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राष्ट्र-राज्य प्रणाली : राष्ट्रीय शक्ति, शक्ति संतुलन एवं सामूहिक सुरक्षा(The Nation State System: National Power, Balance of Power and Collective Security)

राष्ट्र-राज्य प्रणाली : राष्ट्रीय शक्ति, शक्ति संतुलन एवं सामूहिक सुरक्षा
(The Nation State System:  National Power, Balance of  Power and Collective Security)

सारांश
इस अध्याय में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के चार मूलभूत सिद्धांतों की व्याख्या की गई है:- 
  1. राज्य प्रणाली
  2. राष्ट्रीय शक्ति
  3. शक्ति संतुलन
  4. सामूहिक सुरक्षा
यहाँ राज्य प्रणाली के विकास, उसकी प्रमुख विशेषताओं तथा समकालीन प्रासंगिकता पर चर्चा की गई है। यथार्थवादी दृष्टिकोण से राष्ट्रीय शक्ति, उसके घटक तत्वों और राष्ट्रीय शक्ति के प्रयोग की विभिन्न विधियों को स्पष्ट किया गया है। शक्ति संतुलन की अवधारणा, शक्ति-संतुलन की विभिन्न विधियों तथा इसकी समकालीन प्रासंगिकता का भी परीक्षण किया गया है। साथ ही, राष्ट्र संघ (League of Nations) और संयुक्त राष्ट्र (UN) के अंतर्गत सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। 

विभिन्न समाजों के बीच संबंधों का अध्ययन अलग-अलग सैद्धांतिक परंपराओं के माध्यम से किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अनुशासन अपनी उत्पत्ति से ही मुख्य रूप से यथार्थवादी (Realist) विचारधारा के अधीन रहा है, यद्यपि अन्य प्रतिस्पर्धी सैद्धांतिक दृष्टिकोण—जैसे उदारवाद (Liberalism) और मार्क्सवाद (Marxism)—ने भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

‘राज्य प्रणाली’ या ‘राष्ट्र-राज्य प्रणाली’ का शैक्षणिक अध्ययन मूलतः यथार्थवादी सैद्धांतिक निर्माण है और यह अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की व्याख्या करने का एक तरीका है। हालांकि, अन्य सैद्धांतिक दृष्टिकोण भी इस मत से सहमत हैं कि विश्व राजनीति में राज्य (State) ही मुख्य या प्राथमिक अभिनेता है।

🖊️राष्ट्र-राज्य प्रणाली का विकास और मुख्य विशेषताएँ
(Evolution and Main Features of  the Nation State System)

उदारवादी परंपरा (Liberal Tradition) में ‘राज्य’ (State) को एक ऐसे समुदाय के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें राजनीतिक रूप से संगठित लोग किसी निश्चित क्षेत्र (Definite Territory) में एक सर्वभौम सरकार (Sovereign Government) के अधीन रहते हैं।
राज्य आंतरिक और बाह्य, दोनों स्तरों पर संप्रभु होता है तथा उसके पास वैध बल प्रयोग (Legitimate Use of Force) पर एकाधिकार होता है।
  • आंतरिक संप्रभुता (Internal Sovereignty):- राज्य के अधिकार से ऊपर कोई नहीं होता और उसकी सीमाओं के भीतर रहने वाले लोगों से निष्ठा (Allegiance) की अपेक्षा केवल राज्य ही कर सकता है।
  • बाह्य संप्रभुता (External Sovereignty):- अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अन्य राज्यों के संबंध में राज्य संप्रभु और समान होता है।
दूसरी ओर 
🔹 मार्क्सवादी एवं नव-मार्क्सवादी दृष्टिकोण (Marxist & Neo-Marxist Perspective):- ये राज्य को पूंजीपति वर्ग की संस्था (Institution of Capitalist Class) मानते हैं और अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली को विश्व पूंजीवादी व्यवस्था (World Capitalist System) का परिणाम मानते हैं।

🔹 उदारवादी विद्वान (Liberal Scholars):- वे अंतर्राष्ट्रीय समाज (International Society) की परिकल्पना करते हैं और अपना विश्लेषण निम्न मूल्यों पर आधारित करते हैं—
  • लोकतंत्र (Democracy)
  • विकास (Development)
  • न्याय Justice)
  • स्वतंत्रता (Freedom)
  • मानवाधिकार (Human Rights)
  • मानवीय सुरक्षा (Human Security)

आधुनिक राज्य प्रणाली, अपनी भौगोलिक संप्रभुता (Territorial Sovereignty) के साथ, सर्वप्रथम यूरोप में वेस्टफेलिया की संधि (Treaty of Westphalia, 1648) के बाद अस्तित्व में आई। इस संधि ने तीस वर्षीय युद्ध (1618–1648) को समाप्त किया और इसके माध्यम से यूरोपीय राजकुमारों तथा सम्राटों ने एक-दूसरे की संप्रभुता (Sovereignty) और भौगोलिक अखंडता (Territorial Integrity) को मान्यता दी। बाद में यह प्रणाली पूरे विश्व में फैल गई। यूरोप में आधुनिक राज्य का उदय मध्ययुगीन राजनीतिक परिस्थितियों से हुआ, जो अव्यवस्था (Disorder), अस्थिरता (Instability), आत्मनिर्भर और बंद सामंती कृषक अर्थव्यवस्था (Autarchic & Closed Feudal Peasant Economy) की विशेषताओं से युक्त थी।

सुधार आंदोलन (Reformation)
आधुनिक राज्य की उत्पत्ति को सुधार आंदोलन (Reformation) के दौर से जोड़ा जा सकता है। सुधार आंदोलन मूलतः प्रोटेस्टेंट विद्रोह था, जो रोमन कैथोलिक चर्च की जड़ जमाए हुई भ्रष्ट प्रथाओं और धार्मिक सिद्धांतों के खिलाफ हुआ। यह आंदोलन कैथोलिक चर्च की धार्मिक शिक्षाओं में सुधार लाने के प्रयास के रूप में शुरू हुआ, जिस पर उस समय पश्चिमी यूरोपीय कैथोलिकों का वर्चस्व था। इसका उद्देश्य चर्च की कुप्रथाओं और झूठे सिद्धांतों का विरोध करना था, विशेषकर —
  • इंडलजेंस (Indulgences) यानी पाप मुक्ति पत्रों की बिक्री,
  • धार्मिक पदों (Clerical Offices) की खरीद-फरोख्त।
सुधारकों ने इन प्रथाओं को चर्च की पदानुक्रम (Hierarchy) में व्याप्त संगठित भ्रष्टाचार के प्रमाण के रूप में देखा, जिसमें पोप भी शामिल था। हालाँकि सुधार आंदोलन एक धार्मिक सुधार आंदोलन था, लेकिन वास्तव में यह धर्मनिरपेक्ष शक्तियों (Secular Sources of Power) — जैसे राजा और राजकुमारों — द्वारा राजनीतिक अधिकार जताने का आंदोलन भी था। इसका लक्ष्य था रोमन कैथोलिक चर्च की आध्यात्मिक और लौकिक सत्ता को चुनौती देना, जिसने अब तक पूरे यूरोप में धार्मिक और राजनीतिक, दोनों क्षेत्रों में शक्ति का प्रयोग किया था। यूरोपीय राजकुमारों ने पोप के सार्वभौमिक अधिकार और नियंत्रण को चुनौती दी और राजनीतिक तथा धार्मिक सत्ता को राष्ट्रीय आधार (National Lines) पर संगठित करना शुरू किया। आधुनिक राज्य के निर्माण में मुख्य संगठित राजनीतिक सिद्धांत राष्ट्रवाद (Nationalism) रहा है।

‘राष्ट्र’ (Nation) को बेनेडिक्ट एंडरसन (Benedict Anderson) ने “एक काल्पनिक राजनीतिक समुदाय (Imagined Political Community)” के रूप में परिभाषित किया है (Anderson, 1991: 5)।

18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से राज्यों की राजनीतिक और भौगोलिक सीमाएँ (Political & Territorial Boundaries) राष्ट्रीय पहचान (National Identities) के आधार पर खींची जाने लगीं और राज्य एक राष्ट्र-राज्य (Nation-State) के रूप में परिवर्तित हो गया। अब राज्य ने अपनी वैधता (Legitimacy) को राष्ट्रीयता (Nationality) के आधार पर स्थापित किया और युद्ध करने के साधनों (Means of Warfare) पर एकाधिकार (Monopoly) कर लिया। शांति स्थापित करना (Making Peace) और युद्ध की घोषणा करना (Declaring War) अब केवल राज्य का विशेषाधिकार (Exclusive Domain) बन गया—जो प्रायः युद्धों का कारण बना।

मानव समाजों का राजनीतिक संगठन आधुनिक भौगोलिक राज्य (Territorial State) के आगमन से पहले भी अस्तित्व में था—यह कभी विशाल प्राचीन साम्राज्यों (Ancient Empires) और कभी छोटे नगर-राज्यों (City States) के रूप में दिखाई देता था। प्राचीन सभ्यताओं के लोगों के बीच सांस्कृतिक और वाणिज्यिक संबंध (Cultural & Commercial Contacts) आदि काल से बने हुए थे। लेकिन भौगोलिक संप्रभुता (Territorial Sovereignty), स्वतंत्रता (Independence) और राष्ट्रवाद (Nationalism) — अपने आधुनिक अर्थों में — प्राचीन और मध्यकालीन समाजों के लिए अज्ञात थे।

वेस्टफेलिया की संधि (Treaty of Westphalia, 1648) को इस अर्थ में राष्ट्र-राज्य प्रणाली का औपचारिक आधार माना जा सकता है कि उसने यह मान्यता दी कि—
  • पवित्र रोमन साम्राज्य (Holy Roman Empire) अब अपने अंगों (States) से निष्ठा (Allegiance) की मांग नहीं कर सकता था ।
  • पोप भी हर जगह—even धार्मिक मामलों (Spiritual Matters) में—अपना अधिकार बनाए नहीं रख सकता था। (Palmer and Perkins, 1997: 5)
  • आधुनिक राज्य प्रणाली का एक अन्य संगठित सिद्धांत और विशेषता राज्यों की संप्रभु समानता (Sovereign Equality of States) रही है।
इस सिद्धांत का अर्थ यह नहीं था कि सभी राज्य सैन्य, आर्थिक और राजनीतिक शक्ति क्षमताओं में समान थे, बल्कि यह कि अंतर-राज्यीय संबंधों (Interstate Relations) में उन्हें औपचारिक रूप से समान व्यवहार (Formal Equal Treatment) मिलना चाहिए। इस प्रकार यह वास्तविक (Substantive) समानता नहीं बल्कि औपचारिक न्यायिक समानता (Formal Juridical Equality) थी।

हालाँकि, यह औपचारिक कानूनी समानता भी गैर-यूरोपीय राज्यों और समाजों तक नहीं फैलाई गई। एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी राज्यों को उस समय साम्राज्यवाद (Imperialism) और औपनिवेशिकवाद (Colonization) जैसी नीतियों के माध्यम से व्यवस्थित रूप से लूटा और शोषित किया गया। इसके विपरीत, यूरोपीय राज्यों के बीच संबंधों को अंतर्राष्ट्रीय कानून (International Law) के नियमों और मानकों तथा किसी न किसी रूप में अंतर्राष्ट्रीय संगठन (International Organization) द्वारा नियंत्रित किया जाना था। कुछ विद्वानों ने तर्क दिया है कि राज्य प्रणाली (State System) और आधुनिकता (Modernity) ऐतिहासिक रूप से आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं। वास्तव में, दोनों पूर्णतः सहअस्तित्व रखते हैं और राज्य प्रणाली आधुनिकता की केंद्रीय, यदि निर्णायक नहीं तो, विशेषता रही है। जैसे-जैसे आधुनिकता विश्वभर में फैली, राज्य प्रणाली भी उसके साथ फैल गई (Jackson और Sorenson, 2008: 8–9)। असल में, विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था (World Capitalist Economy) का उदय और उसके लिए वैश्विक बाजारों (Global Markets) व कच्चे माल (Raw Materials) की आवश्यकता ही वह कारक था जिसने राज्य प्रणाली को गैर-यूरोपीय क्षेत्रों और समाजों तक विस्तार दिया।

साथ ही, उदारवादी लोकतांत्रिक विचारों और मूल्यों—जैसे स्वतंत्रता (Liberty), समानता (Equality), बंधुत्व (Fraternity) और राष्ट्रीय आत्मनिर्णय (National Self-Determination)—का प्रसार भी राष्ट्र-राज्य प्रणाली (Nation State System) के विकास में महत्वपूर्ण रहा। राज्य प्रणाली वास्तव में वैश्विक (Global) केवल 20वीं शताब्दी में हुई, विशेष रूप से द्वितीय विश्व युद्ध (Second World War) के बाद जब औपनिवेशिक मुक्ति प्रक्रिया (Decolonization Process) शुरू हुई।

तीसरी दुनिया (Third World) के अविकसित देशों ने साम्राज्यवाद (Imperialism) और उपनिवेशवाद (Colonialism) के खिलाफ राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों (National Liberation Struggles) के माध्यम से अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की। यूरोपीय उपनिवेशों के बड़े हिस्से के स्वतंत्र राष्ट्रों (Sovereign Nations) के रूप में उभरने के साथ ही राष्ट्र-राज्य प्रणाली (Nation-State System) में अत्यधिक विस्तार हुआ। 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र संगठन (UNO) की स्थापना हुई थी, उस समय केवल 51 स्वतंत्र राज्य सदस्य थे। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यों की संख्या बढ़कर 197 हो गई है।



🖊️समकालीन राज्य प्रणाली (The Contemporary State System)

समकालीन राज्य प्रणाली वास्तव में यूरोपीय राज्य प्रणाली का विस्तार और विकास है, जो 18वीं और 19वीं शताब्दी में विकसित हुई थी।

के. जे. होल्स्टी (K. J. Holsti, 1978:73) के अनुसार, समकालीन राज्य प्रणाली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:-
1. राज्यों की संख्या और प्रकार में वृद्धि: – अब विभिन्न प्रकार के स्वतंत्र राज्यों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
2. विनाश की विशाल क्षमता :– परमाणु हथियार और आधुनिक वितरण प्रणालियों से लैस राज्यों के पास अपार विनाशकारी शक्ति मौजूद है।
3. बाहरी हस्तक्षेपों के प्रति संवेदनशीलता :– राज्य अब बाहरी हस्तक्षेपों जैसे विद्रोह, आर्थिक दबाव और सैन्य आक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो गए हैं।
4. गैर-राज्य अभिनेताओं का महत्व :– राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों, बहुराष्ट्रीय निगमों, अंतर्राष्ट्रीय हित समूहों और सीमाओं से परे कार्यरत राजनीतिक दलों जैसी शक्तियाँ अब अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगी हैं।
5. गैर-यूरोपीय महाशक्तियों का प्रभाव :– रूस, चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका तीन ऐसे गैर-यूरोपीय देश हैं जिन्होंने वैश्विक राजनीति में प्रमुख स्थान प्राप्त कर लिया है।
6. निर्भरता और परस्पर निर्भरता :– सभी प्रकार के अभिनेताओं (राज्य और गैर-राज्य) के बीच उच्च स्तर की परस्पर निर्भरता और सह-निर्भरता विकसित हो चुकी है।


🌍 वैश्वीकरण और राज्य प्रणाली (Globalization and the State System)

1. नव-उदारवादी (Neo-liberal) दृष्टिकोण के अनुसार:-
वैश्वीकरण का अर्थ है – पूँजी, व्यापार, विचारों और सेवाओं का स्वतंत्र प्रवाह बिना किसी राज्यीय सीमा-बाधा के।
इसका लक्ष्य है – राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं का वैश्विक अर्थव्यवस्था से एकीकरण।


2. वैश्वीकरण के मुख्य प्रभाव:-
  • राष्ट्रों के बीच परस्पर निर्भरता (Interdependence) बढ़ना।
  • लोकतंत्र का प्रसार (Spread of democracy)।
  • गैर-राज्य अभिनेताओं (Non-state actors) जैसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs), अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और NGOs का महत्व बढ़ना।
3. वैश्वीकरण पर उठने वाले प्रश्न:-
  • क्या वैश्वीकरण के युग में राज्य प्रणाली (State System) अप्रासंगिक हो रही है?
  • क्या राज्य की शक्ति घट रही है और बाज़ार (Markets) की शक्ति बढ़ रही है?

4. वैश्वीकरण पर विद्वानों की राय:-
कई उदारवादी विद्वान मानते हैं कि राज्य की शक्ति धीरे-धीरे घट रही है।
Susan Strange का तर्क:- वैश्वीकरण की श्रेष्ठ शक्ति के सामने राज्य पीछे हट रहा है (Retreat of the State)।(Susan Strange, for instance, argues that the  state is retreating in the face of the superior power of globalization)
निर्णय लेने और संसाधन नियंत्रित करने की क्षमता अब केवल राज्यों के पास नहीं रही, बल्कि बाज़ार और निजी संस्थाओं के पास भी है। उसका दावा है कि राज्य कभी बाज़ारों के स्वामी थे; लेकिन अब, कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर, बाज़ार ही राज्यों की सरकारों के स्वामी बन गए हैं (स्ट्रेंज, 1966: 4)। अन्य कुछ विद्वानों का मानना है कि तकनीकी परिवर्तनों और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, उत्पादन तथा वित्त के उदारीकरण ने राज्य की पूर्व में निर्विवाद स्थिति को निर्णायक रूप से कमजोर कर दिया है (केसेलमैन, 2007: 210)। वैश्वीकरण के दौर में राज्य अपनी संप्रभु शक्ति को प्रमुख क्षेत्रों—सैन्य मामलों, घरेलू आर्थिक और सामाजिक मामलों पर नियंत्रण आदि—में खो रहा है। हालाँकि, नव-यथार्थवादी (Neo-Realist) विद्वान इन तर्कों को खारिज करते हैं और दावा करते हैं कि राज्य अब भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रमुख अभिनेता बना हुआ है। यथार्थवादियों (Realists) के लिए, राज्य को कोई ख़तरा नहीं है और राज्य प्रणाली भविष्य में भी प्रासंगिक बनी रहेगी।


🖊️राष्ट्रीय शक्ति : अर्थ और तत्व
(National Power: Meaning and Elements)

शक्ति (Power)

शक्ति अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, विशेषकर यथार्थवादी (Realist) चिंतन में, जिसमें प्रभाव (influence), अधिकार (authority), बल (force) और दबाव (coercion) जैसे विभिन्न आयाम शामिल हैं।

शक्ति वह क्षमता है, जिसके माध्यम से लोगों से वह कार्य कराया जा सकता है, जो वे अन्यथा न करते (मैक्लीन और मैकमिलन, 2003: 431)।

'शक्ति' की अवधारणा का प्रयोग प्रायः राजनीतिक क्रिया (political action) के संदर्भ में किया जाता है। उदाहरण के लिए, मॉर्गेन्थाउ (1991: 32) ने शक्ति को परिभाषित किया है — “मनुष्य का अन्य मनुष्यों के मन और कार्यों पर नियंत्रण।”

राजनीतिक शक्ति (Political Power) सार्वजनिक प्राधिकार (public authority) के धारकों और व्यापक जनता के बीच नियंत्रण का पारस्परिक संबंध है। यह शक्ति एक मनोवैज्ञानिक संबंध है — शासकों और शासितों के बीच।

मॉर्गेन्थाउ के अनुसार, राजनीतिक शक्ति उन लोगों के बीच एक मनोवैज्ञानिक संबंध (psychological relation) है, जो शक्ति का प्रयोग करते हैं और जिन पर शक्ति का प्रयोग किया जाता है।

शक्ति एक सापेक्षिक (relational) अवधारणा है, क्योंकि व्यक्ति या राज्य शून्य में शक्ति का प्रयोग नहीं करते, बल्कि अन्य व्यक्तियों या राज्यों के संबंध में शक्ति का प्रयोग करते हैं। यहाँ महत्वपूर्ण बात राज्य की पूर्ण शक्ति (absolute power) नहीं है, बल्कि अन्य राज्यों की तुलना में उसकी शक्ति की स्थिति (power position) है (Van Dyke, 1969: 217)।

जॉर्ज श्वार्ज़ेनबर्गर (1964: 14) के अनुसार शक्ति  “दूसरों पर अपनी इच्छा थोपने की क्षमता, और आज्ञापालन न होने की स्थिति में प्रभावी दंड (effective sanctions) पर निर्भरता।”
(The capacity to impose one’s will on others by reliance on effective sanctions in the case of non-compliance’.)

राष्ट्रीय शक्ति (National Power):-

मॉर्गेन्थाउ के अनुसार, राष्ट्र एक अमूर्त (abstraction) अवधारणा है, जो अनेक व्यक्तियों से निर्मित होती है, जिनमें कुछ समान विशेषताएँ पाई जाती हैं। यही विशेषताएँ उन्हें एक ही राष्ट्र का सदस्य बनाती हैं।

तो, राष्ट्रीय शक्ति क्या है?
यह किसी राष्ट्र के कुछ व्यक्तियों की वह शक्ति है, जो राष्ट्र की नीतियों के अनुपालन में प्रयोग की जाती है।

इस प्रकार, जब हम किसी राष्ट्र की शक्ति या उसकी विदेश नीति की चर्चा व्यवहारिक (empirical) रूप में करते हैं, तो उसका अर्थ केवल उन व्यक्तियों की शक्ति या विदेश नीति से होता है, जो उस राष्ट्र से संबंधित होते हैं।(मॉर्गेन्थाउ, 1991:117)

ई. एच. कार (E. H. Carr) के अनुसार, राष्ट्रीय शक्ति को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:-
1. सैन्य शक्ति (Military Power) – इसे अंतिम उपाय के रूप में प्रयोग किया जाता है।
2. आर्थिक शक्ति (Economic Power) – इसका प्रयोग बाज़ारों, कच्चे माल, निवेश आदि को नियंत्रित करने के लिए किया जाता है।
3. जनमत पर शक्ति (Power over Public Opinion/Propaganda) – इसमें देश में राष्ट्रीय मनोबल का निर्माण, विदेशों में मनोवैज्ञानिक युद्ध तथा हर जगह नैतिक नेतृत्व के लिए संघर्ष शामिल है।

हालाँकि, यह विभाजन केवल विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण के लिए है। जैसा कि कार (1946:108) ने बताया, शक्ति अपने सार में एक अविभाज्य संपूर्ण (indivisible whole) है।
राष्ट्रीय शक्ति का एक और पहलू यह है कि राज्यों की शक्ति को सटीक रूप से मापना कठिन होता है। इसी कारण समकालीन संरचनात्मक यथार्थवादी (Structural Realists) ने शक्ति (Power) के स्थान पर क्षमताओं (Capabilities) की अवधारणा प्रस्तुत की।
उदाहरणस्वरूप, केनेथ वाल्ट्ज (Kenneth Waltz) का सुझाव है कि राज्यों की क्षमताओं को निम्न मापदंडों के आधार पर रैंक किया जा सकता है:-
  • जनसंख्या और क्षेत्रफल का आकार
  • संसाधन संपदा (Resource Endowment)
  • आर्थिक क्षमता
  • सैन्य शक्ति
  • राजनीतिक शक्ति
  • दक्षता (Competence)
  • (लिटिल और स्मिथ [2006] द्वारा उद्धृत)

राष्ट्रीय शक्ति के तत्व (Elements of National Power):-

राष्ट्रीय शक्ति के विभिन्न तत्व होते हैं। इनमें से कुछ तत्व अपेक्षाकृत स्थिर (relatively stable) होते हैं, जबकि कुछ निरंतर परिवर्तनशील (subject to constant change) होते हैं।(मॉर्गेंथाऊ, 1991: 127)

1. भूगोल (Geography):-

अंतरराष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी (Realist) चिंतकों के लिए, भूगोल राष्ट्रीय शक्ति का एक महत्वपूर्ण कारक बना हुआ है। आधुनिक परिवहन और संचार तकनीक के विकास के बावजूद भी, किसी राज्य का भौगोलिक स्थान एक मौलिक एवं स्थायी महत्व का कारक है, जिसे सभी राष्ट्रों की विदेश नीतियों को ध्यान में रखना ही पड़ता है। किसी राज्य का आकार, उसका भौगोलिक स्थान, जलवायु एवं मौसम, आकृति और स्थलाकृति (topography), तथा उसकी स्थल एवं समुद्री सीमाएँ – ये सभी उसकी विदेश नीति के निर्णयों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं।

भूगोल और राजनीति के संबंध को स्पष्ट करने हेतु एक अलग ज्ञान शाखा विकसित हुई है, जिसे भूराजनीति (Geopolitics) कहा जाता है। किसी राज्य की विदेश नीति निर्माण एवं व्यवहार में भूराजनीतिक विचारधारा का महत्वपूर्ण स्थान होता है।

प्रसिद्ध भूराजनीतिज्ञ हैल्फोर्ड मैकिन्डर (Halford Mackinder) ने यह भविष्यवाणी की थी कि – "जो पूर्वी यूरोप पर शासन करेगा, वह हृदय-प्रदेश (Heartland – जो वोल्गा नदी, आर्कटिक महासागर, यांग्त्ज़ी नदी और हिमालय पर्वत से घिरा है) पर शासन करेगा। जो हृदय-प्रदेश पर शासन करेगा, वह विश्व-द्वीप (Eurasia–Africa) पर शासन करेगा और जो विश्व-द्वीप पर शासन करेगा, वह पूरे विश्व पर शासन करेगा।" (पाल्मर एवं पर्किन्स, 1997)


2. प्राकृतिक संसाधन (Natural Resources):-

किसी विशेष देश को प्राप्त प्राकृतिक संसाधन भी उसकी राष्ट्रीय शक्ति को अन्य राज्यों की तुलना में निर्धारित करते हैं। प्राकृतिक संसाधन, राष्ट्रीय शक्ति का एक अपेक्षाकृत स्थिर तत्व होते हैं।


3.भोजन (Food):-

भोजन में आत्मनिर्भरता हमेशा महान शक्ति का स्रोत होती है। इसके विपरीत, भोजन की स्थायी कमी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी कमजोरी का स्रोत है। वे देश जो भोजन में आत्मनिर्भर हैं, उन्हें संकट के समय अपनी जनसंख्या के लिए भोजन की चिंता नहीं करनी पड़ती और वे कहीं अधिक दृढ़ तथा एकाग्र नीति अपना सकते हैं।


4. कच्चा माल (Raw Materials):-

कच्चा माल औद्योगिक उत्पादन तथा युद्ध करने—दोनों के लिए महत्वपूर्ण होता है। कच्चे माल पर नियंत्रण, युद्ध और शांति दोनों ही स्थितियों में अत्यंत आवश्यक हो गया है। यूरेनियम जैसे कच्चे माल, जिनसे परमाणु ऊर्जा और हथियार बनाए जा सकते हैं, पर नियंत्रण राष्ट्रीय शक्ति को अत्यधिक बढ़ा सकता है और राज्यों की सापेक्ष शक्ति स्थिति में बदलाव ला सकता है।

परमाणु हथियारों को राज्यों द्वारा शक्ति की मुद्रा (currency of power) माना जाने लगा है, क्योंकि वे पारंपरिक हथियारों की तुलना में श्रेष्ठ हैं और निरोधक मूल्य (deterrence value) रखते हैं। 

एक अन्य महत्वपूर्ण कच्चा माल तेल है। दुनिया के बढ़ते औद्योगिकीकरण, विशेषकर पश्चिमी देशों में, तेल ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अत्यधिक सामरिक (strategic) और राजनीतिक मूल्य प्राप्त कर लिया है। तेल अब ऊर्जा का एक अनिवार्य स्रोत बन गया है, जो राष्ट्रों की सापेक्ष शक्ति को गहराई से प्रभावित करता है।
तेल उत्पादक देशों ने विश्व राजनीति में बहुत अधिक राजनीतिक और सामरिक महत्त्व तथा शक्ति हासिल की है, क्योंकि उनके तेल की वैश्विक स्तर पर भारी मांग है। ‘ऊर्जा सुरक्षा (energy security)’ के विचार अधिकांश देशों की विदेश नीति निर्माण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण कारक बन गए हैं।

5. औद्योगिक क्षमता (Industrial Capacity):-

केवल यूरेनियम, कोयला और लौह अयस्क जैसे कच्चे माल का स्वामित्व किसी राष्ट्र को एक महाशक्ति का दर्जा दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है। कच्चे माल की उपलब्धता के अनुरूप औद्योगिक प्रतिष्ठान भी आवश्यक हैं, ताकि इन संसाधनों को ऊर्जा में परिवर्तित करके उनकी संभावित शक्ति को वास्तविक शक्ति में बदला जा सके। इस संदर्भ में, पश्चिम के विकसित और औद्योगिक देशों के पास विकासशील देशों की तुलना में कहीं अधिक शक्ति है। विकासशील देश प्रायः कृषि-आधारित होते हैं और उनकी औद्योगिक नींव कमजोर होती है, साथ ही उनके पास आधुनिक और उन्नत औद्योगिक तथा सैन्य तकनीक का अभाव होता है।

फलस्वरूप, तीसरी दुनिया के देश (Third World countries) औद्योगिक और सैन्य तकनीक के लिए पश्चिम के औद्योगिक देशों पर निर्भर रहते हैं; और यह निर्भरता महाशक्तियों की राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति को छोटे देशों की तुलना में अत्यधिक बढ़ा देती है।


6. सैन्य तत्परता (Military Preparedness):-

राष्ट्रीय शक्ति स्पष्ट रूप से सैन्य शक्ति या सैन्य तत्परता पर निर्भर करती है।सैन्य तत्परता के लिए ऐसे सैन्य प्रतिष्ठान (military establishment) की आवश्यकता होती है, जो अपनाई गई विदेश नीतियों का समर्थन कर सके।
सैन्य तत्परता सुनिश्चित करने वाले कुछ प्रमुख तत्व हैं:—
  • सैन्य तकनीक में नवाचार (innovations in military technology)
  • सैन्य नेतृत्व की गुणवत्ता (quality of military leadership)
  • सशस्त्र बलों का आकार और गुणवत्ता (size and quality of armed forces)
युद्ध तकनीक में समय-समय पर हुए नवाचारों ने राष्ट्रों की सैन्य क्षमता को अत्यधिक बढ़ाया है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, परमाणु हथियार (nuclear weapons) और उन्हें पहुंचाने के साधन रखने वाले राष्ट्रों को अपने प्रतिद्वंद्वियों पर एक विशाल तकनीकी बढ़त प्राप्त होती है।

7. जनसंख्या (Population):-

मानव कारकों (Human Factors) में, जो राष्ट्रीय शक्ति (National Power) को निर्धारित करते हैं, जनसंख्या का आकार (size of population), राष्ट्रीय चरित्र (national character), राष्ट्रीय मनोबल (national morale), कूटनीति की गुणवत्ता (quality of diplomacy) तथा शासन व्यवस्था (governance) जैसे तत्व महत्वपूर्ण होते हैं।


8. जनसंख्या का आकार (Size of Population):-

यह कहना गलत होगा कि जितनी बड़ी जनसंख्या होगी, उतनी ही अधिक राज्य की शक्ति होगी। लेकिन यह सत्य है कि यदि पर्याप्त बड़ी जनसंख्या न हो, तो आधुनिक युद्ध (modern war) के सफल संचालन के लिए आवश्यक औद्योगिक संयंत्रों (industrial plants) की स्थापना और संचालन असंभव है।

कोई भी राष्ट्र प्रथम श्रेणी (first rank) का नहीं हो सकता जब तक उसकी जनसंख्या इतनी बड़ी न हो कि वह राष्ट्रीय शक्ति (national power) के भौतिक उपकरणों (material implements) का निर्माण और प्रयोग कर सके।

9. राष्ट्रीय चरित्र (National Character):-

राष्ट्रीय चरित्र का अस्तित्व एक विवादास्पद विषय है।क्लासिकल यथार्थवादियों (Classical Realists) जैसे मॉर्गेन्थाऊ (Morgenthau) के अनुसार, राष्ट्रीय चरित्र राष्ट्रीय शक्ति को प्रभावित करने में असफल नहीं हो सकता। क्योंकि शांति और युद्ध के समय, जो लोग राष्ट्र के लिए कार्य करते हैं—नीतियाँ बनाते हैं, उन्हें लागू करते हैं और उनका समर्थन करते हैं, चुनाव करते हैं और चुने जाते हैं, जनमत का निर्माण करते हैं, उत्पादन और उपभोग करते हैं—वे सभी, किसी न किसी हद तक, उन बौद्धिक और नैतिक गुणों की छाप (imprint) रखते हैं जो राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण करते हैं।

10. राष्ट्रीय मनोबल (National Morale)

मॉर्गेन्थाऊ (Morgenthau) के शब्दों में, राष्ट्रीय मनोबल वह दृढ़ संकल्प है जिसके साथ एक राष्ट्र शांति और युद्ध दोनों समय में अपनी सरकार की विदेश नीतियों का समर्थन करता है। यह मुख्य रूप से राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर जनमत (Public Opinion) के माध्यम से प्रकट होता है। यदि राष्ट्रीय मनोबल ऊँचा हो तो सरकारें अपनी नीतियों को शांति और युद्ध दोनों समय में प्रभावी ढंग से आगे बढ़ा सकती हैं।

राष्ट्रीय मनोबल विशेष रूप से राष्ट्रीय संकट के समय स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। मनोबल का संबंध उन विचारों और विचारधाराओं (Ideas and Ideologies) से होता है जो किसी उद्देश्य के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। कभी-कभी, राष्ट्रीय मनोबल को राज्य के प्रचार (State Propaganda) द्वारा कृत्रिम रूप से भी उत्पन्न किया जा सकता है।

11. कूटनीति की गुणवत्ता (Quality of Diplomacy):-

राष्ट्रीय शक्ति के सभी तत्वों में कूटनीति सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है। कूटनीति (Diplomacy) का अर्थ है – वार्ता (Negotiation) के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय संबंधों का प्रबंधन करना।
यह वह तरीका है जिसके द्वारा राजदूत (Ambassadors) और दूत (Envoys) इन संबंधों को समायोजित और नियंत्रित करते हैं। इसे कूटनीतिज्ञों (Diplomats) का व्यवसाय या कला भी कहा गया है।

परिभाषाएँ :-
Van Dyke (1969:246) – कूटनीति अंतरराष्ट्रीय संबंधों का प्रबंधन है।
Quincy Wright – कूटनीति "वार्ता की कला है, जिसका उद्देश्य युद्ध की संभावना वाले राजनीतिक वातावरण में न्यूनतम लागत पर अधिकतम सामूहिक लक्ष्य हासिल करना है।"

कूटनीति राष्ट्रीय शक्ति को दिशा देती है। शांति के समय विदेश मामलों का संचालन कूटनीति करती है, ठीक उसी तरह जैसे युद्ध के समय सैन्य रणनीति (Military Strategy) और युद्धनीति (Tactics) करते हैं। कूटनीति राष्ट्रीय शक्ति का मस्तिष्क (Brain) है, जबकि मनोबल (Morale) उसकी आत्मा (Soul) है। कुशल कूटनीति के प्रभाव :-
  • यह राष्ट्र की शक्ति को उसके वास्तविक संसाधनों से अधिक बढ़ा सकती है।
  • विदेश नीति के साधन और उद्देश्यों में संतुलन (Harmony) स्थापित करती है।
  • राष्ट्र की छिपी हुई शक्तियों को उजागर करके उन्हें राजनीतिक वास्तविकताओं में बदल देती है।

12. सरकार की गुणवत्ता (The Quality of Government):-

राष्ट्रीय शक्ति का एक महत्वपूर्ण तत्व है — अच्छी सरकार (Good Government)। अच्छी सरकार की निम्नलिखित  शर्तें  हैं(In terms of National Power):-

1. सरकार को उपलब्ध राष्ट्रीय संसाधनों (National Resources) और उसकी विदेश नीति (Foreign Policy) के उद्देश्यों व तरीकों के बीच संतुलन (Balance) बनाना चाहिए। अर्थात, उसकी विदेश नीति और लक्ष्य उसके पास उपलब्ध संसाधनों के अनुरूप (commensurate) होने चाहिए, तभी विदेश नीति के सफल होने की संभावना अधिकतम (Optimized) होगी। अगर कोई सरकार अपने संसाधनों और नीतियों के बीच संतुलन स्थापित कर पाती है → वह “Good Government” कहलाती है। ऐसी सरकार राष्ट्रीय शक्ति को अधिकतम बढ़ाने में सक्षम होती है।

2. सरकार को अपने उपलब्ध राष्ट्रीय संसाधनों (National Resources) और विदेश नीति के क्रियान्वयन (Pursuit of Foreign Policy) के बीच संतुलन :- अगर कोई सरकार अपनी औद्योगिक क्षमता (Industrial Capacity) से कहीं बड़ा सैन्य ढाँचा (Military Establishment) बनाने की कोशिश करती है, तो इसे बनाए रखना केवल तेज़ी से बढ़ती महँगाई (Galloping Inflation), आर्थिक संकट (Economic Crisis) और राष्ट्रीय मनोबल (National Morale) में गिरावट की कीमत पर ही संभव होगा।  ऐसी स्थिति में सरकार वास्तव में राष्ट्रीय शक्ति (National Power) नहीं बढ़ा रही होती, बल्कि राष्ट्रीय कमजोरी (National Weakness) की योजना बना रही होती है।
    • संसाधनों और लक्ष्यों का संतुलन बिगड़ना = शक्ति में कमी।
    • संसाधनों के अनुसार योजना बनाना = शक्ति में वृद्धि।
3. सरकार को अपनी विदेश नीति (Foreign Policy) के लिए जनसमर्थन (Popular Support) प्राप्त करना आवश्यक है। बिना जनसमर्थन, नीति टिकाऊ नहीं होती। इसके दो स्तर होते हैं :-

(1). अपने देश के भीतर –
      • जनता की राय (Public Opinion) को अपनी नीतियों के पक्ष में करना।
      • ताकि विदेश नीति पर अमल करते समय सरकार को घरेलू विरोध का सामना न करना पड़े।
(2). अन्य देशों में –
      • अपनी विदेशी और घरेलू नीतियों के लिए दूसरे देशों की जनता और सरकारों का समर्थन हासिल करना।
      • इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता और सहयोग (Acceptance & Cooperation) मिलता है।
 मॉर्गेंथाऊ (Morgenthau) के अनुसार, जनमत (Public Opinion) को अपने पक्ष में करना राष्ट्रीय शक्ति (National Power) के लिए उतना ही आवश्यक है, जितना युद्ध के समय सेना की रणनीति।

विदेश नीति के लिए घरेलू + अंतरराष्ट्रीय जनसमर्थन।


13. Techniques to Exercise National Power:-

राष्ट्र अपनी राष्ट्रीय शक्ति (National Power) को तीन मुख्य तरीकों से प्रयोग करते हैं –

1. Diplomacy (कूटनीति):- अंतरराष्ट्रीय संबंधों का प्रबंधन वार्ता (Negotiation) के माध्यम से। उद्देश्य न्यूनतम लागत में अधिकतम राष्ट्रीय हित (National Interest) की प्राप्ति। यह शांति काल में राष्ट्रीय शक्ति का सबसे प्रभावी तरीका है। उदाहरण के लिए भारत कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान से इस तरह कीकूटनीति काप्रयोग करता है। रूस यूक्रेन युद्ध में भारत ने दोनों देशों को इस तरह की कूटनीति के उपयोग का सुझाव दिया।

2. Economic Statecraft (आर्थिक नीति/दबाव):- आर्थिक साधनों द्वारा दूसरे देशों को प्रभावित करना। जैसे: व्यापारिक प्रतिबंध (Trade Sanctions), आर्थिक सहायता (Economic Aid), निवेश, तकनीकी सहयोग आदि। यह शांति और संघर्ष – दोनों समय प्रयोग में आता है। आर्थिक प्रतिबंध इसी तरह की कूटनीति के अंतर्गत आते हैं। उदाहरण के लिए डोनाल्ड ट्रंप ने अनेक देशों पर टेरिफ लगाकर या टेरिफ की धमकी देकर इस तरह की कूटनीति का प्रयोग किया है।

3. Use of Military Force (सैन्य शक्ति का प्रयोग):- प्रत्यक्ष युद्ध या बल की धमकी (Use/Threat of Force)।
उद्देश्य: प्रतिद्वंद्वी को अपने हितों को मानने के लिए बाध्य करना। यह अंतिम उपाय माना जाता है, जब कूटनीति और आर्थिक साधन विफल हो जाएँ। उदाहरण के लिए रूस का यूक्रेन पर हमला तथा इजराइल का इराक पर हमला। अमेरिका द्वारा कई देशों में चलाई गई सैन्य ऑपरेशन भी इसी कूटनीति का भाग है। 

कभी-कभी ये तीनों साथ-साथ उपयोग किए जाते हैं। उदाहरण के लिए रूस यूक्रेन युद्ध में अपनी जाने वाली अमेरिका की कूटनीति ।
कभी स्थिति के अनुसार इनमें से केवल एक का प्रयोग किया जाता है। 

14. Diplomacy (कूटनीति):-

Morgenthau के अनुसार – “Diplomacy is the promotion of national interest by peaceful means (कूटनीति का अर्थ है राष्ट्रीय हित की प्राप्ति शांतिपूर्ण साधनों से करना।)”
मुख्य तत्व (Key Features):-
1. Negotiation (वार्ता) – राज्यों के बीच बातचीत करके समाधान निकालना।
2. Bargaining (सौदेबाज़ी) – लेन-देन और समझौते द्वारा हितों की पूर्ति।
3. Persuasion (मनाना) – तर्क, लॉबी, और अपील से दूसरे राज्य को राज़ी करना।
4. Rewards & Concessions (पुरस्कार व रियायतें) – सहयोग के बदले लाभ देना।
5. Pressure & Threat of Force (दबाव व बल प्रयोग की धमकी) – अंतिम विकल्प के रूप में।

प्रकार (Types of Diplomacy)

1. Open Diplomacy (खुली कूटनीति) – सार्वजनिक मंचों पर खुले तौर पर। उदाहरण:- UN General Assembly की बहसें।

2. Secret Diplomacy (गुप्त कूटनीति) – बंद दरवाज़ों के पीछे, गुप्त समझौते। उदाहरण:- शीत युद्ध कालीन वार्ताएँ।

15. Economic Sanctions (आर्थिक प्रतिबंध):-

आर्थिक प्रतिबंध वे उपाय हैं जिनके द्वारा एक राज्य या राज्यों का समूह किसी अन्य राज्य को उसकी नीतियों या व्यवहार में बदलाव करने के लिए आर्थिक साधनों का प्रयोग करता है।
प्रकार (Types):-
1. Positive Sanctions (सकारात्मक प्रतिबंध):-
आर्थिक सहायता (Aid), निवेश, तकनीकी सहयोग (Technology Transfer), व्यापारिक रियायतें (Trade Concessions)। इनका उद्देश्य लक्ष्य राज्य को किसी विशेष नीति अपनाने के लिए प्रेरित करना।
2. Negative Sanctions (नकारात्मक प्रतिबंध):-
व्यापारिक प्रतिबंध (Trade Embargo), आयात-निर्यात पर रोक, आर्थिक सहायता बंद करना, वित्तीय लेन-देन रोकना। इनका उद्देश्य लक्ष्य राज्य पर दबाव डालना ताकि वह अपनी नीति बदलने को विवश हो।

उपयोग (Use in International Politics):- औद्योगिक देश (Industrialized West) अक्सर विकासशील देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर अपनी नीतियाँ लागू करवाते हैं। विकासशील देश (Global South) अधिकतर आर्थिक सहायता, तकनीक और व्यापार के लिए पश्चिम पर निर्भर रहते हैं। इसलिए आर्थिक प्रतिबंध State Power (राज्य शक्ति) के प्रयोग का एक प्रभावी तरीका है।

16. बल का प्रयोग:-

अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर यथार्थवादी (Realist) चिंतन में बल के प्रयोग या उसके प्रयोग की धमकी को केंद्रीय स्थान प्राप्त है। प्रायः राज्य तब बल प्रयोग का सहारा लेते हैं जब कूटनीति और आर्थिक प्रतिबंध अपने इच्छित लक्ष्यों को प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं। युद्ध का सहारा लेने से पहले बल प्रयोग की धमकियों का उपयोग किया जा सकता है। बल प्रयोग पर अंतरराष्ट्रीय कानूनी प्रतिबंध के बावजूद, युद्ध होते रहते हैं।


🖊️राष्ट्रीय शक्ति का मूल्यांकन

विदेश नीति की सफलता के लिए राष्ट्रीय शक्ति का निरंतर मूल्यांकन आवश्यक है। विदेश नीति के प्रबंधकों को यह लगातार परखते रहना चाहिए कि वर्तमान समय और भविष्य में इन विभिन्न तत्वों का उनकी अपनी राष्ट्र की शक्ति तथा अन्य राष्ट्रों की शक्ति पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। समय-समय पर इन तत्वों में होने वाले परिवर्तनों (जैसे सैन्य प्रौद्योगिकी में नवाचार या आर्थिक शक्ति में बदलाव) को भी राष्ट्रीय शक्ति के आकलन में ध्यान में रखा जाना चाहिए। अपनी तथा अन्य राष्ट्रों की शक्ति का मूल्यांकन करते समय राज्यों को तीन बातों का ध्यान रखना चाहिए:-

(a) शक्ति की सापेक्षता :– शक्ति हमेशा सापेक्ष होती है, पूर्ण (absolute) नहीं। जब हम किसी राष्ट्र की शक्ति की बात करते हैं, तो इसका अर्थ है कि हम उस समय अन्य राष्ट्रों की शक्ति के संदर्भ में उसकी शक्ति की बात कर रहे हैं। किसी राज्य की वास्तविक शक्ति में बदलाव हुए बिना भी उसकी सापेक्ष शक्ति में परिवर्तन हो सकता है, यदि अन्य राज्यों की शक्ति में बदलाव हो जाए।
(b) किसी विशेष तत्व की स्थायित्वहीनता :– शक्ति का कोई भी तत्व या कारक स्थायी नहीं होता, वह परिवर्तनशील है।
(c) किसी एक कारक का अत्यधिक महत्व नहीं :– किसी एक ही कारक (जैसे राष्ट्रीय चरित्र, भौगोलिक स्थिति या सैन्य शक्ति) को अत्यधिक महत्व देकर अन्य सभी कारकों की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

अतः यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय शक्ति के किसी एक तत्व पर, या यहाँ तक कि उनके किसी संयोजन पर भी, विदेश नीति के परिणामों की भविष्यवाणी में पूर्णतः भरोसा नहीं किया जा सकता।


🖊️शक्ति-संतुलन (Balance of Power):-

शक्ति-संतुलन’ अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यथार्थवादी (Realist) चिंतन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यथार्थवादी सिद्धांत के अनुसार अंतरराष्ट्रीय शांति और स्थिरता बनाए रखने में शक्ति-संतुलन अत्यंत आवश्यक है।

यथार्थवादी और नव-यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय राजनीति अराजकता (Anarchy) और आत्म-सहायता (Self-help) व्यवस्था से परिभाषित होती है। ‘अराजकता’ का अर्थ है – संप्रभु राष्ट्र-राज्यों की प्रणाली में एक केंद्रीय प्राधिकरण का अभाव। दूसरे शब्दों में, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई संप्रभु विश्व सरकार नहीं है जो बल-प्रयोग को रोक सके या उसका प्रतिकार कर सके, जैसा कि राष्ट्रीय स्तर पर सरकारें आंतरिक व्यवस्था बनाए रखती हैं।

शास्त्रीय यथार्थवादी विचारकों के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय प्रणाली हॉब्स (Hobbes) के बताए गए ‘प्रकृति की अवस्था’ (State of Nature) को प्रतिबिंबित करती है, जहाँ राष्ट्र अपनी सुरक्षा के लिए एक-दूसरे पर भरोसा नहीं कर सकते। इस अविश्वास और अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की अराजक संरचना को देखते हुए, राज्यों को अपनी सुरक्षा और अस्तित्व सुनिश्चित करने के लिए आत्म-सहायता प्रणाली के अंतर्गत स्वयं प्रयास करने पड़ते हैं।

लेकिन जब प्रत्येक राष्ट्र अपनी सुरक्षा व्यवस्था (Security Apparatus) मजबूत करता है, तो यह अन्य राष्ट्रों की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाता है। इससे ‘सुरक्षा-दुविधा’ (Security Dilemma) नामक स्थिति उत्पन्न होती है। सुरक्षा-दुविधा वह स्थिति है, जहाँ किसी राज्य की सुरक्षा की खोज, किसी अन्य राज्य के लिए असुरक्षा का कारण बन जाती है। इसी ‘सुरक्षा-दुविधा’ से बचने के लिए राष्ट्र शक्ति-संतुलन की प्रक्रिया में शामिल होते हैं। शक्ति-संतुलन का सिद्धांत शक्ति-राजनीति (Power Politics) का अभिन्न हिस्सा तथा राज्य-शास्त्र (Statecraft) का एक मौलिक सिद्धांत है। इसमें राष्ट्र एक-दूसरे की सापेक्ष शक्ति को संतुलित करके अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करते हैं।

शक्ति-संतुलन की परिभाषा (Defining Balance of Power):-

विद्वानों के बीच ‘शक्ति-संतुलन’ के सटीक अर्थ को लेकर कोई सर्वसम्मति नहीं है। अलग-अलग लेखक इसे अलग-अलग तरीके से परिभाषित करते हैं।

केनेथ वॉल्ट्ज (Kenneth Waltz) ने अपनी कृति Theory of International Politics में शक्ति-संतुलन को इस प्रकार परिभाषित किया है – “शक्ति-संतुलन वही है जो तब घटित होता है जब राज्य अपने परिवेश पर ध्यान देते हैं, विश्व स्तर पर शक्ति की संरचना में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार अपनी नीतियों को समायोजित करते हैं और वास्तविक शक्ति का वितरण ऐसा होता है कि एक संतुलन उभर सके।” (उद्धृत – लिटल और स्मिथ, 2006)

जॉर्ज श्वार्ज़ेनबर्गर (George Schwarzenberger) ने शक्ति-संतुलन को इस प्रकार परिभाषित किया है – “अनुकूल परिस्थितियों में, गठबंधन और प्रति-गठबंधन तथा गारंटी और तटस्थता की संधियाँ अंतरराष्ट्रीय संबंधों में एक निश्चित मात्रा में स्थिरता उत्पन्न कर सकती हैं। इस संतुलन को ही शक्ति-संतुलन कहा जाता है।”(1964: 168-9)

मार्टिन वाइट के लिए शक्ति-संतुलन का ग्रोशियन दृष्टिकोण (Grotian sense) दो बातों को इंगित करता है:
1. ‘शक्ति का समान वितरण’ – अर्थात वास्तविक अर्थों में संतुलन।
2. ‘ऐसी स्थिति जिसमें कोई भी शक्ति इतनी प्रभावशाली न हो कि वह दूसरों को खतरे में डाल सके।’ (Wight, 1991: 164)

मैकियावेलियन दृष्टिकोण (Machiavellian sense) में वाइट शक्ति-संतुलन को इस प्रकार परिभाषित करते हैं:- “यह मौजूदा शक्ति का वितरण है; अर्थात वह वितरण जो यथास्थिति (status quo) शक्तियों के अनुकूल हो।” (Wight, 1991: 169)

कैसलरेघ (Castleagh) ने शक्ति-संतुलन को इस प्रकार परिभाषित किया:- “राष्ट्रों के परिवार के सदस्यों के बीच ऐसा न्यायसंगत संतुलन बनाए रखना, जिससे कोई भी राष्ट्र इतना शक्तिशाली न हो जाए कि वह अपनी इच्छा अन्य पर थोप सके।" (quoted in Kumar, 1967 : 239)

हांस मॉर्गेंथाऊ (Hans Morgenthau) के अनुसार शक्ति-संतुलन:- हांस मॉर्गेंथाऊ (1991: 187) के अनुसार “कई राष्ट्रों की शक्ति प्राप्त करने की आकांक्षा — जिनमें से प्रत्येक या तो यथास्थिति (status quo) को बनाए रखना चाहता है या उसे उलट देना चाहता है — अनिवार्य रूप से एक ऐसी संरचना (configuration) की ओर ले जाती है जिसे शक्ति-संतुलन कहा जाता है और उन नीतियों की ओर ले जाती है जिनका उद्देश्य इसे बनाए रखना होता है।” मॉर्गेंथाऊ ने ‘शक्ति-संतुलन’ (Balance of Power) की संकल्पना को चार विभिन्न रूपों में प्रयोग किया है:-
1. एक नीति (Policy) के रूप में – जिसका लक्ष्य किसी विशेष स्थिति को प्राप्त करना हो।
2. एक वास्तविक स्थिति (Actual state of affairs) के रूप में।
3. शक्ति के लगभग समान वितरण (Approximately equal distribution of power) के रूप में।
4. शक्ति के किसी भी वितरण (Any distribution of power) के रूप में।
मॉर्गेंथाऊ का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय संतुलन शक्ति (Balance of Power) वास्तव में एक व्यापक सामाजिक सिद्धांत (General Social Principle) का विशेष रूप है। यह सिद्धांत उन सभी समाजों पर लागू होता है जो कई स्वायत्त इकाइयों (Autonomous Units) से मिलकर बने हैं। ऐसे समाजों में शक्ति संतुलन ही उन इकाइयों की स्वायत्तता (Autonomy) बनाए रखता है। इसीलिए, Balance of Power और इसे बनाए रखने की नीतियाँ न केवल अनिवार्य (Inevitable) हैं, बल्कि एक महत्वपूर्ण स्थिरकारी तत्व (Stabilizing Factor) भी हैं। यह विशेष रूप से संप्रभु राष्ट्रों के समाज (Society of Sovereign Nations) के लिए आवश्यक है। मॉर्गेंथाऊ शक्ति-संतुलन (Balance of Power) को एक सार्वभौमिक अवधारणा (Universal Concept) के रूप में वर्णित करते हैं— क्योंकि हम संतुलन को एक प्रणाली (System) के विभिन्न घटकों के बीच साम्य (Equilibrium) के रूप में देख सकते हैं, जो हर जगह विद्यमान है; चाहे वह मानव शरीर हो, घरेलू राजनीति हो, अर्थव्यवस्था हो या सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था। उदाहरण के लिए, पूँजीवाद (Capitalism) को ‘प्रतिवर्ती शक्ति’ (Countervailing Power) की एक व्यवस्था के रूप में वर्णित किया गया है। (मॉर्गेंथाऊ, 1991: 188)
  • मानव शरीर → विभिन्न अंगों का संतुलन
  • घरेलू राजनीति → विभिन्न शक्तियों/हितों का संतुलन
  • अर्थव्यवस्था (Economy) → बाजार बलों का संतुलन
  • समाज व्यवस्था (Social System) → विभिन्न सामाजिक वर्गों/समूहों का संतुलन

इनिस क्लॉड (Inis Claude) के अनुसार, शक्ति-संतुलन (Balance of Power)—को यदि एक प्रणाली (System) के रूप में समझा जाए—तो इसका आशय यह है कि “… राज्यों (States) का एक समूह, जिनमें से कुछ अपने कार्यों को एक सामान्य सिद्धांत (General Principle of Action) के अनुसार संचालित करते हैं: जब मेरा राज्य या गुट (Block) अत्यधिक शक्तिशाली हो जाता है, अथवा होने की धमकी देता है, तो अन्य राज्यों को इसे अपनी सुरक्षा के लिए एक खतरे के रूप में पहचानना चाहिए और प्रतिक्रिया स्वरूप, व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से, अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिए समान उपाय करने चाहिए।” (उद्धृत : वैन डाइक, 1969: 220)

क्रिस ब्राउन (Chris Brown) के अनुसार, शक्ति-संतुलन (Balance of Power) की मूल धारणा यह है कि केवल शक्ति ही शक्ति के प्रभाव का प्रतिकार कर सकती है और यह कि एक अराजक (Anarchical) विश्व में स्थिरता (Stability), पूर्वानुमेयता (Predictability) और नियमितता (Regularity) तभी संभव है जब राज्यों द्वारा अपने हितों को साधने के लिए प्रयोग की जाने वाली शक्तियाँ किसी प्रकार के संतुलन (Equilibrium) में हों।

ब्राउन, हालाँकि, शक्ति-संतुलन के सरल (Simple) और जटिल (Complex) प्रकारों के बीच अंतर स्पष्ट करने के लिए झूमर (Chandelier) की उपमा का प्रयोग करते हैं। ब्राउन का तर्क है कि ‘संतुलन’ (Balance) शब्द का प्रयोग एक तराजू (Pair of Scales) की छवि प्रस्तुत करता है, जो एक ख़राब रूपक (Bad Metaphor) है, क्योंकि यह मानता है कि केवल दो शक्तियाँ ही संतुलन में हैं (सरल संतुलन)। झूमर (Chandelier) की छवि एक बेहतर रूपक है। झूमर एक स्तर पर (Stable) तब रहता है जब उस पर लटके हुए भार (Weights) इस प्रकार वितरित हों कि उनके द्वारा उत्पन्न बल—इस मामले में गुरुत्वाकर्षण (Gravity) का नीचे की ओर खिंचाव—संतुलन (Equilibrium) में हों। इस रूपक के दो लाभ हैं :
1. यह शक्ति-संतुलन की अवधारणा से जुड़ी कुछ उलझी हुई व्याख्याओं को कठिन बना देता है। उदाहरण के लिए, यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘संतुलन बनाए रखना काफी कठिन कार्य है’, जबकि ‘संतुलन का किसी के पक्ष में झुकना’ तो और भी खतरनाक है—विशेषकर यदि आप झूमर के नीचे खड़े हों।
2. ब्राउन के अनुसार, यह रूपक यह विचार प्रस्तुत करता है कि संतुलन (Equilibrium) को दो तरीकों से बिगाड़ा जा सकता है, और उसी प्रकार दो तरीकों से पुनः स्थापित भी किया जा सकता है।
झूमर (Chandelier) अपने स्तर से हट जाता है यदि उसके किसी एक भार का वज़न बढ़ जाए और उसकी पूर्ति (compensation) न की जाए—उदाहरण के लिए, यदि किसी राज्य (State) की आर्थिक वृद्धि अन्य राज्यों की तुलना में तेज़ हो जाए और वह अधिक शक्तिशाली बन जाए। यह तब भी अस्थिर हो जाता है जब दो भार एक-दूसरे के करीब आ जाएँ और अन्यत्र कोई समायोजन न हो—उदाहरण के लिए, यदि दो राज्य पहले से अधिक घनिष्ठ संबंध बना लें। स्थिरता बहाल (restore stability) करने के भी दो रूप हैं—
1. किसी अन्य भार का वज़न बढ़ना, या
2. दो अन्य भारों का आपस में और करीब आना।

दूसरे शब्दों में, विघटन (disruptions) की उत्पत्ति भी और उनका समाधान भी संभवतः इनसे होता है—
  • शस्त्र स्पर्धा (arms racing) द्वारा, या
  • गठबंधन नीति (alliance policy) द्वारा, या
  • दोनों के किसी संयोजन से।
(Brown and Ainley, 2005: 98–99)

1. शक्ति-संतुलन (Balance of Power) की धारणाएँ:-
क्विन्सी राइट (Quincy Wright) के अनुसार, शक्ति-संतुलन प्रणाली के आधारभूत प्रमुख अनुमान निम्नलिखित हैं (ब्राउन और एइनली, 2005: 223–24):-
1. States का उद्देश्य (Vital Interests) की रक्षा करना:- प्रत्येक राज्य (State) अपने मौलिक हितों (जैसे स्वतंत्रता, क्षेत्रीय अखंडता, सुरक्षा आदि) की रक्षा उपलब्ध साधनों से करता है – यहाँ तक कि युद्ध (War) के माध्यम से भी।

2. Vital Interests को Threat होना:- राज्यों के Vital Interests को खतरा (Threat) हो सकता है। यदि ऐसा न होता तो यथास्थिति (Status Quo) बनाए रखना चाहने वाले राज्य को Power Relationships की चिंता ही नहीं करनी पड़ती।

3. Power का मापन (Measurement of Relative Power):- राज्यों की आपसी शक्ति स्थिति (Relative Power Positions) को काफी सटीकता से मापा जा सकता है। इन Power Calculations को भविष्य (Future) पर भी Project किया जा सकता है।

4. Balance का प्रभाव (Effect of Balance):- यदि Balance of Power की स्थिति हो, तो यह दो तरह से कार्य करेगी :-
(a) Threatening State को आक्रमण (Attack) से रोकना।
(b) यदि Attack हो भी जाए तो Victim State को पराजय से बचने में मदद करना।

5. Statesmen की बुद्धिमत्ता (Role of Statesmen in Foreign Policy):-राजनेता (Statesmen) विदेश नीति (Foreign Policy) के निर्णय Power Considerations के आधार पर बुद्धिमानी से ले सकते हैं और लेंगे। यदि यह संभव न होता, तो जानबूझकर Balance of Power बनाना असंभव होता।

शक्ति संतुलन प्रणाली (Balance of Power System) के मूल मानदंड:-

Karen A. Mingst (2001) के अनुसार शक्ति संतुलन प्रणाली के मूल मानदंड निम्नलिखित हैं जो संतुलन की प्रक्रिया में लगे प्रत्येक राज्य अभिनेता के लिए स्पष्ट हैं:-

1. कोई भी अभिनेता (Actor) या गठबंधन (Coalition) जो प्रभुत्व (Dominance) स्थापित करने की कोशिश करता है, उसे नियंत्रित (Constrained) किया जाना चाहिए।

2. राज्य (States) अपनी क्षमताएँ (Capabilities) बढ़ाना चाहते हैं —
  • क्षेत्र (Territory) प्राप्त करके,
  • जनसंख्या (Population) बढ़ाकर,
  • अथवा आर्थिक विकास (Economic Development) करके

3. बातचीत (Negotiating) युद्ध (Fighting) से बेहतर है।

4. यदि क्षमताएँ बढ़ाने में असफलता का खतरा हो, तो लड़ना (Fighting) बेहतर है,
क्योंकि कमज़ोर राज्य (Weak State) की रक्षा कोई और नहीं करेगा।

5. अन्य राज्यों (Other States) को संभावित सहयोगी (Potential Allies) के रूप में देखा जाता है।

6. राज्य (States) अपने राष्ट्रीय हितों (National Interests) का अनुसरण शक्ति (Power) के संदर्भ में करते हैं।

शक्ति संतुलन प्रणाली तभी काम करती है जब अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था (International System) में कई प्रभावशाली अभिनेता (Influential Actors) मौजूद हों। यदि कोई भी आवश्यक अभिनेता (Essential Actor) उपरोक्त मानदंडों (Norms) का पालन नहीं करता है, तो शक्ति संतुलन प्रणाली अस्थिर (Unstable) हो सकती है। जब गठबंधन (Alliances) बनाए जाते हैं, तो शक्ति संतुलन प्रणाली में वे :—
  • विशिष्ट (Specific) होते हैं। 
  • अल्पकालिक (Short Duration) होते हैं। 
  • विचारधारा (Ideology) के बजाय लाभ (Advantage) के आधार पर बनाए जाते हैं।
  • जो युद्ध (Wars) होते भी हैं, वे सामान्यतः सीमित (Limited in Nature) होते हैं और उनका उद्देश्य शक्ति संतुलन को बनाए रखना (Preserve Balance of Power) होता है।

🖊️शक्ति संतुलन प्रणाली की सफलता की शर्तें[Conditions of Success for the Balance  of Power System]

इनिस एल. क्लॉड जूनियर (Inis L. Claude, Jr) के अनुसार, शक्ति संतुलन प्रणाली की सफलता सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित शर्तें आवश्यक हैं (Brown and Ainley, 2005: 243):-
  • शक्ति (Power) कई राज्यों में बाँटी हो, न कि अत्यधिक केंद्रीकृत (Highly Concentrated) हो।
  • नीति (Policy) कूटनीति (Diplomatic Game) के कुशल पेशेवर खिलाड़ियों (Skilled Professional Players) द्वारा नियंत्रित हो, जो वैचारिक प्रतिबद्धताओं (Ideological Commitments) और शक्ति के आधार पर कार्रवाई में आने वाली अन्य बाधाओं से मुक्त हों।
  • शक्ति के तत्व (Elements of Power) सरल (Simple) और स्थिर (Stable) हों; इतने सरल कि सटीक गणना (Accurate Calculations) संभव हो और इतने स्थिर कि भविष्य में उनके आधार पर अनुमान (Projection) लगाया जा सके।
  • युद्ध की संभावित लागत (Potential Costs of War) पर्याप्त हो ताकि यह निवारक (Deterrent) मूल्य रखे, लेकिन इतनी अधिक न हो कि युद्ध का खतरा अविश्वसनीय (Incredible) लगे।
  • मौजूदा व्यवस्था (Existing Order) को चुनौती देने वाले बदलाव क्रांतिकारी (Revolutionary) न हों। कम से कम मुख्य राज्य अभिनेता (Main Protagonists) ऐसे मांगों तक ही सीमित रहें जो प्रणाली की आवश्यक बहुलता (Essential Pluralism) के अनुरूप हों।
  • यदि संभव हो, तो शक्ति संतुलन का एक धारणकर्ता (Holder of the Balance) होना चाहिए—एक ऐसा राज्य जो कभी एक पक्ष में और कभी दूसरे पक्ष में अपना वजन डाल सके।

🖊️शक्ति संतुलन के मुख्य प्रतिरूप और विधियाँ (Main Patterns and Methods of  
the Balance of Power):-

हैंस मॉर्गेंथाऊ (Hans Morgenthau) के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य (International Scene) में शक्ति संतुलन (Balance of Power) दो मुख्य प्रतिरूपों (Patterns) में कार्य कर सकता है:—

1. प्रत्यक्ष विरोध (Direct Opposition) का प्रतिरूप

2. प्रतिस्पर्धा (Competition) का प्रतिरूप
(Morgenthau, 1991: 192–96)

1. प्रत्यक्ष विरोध (Pattern of Direct Opposition):-

इस प्रतिरूप में, यदि राष्ट्र A किसी राष्ट्र B के प्रति साम्राज्यवादी नीति (Imperialistic Policy) अपनाता है, तो राष्ट्र B इसका उत्तर Status Quo की नीति या फिर अपनी साम्राज्यवादी नीति से दे सकता है। इस स्थिति में शक्ति संतुलन सीधे इस बात से उत्पन्न होता है कि प्रत्येक राष्ट्र चाहता है कि उसकी नीतियाँ दूसरे पर हावी हों।

राष्ट्र A अपनी शक्ति इतनी बढ़ाना चाहता है कि वह राष्ट्र B के निर्णयों (Decisions) को नियंत्रित कर सके और इस प्रकार अपनी साम्राज्यवादी नीति को सफल बना सके।

इसके विपरीत, राष्ट्र B अपनी शक्ति इतनी बढ़ाना चाहता है कि वह राष्ट्र A के दबाव का प्रतिरोध कर सके और A की नीति को विफल कर दे, अथवा स्वयं भी साम्राज्यवादी नीति अपनाकर सफलता का प्रयास करे।

इस प्रकार, शक्ति संतुलन का यह प्रतिरूप प्रत्यक्ष विरोध (Direct Opposition) का है—एक ऐसा राष्ट्र जो दूसरे पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है और दूसरा राष्ट्र जो समर्पण करने से इंकार करता है।


2. प्रतिस्पर्धा का प्रतिरूप (Pattern of Competition):-
प्रतिस्पर्धा के प्रतिरूप में शक्ति संतुलन सीधे प्रत्यक्ष विरोध (Direct Opposition) से उत्पन्न नहीं होता, बल्कि यह इस कारण से उत्पन्न होता है कि राष्ट्र एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करते हैं।

यहाँ राष्ट्र A और राष्ट्र B के बीच सीधा टकराव या संघर्ष आवश्यक नहीं होता, बल्कि वे अपने-अपने राष्ट्रीय हितों (National Interests) के आधार पर शक्ति वृद्धि में लगे रहते हैं।

इस प्रक्रिया में, जब राष्ट्र A अपनी शक्ति बढ़ाता है—चाहे वह आर्थिक, सैन्य, या क्षेत्रीय विस्तार के रूप में हो—तो राष्ट्र B भी अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करता है ताकि वह A से पीछे न रह जाए।

इसी प्रकार अन्य राष्ट्र भी एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धात्मक संतुलन बनाए रखते हैं।

इस प्रकार, प्रतिस्पर्धा का प्रतिरूप ऐसा संतुलन है जिसमें राष्ट्र प्रत्यक्ष विरोध के बजाय प्रतिस्पर्धा के माध्यम से शक्ति संतुलन बनाए रखते हैं।

संक्षेप में प्रत्यक्ष विरोध (Direct Opposition): सीधा टकराव, जहाँ एक राष्ट्र दूसरे पर प्रभुत्व जमाना चाहता है और दूसरा उसका प्रतिकार करता है।
प्रतिस्पर्धा (Competition): राष्ट्र स्वतंत्र रूप से शक्ति वृद्धि की दौड़ में रहते हैं, जिससे स्वाभाविक रूप से संतुलन कायम रहता है।




प्रतिस्पर्धा के प्रतिरूप (Pattern of Competition):-

राष्ट्र A की शक्ति, राष्ट्र B के विरोध के बावजूद, राष्ट्र C पर प्रभुत्व जमाने के लिए प्रयाप्त होती है, लेकिन यह शक्ति B की शक्ति द्वारा संतुलित (या उससे कमज़ोर कर दी जाती) है। इसी प्रकार, राष्ट्र B की शक्ति, राष्ट्र C पर प्रभुत्व जमाने के लिए प्रयाप्त होती है, लेकिन वह शक्ति राष्ट्र A की शक्ति से संतुलित (या कमज़ोर) हो जाती है।

यहाँ पर A और B के बीच शक्ति संघर्ष प्रत्यक्ष टकराव का नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धा का होता है। इस प्रतिस्पर्धा का लक्ष्य राष्ट्र C पर प्रभुत्व प्राप्त करना होता है।

यानी A और B का आपसी शक्ति संघर्ष C के माध्यम से होता है।

इस स्थिति में राष्ट्र C की स्वतंत्रता केवल A और B के बीच शक्ति-संबंधों का परिणाम (by-product) बन जाती है।



शक्ति-संतुलन का कार्य (Functions of Balance of Power):-

शक्ति-संतुलन की सफलतापूर्वक कार्यप्रणाली प्रत्यक्ष विरोध (Direct Opposition) की स्थिति में दो प्रमुख कार्य पूरे करती है: -

1. अस्थिर (Precarious) स्थिरता की स्थापना – यह दो सीधे विरोधी राज्यों के बीच शक्ति-संबंधों में एक अस्थिर स्थिरता उत्पन्न करती है। यह स्थिरता अस्थिर होती है क्योंकि यह निरंतर परिवर्तन और सतत समायोजन पर निर्भर करती है, जो राज्यों की सापेक्ष शक्ति की स्थिति में बदलावों के साथ होती रहती है।

2. एक राष्ट्र की स्वतंत्रता का संरक्षण – यह एक राष्ट्र को दूसरे राष्ट्र के प्रभुत्व से मुक्त रखती है।

प्रतिस्पर्धा (Competition) की स्थिति में, जब राष्ट्र A और राष्ट्र B, राष्ट्र C पर प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं, तो शक्ति-संतुलन एक अतिरिक्त कार्य करता है। अस्थिर स्थिरता और A तथा B के बीच संबंधों में सुरक्षा बनाए रखने के अलावा, यह राष्ट्र C की स्वतंत्रता की रक्षा करता है ताकि A या B उस पर अतिक्रमण न कर सकें।

शक्ति-संतुलन (Balance of Power) के उद्देश्य:-

सुरक्षा और शांति, शक्ति-संतुलन के मुख्य उद्देश्य हैं। यद्यपि शांति को अक्सर मुख्य उद्देश्य के रूप में बताया जाता है, किंतु वास्तविकता में सुरक्षा अधिक मूलभूत चिंता होती है। यह मूलभूत चिंता सामान्यतः राज्यों के महत्त्वपूर्ण हितों की रक्षा से जुड़ी होती है, जैसे – संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता आदि, जिनकी रक्षा के लिए राज्य आवश्यकता पड़ने पर युद्ध तक करने के लिए तैयार रहते हैं। शक्ति-संतुलन का प्रयास इस इच्छा से किया जाता है कि शक्ति का ऐसा वितरण हो सके, जिससे किसी राज्य पर आक्रमण करने का दुस्साहस न हो सके, या फिर यदि युद्ध हो भी जाए तो राज्य हार से बच सके, भले ही विजय न प्राप्त हो। अतः शक्ति-संतुलन का प्रमुख उद्देश्य राज्यों के बीच शक्ति का ऐसा वितरण स्थापित या बनाए रखना है, जिससे कोई भी राज्य दूसरे राज्य पर अपनी इच्छा बलपूर्वक (धमकी या हिंसा के प्रयोग से) थोप न सके। सामान्यतः, शक्ति-संतुलन (Balancing of Power) का उद्देश्य शांति भी होता है। संतुलन बनाए रखते हुए आक्रमण को रोकना, शांति को बनाए रखने के समान है। तथापि, सुरक्षा सर्वोपरि और शांति से अधिक महत्त्वपूर्ण है[security is paramount and more important than peace ](Van Dyke, 1969: 221–22)।

मॉर्गेंथाऊ (Morgenthau) के अनुसार, शक्ति-संतुलन का लक्ष्य, जिसे एक संतुलन (equilibrium) के रूप में देखा जाता है, अंतरराष्ट्रीय प्रणाली के घटक राज्यों की स्थिरता और संरक्षण बनाए रखना है। इस अर्थ में, शक्ति-संतुलन यथास्थिति-उन्मुख (status quo oriented) है, और यह अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की संरचना में किसी भी प्रकार के कट्टरपंथी (radical) परिवर्तन को अनुमति नहीं देता। [It is the goal of balance of power, conceived as an equilibrium, to maintain the stability as well as the preservation of component states of the international system. In that sense, balance of power is status quo oriented, not tending to allow any radical changes in the configuration of the international system.]

शक्ति-संतुलन की स्थापना एवं संरक्षण के विभिन्न तरीके:-

शक्ति-संतुलन (Balance of Power) की स्थापना या संरक्षण के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया जाता है।

घरेलू उपायों द्वारा शक्ति का समायोजन:-
एक राज्य, जिसे किसी अन्य राज्य की बढ़ती शक्ति से खतरा महसूस होता है, तो वह अपनी स्थिति की सुरक्षा के लिए अपनी शक्ति में वृद्धि कर सकता है। यह अपने शस्त्रास्त्रों का निर्माण कर सकता है, अपनी युद्ध क्षमता को बढ़ाने के उद्देश्य से किसी आर्थिक कार्यक्रम की शुरुआत या विस्तार कर सकता है, अथवा घरेलू प्रचार अभियान चला सकता है जो देशप्रेम तथा संभावित शत्रु के प्रति घृणा को प्रोत्साहित करे। जब और यदि दूसरा राज्य इतना शक्तिशाली या ख़तरनाक न रहे, तो इन उपायों को शिथिल किया जा सकता है। (वैन डाइक, 1969: 232)


संधियाँ और प्रतिरोधी संधियाँ (Alliances and Counter-alliances):-

संधियाँ और प्रतिरोधी संधियाँ बनाना शक्ति संतुलन बनाए रखने की सबसे सामान्यत: अपनाई जाने वाली विधि रही है। जब दो राष्ट्र, जो एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे हों, अपनी शक्ति में अन्य राष्ट्रों की शक्ति जोड़ सकते हैं, या यदि वे प्रतिद्वंद्वी से अन्य राष्ट्रों की शक्ति को रोक सकते हैं, तो कहा जा सकता है कि वे संधि की नीति अपना रहे हैं।

संधि की नीति अपनाना किसी सिद्धांत का प्रश्न नहीं, बल्कि व्यावहारिकता (expediency) का मामला है। कोई राष्ट्र संधियों से दूर रहेगा यदि उसे विश्वास हो कि वह बिना किसी सहायता के स्वयं को पर्याप्त रूप से संभाल सकता है, या यह कि संधि से उत्पन्न प्रतिबद्धताओं का बोझ अपेक्षित लाभों से अधिक हो सकता है।

सामान्य रूप से संधियाँ (Alliances) समान हितों या पूरक हितों की पूर्ति के उद्देश्य से की जाती हैं। संधियों को प्रायः दो प्रकारों में बाँटा जाता है— आक्रामक (Offensive) और रक्षात्मक (Defensive)।
  • आक्रामक संधि (Offensive Alliance) अपने सदस्यों के पक्ष में शक्ति-संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास करती है।
  • रक्षात्मक संधि (Defensive Alliance) अपने पक्ष में संतुलन को पुनः स्थापित करने का प्रयास करती है।
संधियों की सफलता की सामान्य शर्तों में सामान्य हित, समान विचारधाराएँ, समान आर्थिक हित, भौगोलिक स्थिति, सांस्कृतिक समानताएँ आदि शामिल होती हैं।


शस्त्रीकरण और निरस्त्रीकरण (Armaments and Disarmament):-

शक्ति-संतुलन को बनाए रखने या पुनः स्थापित करने का प्रमुख साधन किसी राष्ट्र द्वारा अपने उपलब्ध संसाधनों से किया जाने वाला शस्त्रीकरण (Armaments) है।

शस्त्र होड़ (Arms Race) में राष्ट्र A, राष्ट्र B के शस्त्रों की बराबरी करने और फिर उन्हें पीछे छोड़ने का प्रयास करता है, और राष्ट्र B भी यही करता है। यह प्रक्रिया अस्थिर और गतिशील शक्ति-संतुलन का विशिष्ट साधन है। शस्त्र होड़ का अनिवार्य परिणाम है:—
  • निरंतर बढ़ता हुआ सैन्य तैयारी का बोझ। 
  • अत्यधिक राष्ट्रीय बजट की आवश्यकता। 
  • गहराता हुआ भय, संदेह और असुरक्षा।
ऐसी परिस्थितियों से बचने और स्थायी शांति न सही, कम से कम स्थिर शक्ति-संतुलन (Stable Balance of Power) बनाने के उद्देश्य से निरस्त्रीकरण (Disarmament) की तकनीक अपनाई गई।

निरस्त्रीकरण का अर्थ है प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों द्वारा शस्त्रों में अनुपातिक कमी (Proportionate Reduction of Armaments) करना। इसका उदाहरण है — संयुक्त राज्य अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के बीच हुआ स्ट्रैटेजिक आर्म्स लिमिटेशन टॉक्स (SALT), जिसमें दोनों प्रतिस्पर्धी राष्ट्रों ने अपने शस्त्रों में अनुपातिक कमी पर सहमति व्यक्त की।


फूट डालो और राज करो (Divide and Rule):-

यह विधि उन राष्ट्रों द्वारा अपनाई जाती है जो अपने प्रतिद्वंद्वियों को कमज़ोर बनाने या कमज़ोर बनाए रखने के लिए उन्हें बाँटने या विभाजित रखने का प्रयास करते हैं। आधुनिक समय में इसके उदाहरण हैं—
  • जर्मनी के प्रति फ़्रांस की नीति
  • भारतीय उपमहाद्वीप के प्रति इंग्लैंड की नीति
  • शेष यूरोप के प्रति सोवियत संघ की नीति
ये सभी “फूट डालो और राज करो” नीति के उदाहरण माने जाते हैं।


क्षतिपूर्ति (Compensation):-

क्षतिपूर्ति सामान्यतः क्षेत्र के विलय (Annexation) या विभाजन से संबंधित होती है। 18वीं और 19वीं शताब्दी में शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए क्षेत्रीय क्षतिपूर्ति एक सामान्य साधन था। यूट्रेक्ट की संधि (1713), जिसने स्पेनिश उत्तराधिकार युद्ध को समाप्त किया, ने पहली बार शक्ति संतुलन के सिद्धांत को क्षेत्रीय क्षतिपूर्ति के माध्यम से स्पष्ट रूप से मान्यता दी। क्षेत्र प्राप्त करते समय यह निर्धारित करने के लिए कि विभिन्न राष्ट्रों को कितनी शक्ति प्राप्त हो रही है, निम्नलिखित मानक अपनाए जाते थे:—
  • जनसंख्या की संख्या
  • जनसंख्या की गुणवत्ता और प्रकार
  • भूमि की उपजाऊ शक्ति
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, क्षतिपूर्ति के सिद्धांत का उपयोग औपनिवेशिक क्षेत्रों के वितरण और औपनिवेशिक एवं अर्द्ध-औपनिवेशिक प्रभाव क्षेत्रों की सीमांकन में किया गया। जिस राष्ट्र ने किसी औपनिवेशिक क्षेत्र में प्रभाव क्षेत्र सुरक्षित कर लिया होता, उसे उस क्षेत्र का उपयोग व्यावसायिक, सैन्य और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए करने का अधिकार मिल जाता था, और इस पर अन्य राष्ट्रों की कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती थी।

हस्तक्षेप और अहस्तक्षेप (Intervention and Non-intervention):-

हस्तक्षेप और अहस्तक्षेप की विधियों का उपयोग प्रायः शक्तिशाली देशों द्वारा किया जाता है, जो संतुलनकारी (balancer) की स्थिति में होते हैं।

हस्तक्षेप (Intervention):- यह तटस्थता से थोड़े विचलन (slight deviations from neutrality) से लेकर किसी बड़े युद्ध में पूर्ण पैमाने पर सैन्य भागीदारी (full-scale military participation) तक हो सकता है।

अहस्तक्षेप (Non-intervention):- यह एक प्रकार की नीति है, जिसका पालन सामान्यतः छोटे राष्ट्र करते हैं और साथ ही वे महाशक्तियाँ भी, जो राजनीतिक व्यवस्था से संतुष्ट होती हैं तथा संतुलन बनाए रखने के लिए शांतिपूर्ण तरीकों का उपयोग कर सकती हैं।

जैसा कि टैलेरां (Talleyrand) ने कहा था  - “अहस्तक्षेप एक राजनीतिक शब्द है, जिसका वास्तविक अर्थ लगभग हस्तक्षेप के समान ही होता है।”[non-intervention is a political term meaning virtually the same thing as intervention] (Palmer and Perkins, 1997: 226)


बफर राज्य (Buffer States):-

बफर राज्य वे छोटे मध्यवर्ती राज्य होते हैं जिन्हें महान शक्तियाँ अपनी शक्ति-राजनीति (Power Politics) के संतुलन के खेल में राजनीतिक, सैन्य और सामरिक उद्देश्यों के लिए उपयोग करती हैं। इनका महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि ये महान शक्तियों के बीच कुशनिंग प्रभाव (cushioning effect) प्रदान करते हैं। ये राज्य तटस्थ या तटस्थीकृत राज्य, उपग्रह राज्य (Satellite States) या निर्भर क्षेत्र (Dependent Territories) हो सकते हैं, अथवा दो या दो से अधिक शक्ति-गठबंधनों में सक्रिय रूप से अपेक्षाकृत सम्मानजनक भूमिका में जुड़े हो सकते हैं। महान शक्तियाँ सामान्यतः बफर राज्यों का समर्थन पाने के लिए एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती हैं और उन्हें सैन्य व आर्थिक सहायता देकर आकर्षित करने का प्रयास करती हैं। उदाहरण के लिए भारत और चीन के बीच नेपाल और भूटान बफर  राज्य है।
महान शक्तियां इन राज्यों पर अपना प्रभाव बढ़ाकर प्रतिस्पर्धी राज्य पर नियंत्रित करने का प्रयास करती है। उदाहरण के लिए चीन नेपाल में अपना प्रभाव बढ़कर भारत पर नियंत्रण करना चाहता है।

शक्ति-संतुलन की संरचना (The Structure of the Balance of Power):-

शक्ति-संतुलन कोई एकल प्रणाली नहीं है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय सभी राष्ट्र शामिल हों। यह कई उप-प्रणालियों (subsystems) से मिलकर बना होता है, जो एक-दूसरे से जुड़े होते हैं, किंतु अपने भीतर भी स्वतंत्र रूप से शक्ति-संतुलन बनाए रखते हैं। दूसरे शब्दों में, वैश्विक शक्ति-संतुलन (global balance of power) क्षेत्रीय या स्थानीय शक्ति-संतुलन (regional/local balance of power) के साथ सह-अस्तित्व में रहता है। इन दोनों के बीच का संबंध सामान्यतः प्रभुत्व (domination) और अधीनता (subordination) का होता है। यदि कोई स्थानीय शक्ति-संतुलन किसी प्रभुत्वशाली शक्ति-संतुलन से अधिक निकटता से जुड़ा होता है, तो उसके पास स्वतंत्र रूप से संचालित होने का उतना ही कम अवसर होता है।

उदाहरण के लिए, दक्षिण एशियाई क्षेत्र में भारत और पाकिस्तान के बीच स्थानीय शक्ति-संतुलन हो सकता है। इसी प्रकार, एशियाई क्षेत्र में साम्यवादी चीन (Communist China) एक ओर और जापान, दक्षिण कोरिया जैसे अन्य उदार लोकतांत्रिक देशों की दूसरी ओर उपस्थिति से क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन स्थापित हो सकता है।

संतुलन का धारक (The Holder of the Balance):-

शक्ति-संतुलन प्रणाली में संतुलन का धारक (holder of the balance) एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है, क्योंकि उसकी स्थिति शक्ति-संघर्ष के परिणाम को निर्धारित करती है। उदाहरण के लिए, यदि तीन राज्यों की प्रणाली हो—A और B लगभग समान शक्ति वाले हों और एक-दूसरे के इतने कट्टर शत्रु हों कि उनके बीच किसी प्रकार का गठबंधन असंभव हो—तो राज्य C ‘हँसता हुआ तीसरा पक्ष’ या संतुलन का धारक बन सकता है। यदि वह A का समर्थन करता है तो दोनों मिलकर B को हरा सकते हैं, और यदि वह B का समर्थन करता है तो दोनों मिलकर A को हरा सकते हैं। इस प्रकार, A और B के बीच संतुलन में राज्य C का समर्थन निर्णायक हो जाता है और परिणाम तय करता है। संतुलन का धारक प्रणाली का ‘निर्णायक’ (arbiter) होता है, जो यह ठहराता है कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। किसी भी एक राष्ट्र या राष्ट्रों के समूह को अन्य पर प्रभुत्व स्थापित करने से रोककर संतुलन का धारक अपनी स्वतंत्रता के साथ-साथ सभी अन्य राष्ट्रों की स्वतंत्रता को भी सुरक्षित रखता है। यही कारण है कि वह अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सबसे शक्तिशाली कारक बन जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिका और रूस के बीच भारत की भूमिका को हम संतुलन धारक मान सकते हैं । संतुलन का धारक अपनी निर्णायक शक्ति का प्रयोग तीन तरीकों से कर सकता है—

1. वह अपने किसी एक राष्ट्र या गठबंधन से जुड़ने को कुछ शर्तों पर निर्भर कर सकता है, जो शक्ति-संतुलन के बनाए रखने या पुनःस्थापित करने के लिए अनुकूल हों।

2. वह शांति-समझौते (peace settlement) में अपने समर्थन को भी इसी प्रकार की शर्तों पर आधारित कर सकता है।

3. इन दोनों स्थितियों में, वह यह सुनिश्चित कर सकता है कि शक्ति-संतुलन को बनाए रखने के अतिरिक्त उसकी अपनी राष्ट्रीय नीति के उद्देश्य भी शक्ति-संतुलन की प्रक्रिया में पूरे हों।

ब्रिटेन ने परंपरागत रूप से यूरोप महाद्वीप के संदर्भ में संतुलन का धारक की भूमिका निभाई है, "कभी इस पक्ष और कभी उस पक्ष में अपना वजन डालते हुए" (Van Dyke, 1969: 238)। यही कारण है कि ब्रिटेन को ‘Perfidious Albion’ (धोखेबाज एल्बियन) के नाम से भी जाना गया (Morgenthau, 1991: 214)।


🖊️शक्ति-संतुलन प्रणाली: एक मूल्यांकन (The Balance of Power System: An Appraisal):-

सुरक्षा और शांति के आधार के रूप में शक्ति-संतुलन (Balance of Power as a Basis for Security and Peace):-

शक्ति-संतुलन एक तंत्र (mechanism) और शांति के आधार के रूप में निश्चय ही अपर्याप्त है। यह तथ्य इस बात से स्पष्ट होता है कि शक्ति-संतुलन के सिद्धांत ने दो विश्वयुद्धों और आधुनिक विश्व द्वारा देखे गए अनेकों बड़े और छोटे युद्धों को रोकने में पूर्णतः असफलता पाई। जब संतुलन को समानता (equilibrium) या असमानता (disequilibrium)—जो यथास्थिति (status quo) शक्तियों के लिए प्रतिकूल हो—के रूप में देखा जाता है, तो यह लगभग स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि यह सुरक्षा और शांति के लिए भरोसेमंद आधार नहीं हो सकता।

आखिरकार, समानता का अर्थ सिद्धांततः यह है कि आक्रांता (aggressor) के पास जीतने की बराबर संभावना है, और यदि असमानता उसके पक्ष में हो जाए तो सुरक्षा और शांति और भी अधिक खतरे में पड़ जाती है। संभवतः वुडरो विल्सन इसी सोच के तहत शक्ति-संतुलन के महान खेल को "हमेशा के लिए बदनाम" (forever discredited) कह रहे थे (Van Dyke, 1969: 239)।

इस प्रकार, चाहे समानता हो या असमानता—दोनों ही सुरक्षा और शांति के आधार के रूप में असुरक्षित और अपर्याप्त सिद्ध होते हैं।


अनावश्यक युद्ध और युद्ध का अनावश्यक विस्तार (Unnecessary War and the Unnecessary Extension of War):-

शक्ति-संतुलन प्रणाली में युद्ध (War) एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यहाँ युद्ध को संघर्ष-समाधान की असफलता नहीं माना जाता, बल्कि युद्ध स्वयं संघर्ष-समाधान का एक साधन होता है। यदि अन्य साधन जैसे—गठबंधन (alliances) और हथियारों की दौड़ (arms race)—इच्छित परिणाम प्राप्त करने में असफल हो जाते हैं, तो युद्ध अनिवार्य हो जाता है। इस प्रकार, शक्ति-संतुलन की राजनीति प्रायः अनावश्यक युद्ध और युद्ध के अनावश्यक विस्तार की ओर ले जाती है।

चूँकि शक्ति-संतुलन अन्य राज्यों की सापेक्ष शक्ति-क्षमता (relative power capabilities) के आकलन और पूर्वानुमान पर आधारित होता है, इसलिए ये अनुमान और भविष्यवाणियाँ गलत भी हो सकती हैं। राज्य उस शक्ति से डर सकते हैं जो वास्तव में अस्तित्व में ही नहीं है। वे उन इरादों का मुकाबला करने की कोशिश कर सकते हैं जो वस्तुतः मौजूद ही नहीं हैं। वे भविष्य के लिए निराधार भयवश किसी चल रहे युद्ध में प्रवेश कर सकते हैं, जो अन्यथा केवल स्थानीय ही रह सकता था।

जब राज्य के लिए खतरे प्रत्यक्ष और तात्कालिक न होकर केवल काल्पनिक या अनुमानित होते हैं, तो राजनेता वास्तव में शक्ति-संतुलन के संदर्भ में दुविधा में पड़ जाते हैं। शक्ति-संतुलन की राजनीति में युद्ध को संघर्ष-समाधान की असफलता नहीं, बल्कि संघर्ष-समाधान का एक साधन माना जाता है।
उदाहरण के लिए रूस और यूक्रेन का सघर्ष ।

शक्ति-संतुलन की अवास्तविकता (The Unreality of the Balance of Power):-

शक्ति-गणनाओं (power calculations) की अनिश्चितता न केवल शक्ति-संतुलन को व्यावहारिक रूप से अनुपयोगी बना देती है, बल्कि व्यवहार में उसके पूर्ण नकार (negation) की ओर भी ले जाती है। चूँकि कोई भी राष्ट्र यह सुनिश्चित नहीं कर सकता कि इतिहास के किसी विशेष क्षण में शक्ति-वितरण (distribution of power) का उसका आकलन सही है या नहीं, इसलिए उसे कम से कम यह सुनिश्चित करना पड़ता है कि उसकी भूलें—जो भी हों—शक्ति-संघर्ष (contest for power) में उसे नुकसान की स्थिति में न डाल दें।

दूसरे शब्दों में, राष्ट्र को कम से कम सुरक्षा का एक अतिरिक्त मार्जिन (margin of safety) रखने की कोशिश करनी चाहिए, जिससे वह गलत गणनाएँ करने के बावजूद शक्ति-संतुलन बनाए रख सके। इसी उद्देश्य से शक्ति-संघर्ष में सक्रिय सभी राष्ट्रों का वास्तविक लक्ष्य शक्ति का संतुलन या समानता (equality of power) नहीं होता, बल्कि अपने पक्ष में शक्ति की श्रेष्ठता (superiority of power) प्राप्त करना होता है। उदाहरण के लिए रूस और अमेरिका द्वारा किया जाने वाला प्रयासशक्ति की श्रेष्ठ का प्राप्त करने का प्रयास है।

राष्ट्रों की शक्ति-प्रवृत्तियों (power drives) में निहित असीम शक्ति-लालसा (limitless aspiration for power), जो सदा विद्यमान रहती है, शक्ति-संतुलन में एक महान प्रोत्साहन (mighty incentive) पाती है और स्वयं को वास्तविकता (actuality) में परिवर्तित कर लेती है (Morgenthau, 1991: 227-28)।


विचारधारा के रूप में शक्ति-संतुलन (The Balance of Power as Ideology):-

मॉर्गेंथाउ (Morgenthau) के अनुसार, राष्ट्रों की सापेक्ष शक्ति-स्थितियों का सही आकलन करने में आने वाली कठिनाइयों ने शक्ति-संतुलन का आह्वान (invocation) अंतरराष्ट्रीय राजनीति की प्रिय विचारधाराओं में से एक बना दिया। इस प्रकार, विभिन्न राष्ट्र शक्ति-संतुलन बनाए रखने या पुनःस्थापित करने के नाम पर या तो अपनी नीतियों को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं अथवा दूसरों की नीतियों को बदनाम करने का। उदाहरण के लिए रूस यूक्रेन संघर्ष में यूक्रेन द्वारा नाटो में शामिल होना रूस द्वारा अपने पर खतरा माना  तथा रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले को यूरोप के देशों ने रूस की विस्तारवादी नीति माना और स्वयं के लिए खतरे के रूप में देखा ।

कोई भी राष्ट्र, जो किसी विशेष शक्ति-वितरण (distribution of power) को बनाए रखने में रुचि रखता है, वह अपने हित को सभी राष्ट्रों के सामान्य हित के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में, राज्य शक्ति-संतुलन के सिद्धांत के नाम पर अपने स्वार्थपूर्ण हितों (selfish interests) की पूर्ति करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका द्वारा अनेक देशों पर टैरिफ लगाने की धमकी और टैरिफ लगाना ।

शक्ति-संतुलन और परमाणु हथियार (Balance of Power and Nuclear Weapons):-

परमाणु हथियार रखने वाले देशों के लिए शक्ति-संतुलन युद्ध के विरुद्ध एक निवारक (deterrent) के रूप में और भी सुदृढ़ हो जाता है। यह विशेष रूप से तब सत्य होता है जब दो राज्य, जो एक-दूसरे के साथ शक्ति-संतुलन स्थापित करने का प्रयास कर रहे हों, पहली परमाणु आक्रमण (first nuclear strike) को सहने और फिर भी एक शक्तिशाली द्वितीय आक्रमण (second strike) करने की क्षमता रखते हों।

इसी कारण पूर्व सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच उनकी परस्पर सुनिश्चित परमाणु क्षमताओं (mutually assured nuclear capabilities) के कारण एक “आतंक का संतुलन” (balance of terror) विद्यमान माना जाता था। इस प्रकार का परमाणु संतुलन, जो परमाणु निवारण (nuclear deterrence) से उत्पन्न होता है, निस्संदेह सुरक्षा और शांति का एक न्यूनतम आश्वासन प्रदान करता है।
भारत भी परमाणु हथियार स्वयं की सुरक्षा के लिए अपने पास रखता है न की किसी दूसरे पर हमले के उद्देश्य से। रूस और अमेरिका, भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु हथियार शक्ति संतुलन का कार्य करते हैं।


आज के समय में शक्ति-संतुलन की प्रासंगिकता (The Relevance of Balance of Power Today):-

सामान्यतः माना जाता है कि आधुनिक राज्य-प्रणाली (modern states system) अपनी शुरुआत 1648 से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति 1945 तक बहुध्रुवीय (multipolar) अथवा शक्ति-संतुलन प्रणाली रही। अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में शक्ति-संतुलन का शास्त्रीय उदाहरण उन्नीसवीं शताब्दी का है, जब पाँच प्रमुख शक्तियाँ—इंग्लैंड, रूस, प्रशिय(Prussia), फ्रांस और ऑस्ट्रिया—मौजूद थीं। दूसरे शब्दों में, यह एक बहुध्रुवीय शक्ति-प्रणाली थी, जिसमें ये पाँच महान शक्तियाँ संतुलन की प्रक्रिया में संलग्न थीं और यह सुनिश्चित करती थीं कि उनमें से कोई भी हेजेमोनिक (hegemonic) न बन सके और अंतरराष्ट्रीय शांति एवं स्थिरता को खतरा न पहुँचा सके।

इस प्रकार, 1815 से लेकर लगभग 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ तक यूरोप में सामान्य शांति का काल रहा, यद्यपि इस अवधि में कुछ युद्ध भी लड़े गए।

शीत युद्ध (Cold War) के दौरान भी, जब अंतरराष्ट्रीय प्रणाली दो वैचारिक रूप से विरोधी खेमों में बँट गई थी, शक्ति-संतुलन प्रणाली दो महाशक्तियों (Superpowers) के बीच कार्यरत रही और उस स्थिति को बनाए रखा जिसे “लंबी शांति” (long peace) कहा गया। हालाँकि, कहा जाता है कि यह शांति मुख्यतः पूर्व सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच विद्यमान परमाणु निवारण (nuclear deterrence) के कारण थी।

जॉन मीयर्शाइमर (John Mearsheimer) के अनुसार, शीत युद्ध की “लंबी शांति” तीन कारणों का परिणाम थी—
(a) महाद्वीपीय यूरोप में सैन्य शक्ति का द्विध्रुवीय वितरण (bipolar distribution),
(b) संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच सैन्य शक्ति की लगभग समानता, और
(c) परमाणु हथियारों का शांति-दायक प्रभाव (pacifying effect)।
(स्रोत: Jackson and Sorenson [2008: 80])

सोवियत संघ के विघटन के साथ, शीत युद्ध समाप्त हो गया और वैश्विक शक्ति की द्विध्रुवीय प्रणाली एक एकध्रुवीय विश्व (unipolar world) में परिवर्तित हो गई। समकालीन अंतरराष्ट्रीय प्रणाली की संरचना अब एकध्रुवीय है, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका अकेली हेजेमोनिक शक्ति (hegemonic power) के रूप में विद्यमान है। अब प्रश्न यह है कि शीत युद्धोत्तर एकध्रुवीय विश्व में शक्ति-संतुलन के सिद्धांत की प्रासंगिकता या वैधता क्या है?

यह तर्क दिया जाता है कि लोकतंत्र का विस्तार, राष्ट्रों के बीच परस्पर निर्भरता (interdependence) की वृद्धि और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का उदय जैसी कुछ प्रमुख घटनाएँ अनिवार्य रूप से शांतिपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संबंधों को प्रोत्साहित कर रही हैं और इस प्रकार यथार्थवाद (Realism) और उसके अवधारणाओं—जैसे शक्ति-संतुलन—को अप्रासंगिक (obsolete) बना रही हैं।

उदाहरण के लिए, माइकल डॉयल (Michael Doyle) का ‘डेमोक्रेटिक पीस’ सिद्धांत (Democratic Peace Theory) यह दावा करता है कि उदार लोकतांत्रिक (liberal democratic) देश एक-दूसरे के प्रति शांतिपूर्ण व्यवहार करते हैं और ऐसे राज्यों की वृद्धि अंततः युद्ध को अप्रासंगिक बना देगी।

इसी प्रकार, बढ़ती हुई आर्थिक परस्पर-निर्भरता (economic interdependence) और वैश्वीकरण (globalization) जैसे मुद्दों को भी राष्ट्रों के बीच शक्ति-संतुलन को अप्रासंगिक बनाने वाला माना जाता है। विद्वान रिचर्ड रोज़क्रांस (Richard Rosecrance) जैसे विचारकों ने यह दावा किया है कि समकालीन विश्व में ‘सैन्य राज्य’ (military state) की जगह ‘व्यापारिक राज्य’ (trading state) ले रहा है, क्योंकि वैश्विक बाज़ार हिस्सेदारी (global market shares) की प्रतिस्पर्धा भौगोलिक विजय (territorial conquest) की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
वर्तमान में यह स्थिति देखी जा सकती है कि किस तरह से एक देश दूसरे देश के बाजार को प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

यथार्थवादी और नव-यथार्थवादी विद्वान इन तर्कों का खंडन करते हैं और यह मानते हैं कि एकध्रुवीयता (unipolarity) सभी अंतरराष्ट्रीय शक्ति संरचनाओं में सबसे कम टिकाऊ है और इसे अंततः बहुध्रुवीयता (multipolarity) द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा, जिससे शक्ति-संतुलन (balance of power) प्रासंगिक बन जाएगा।

उदाहरण के लिए, केनेथ वाल्ट्ज़ (Kenneth Waltz) का तर्क है कि एकध्रुवीय अंतरराष्ट्रीय प्रणाली टिकाऊ नहीं होती, इसके दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि प्रभुत्वशाली शक्तियाँ (dominant powers) अपनी सीमाओं से बाहर बहुत अधिक कार्यभार संभाल लेती हैं, जिससे दीर्घकाल में वे स्वयं कमजोर हो जाती हैं। दूसरा कारण यह है कि यदि कोई प्रभुत्वशाली शक्ति संयम, परहेज़ और सहनशीलता के साथ व्यवहार करती भी है, तो कमजोर राज्य उसकी भविष्य की गतिविधियों के बारे में चिंतित रहते हैं।

भारत जैसे देश बहुध्रुवीय (multipolar)  प्रणाली का समर्थन करते हैं और वर्तमान में दुनिया इसी तरफ बढ़ती हुई दिखाई दे रही है ।

जैसे प्रकृति में शून्य (vacuum) असह्य है, उसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय राजनीति में असंतुलित शक्ति (unbalanced power) असह्य होती है। असंतुलित शक्ति का सामना करते हुए, कुछ राज्य अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास करते हैं या अन्य राज्यों के साथ गठबंधन करके अंतरराष्ट्रीय शक्ति वितरण को संतुलित बनाने का प्रयास करते हैं।

स्पेन के हैप्सबर्ग शासक चार्ल्स V, फ्रांस के लुई XIV और नेपोलियन, जर्मनी के विल्हेम II और एडॉल्फ हिटलर के प्रभुत्व की ओर अन्य राज्यों की प्रतिक्रियाएँ इस तथ्य को स्पष्ट करती हैं। क्या संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रमुख शक्ति भी इसी प्रकार की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करेगी?

असंतुलित शक्ति, चाहे जो भी इसे धारण करे, दूसरों के लिए संभावित खतरा होती है। शक्तिशाली राज्य, और संयुक्त राज्य अमेरिका भी, स्वयं को दुनिया में शांति, न्याय और कल्याण के लिए कार्यरत मान सकता है। हालाँकि, ये शब्द शक्तिशाली की पसंद के अनुसार परिभाषित होते हैं, जो अन्य देशों की प्राथमिकताओं और हितों के साथ संघर्ष कर सकते हैं। अमेरिका वर्तमान में अपनी नीतियों की वजह से एक खतरे के रूप में देखा जाने लगा है। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय हित के नाम पर दूसरे देशों पर टैरिफ लगाना या अपनी शर्तें मनवाने के लिए युद्ध या टैरिफ की धमकी देना ।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में, अत्यधिक शक्ति दूसरों को दूर रखती है और अन्य राज्यों को इसके विरुद्ध संतुलन बनाने के प्रयास में लगा देती है।
In international politics overwhelming power repels and leads others to try to balance against it.
(वाल्ट्ज़, उद्धृत: Little and Smith [2006: 96])

वाल्ट्ज़ (Waltz, उद्धृत: Little and Smith [2006]) के अनुसार, अगले महान शक्तियों (Great Powers) बनने और इस प्रकार शक्ति-संतुलन को बहाल करने के संभावित उम्मीदवार —यूरोपीय संघ (European Union) या जर्मनी के नेतृत्व में कोई गठबंधन, चीन, जापान, और रूस हो सकते हैं।

जहाँ यह आरोप लगाया जाता है कि वैश्वीकरण (globalization) ने राष्ट्र-राज्य (nation state) की शक्ति और नियंत्रण को कमजोर किया है, वहाँ नव-यथार्थवादी (Neo-Realists) इस तर्क का प्रतिवाद करते हैं कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि वैश्वीकरण ने प्रणालीगत रूप से राज्य के नियंत्रण को कमजोर किया हो या नीतियों और संरचनाओं को एकसमान (homogenization) किया हो। वास्तव में, नव-यथार्थवादी तर्क देते हैं कि वैश्वीकरण और राज्य की गतिविधियाँ समानांतर रूप से चली हैं।

नव-यथार्थवादियों के अनुसार, राजनीतिक समुदाय के रूप में पसंदीदा रूप राष्ट्र-राज्य (nation state) का कोई गंभीर प्रतिद्वंद्वी नहीं है। वैश्वीकरण के बावजूद, राष्ट्र-राज्य ने महत्वपूर्ण शक्तियों को बनाए रखा है, जैसे—युद्ध के हथियारों का एकाधिकार नियंत्रण और उनका वैध उपयोग, अपने नागरिकों पर कर लगाने का एकमात्र अधिकार, आदि। केवल राष्ट्र-राज्य ही अपने नागरिकों की राजनीतिक वफादारी (political allegiance) प्राप्त कर सकता है और उनके बीच विवादों का समाधान कर सकता है।

इसके अतिरिक्त, केवल राष्ट्र-राज्य के पास यह विशिष्ट अधिकार है कि वह पूरे समुदाय को अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत बाँध सके। इस प्रकार, शक्ति-संतुलन सिद्धांत के यथार्थवादी (Realist) और नव-यथार्थवादी (Neo-Realist) रक्षकों के लिए, राष्ट्र-राज्य आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में मुख्य अभिनेता बना हुआ है, भले ही वैश्वीकरण सर्वशक्तिमान हो। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में राज्यों की सैन्य शक्ति आर्थिक वैश्वीकरण की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है।

वाल्ट्ज़ (Waltz) और मीयर्शाइमर (Mearsheimer) जैसे विद्वान अंतरराष्ट्रीय संबंधों के ढाँचे (contours) को आकार देने में रणनीतिक क्षमताओं (strategic capabilities) के महत्व पर जोर देते हैं। उनके अनुसार, सैन्य शक्ति का वितरण और उसका स्वरूप अंतरराष्ट्रीय राजनीति में युद्ध और शांति के मूल कारण बने रहते हैं।

शीत युद्ध (Cold War) के अंत के साथ, राज्यों के बीच क्षमताओं का वितरण अत्यंत असंतुलित (lopsided) हो गया है और राज्यों के बीच असमानताएँ बढ़ रही हैं, लेकिन, उदारवादी (Liberals) के दावे के विपरीत, परस्पर निर्भरता (interdependence) नहीं बढ़ी है। वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय प्रणाली के केंद्र का शांति-स्थापन केवल एक अस्थायी अवस्था (transient stage) है और इसे अंततः महान शक्तियों के बीच रणनीतिक संतुलन (strategic balance) की पुनःस्थापना द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा (Burchill et al., 2001: 97-98)।

इस प्रकार, यथार्थवादी (Realist) सोच के अनुसार, शक्ति-संतुलन का सिद्धांत आज भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक (relevant) है। यथार्थवाद (Realism) के दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि जब तक संप्रभु राज्यों की प्रणाली (sovereign states system) विश्व राजनीति का केंद्रीय स्तंभ बनी रहती है और जब तक शक्ति-राजनीति (power politics) अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य पर प्रभुत्व रखती है, तब तक यथार्थवादी शक्ति-संतुलन की अवधारणा प्रासंगिक बनी रहती है।

एक और कारण जो आज भी शक्ति-संतुलन को प्रासंगिक बनाता है वह है वैचारिक प्रतिद्वंद्विता (ideological rivalry), विशेष रूप से महान शक्तियों के बीच। ‘साम्यवाद का निरोध’ (Containment of Communism) और ‘उदारवादी शांति क्षेत्र’ (Liberal Zone of Peace) का विस्तार हमेशा संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके उदार लोकतांत्रिक सहयोगियों के प्राथमिक विदेश नीति लक्ष्य रहे हैं। इस दृष्टि से, शक्ति-संतुलन आने वाले लंबे समय तक अंतरराष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बना रहेगा।


🖊️सामूहिक सुरक्षा (COLLECTIVE SECURITY):-

सामूहिक सुरक्षा अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में शक्ति प्रबंधन (power management) के तरीकों में से एक है। इसका उद्देश्य सुरक्षा दुविधा (security dilemma) को नियंत्रित करना है—एक ऐसी स्थिति जिसमें किसी एक राज्य की सुरक्षा व्यवस्था दूसरे राज्य के लिए सुरक्षा खतरे का कारण बनती है। इसके समाधान के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय या अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सामूहिक और समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता होती है।

सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (collective security system) को शक्ति-संतुलन प्रणाली (balance of power system) में सुधार के रूप में विकसित किया गया, क्योंकि शक्ति-संतुलन प्रणाली अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के प्रबंधन में अनिश्चित, अपर्याप्त और अवास्तविक साबित हुई थी। शक्ति-संतुलन प्रणाली में अंतरराष्ट्रीय शांति और स्थिरता मुख्यतः प्रमुख शक्तियों के बीच सापेक्ष शक्ति के संतुलन पर आधारित थी, जो अधिकांश समय अनिश्चित और अविश्वसनीय रहती थी और इसके कारण कई युद्ध हुए।

इसलिए, एक नया तंत्र—सामूहिक सुरक्षा—स्थापित किया गया, जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति बनाए रखने की जिम्मेदारी प्रत्येक राज्य पर रखना था। यदि किसी एक राज्य पर आक्रमण होता है, तो सभी राज्य एकजुट होकर उस आक्रमण को सामूहिक रूप से परास्त करते हैं। सभी राज्य, चाहे बड़े हों या छोटे, शांति बनाए रखने के लिए जिम्मेदार हैं।

इस प्रकार, सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का मूल सिद्धांत है—"सभी एक के लिए और एक सभी के लिए" (all for one and one for all)।

सामूहिक सुरक्षा के विचार का विस्तार और इसकी व्यापक लोकप्रियता स्पष्ट रूप से 20वीं सदी की घटना थी। सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा को विशेष महत्व तब मिला जब संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) इसके सबसे उत्साही समर्थक बने।

आक्रमण (aggression) को रोकने के लिए शक्ति का प्राधान्य (preponderance of power) स्पष्ट रूप से आवश्यक था। लेकिन यह सवाल उठता था कि शक्ति का यह प्राधान्य निवारक (deterrent) के रूप में उपलब्ध कैसे हो सकता है, बिना इसे आक्रामक (aggressive) उपकरण के रूप में इस्तेमाल किए? शक्ति-संतुलन प्रणाली (balance of power system) के दृष्टिकोण से यह व्यवस्था असंभव थी।

वुडरो विल्सन की सामूहिक सुरक्षा की अवधारणा इस दुविधा का समाधान प्रस्तुत करती थी। इसने यह प्रस्तावित किया कि शक्ति का प्राधान्य सभी के लिए रक्षा (defensive) उद्देश्यों के लिए उपलब्ध हो, लेकिन किसी के लिए भी आक्रमण (aggressive) के उद्देश्य से नहीं।

जैसा कि वुडरो विल्सन ने कहा था, "अब शक्ति-संतुलन नहीं होना चाहिए, न ही एक शक्तिशाली राष्ट्र समूह दूसरे के खिलाफ खड़ा हो, बल्कि एक अत्यंत शक्तिशाली राष्ट्र समूह होना चाहिए, जो दुनिया की शांति का संरक्षक (trustee of the peace of the world) बने।"
[there must now be not a balance of power, not one powerful group of nations set off against another, but a single overwhelming powerful group of nations who shall be the trustee of the peace of the world’]
(विवरण के लिए देखें: K. P. Saksena [1974: 8-9])



सामूहिक सुरक्षा की परिभाषा (Defining Collective Security):-

विभिन्न लेखकों ने सामूहिक सुरक्षा (Collective Security) को अलग-अलग तरीकों से परिभाषित किया है।

जॉर्ज श्वार्ज़ेनबर्गर (George Schwarzenberger) के अनुसार, सामूहिक सुरक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है:
"स्थापित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पर किसी भी आक्रमण को रोकने या उसका मुकाबला करने के लिए संयुक्त कार्रवाई की एक यंत्रणा (machinery for joint action)" (1964: 379)।

हंस मॉर्गेंथाउ (Hans Morgenthau) सामूहिक सुरक्षा को इस प्रकार परिभाषित करते हैं:
"सामूहिक सुरक्षा की एक कार्यशील प्रणाली में, सुरक्षा की समस्या अब किसी एक राष्ट्र की चिंता नहीं रहती, जिसे हथियारों और अन्य राष्ट्रीय शक्ति के तत्वों द्वारा संभाला जाना चाहिए। सुरक्षा सभी राष्ट्रों की चिंता बन जाती है, जो प्रत्येक राष्ट्र की सुरक्षा का ध्यान ऐसा रखेंगे जैसे उनकी अपनी सुरक्षा खतरे में हो। यदि A, B की सुरक्षा को धमकी देता है, तो C, D, E, F, G, H, I, J और K, B की ओर से और A के खिलाफ उपाय करेंगे, जैसे कि A ने उन्हें और B दोनों को धमकी दी हो, और इसके विपरीत भी। ‘एक सभी के लिए और सभी एक के लिए’ सामूहिक सुरक्षा का आदर्श वाक्य (watchword) है।"
(Morgenthau, 1991: 451-52)

आईरिस एल. क्लॉड जूनियर (Iris L. Claude Jr) के अनुसार, सामूहिक सुरक्षा शक्ति के प्रबंधन (management of power) का एक साधन है। क्लॉड के अनुसार शक्ति प्रबंधन के अन्य साधन हैं—शक्ति-संतुलन (balance of power) और विश्व सरकार (world government)।
आईरिस एल. क्लॉड जूनियर सामूहिक सुरक्षा को एक सैद्धांतिक प्रणाली (hypothetical system) के रूप में वर्णित करते हैं, जो शक्ति-संतुलन और विश्व सरकार के बीच स्थित है। इसका अर्थ यह है कि सामूहिक सुरक्षा के तहत शक्ति का नियंत्रण शक्ति-संतुलन के मुकाबले अधिक है, लेकिन विश्व सरकार के मुकाबले कम है (Inis Claude Jr, 1962: 6-7)।

चार्ल्स बी. मार्शल (Charles B. Marshal) के शब्दों में, "सामूहिक सुरक्षा यह सामान्यीकृत धारणा (generalized notion) है कि सभी राष्ट्र मिलकर किसी अस्पष्ट दायित्व (vague obligation) को निभाने के लिए एकजुट होते हैं, ताकि किसी अज्ञात राज्य (unidentifiable state) द्वारा उत्पन्न संभावित घटनाओं (hypothetical events) के प्रति अप्रत्यक्ष कार्यवाही की जा सके।"
(उद्धृत: Palmer and Perkins [1997: 241])

वर्नोन वैन डाइक (Vernon Van Dyke) के अनुसार "सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का सदस्यत्व सार्वभौमिक (universal) या लगभग सार्वभौमिक होता है, और सदस्य किसी आक्रमण (attack) की स्थिति में एक-दूसरे की रक्षा के लिए तत्पर रहते हैं। इसका मूल सिद्धांत यह है कि किसी एक पर हमला, सभी पर हमला है, और दुनिया भर की हर सीमा की अजेयता (inviolability) प्रत्येक सदस्य के लिए उतनी ही मूल्यवान है जितनी कि उसकी अपनी सीमाओं की अजेयता।"
(Van Dyke, 1969: 411)

सामूहिक सुरक्षा के अनुमान (Assumptions of Collective Security):-

श्वार्ज़ेनबर्गर (Schwarzenberger, 1964: 378-79) के अनुसार, सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (collective security system) को एक यंत्रणा (machinery) के रूप में समझा जाता है, जो किसी स्थापित यथास्थिति या वर्तमान स्थिति (Status quo) की रक्षा के लिए बनाई गई है, ताकि उसे बल द्वारा या किसी अन्य अवैध तरीके से पलटने से रोका जा सके। यह प्रणाली निम्नलिखित अनुमानों (assumptions) पर आधारित है:-

1. सदस्यों की जिम्मेदारी का पालन:- माना जाता है कि सामूहिक प्रणाली के अधिकांश सदस्य अधिकतर समय अपने दायित्वों (obligations) का पालन करेंगे, चाहे कानून लागू करने के साधन उपलब्ध हों या नहीं। और यदि कोई राज्य अपने दायित्व तोड़ने की प्रवृत्ति रखे, तो शक्तिशाली प्रतिबंधों (powerful sanctions) की पृष्ठभूमि धमकी (background threat) एक निवारक (deterrent) का काम करेगी।

2. यथास्थिति का संरक्षण:- सामूहिक प्रणाली के प्रभुत्वशाली (preponderant) सदस्य यह विश्वास करें कि यथास्थिति बनाए रखना उनके साझा हित (common interest) में है और इसके लिए आवश्यक बलिदानों (sacrifices) को उचित ठहराता है। यदि शांतिपूर्ण बदलाव के लिए पर्याप्त यंत्रणा नहीं है, तो समय के साथ किसी भी स्थिति-स्थिति पर दबाव बढ़ता है और 'अल्प-संपन्न' (have-not) राज्यों की शक्ति और असंतोष (discontent) बढ़ता है।

3. प्रत्येक चुनौती का मुकाबला करने की क्षमता:- सामूहिक प्रणाली किसी भी संभावित शक्ति-संयोजन (combination of powers) का सामना करने के लिए पर्याप्त मजबूत होना चाहिए, जो किसी स्थापित स्थिति-स्थिति को चुनौती दे सकता है।

4. खुला और निष्पक्ष प्रणाली:- यदि सामूहिक सुरक्षा केवल किसी अन्य नाम के तहत गठबंधन (alliance) नहीं बननी है, तो इसे दो शर्तें पूरी करनी होंगी:-
(a) यह एक खुली प्रणाली (open system) होनी चाहिए।
(b) यह किसी विशिष्ट शक्ति (specific power) के खिलाफ निर्देशित नहीं होनी चाहिए।
प्रत्येक वास्तविक सदस्यता के आवेदक का स्वागत होना चाहिए और प्रत्येक सदस्य अपने आप को किसी भी संभावित आक्रमणकारी (potential aggressor) के खिलाफ उतना ही बांधे जितना स्वयं के खिलाफ।

5. तटस्थता के पारंपरिक कानून से असंगत:- सामूहिक सुरक्षा और पारंपरिक तटस्थता का कानून (law of neutrality) आपस में असंगत हैं।

मॉर्गेंथाउ (Morgenthau, 1991: 452) का तर्क है कि युद्ध को रोकने के साधन के रूप में सामूहिक सुरक्षा (collective security) के काम करने के लिए निम्नलिखित तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए:-

(a) सामूहिक प्रणाली (collective system) हर समय किसी भी संभावित आक्रामक (potential aggressor) या आक्रामकों के गठबंधन (coalition of aggressors) के खिलाफ इतनी अत्यधिक शक्ति (overwhelming strength) जुटा सके कि आक्रामक कभी भी सामूहिक प्रणाली द्वारा संरक्षित व्यवस्था (order) को चुनौती देने की हिम्मत न करे।

(b) कम से कम वे राष्ट्र जिनकी संयुक्त शक्ति (combined strength) शर्त (a) के अनुसार आवश्यक है, उन्हें वही सुरक्षा की धारणा (conception of security) होनी चाहिए जिसे वे रक्षा करने वाले हैं।

(c) उन राष्ट्रों को अपनी विरोधाभासी राजनीतिक हितों (conflicting political interests) को सभी सदस्य राज्यों की सामूहिक रक्षा (collective defence) के संदर्भ में परिभाषित साझा भले (common good) के लिए प्राथमिकता देने के लिए तैयार होना चाहिए।

सामूहिक सुरक्षा का आदर्श(The Collective Security Ideal) यह मानता है कि यद्यपि युद्ध होने की संभावना रहती है, उन्हें रोका जाना चाहिए, और इसे सैन्य कार्रवाई में संयम (restraint of military action) के माध्यम से रोका जा सकता है। दूसरे शब्दों में, यदि सभी पक्ष संयम का पालन करें, तो युद्ध नहीं होंगे।

एक अन्य अनुमान यह है कि आक्रामकों (aggressors) को रोका जाना चाहिए। यह अनुमान इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि आक्रामक को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्य आसानी से पहचान सकते हैं। (कुछ संघर्षों में, उदाहरण के लिए, आक्रामक और पीड़ित के बीच अंतर करना कठिन होता है [Mingst, 2001: 155])।

सामूहिक सुरक्षा के समर्थक यह भी मानते हैं कि संभावित आक्रामकों (potential aggressors) के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय शक्ति का प्राधान्य (preponderance of power) बनाया जा सकता है, यदि सभी या अधिकांश राष्ट्र अपनी शक्ति को एकजुट करें। इस प्रकार युद्ध को रोका और निरस्त किया जा सकता है।

सामूहिक सुरक्षा प्रणाली यह भी मानती है कि संयुक्त राष्ट्र (UNO) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठन की आवश्यकता है, जिसके नियंत्रण और आदेश के तहत सामूहिक कार्रवाई लागू की जा सके और अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखी जा सके।

इस प्रकार, सामूहिक सुरक्षा का आदर्श युद्ध और शांति के बारे में कुछ उदारवादी (liberal) या आदर्शवादी (utopian) अनुमानों पर आधारित है। यह मूलतः राष्ट्रों के बीच हितों की सामंजस्य (harmony of interests) की उदारवादी अवधारणा पर आधारित है।


🖊️सामूहिक सुरक्षा और शक्ति-संतुलन: समानताएँ और अंतर (COLLECTIVE SECURITY AND BALANCE OF POWER: SIMILARITIES AND DIFFERENCES):-


समानताएँ (Similarities):-
  • सामूहिक सुरक्षा और शक्ति-संतुलन (Collective Security and Balance of Power) उद्देश्य में समान हैं; दोनों रक्षात्मक (defensive) हैं और प्रणाली में राज्यों की सुरक्षा को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखते हैं।
  • कुछ हद तक, ये तरीकों (method) में भी समान हैं। दोनों आक्रामकता (aggression) को रोकने या आवश्यक होने पर उसे परास्त करने के साधन के रूप में शक्ति के प्रयोग या संगठित उपयोग (manipulation or mobilization of power) पर निर्भर करते हैं।
  • दोनों रक्षात्मक युद्ध (defensive war) की संभावना को मानते हैं। दोनों संप्रभु राज्यों (sovereign states) के निरंतर अस्तित्व की कल्पना करते हैं, जो आक्रमण के खिलाफ अपने कार्यों का समन्वय (coordinate) करते हैं।
  • दोनों यह मानते हैं कि जो राज्य स्वयं पर हमला नहीं हुआ है, वे उन राज्यों की रक्षा के लिए आगे आएंगे जिन पर हमला हुआ है।
  • दोनों में यह समानता भी है कि किसी एक राज्य में अत्यधिक शक्ति के संकेंद्रण (tremendous concentration of power) से उनकी प्रभावशीलता (effectiveness) को खतरा हो सकता है।


अंतर (Differences):-
  • शक्ति-संतुलन (Balance of Power) यह मानता है कि अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में राज्य प्रतिस्पर्धी और शत्रुतापूर्ण (competitive and hostile) शिविरों में विभाजित हैं, जबकि वैश्विक सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (worldwide collective security system) सर्वव्यापी सहयोग (universal cooperation) की मांग करती है।
  • शक्ति-संतुलन प्रणाली में गठबंधन (alliances) संभावित विशिष्ट शत्रु (specific potential enemy) के खिलाफ होते हैं, जबकि सार्वभौमिक सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (universal collective security system) किसी भी राज्य के खिलाफ लागू होती है जो आक्रामक (aggressor) साबित होता है।
  • शक्ति-संतुलन प्रणाली में दुश्मन (enemy) बाहरी होता है, जबकि सामूहिक सुरक्षा प्रणाली में दुश्मन अनिवार्य रूप से प्रणाली के भीतर का सदस्य होता है।
  • शक्ति-संतुलन प्रणाली में शामिल राज्य कुछ चुनी हुई सीमाओं (selected frontiers) की रक्षा करने के लिए सहमत होते हैं, जबकि सामूहिक सुरक्षा प्रणाली में शामिल राज्य पूरी दुनिया की सभी सीमाओं की रक्षा के लिए सहमत होते हैं।
  • शक्ति-संतुलन में दायित्व सीमित (limited) होता है और अंतरराष्ट्रीय रक्षा उपायों (international coordination of defence measures) की पूर्व योजना (advance planning) संभव होती है, जबकि सामूहिक सुरक्षा प्रणाली में दायित्व लगभग असीमित (virtually unlimited) होता है और संभावित आक्रामक अज्ञात होने के कारण उसके खिलाफ सामान्य रक्षा की पूर्व योजना असंभव होती है।
  • शक्ति-संतुलन प्रणाली तटस्थता (neutrality) और युद्ध का स्थानीयकरण (localization of war) अनुमति देती है, जबकि सामूहिक सुरक्षा प्रणाली तटस्थता को अस्वीकार करती है और सभी को आक्रामक के खिलाफ कार्रवाई में शामिल होना आवश्यक बनाती है।
  • शक्ति-संतुलन में एक राज्य चुनिंदा राज्यों के साथ महत्वपूर्ण साझा हित (vital common interests) रखता है, लेकिन सभी राज्यों के साथ नहीं; यह कुछ राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता या राजनीतिक स्वतंत्रता (territorial integrity or political independence) की कीमत पर सुरक्षा प्राप्त करने का प्रयास कर सकता है। दूसरे शब्दों में, शक्ति-संतुलन राज्यों के बीच हितों के संघर्ष (conflict of interests) को मानता है।
  • सामूहिक सुरक्षा प्रणाली राज्यों के एक एकीकृत समाज (integrated society of states) और महत्वपूर्ण हितों के सामंजस्य (harmony of vital interests) को मानती है।
  • अंततः, अधिकांश पहलुओं में, शक्ति-संतुलन प्रणाली सरल (simpler) है और इसे स्थापित और बनाए रखना आसान (easier) है, जबकि सामूहिक सुरक्षा प्रणाली जटिल (complex) है और इसके लिए अपेक्षाकृत विस्तृत नियम (elaborate rules) और संस्थागत व्यवस्था (institutional arrangements) की आवश्यकता होती है।


🖊️राष्ट्र संघ के तहत सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (COLLECTIVE SECURITY SYSTEM UNDER THE LEAGUE OF NATIONS):-

राष्ट्र संघ (League of Nations) के तहत, सामूहिक सुरक्षा प्रणाली को किसी भी आक्रमण के प्रयास को विफल करने के उपकरण (instrument of thwarting any attempts of aggression) के रूप में अवधारित किया गया था।

हालाँकि, प्रथम विश्व युद्ध जीतने वाली प्रमुख शक्तियों (major powers) के बीच मतभेदों और असहमति के कारण, राष्ट्र संघ केवल सामूहिक सुरक्षा के विचार को अस्पष्ट रूप से संस्थागत (vaguely institutionalize) कर सका, और इसमें पर्याप्त प्रावधान (adequate provisions) नहीं थे (Saksena, 1974: 10)।

संधि के प्रावधान (Covenant Provisions):-

सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (Collective Security system) को राष्ट्र संघ(League of Nations) की संधि (Covenant of the League of Nations) के अनुच्छेद 10, 11 और 16 के तहत स्थापित किया गया।

अनुच्छेद 10 (Article 10):- इसने प्रत्येक राज्य पर यह दायित्व (obligation) लगाया कि वह सभी सदस्य राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता (territorial integrity) और मौजूदा राजनीतिक स्वतंत्रता (existing political independence) को बाहरी आक्रमण (external aggression) से बचाए और उसका सम्मान करे।

अनुच्छेद 11 (Article 11):- इसने सामूहिक सुरक्षा का मूल सिद्धांत (basic principle of collective security) स्थापित किया कि कोई भी युद्ध या युद्ध की धमकी, चाहे वह राष्ट्र संघ के किसी सदस्य को तुरंत प्रभावित करे या न करे, पूरे संघ के लिए चिंता का विषय (matter of concern to the whole League) है।

अनुच्छेद 16 (Article 16):- इसमें सदस्य राज्यों की जिम्मेदारियाँ और दायित्व निर्धारित किए गए। सदस्यों ने इस सिद्धांत को स्वीकार किया कि किसी राज्य द्वारा युद्ध का सहारा लेना स्वतः ही (ipso facto) सभी के खिलाफ युद्ध की कार्रवाई (act of war) माना जाएगा। ऐसे कृत्य के जवाब में, सदस्यों ने तुरंत उस अपराधी राज्य के साथ सभी सामान्य व्यक्तिगत, वाणिज्यिक और वित्तीय संबंधों पर कड़ा प्रतिबंध (strict embargo) लगाने का संकल्प लिया।

इन आर्थिक दबाव के हथियारों (weapons of economic strangulation) को वास्तव में प्रभावशाली माना गया। अंतिम उपाय के रूप में, अनुच्छेद 16 ने सामूहिक सैन्य प्रतिबंधों (collective military sanctions) की संभावना भी रखी, जिसे परिषद (council) की सिफारिश पर लागू किया जा सकता था (Saksena, 1974: 10)।


संधि का अनुच्छेद 16 (Article 16 of the Covenant)

यदि राष्ट्र संघ (League) का कोई भी सदस्य अनुच्छेद 12, 13 या 15 के तहत अपनी संधियों (covenants) की अवहेलना करते हुए युद्ध का सहारा लेता है, तो उसे स्वतः ही (ipso facto) सभी अन्य सदस्य राज्यों के खिलाफ युद्ध का कृत्य (act of war) माना जाएगा। ऐसे स्थिति में सभी सदस्य तुरंत उस राज्य के साथ सभी व्यापारिक और वित्तीय संबंधों को तोड़ने, अपने नागरिकों और संधि उल्लंघन करने वाले राज्य के नागरिकों के बीच सभी संपर्कों पर रोक लगाने, और संधि उल्लंघन करने वाले राज्य के नागरिकों और किसी अन्य राज्य के नागरिकों (चाहे वह राष्ट्र संघ का सदस्य हो या न हो) के बीच सभी वित्तीय, वाणिज्यिक या व्यक्तिगत संपर्कों को रोकने के लिए प्रतिबद्ध होंगे।

ऐसी स्थिति में, परिषद (Council) का कर्तव्य होगा कि वह संबंधित सरकारों को यह सिफारिश करे कि राष्ट्र संघ के सदस्य किस प्रकार की प्रभावी सैन्य, नौसैनिक या वायु सेना (military, naval or air force) प्रदान करेंगे, जो राष्ट्र संघ की संधियों की रक्षा के लिए उपयोग की जाएगी।

राष्ट्र संघ के सदस्य यह भी सहमत हैं कि वे वित्तीय और आर्थिक उपायों में एक-दूसरे का समर्थन करेंगे, जो इस अनुच्छेद के तहत लागू किए गए हैं, ताकि इन उपायों से होने वाले नुकसान और असुविधा को कम किया जा सके। वे एक-दूसरे का समर्थन करेंगे यदि संधि उल्लंघन करने वाला राज्य उनके किसी सदस्य पर विशेष उपाय करने का प्रयास करे। साथ ही, वे यह सुनिश्चित करेंगे कि राष्ट्र संघ के किसी भी सदस्य की सेना को, जो संधियों की रक्षा के लिए सहयोग कर रही है, अपने क्षेत्र से गुजरने की अनुमति दी जाए।

यदि राष्ट्र संघ का कोई सदस्य किसी संधि का उल्लंघन करता है, तो परिषद के मतदान और वहाँ उपस्थित सभी अन्य सदस्य राज्यों के प्रतिनिधियों की सहमति से उसे राष्ट्र संघ का सदस्य नहीं घोषित किया जा सकता है।

हालाँकि, इन प्रावधानों के बावजूद, संधि (Covenant) सामूहिक सुरक्षा (collective security) के लिए एक पूर्ण या आदर्श डिज़ाइन (perfect design) से बहुत दूर थी और इसमें अंतर्निहित दोष (inherent defects) थे। उदाहरण के लिए, यदि किसी राष्ट्र को युद्ध या अनुचित आक्रमण (unjustifiable aggression) के माध्यम से संधि का उल्लंघन करने के लिए दोषी ठहराना हो, तो राष्ट्र संघ की परिषद (League Council) का निर्णय सर्वसम्मत (unanimous) होना आवश्यक था। यह आक्रामक (aggressor) को निर्धारित करने में एक बड़ी कार्यात्मक कठिनाई (big functional difficulty) साबित हुआ।

राष्ट्र संघ के तहत सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का कार्यान्वयन (Working of Collective Security System under the League):-

राष्ट्र संघ की संधि (League Covenant) में सैद्धांतिक (theoretical) कमियों के अलावा, अन्य व्यावहारिक समस्याओं (practical problems) ने भी राष्ट्र संघ के तहत सामूहिक सुरक्षा प्रणाली की विफलता में योगदान दिया।

संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) के इसमें शामिल न होने, राष्ट्र संघ प्रणाली के बाहर सोवियत संघ (Soviet Union) के उदय, ग्रेट ब्रिटेन (Great Britain) की अंतरराष्ट्रीय दायित्व लेने में अनिच्छा, और बाद में जापान, इटली और जर्मनी (Japan, Italy, Germany) की खुलेआम अवहेलना— सभी ने मिलकर यह संभावना समाप्त कर दी कि राष्ट्र संघ बड़ी अंतरराष्ट्रीय संकटों में प्रभावी साबित हो सके।

शुरुआत से ही, राष्ट्र संघ पर्याप्त रूप से व्यापक सदस्यता (broad in membership) वाला नहीं था और इसमें सभी महान शक्तियाँ (great powers) कभी शामिल नहीं हुईं (Palmer and Perkins, 1997: 244)। जब कोई महान शक्ति संधि का उल्लंघन करती थी, तो राष्ट्र संघ की सुरक्षा प्रणाली (League security system) अप्रभावी साबित होती थी।

सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का परीक्षण दो प्रमुख संकटों में हुआ: -
1. जापान का मांचूरिया पर आक्रमण (Japanese invasion of Manchuria) 1931-32
2. इटली का इथियोपिया पर आक्रमण (Italian invasion of Ethiopia) 1935-36

इन दोनों मामलों में, राष्ट्र संघ विफल रहा क्योंकि सदस्य राज्यों की प्रतिबद्धता की कमी (lack of commitment) और समान रूप से कार्य करने की अनिच्छा (unwillingness to act in concert) थी।

सोवियत नेता स्टालिन (Stalin) ने टिप्पणी की कि, "गैर-आक्रामक राज्य, मुख्यतः इंग्लैंड, फ्रांस और संयुक्त राज्य अमेरिका, सामूहिक सुरक्षा की नीति, आक्रामकों के खिलाफ सामूहिक प्रतिरोध की नीति को अस्वीकार कर चुके हैं और गैर-हस्तक्षेप (non-intervention), अर्थात् 'तटस्थता (neutrality)' की स्थिति अपना ली है" (Palmer and Perkins, 1997: 246)।

इनिस एल. क्लॉड जूनियर (Inis L. Claude Jr) के शब्दों में, "राष्ट्र संघ का अनुभव सामूहिक सुरक्षा के विचार को कार्यशील प्रणाली में बदलने का एक असफल प्रयास था" (Claude Jr, 1962: 155)।


🖊️संयुक्त राष्ट्र के तहत सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (COLLECTIVE SECURITY SYSTEM UNDER THE UNITED NATIONS):-

राष्ट्र संघ (League of Nations) की सामूहिक सुरक्षा के विचार को कार्यशील प्रणाली में बदलने में विफलता ने इस विचार को स्वयं ही अस्वीकार नहीं किया। इसके विपरीत, विश्व व्यवस्था (world order) का पूर्ण पतन सामूहिक सुरक्षा की आवश्यकता के प्रति अधिक स्पष्ट जागरूकता और एक सुधारित प्रणाली (improved system) को स्थापित करने के लिए अधिक दृढ़ संकल्प पैदा करता है (Saksena, 1974: 25)।

अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के संरक्षण में शक्ति-संतुलन (balance of power) प्रणाली पर वापस लौटने से अनिच्छुक, संयुक्त राष्ट्र के संस्थापक पिता (founding fathers of the UN) ने एक ऐसी सामूहिक सुरक्षा प्रणाली (collective security system) बनाने का प्रयास किया, जिसका अर्थ था एक वैश्विक संगठन (world organization) जो आवश्यक होने पर बल (force) के माध्यम से शांति बनाए रख सके।

इस समय व्यापक इच्छा थी कि ऐसा एक विश्व संगठन (world organization) बनाया जाए, जिसमें अंतरराष्ट्रीय शांति बनाए रखने के लिए प्रभावशाली शक्तियाँ हों और सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का एक सुधारित संस्करण (improved version) हो।


संयुक्त राष्ट्र चार्टर के प्रावधान (The United Nations Charter Provisions):-

संयुक्त राष्ट्र (UN) का एक उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखना है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए, संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 1 (Article 1) “शांति के लिए खतरे की रोकथाम और उसके निवारण, आक्रमण के कृत्यों और शांति के अन्य उल्लंघनों को दबाने के लिए प्रभावी सामूहिक उपाय (effective collective measures)” करने का आह्वान करता है।

ये सामूहिक सुरक्षा उपाय विस्तारपूर्वक अध्याय VII (Chapter VII) में वर्णित हैं, जिसका शीर्षक है: “शांति के लिए खतरों, शांति के उल्लंघनों और आक्रमण के कृत्यों के संबंध में कार्रवाई” (ACTION WITH RESPECT TO THREATS TO THE PEACE, BREACHES OF THE PEACE, AND ACTS OF AGGRESSION), और इसमें अनुच्छेद 39-51 (Articles 39-51) शामिल हैं।

अनुच्छेद 39 (Article 39):- सुरक्षा परिषद (Security Council) को यह अधिकार है कि वह यह निर्धारित करे कि किसी स्थिति में शांति के लिए कोई खतरा, शांति का उल्लंघन, या आक्रमण का कृत्य मौजूद है या नहीं। इसके आधार पर सुरक्षा परिषद अनुच्छेद 41 (Article 41 – प्रतिबंध/संक्शन) और अनुच्छेद 42 (Article 42 – सैन्य उपाय) के तहत अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने या बहाल करने के लिए उपाय सुझा सकती है या निर्णय ले सकती है।

अनुच्छेद 40 (Article 40):- सुरक्षा परिषद यह भी अधिकृत है कि वह संबंधित पक्षों से आग्रह करे कि वे आवश्यक या वांछनीय अस्थायी उपायों (provisional measures) का पालन करें, ताकि संकट की स्थिति और बिगड़े नहीं।

अनुच्छेद 41 (Article 41):- सुरक्षा परिषद यह तय कर सकती है कि कौन से उपाय, जिनमें सशस्त्र बल का उपयोग नहीं है, अपनाए जाएंगे ताकि उसके निर्णय प्रभावी हो सकें। इसके लिए सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों से अनुरोध कर सकती है कि वे ऐसे उपाय लागू करें। इनमें आर्थिक संबंधों का पूर्ण या आंशिक विघटन, रेल, समुद्री, हवाई, डाक, तार, रेडियो और अन्य संचार साधनों का अवरुद्ध करना, और राजनयिक संबंधों को तोड़ना शामिल हो सकता है। यदि सुरक्षा परिषद (Security Council) यह मानती है कि अनुच्छेद 41 (Article 41) में निर्धारित उपाय पर्याप्त नहीं हैं या पर्याप्त साबित नहीं हुए हैं, तो वह वायु, समुद्र या स्थल बलों (air, sea, or land forces) के माध्यम से आवश्यक कार्रवाई कर सकती है ताकि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखी या बहाल की जा सके। इस कार्रवाई में प्रदर्शन (demonstrations), नाकेबंदी (blockade) और अन्य सैन्य संचालन शामिल हो सकते हैं, जिन्हें संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों के वायु, समुद्र या स्थल बलों द्वारा किया जा सकता है।

अनुच्छेद 43 (Article 43):- संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य सुरक्षा परिषद की आवश्यकता होने पर और विशेष समझौतों (special agreements) के अनुसार सशस्त्र बल, सहायता और सुविधाएँ (armed forces, assistance, and facilities), जिसमें मार्गाधिकार (rights of passage) शामिल हैं, प्रदान करने का संकल्प लेते हैं, ताकि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखी जा सके।

अनुच्छेद 44-46 (Articles 44-46):- ये अनुच्छेद सुरक्षा परिषद द्वारा सदस्य राज्यों की सशस्त्र सेनाओं (armed forces of member states) के उपयोग से संबंधित हैं।

अनुच्छेद 47 (Article 47):- यह सैन्य स्टाफ समिति (Military Staff Committee) के गठन का प्रावधान करता है, जो सुरक्षा परिषद को सैन्य उपायों पर सलाह और सहायता प्रदान करेगी।

अनुच्छेद 48 (Article 48):- सुरक्षा परिषद के निर्णयों को लागू करने के लिए आवश्यक कार्रवाई संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों द्वारा या उनमें से कुछ के माध्यम से की जाएगी, जैसा कि सुरक्षा परिषद तय करेगी।

अनुच्छेद 49 (Article 49):- इसमें सदस्य राज्यों से अनुरोध किया गया है कि वे सुरक्षा परिषद द्वारा तय किए गए उपायों को लागू करने में परस्पर सहायता (mutual assistance) प्रदान करें।

अनुच्छेद 50 (Article 50):- यदि किसी राज्य को सुरक्षा परिषद द्वारा उठाए गए निवारक या प्रवर्तन उपायों (preventive or enforcement measures) के कारण विशेष समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो वह सुरक्षा परिषद से उन समस्याओं के समाधान के लिए परामर्श कर सकता है।

अनुच्छेद 51:-  व्यक्तिगत या सामूहिक आत्मरक्षा के अधिकार का प्रावधान करता है। यह सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान है, क्योंकि यह सदस्य राज्यों को सीमित रूप से बल (force) का प्रयोग अपनी आत्मरक्षा के लिए करने की अनुमति देता है।

"इस चार्टर में कुछ भी इस अधिकार को हानि नहीं पहुँचा सकता कि यदि संयुक्त राष्ट्र का कोई सदस्य सशस्त्र हमले का शिकार होता है, तो उसे व्यक्तिगत या सामूहिक आत्मरक्षा का अंतर्निहित अधिकार है, जब तक कि सुरक्षा परिषद अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए आवश्यक उपाय नहीं कर लेती। इस अधिकार का प्रयोग करते हुए सदस्य द्वारा उठाए गए उपाय तुरंत सुरक्षा परिषद को सूचित किए जाएंगे और इस प्रकार सुरक्षा परिषद के अधिकार और जिम्मेदारी पर किसी भी तरह से कोई प्रभाव नहीं डालेगा कि वह जब चाहे अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने या बहाल करने के लिए आवश्यक कार्रवाई कर सके।"


लीग ऑफ नेशन्स कॉवेनेंट और संयुक्त राष्ट्र चार्टर की तुलना (The League Covenant and the UN Charter Compared):-

क्या संयुक्त राष्ट्र चार्टर लीग ऑफ नेशन्स कॉवेनेंट के तहत मौजूद सामूहिक सुरक्षा प्रणाली से बेहतर व्यवस्था प्रदान करता है? कुछ लोगों के लिए, चार्टर में प्रवर्तन कार्रवाई (enforcement action) का प्रावधान कॉवेनेंट के मुकाबले सबसे बड़ा सुधार माना जाता है।

चार्टर ने लीग कॉवेनेंट की तुलना में निम्नलिखित क्षेत्रों में सुधार किए हैं (Saksena, 1974: 43-47):-

लीग प्रणाली में, जहाँ लीग असेम्बली (League Assembly) और लीग काउंसिल (Council) दोनों को "लीग की कार्रवाई के क्षेत्र या विश्व शांति को प्रभावित करने वाले किसी भी मामले" से निपटने का अधिकार था, वहीं संयुक्त राष्ट्र चार्टर स्पष्ट रूप से दोनों की भूमिकाओं को परिभाषित करता है और शांति और सुरक्षा बनाए रखने की प्राथमिक जिम्मेदारी सुरक्षा परिषद (Security Council) को सौंपी गई है।

लीग के तहत यह अधिकार कि किसी विशेष राज्य ने आक्रमण किया है या नहीं, प्रत्येक सदस्य राज्य के पास था, जबकि चार्टर ने यह अधिकार स्पष्ट रूप से सुरक्षा परिषद को दिया है।

लीग कॉवेनेंट सदस्य राज्यों पर यह बाध्यता नहीं लगाता था कि वे सभी परिस्थितियों में बल के प्रयोग या बल की धमकी से परहेज़ करें। कुछ मामलों में, कॉवेनेंट ने युद्ध को कानूनी मानने की अनुमति दी थी।

संयुक्त राष्ट्र चार्टर केवल राज्यों के बीच सभी प्रकार के बल के प्रयोग को निषिद्ध नहीं करता, बल्कि यह तब भी हस्तक्षेप कर सकता है जब केवल हिंसा की धमकी दी जा रही हो।

लीग प्रणाली में सामूहिक प्रवर्तन कार्रवाई (collective enforcement action) लगभग विकेन्द्रीकृत (decentralized) थी, जबकि चार्टर ने सुरक्षा परिषद के माध्यम से केंद्रीकृत प्रवर्तन कार्रवाई की व्यवस्था की।

प्रक्रिया में चार्टर ने एक महत्वपूर्ण नवाचार प्रस्तुत किया। यह लीग के समानमत (unanimity) के सिद्धांत को छोड़ देता है। लीग की असेम्बली और काउंसिल में, एक विरोधी वोट भी निर्णय को रोक सकता था। इसके विपरीत, संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेम्बली महत्वपूर्ण निर्णयों (important decisions) में दो-तिहाई बहुमत से निर्णय लेने के लिए अधिकृत है।

संक्षेप में, जहाँ कॉवेनेंट के तहत सुरक्षा व्यवस्था “सहयोग की ढीली प्रणाली” थी, वहीं चार्टर ने सामूहिक प्रवर्तन की केंद्रीकृत व्यवस्था की कल्पना की।

हालाँकि, संयुक्त राष्ट्र चार्टर की यह केंद्रीकृत प्रवर्तन व्यवस्था तभी कार्य कर सकती है जब सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्य किसी विशेष निर्णय पर सहमत हों। स्थायी सदस्यों के बीच आक्रमण और शांति से संबंधित राजनीतिक मतभेदों ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के काल में संयुक्त राष्ट्र के सामूहिक सुरक्षा प्रणाली के वास्तविक संचालन पर गहरा प्रभाव डाला।

संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का कार्य:-

शीत युद्ध (Cold War) की अवधि में सामूहिक सुरक्षा प्रणाली सफल नहीं हो सकी क्योंकि दो महाशक्तियों के बीच राजनीतिक, सैन्य और वैचारिक प्रतिद्वंद्विता बनी रही। संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत सामूहिक सुरक्षा प्रणाली की सबसे बड़ी सीमा यह रही कि सामूहिक प्रवर्तन कार्रवाई सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों में से किसी के विरुद्ध नहीं की जा सकती, क्योंकि उन्हें वीटो शक्ति प्राप्त है।

सशस्त्र संघर्ष की परिस्थितियों में आक्रमणकारी का निर्धारण असंभव कार्य बन गया, क्योंकि ये महाशक्तियाँ अपने सहयोगियों की रक्षा के लिए वीटो शक्ति का प्रयोग करती थीं या उसके प्रयोग की धमकी देती थीं, जिससे सामूहिक सुरक्षा प्रणाली निष्क्रिय हो गई। हालाँकि, कोरियाई युद्ध के मामले में सामूहिक प्रवर्तन कार्रवाई संभव हो सकी, मुख्यतः इसलिए क्योंकि उस समय सोवियत संघ सुरक्षा परिषद से अनुपस्थित था।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय VII में निहित सामूहिक सुरक्षा प्रणाली का पहली बार प्रयोग 1950 के कोरियाई युद्ध में किया गया। यद्यपि कोरियाई युद्ध से पूर्व कुछ सशस्त्र संघर्षों (जैसे 1946-49 का इंडोनेशिया प्रश्न, 1947 का फिलिस्तीन प्रश्न और 1948 का कश्मीर प्रश्न) में आक्रमण की शिकायतें संयुक्त राष्ट्र को प्राप्त हुई थीं, फिर भी इन मामलों में अध्याय VII के प्रावधानों के अंतर्गत आर्थिक या सैन्य उपायों से संबंधित कोई प्रवर्तन कार्रवाई नहीं की गई।

कोरियाई युद्ध (Korean War):-

द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक कोरिया दो प्रभाव क्षेत्रों में विभाजित हो गया था—उत्तर कोरिया पर रूस का नियंत्रण था और दक्षिण कोरिया पर अमेरिका का। कोरिया को दो भागों में बाँटने वाली रेखा 38वाँ समानांतर (38th Parallel) थी। शीत युद्ध के आरंभ होते ही दोनों भागों के बीच तनाव बढ़ने लगा।

दोनों महाशक्तियाँ अपने-अपने वैश्विक सामरिक कारणों से पूरे कोरिया पर प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थीं। इसी कारण, दोनों हिस्सों को एकजुट कर एकीकृत कोरिया बनाने के लिए बल प्रयोग के प्रयास या धमकियाँ दी जाने लगीं। चूँकि कोरिया को लेकर दोनों महाशक्तियों के बीच मतभेद बने रहे, यह समस्या सितंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के पास भेजी गई।

नवंबर 1947 में महासभा ने वहाँ एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की सुविधा हेतु संयुक्त राष्ट्र अस्थायी आयोग (UN Temporary Commission on Korea) का गठन किया। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में 38वें समानांतर के दोनों ओर ‘सैन्य जमावड़े’ और 1949 में बार-बार सीमा घटनाओं का उल्लेख किया।

24-25 जून 1950 की मध्यरात्रि को, आयोग की रिपोर्ट जिसमें उत्तर कोरिया द्वारा दक्षिण कोरिया पर आक्रमण का संकेत था, अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासचिव तक पहुँचाई गई।

25 जून 1950 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने अमेरिका द्वारा प्रस्तुत एक मसौदा प्रस्ताव को 9 बनाम 1 मतों से पारित किया, जबकि सोवियत संघ अनुपस्थित था। इस प्रस्ताव में 'सशस्त्र आक्रमण' पर ध्यान देते हुए इस स्थिति को 'शांति का उल्लंघन' करार दिया गया और उत्तर कोरियाई सेनाओं को 38वें समानांतर तक वापस लौटने तथा इस प्रस्ताव को लागू करने में सदस्य देशों से सहयोग करने की अपील की गई।

इसके बाद 27 जून और 7 जुलाई को पारित प्रस्तावों में सुरक्षा परिषद ने उत्तर कोरिया के विरुद्ध तत्काल सैन्य कार्रवाई की माँग की और सदस्य देशों से आग्रह किया कि वे संयुक्त राज्य अमेरिका के अधीन एकीकृत कमान के अंतर्गत दक्षिण कोरिया की सहायता के लिए सशस्त्र बल उपलब्ध कराएँ।

सोवियत संघ और अन्य चार साम्यवादी सदस्य देशों ने सुरक्षा परिषद की इस कार्रवाई को 'अवैध' करार दिया। इसके बावजूद, 51 राष्ट्रों ने इन प्रस्तावों का समर्थन किया। हालाँकि, अमेरिका के अलावा केवल 15 देशों ने अपनी लड़ाकू सेनाएँ कोरिया भेजीं। उत्तर कोरिया के हमले का प्रतिरोध करने का मुख्य बोझ अमेरिका ने ही उठाया (Saksena, 1974: 87-90)।

एक समय ऐसा भी आया जब साम्यवादी सेनाएँ पीछे हट रही थीं और अमेरिका व अन्य संयुक्त राष्ट्र कमान वाले देश पूरे कोरिया पर कब्ज़ा करना चाहते थे, लेकिन चीनी 'स्वयंसेवकों' के युद्ध में शामिल हो जाने से यह संघर्ष गतिरोध (stalemate) में समाप्त हुआ।

संयुक्त राष्ट्र के ध्वज तले कोरियाई सैन्य अभियान को पश्चिमी जगत में सामान्यतः 'एक आक्रामक के विरुद्ध पहला प्रवर्तनकारी कदम, जो संगठित राष्ट्र समुदाय ने सामूहिक सुरक्षा के सिद्धांत के अनुसार उठाया है' (Saksena, 1974: 92), के रूप में सराहा गया।

हालाँकि, यह सैन्य कार्रवाई वास्तव में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा नहीं, बल्कि समुदाय के नाम पर की गई थी, और संयुक्त राष्ट्र की सेना वस्तुतः अमेरिकी सेना थी, जिसमें अन्य देशों की राष्ट्रीय इकाइयाँ उसके अधीन कर दी गई थीं।

पश्चिमी गठबंधन ने, वस्तुतः, कोरिया की स्थिति को साम्यवाद द्वारा स्वतंत्र राष्ट्रों पर विजय पाने के युद्ध के रूप में देखा(जैसा कि राष्ट्रपति ट्रूमैन ने कहा) और प्रशांत क्षेत्र में साम्यवादी ख़तरे से निपटने के लिए उपयुक्त सैन्य कदम उठाना चाहा।

कोरियाई युद्ध के दौरान संयुक्त राष्ट्र वास्तव में एक तटस्थ और सार्वभौमिक विश्व सुरक्षा प्रणाली की अपेक्षा एक साम्यवाद-विरोधी गठबंधन के रूप में स्वयं की पहचान करने लगा (Saksena, 1974: 110)।


शांति के लिए एकजुट होना प्रस्ताव (Uniting for Peace Resolution):-

1950 के इस प्रस्ताव का उद्देश्य, जिसे अमेरिका ने तैयार किया था, संकट की स्थितियों में सामूहिक कार्रवाई की सिफ़ारिश करने के लिए महासभा को सक्षम बनाना था, यदि वीटो के कारण सुरक्षा परिषद गतिरोध में फँस जाए।

यह प्रस्ताव, जिसे प्रचलित रूप से एचे़सन योजना (Acheson Plan) कहा जाता है, अमेरिका द्वारा महासभा में तब प्रस्तुत किया गया जब सोवियत संघ, पेकिंग सरकार के प्रतिनिधियों के प्रवेश के मुद्दे पर अस्थायी अनुपस्थिति के बाद, सुरक्षा परिषद में वापस लौटा।

इसमें यह प्रावधान किया गया कि यदि सुरक्षा परिषद वीटो के कारण कार्रवाई करने में विफल रहती है, तो महासभा 24 घंटे के भीतर बैठक बुला सकती है और प्रवर्तनकारी कार्रवाई की सिफ़ारिश कर सकती है।
इस प्रस्ताव के अंतर्गत एक शांति पर्यवेक्षण समिति (Peace Observation Committee) का गठन किया गया, जिसका कार्य महासभा को अवलोकन एवं रिपोर्ट प्रस्तुत करना था, और एक सामूहिक उपाय समिति (Collective Measures Committee) का गठन किया गया, जिसका कार्य सामूहिक कार्रवाई के तरीकों पर महासभा और परिषद दोनों को रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।

जैसा कि इनिस क्लॉड (Inis Claude) ने कहा,  लेकिन, इस प्रस्ताव पर सर्वसम्मति, "अधूरी, भ्रामक और क्षणिक" थी (Van Dyke [1969: 420] में उद्धृत)।

सोवियत संघ और उसके सहयोगियों ने इसका तीव्र विरोध किया और कहा कि यह संयुक्त राष्ट्र प्रणाली की मूलभूत समझौता-भावना का उल्लंघन है।

ग़ैर-सम्यवादी (non-communist) सदस्यों में से केवल भारत और अर्जेंटीना ने मतदान से परहेज़ किया।

अमेरिकी दृष्टिकोण से, यह प्रस्ताव सामूहिक सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि कम्युनिज़्म के प्रतिरोध के लिए एक संभावित आधार था (इनिस क्लॉड, Van Dyke [1969: 420] में उद्धृत)।

इस प्रकार, कोरिया में सामूहिक सुरक्षा कार्रवाई के अनुभव ने इसकी निहित कमजोरियों को उजागर कर दिया।

1956 के स्वेज संकट में, संयुक्त राष्ट्र ने दो महाशक्तियों (इंग्लैंड और फ्रांस) तथा एक छोटे देश (इज़राइल) की आक्रामकता को विफल करने और यथास्थिति बहाल करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की।

1956 के बाद, संयुक्त राष्ट्र की गतिविधियों का मुख्य जोर शांति प्रवर्तन (Peace Enforcement) से शांति स्थापना (Peacekeeping) की ओर स्थानांतरित हो गया।



🖊️शांति स्थापना (Peacekeeping):-

शीत युद्ध के दौरान, जब सामूहिक सुरक्षा प्रणाली अकार्यशील हो गई थी, तब शांति स्थापना एक ऐसे उपाय के रूप में विकसित हुई, जिसका उद्देश्य संघर्ष के दायरे को सीमित करना और उसे शीत युद्ध के टकराव में बदलने से रोकना था।

शांति स्थापना अभियानों को दो प्रकारों या पीढ़ियों में बाँटा गया है। पहली पीढ़ी की शांति स्थापना में ध्यान राज्यों के बीच होने वाले संघर्षों को तीसरे पक्ष की सैन्य शक्तियों के माध्यम से नियंत्रित करने पर था।

शांति स्थापना बल प्रायः छोटे और तटस्थ देशों से लिए जाते थे, जो सुरक्षा परिषद के अस्थायी सदस्य होते थे। इन बलों का कार्य संघर्ष की वृद्धि को रोकना और युद्धरत पक्षों को अलग रखना होता था, जब तक कि विवाद का समाधान न हो जाए।

ये बहुराष्ट्रीय बल संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में काम करते थे, जिनका कार्यविभाजन होता था — युद्धविराम की निगरानी करना, संघर्षविराम बनाए रखना और युद्धरत पक्षों के बीच एक बफर ज़ोन में स्वयं को तैनात करके शारीरिक रूप से अलगाव सुनिश्चित करना।

कैरेन ए. मिंग्स्ट (2001) के अनुसार, प्रथम-पीढ़ी की शांति स्थापना अभियानों की प्रभावशीलता निम्नलिखित परिस्थितियों में सबसे अधिक होती हैः-
  • अभियान के लिए एक स्पष्ट और व्यावहारिक जनादेश या उद्देश्य हो।
  • संबंधित पक्षों की सहमति हो — चाहे वह जनादेश के संबंध में हो या बल की संरचना के संबंध में।
  • संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों से मजबूत वित्तीय और तार्किक समर्थन प्राप्त हो।
  • सैनिक उपलब्ध कराने वाले देशों द्वारा जनादेश और उससे जुड़ी संभावित जोखिमों को स्वीकार किया जाए।
  • शांति सैनिकों के बीच यह समझ हो कि वे बल प्रयोग केवल आत्मरक्षा के लिए ही करेंगे।
तालिका 1.1 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा किए गए प्रथम-पीढ़ी के शांति स्थापना अभियानों को सूचीबद्ध किया गया है।



द्वितीय-पीढ़ी की शांति स्थापना (Second-generation Peacekeeping)

द्वितीय-पीढ़ी के शांति स्थापना अभियानों को गृहयुद्ध और आंतरिक अशांति की परिस्थितियों में लागू किया जाता है, जो अधिकांशतः जातीय-राष्ट्रीय संघर्षों से उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार के अभियानों में शांति सैनिक सैन्य और गैर-सैन्य दोनों प्रकार के कार्य निभाते हैं।

सैन्य कार्यों में शामिल हैं:-
    • सैनिकों की वापसी की पुष्टि में सहायता करना (जैसे अफ़ग़ानिस्तान में)
    • संघर्ष समाधान होने तक लड़ रहे गुटों को अलग करना (जैसे बोस्निया में)
गैर-सैन्य कार्यों में शामिल हैं:-
    • राष्ट्रीय चुनावों का आयोजन और संचालन करना (जैसे कंबोडिया और नामीबिया में)
    • मानवतावादी सहायता, भोजन और दवाइयाँ प्रदान करना इत्यादि
(स्रोत: Mingst, 2001: 164-165)

तालिका 1.2 में संयुक्त राष्ट्र के द्वितीय-पीढ़ी के शांति स्थापना अभियानों की सूची दी गई है।



शांति के लिए एजेंडा (An Agenda for Peace):-

शीत युद्ध के बाद की स्थिति में, अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के संदर्भ में संयुक्त राष्ट्र के दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण बदलाव आया है। अब सुरक्षा के लिए खतरे केवल आक्रमण से नहीं आते, बल्कि गृहयुद्ध, मानवतावादी आपात स्थितियाँ, वैश्विक मानवाधिकार मानकों का उल्लंघन, और गरीबी व असमानता जैसी परिस्थितियों से भी उत्पन्न होते हैं। पारंपरिक दृष्टिकोण की तुलना में अब व्यक्तियों के अधिकारों और राज्यों के भीतर की परिस्थितियों के लिए न्याय और सुरक्षा की बढ़ती चिंता दिखाई देती है।

शीत युद्ध के बाद के युग में, अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा की अवधारणा में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया है। अब शांति के लिए खतरे केवल राज्यों के आक्रमण से नहीं, बल्कि गृहयुद्ध, मानवतावादी आपात स्थिति, गरीबी, असमानता आदि जैसी परिस्थितियों से उत्पन्न माने जाते हैं। दूसरे शब्दों में, सुरक्षा के गैर-सैन्य पहलुओं पर अधिक जोर दिया जा रहा है और इसे विकास, मानवाधिकार, न्याय आदि से गहराई से जुड़ा माना जाता है।

इस वैश्विक एजेंडा के हिस्से के रूप में, 1992 में तत्कालीन संयुक्त राष्ट्र महासचिव बोट्रॉस बोट्रॉस-घाली ने "एजेंडा फॉर पीस" शीर्षक वाली अपनी रिपोर्ट में शीत युद्ध के बाद के युग में संयुक्त राष्ट्र की अधिक महत्वाकांक्षी भूमिका की रूपरेखा प्रस्तुत की। इस शांति एजेंडा में शीत युद्ध के बाद के युग में संयुक्त राष्ट्र के लिए निम्नलिखित भूमिकाओं की कल्पना की गई है (Baylis et al., 2008: 320)।


रोकथाम कूटनीति (Preventive Diplomacy):-

इसमें विश्वास निर्माण के उपाय, तथ्यों की जांच और संयुक्त राष्ट्र द्वारा अधिकृत बलों की रोकथाम तैनाती शामिल है।

शांति स्थापना (Peacemaking):-

यह शत्रुतापूर्ण पक्षों को मुख्यतः शांतिपूर्ण तरीकों से समझौते पर लाने के लिए डिज़ाइन किया गया है। हालांकि, जब सभी शांतिपूर्ण उपाय विफल हो जाते हैं, तो चार्टर के अध्याय VII के तहत अधिकृत शांति प्रवर्तन (Peace Enforcement) आवश्यक हो सकता है। शांति प्रवर्तन पक्षों की सहमति के बिना भी किया जा सकता है।

शांति संरक्षा (Peacekeeping):-

यह पारंपरिक शांति संरक्षा जैसा है। इसका अर्थ है कि सभी पक्षों की सहमति से संयुक्त राष्ट्र बल का क्षेत्र में तैनात होना।

युद्धोपरांत शांति निर्माण (Post-conflict Peace-building):-

इसमें सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक ढाँचे का विकास शामिल है ताकि आगे की हिंसा को रोका जा सके और शांति को मजबूत किया जा सके।

हाल के वर्षों में, आतंकवाद और सामूहिक विनाश हथियारों जैसे अन्य शांति खतरे भी संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा एजेंडा में प्रमुख स्थान रखने लगे हैं। मार्च 2003 में, इराक युद्ध इस आधार पर लड़ा गया कि इराक के पास सामूहिक विनाश हथियार थे, और इसके लिए सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1441 (2002) का सहारा लिया गया।


सचिव-जनरल की हाई लेवल पैनल ऑन थ्रेट्स, चैलेंजेज़ एंड चेंज की 2004 की अंतिम रिपोर्ट में सुरक्षा खतरों की परस्पर संबंधित प्रकृति पर जोर दिया गया और विकास, सुरक्षा और मानवाधिकारों को परस्पर सुदृढ़ करने वाला बताया गया। इसमें शांति निर्माण आयोग की स्थापना की भी सिफ़ारिश की गई।


यह आयोग दिसंबर 2005 में महासभा और सुरक्षा परिषद का एक सलाहकार उप-संस्थागत निकाय के रूप में स्थापित किया गया। इसका उद्देश्य संघर्षोपरांत अस्थिर चरण में देशों को लक्षित समर्थन प्रदान करना है ताकि संघर्ष के पुनरावृत्ति को रोका जा सके। इसका गठन संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा और विकास गतिविधियों का समन्वय बढ़ाने की बढ़ती प्रवृत्ति का संकेत देता है (Baylis et al., 2008: 321)।

2005 में, प्रस्ताव A/RES/60/180 और S/RES/1645 (2005) के माध्यम से महासभा और सुरक्षा परिषद ने शांति निर्माण आयोग (PBC) की स्थापना की। इसे यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह संघर्ष-ग्रस्त देशों को उनकी सहमति के साथ राजनीतिक मार्गदर्शन और समर्थन प्रदान करे।

बाद में, प्रस्ताव A/RES/70/262 और S/RES/2282 (2016) में आयोग को यह मण्डेट दिया गया कि वह महासभा और सुरक्षा परिषद को शांति निर्माण और शांति बनाए रखने के मामलों में सलाह दे; शांति निर्माण के लिए एक समग्र, रणनीतिक और सुसंगत दृष्टिकोण को बढ़ावा दे; प्रमुख अंगों और संयुक्त राष्ट्र की संबंधित संस्थाओं के बीच सेतु का काम करे, शांति निर्माण की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं पर सलाह साझा करे; और संयुक्त राष्ट्र के भीतर और बाहर सभी संबंधित पक्षों को एकत्र करे।

फिर, प्रस्ताव A/RES/75/201 और S/RES/2558 (2020) में आयोग से कहा गया कि वह अपने परामर्शी, सेतु बनाने और सम्मिलित करने वाले कार्यों को जारी रखे, ताकि उन देशों और क्षेत्रों में राष्ट्रीय प्राथमिकताओं और प्रयासों के समर्थन में योगदान दिया जा सके जिन पर वह ध्यान केंद्रित कर रहा है।

जब इच्छुक सरकारें इसका अनुरोध करती हैं तो शांति निर्माण आयोग राष्ट्रीय और क्षेत्रीय शांति निर्माण प्राथमिकताओं का समर्थन करता है, । 2024 में, आयोग ने 9 अलग-अलग देश- और क्षेत्र-विशेष सेटिंग्स में समर्थन प्रदान किया, और अपनी भौगोलिक पहुँच को व्यापक बनाया, जिसमें पहली बार ग्वाटेमाला, मौरिटानिया और साओ टोमे और प्रिंसिपे पर बैठकें आयोजित की गईं।

स्थापना के बाद से, आयोग ने कुल 34 देशों और क्षेत्रों के साथ काम किया है। आयोग की गतिविधियों में बैठकें आयोजित करना, संयुक्त कार्यक्रमों का संचालन, संयुक्त राष्ट्र के मुख्य अंगों (जैसे महासभा, सुरक्षा परिषद और आर्थिक एवं सामाजिक परिषद) और अन्य मंचों को ब्रीफिंग और सलाह प्रदान करना, साथ ही क्षेत्रीय दौरे और संबंधित हितधारकों के साथ अनौपचारिक बातचीत शामिल हैं।

करीब बीस वर्षों के इतिहास में, आयोग ने कई पहलों और गतिविधियों के माध्यम से महत्वपूर्ण योगदान दिया है, जैसे: -
  • गाम्बिया में संक्रमणकालीन न्याय (Transitional Justice) प्रयासों का समर्थन;
  • लाइबेरिया में राष्ट्रीय युवा, शांति और सुरक्षा एजेंडा का मार्गदर्शन;
  • तिमोर-लेस्ते के साथ दक्षिण-दक्षिण और त्रिकोणीय सहयोग के लिए अच्छे अभ्यास साझा करना;
  • कोलंबिया और ग्वाटेमाला में लैटिन अमेरिका में शांति निर्माण प्रक्रियाओं में आदिवासी समुदायों को शामिल करने का समर्थन।


सामूहिक सुरक्षा की प्रणाली का मूल्यांकन:-

सामूहिक सुरक्षा एक ऐसा विचार है जिसे युद्ध को रोकने और शांति बनाए रखने के लिए उदारवादियों ने विकसित किया, ताकि शक्ति संतुलन के अविश्वसनीय सिद्धांत की तुलना में बेहतर ढंग से शांति कायम रखी जा सके। हालांकि, सामूहिक सुरक्षा का आदर्श सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों रूपों में सीमाओं से ग्रस्त है। यह कुछ आदर्शवादी धारणाओं और परिस्थितियों पर आधारित है, जो अवास्तविक हैं और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बहुत कम ही प्राप्त होती हैं।

जैसा कि वास्तविकतावादी (Realists) कहते हैं, सामूहिक सुरक्षा का आदर्श यह मानकर चलता है कि सभी राज्य मिलकर आक्रामकता के समय सामूहिक कार्रवाई करेंगे, जबकि यह राज्यों के बीच शक्ति और हितों के संघर्ष की अनदेखी करता है। राज्यों के बीच हितों और मतभेदों का यह संघर्ष संकट की स्थिति में आक्रामक को पहचानने की प्रक्रिया को और भी कठिन बना देता है। राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को देखते हुए, यह हमेशा संभव नहीं होता कि राज्यों के बीच यह सर्वसम्मति बनी रहे कि आक्रामकता क्या है।

जैसा कि मॉर्गेन्थाऊ (Morgenthau) ने तर्क दिया, सामूहिक सुरक्षा स्वभावतः उस विशेष क्षण में मौजूद स्थिति (status quo) की रक्षा करती है। इस प्रकार, लीग ऑफ नेशंस की सामूहिक सुरक्षा ने उस क्षेत्रीय स्थिति की रक्षा का लक्ष्य रखा जो 1919 में लीग की स्थापना के समय मौजूद थी। चूंकि कुछ राज्य इस स्थिति की रक्षा करते थे, जबकि अन्य राज्य इसके विरोधी थे, इसलिए इसके परिणामस्वरूप विरोधाभाव युद्ध या समझौते की स्थिति तक ले जा सकता था। चूंकि अंतरराष्ट्रीय राजनीति शक्ति की लड़ाई (struggle for power) से परिभाषित होती है, किसी विशेष स्थिति को सामूहिक सुरक्षा के माध्यम से स्थिर करने का प्रयास दीर्घकाल में असफल होने के लिए अभिशप्त है(Morgenthau, 1991: 453)।

व्यक्तिगत संप्रभु राज्यों के राष्ट्रीय हितों और सामूहिक सुरक्षा की जिम्मेदारियों के बीच तनाव, सामूहिक सुरक्षा की सफलता में प्रमुख व्यावहारिक बाधाएं हैं। यदि किसी राज्य को लगता है कि उसके राष्ट्रीय हित संकट में हैं, तो वह किसी विशेष राज्य को आक्रामक घोषित करने और उसके खिलाफ युद्ध में जाने को तैयार नहीं हो सकता।

एक और प्रमुख सीमा यह है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर में स्थापित सामूहिक सुरक्षा प्रणाली की सफलता मुख्य रूप से महान शक्तियों, विशेष रूप से सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के राजनीतिक और रणनीतिक हितों पर निर्भर करती है। शीत युद्ध (Cold War) के दौरान, सामूहिक सुरक्षा सुपरपॉवर्स के आपसी विरोधी हितों के कारण गंभीर रूप से कमजोर हुई।

स्व-रक्षा का अधिकार(The Right of Self-defense):-

संयुक्त राष्ट्र की सामूहिक सुरक्षा प्रणाली युद्ध को पूरी तरह से नकारती नहीं है। चार्टर के अनुच्छेद 51 के तहत, यदि किसी सदस्य राज्य पर सशस्त्र हमला होता है, तो उसे व्यक्तिगत या सामूहिक स्व-रक्षा का अंतर्निहित अधिकार प्राप्त है। अनुच्छेद 52 के तहत, राज्य क्षेत्रीय व्यवस्थाएँ या एजेंसियाँ बना सकते हैं ताकि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरे की स्थिति में उचित कार्रवाई की जा सके। उदाहरण के लिए, नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी ऑर्गनाइजेशन (NATO) न केवल अपने क्षेत्र में, बल्कि आधुनिक विश्व में इसके बाहर भी सुरक्षा मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

शीत युद्ध के बाद के एकध्रुवीय विश्व परिवेश में, संभावना यह है कि महान शक्तियाँ सामूहिक कार्रवाई के नाम पर अपने स्वयं के एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हैं। यह विशेष रूप से इसलिए है क्योंकि सुरक्षा की धारणा अब गैर-सैनिक पहलुओं तक विस्तारित हो गई है, जैसे कि लोकतंत्र, विकास, मानवाधिकार, परमाणु अप्रसार और मानवीय हस्तक्षेप। सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्यों के बीच मतभेदों के बावजूद, इराक युद्ध इस आधार पर लड़ा गया कि इराक के पास महाविनाशक हथियार थे। 
22 जून 2025 को  अमेरिका द्वारा ईरान पर इसी कारण हमला कर दिया कि वह परमाणु बम बनाने के करीब है ।

7 may 2025 को भारत ने भी आतंकवाद के खिलाफ अपनी स्वरक्षा के रूप में पाकिस्तान पर ऑपरेशन सिंदूर किया था।

इस प्रकार, संयुक्त राष्ट्र चार्टर में निहित सामूहिक सुरक्षा प्रणाली में प्रमुख सीमाएँ हैं। व्यवहार में, हालांकि यह कुछ मामलों में शांति-रक्षण बल के रूप में सफल रही, परंतु बड़े पैमाने पर यह महान शक्तियों के हाथों में उनके अपने संकीर्ण राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने का उपकरण बन गई है।


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