लीग में 22 सदस्य है।


दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (ASEAN) :-
  • दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (ASEAN) एक आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा सहयोग संगठन है, जिसकी स्थापना 8 अगस्त 1967 को बैंकॉक, थाईलैंड में हुई थी।
  • इसका मुख्यालय इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता में है। 


क्षेत्रीय गठबंधन मुख्य रूप से आर्थिक सहयोग और अन्य सामान्य हितों की पूर्ति करते हैं। देशों के बीच सैकड़ों संधियाँ (Treaties) हस्ताक्षरित हुई हैं—जिनमें मित्रता, व्यापार और सांस्कृतिक गठबंधन शामिल हैं जो इन उद्देश्यों की सेवा करती हैं।

🖊️निष्कर्ष

राष्ट्रीय हित (National Interest) की अवधारणा में एक बड़ी कठिनाई यह है कि कई मामलों में यह वैश्विक आदर्शों (Global Ideals) के साथ टकरा सकती है। राष्ट्रीय हित की प्रस्तुति (Projection) काफी हद तक नीति निर्माताओं (Policymakers) पर निर्भर करती है। वे अपने राष्ट्रीय हित तय करते हैं और उन्हें सुरक्षित और बढ़ावा देने के लिए काम करते हैं। कभी-कभी वे केवल एक शक्तिशाली देश बने रहना चाहते हैं और अपने राष्ट्रीय हितों को दूसरों पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बढ़ावा देते हैं। कभी-कभी वे केवल सत्ता में बने रहना चाहते हैं और इसलिए वे अपने अनुसार राष्ट्रीय हित प्रस्तुत करते हैं।

राष्ट्रों को अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने का अधिकार है, लेकिन जो वे अपने राष्ट्रीय हित के रूप में मानते हैं, वह अन्य देशों के हित के साथ असंगत या हानिकारक हो सकता है। यदि ऐसा है, तो सामान्य साधनों जैसे कूटनीति (Diplomacy) का दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा, केवल इतना ही नहीं कि किसी देश का राष्ट्रीय हित कभी-कभी अन्य देशों के हित के साथ संगत नहीं होता; यह उस देश के अपने हित में भी न हो सकता है। उदाहरण के लिए, अमेरिका का अनुमानित राष्ट्रीय हित—जैसे अफगानिस्तान और इराक पर हमला करना—केवल कई अन्य देशों के राष्ट्रीय हित के साथ असंगत ही नहीं था, बल्कि इसने अपनी प्रतिष्ठा (Prestige) को भी काफी नुकसान पहुँचाया।

इसलिए, वैश्विक शांति (Global Peace) के हित में यह महत्वपूर्ण है कि विभिन्न देशों के राष्ट्रीय हित एक-दूसरे के साथ संगत हों। यदि यह संभव नहीं है, तो कम से कम देशों को विश्व मंचों (World Forums) में साझा मुद्दों पर किसी प्रकार का समझौता (Consensus) करने की कोशिश करनी चाहिए। संघर्ष की स्थिति में उन्हें गैर-जबरदस्ती (Non-Coercive) उपाय अपनाने चाहिए। उन्हें अपने राष्ट्रीय हितों को वैश्विक शांति और सुरक्षा के सार्वभौमिक आदर्शों के साथ सामंजस्य में रखना चाहिए, यह समझते हुए कि यह देश-विशिष्ट राष्ट्रीय हितों को भी सुरक्षित रखने का सर्वोत्तम तरीका होगा।

राष्ट्रीय हित की अवधारणा को 'संकटपूर्ण' (Problematic) माना जाता है क्योंकि आलोचकों ने अक्सर सवाल उठाया है: क्या राष्ट्रीय हित वास्तव में पूरे राष्ट्र के हित का प्रतिनिधित्व करता है, या यह केवल संकीर्ण अभिजात वर्ग (Narrow Elite) के स्वार्थ को दर्शाता है? सरकार वास्तव में किसके हित का प्रतिनिधित्व करती है? सभी राजनीतिक व्यवस्थाएँ पक्षपाती (Partisan) होती हैं और सभी समाज वर्गीकृत (Class-Divided) होते हैं। इसलिए, किसी समय पर सरकार केवल खंडित या वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व कर सकती है, जबकि यह दावा करती है कि वह पूरे राष्ट्र के 'राष्ट्रीय' हित का प्रतिनिधित्व कर रही है।


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