💸 निस्पंद-स्फीति(Stagflation)
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तीव्र विकास के साथ 1960 के वर्षों में तथा मुख्यतः 1973 के बाद संसार के कई औद्योगिक देशों की अर्थव्यवस्थाओं में एक नया विचित्र एवं विरोधाभासी आर्थिक संकट पैदा हुआ है। इन देशों में जहाँ एक ओर तीव्र मुद्रा-स्फीति की प्रवृत्ति है वहाँ साथ-साथ आर्थिक शिथिलता, बेकारी में वृद्धि तथा आर्थिक विकास की गति रुक गई है। इस प्रकार कीमतों में तेजी तथा आर्थिक विकास में शिथिलता की इस विचित्र स्थिति को व्यक्त करने के लिए निस्पंद स्फीति (Stagflation) शब्द का प्रयोग किया जाने लगा है। इसे इस प्रकार भी परिभाषित कर सकते हैं- निस्पंद स्फीति (Stagflation) का अभिप्राय किसी अर्थव्यवस्था में उस विचित्र एवं विरोधाभासी स्थिति से है जिसमें आर्थिक निष्क्रियता (शिथिलता/Economic Recession) तथा मुद्रा-स्फीति (Inflation) साथ-साथ मौजूद रहें। यह एक प्रकार से आर्थिक निष्क्रियतां और मुद्रा स्फीति की मिश्रित स्थिति को व्यक्त करता है। चूँकि अर्थव्यवस्था में आर्थिक गिरावट(Slump) तथा मुद्रास्फीति(Inflation) का मिश्रित रूप एक साथ मौजूद होते हैं अतः इस स्थिति को कुछ विद्वान शिथिलता मिश्रित स्फीति (Slumpflation) की संज्ञा भी देते हैं।
निस्पंद स्फीति की परिभाषाएँ:-
प्रो. रिचार्ड जी. लिप्से एवं के. एलेक क्रिस्टल (Prof. Richard G. Lipsey & Κ. Alec Christal) के अनुसार, "निस्पंद स्फीति का अभिप्राय मंदी जिसमें तीव्र बेकारी तथा मुद्रा-स्फीति दोनों के साथ-साथ उत्पन्न होने से है।" (Stagflation means the simultaneous occurrence of a recession with its accompanying high unemployment and inflation.)
डोर्न बुश तथा फिशर (Dornbusch and Fischer) के शब्दों में 'निस्पंद-स्फीति उस समय होती है जब मुद्रा-स्फीति बढ़ती है तथा उत्पत्ति की मात्रा या तो गिरती है अथवा कम से कम बढ़ती तो नहीं है।" (Stagflation occurs when inflation rises while output is either falling or at least not rising.)
इन दोनों परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि निस्पंद-स्फीति (Stagflation) में महंगाई और मंदी (बेकारी) दोनों के परस्पर विरोधी लक्षण साथ-साथ दृष्टिगोचर होते हैं। जहाँ एक ओर वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से मुद्रा स्फीति वहाँ दूसरी ओर उत्पादन घटने या स्थिरता से बेकारी की स्थिति साथ-साथ पाई जाती है।
ऐतिहासिक तथ्य:-
पाश्चात्य औद्योगिक देशों में जहाँ 1963-72 की अवधि में वास्तविक राष्ट्रीय आय में औसत वार्षिक वृद्धि दर 4.7% थी, वह 1973 में 6.2% पहुँच गई, किन्तु 1974 तथा 1975 में यह वृद्धि दर घटकर क्रमशः 0.6% तथा 0.5% ही रह गई।
1976-79 की अवधि में सुधार हुआ और विकास दर 4% पहुँच गई। किन्तु पुनः 1980 तथा 1981 में विकास दरें घट कर क्रमशः 1.1% तथा 1.3% ही रह गई। इसके विपरीत मुद्रा-स्फीति निरन्तर बढ़ती गई।
जहाँ 1963-72 की अवधि में कीमतों में वृद्धि की वार्षिक औसत दर 4.2% थी, वह 1974-75 में बढ़कर 11.7% पहुँच गई।
1980-81 में भी कीमतों में वृद्धि 8.9% के लगभग थी। यूरोपीय देशों में कीमतों में वृद्धि की औसत दर 10% से भी अधिक रही। यही नहीं कीमतों में वृद्धि के बावजूद आर्थिक विकास की गति रुक जाने से बेरोजगारी में भी वृद्धि का रुख रहा।
1986 में औद्योगिक देशों में औसतन 8% श्रमिक बेकार थे जबकि 1979 में बेरोजगारी 5% ही थी। इस प्रकार आर्थिक शिथिलता एवं मुद्रा-स्फीति का एक साथ दृष्टिगोचर होना निस्पंद-स्फीति का परिचायक है।
निस्पंद स्फीति क्यों/Why Stagflation ? कारण/Causes:-
निस्पंद-स्फीति के कई कारण बताये जाते हैं। जहाँ एक ओर तेल कीमतों में भारी वृद्धि इसका कारण मानी जाती है वहाँ दूसरी ओर औद्योगिक देशों में लम्बे समय तक मुद्रा स्फीति की स्थिति निस्पंद-स्फीति का मुख्य कारण बताया जाता है।
कीमतों में वृद्धि के कारण जब सरकार अपने बढ़ते खर्चों की पूर्ति के लिए घाटे के बजट बनाती है, विनियोग वृद्धि हेतु मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियों में उदारता दिखाती है उससे कीमतों में तो वृद्धि हो जाती है किन्तु राष्ट्रीय आय, उत्पादन और रोजगार में तदनुकूल वृद्धि नहीं होती। परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था में मुद्रा-स्फीति के साथ-साथ आर्थिक शिथिलता और बेरोजगारी की स्थिति दृष्टिगोचर होती है।
रूस तथा अन्य साम्यवादी राष्ट्रों में जहाँ नियोजित विकास किया जाता है वहाँ निस्पंद स्फीति की समस्या नहीं है।
क्या भारत में भी निस्पंद-स्फीति (Stagflation) है?
भारत में भी यह विचित्र एवं विरोधाभासी आर्थिक संकट पिछले कई वर्षों से दृष्टिगोचर हो रहा है? जहाँ एक ओर कीमतों में निरन्तर अप्रत्याशित वृद्धि का रुख रहा है वहाँ दूसरी ओर आर्थिक विकास की गति इतनी धीमी है कि जनसंख्या में वृद्धि और बढ़ती बेकारी के कारण अर्थव्यवस्था में कोई विशेष सुधार नहीं हो पा रहा है। अर्थव्यवस्था में मुद्रा-स्फीति और आर्थिक निष्क्रियता की मिश्रित अवस्था साथ-साथ मौजूद है। भविष्य की अनिश्चितता को रोकने तथा स्थिरता के साथ तीव्र विकास करने के लिए एक उपयुक्त नीति अपनाने की आवश्यकता है।
भारत में जहाँ एक ओर सरकारी व्यय में वृद्धि के कारण बड़ी मात्रा में घाटे की वित्त व्यवस्था ने मुद्रा-स्फीति को बढ़ाया है वहाँ दूसरी ओर आयात नियन्त्रण, निर्यात वृद्धि, करों में वृद्धि, लागतों में वृद्धि, उत्पादन में कमी या निष्क्रियता, अकालों तथा जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि ने आग में घी का काम किया है।
भारत में लोग अपनी आय का बड़ा भाग अनिवार्यताओं जैसे- रोटी, कपड़ा, मकानआदि पर खर्च करते हैं । मुद्रा-स्फीति के कारण अनिवार्यताओं पर ही आय का अधिकांश भाग खर्च हो जाता है तो अन्य वस्तुओं के लिए और खासतौर से इन्जिनियरिंग और औद्योगिक माल की कुल माँग कम रह जाती है इससे मुद्रा-स्फीति के साथ-साथ औद्योगिक शिथिलता, औद्योगिक बेकारी की स्थिति आर्थिक विकास को अवरुद्ध-सा कर देती है। इससे मुद्रा स्फीति और आर्थिक निष्क्रियता की मिश्रित स्थिति की समस्या भारत में 1963 से 1972, 1975 तथा 1991 तक दृष्टिगोचर हुई है।
2020-21 में देखी गई गिरावट के बाद वर्ष 2021-22 और 2022-23 के दौरान वस्तुओं की वैश्विक कीमतों में तेजी आई जिससे मुद्रास्फीति और आर्थिक संवृद्धि दोनों के लिए चिंताएं बढ़ गई क्योंकि ऊर्जा, धातु और कृषि निविष्टियों की कीमतें बढ़ गई, जिसके परिणामस्वरूप निविष्टि लागत दबाव बढ़ गया।
भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) आधारित मुद्रास्फीति कभी-कभी उच्च रही है, लेकिन यह प्रबंधनीय स्तर पर है। 2023 में सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने मुद्रास्फीति को 2-6% के लक्ष्य दायरे में रखा है। मुख्य मुद्रास्फीति (Core Inflation) भी स्थिर रही है।
विश्व बैंक और IMF के अनुसार भारत 2024 में भी दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। भारत में बेरोजगारी दर एक चिंता का विषय है, लेकिन यह निस्पंद-स्फीति के स्तर तक नहीं बढ़ी है। भारत में निस्पंद-स्फीति की संभावना कम है लेकिन वैश्विक परिदृश्य को देखते हुए इस पर ध्यान देना आवश्यक है।
निस्पंद-स्फीति को नियंत्रित करने के उपाय(Measures to Control Stagflation):-
निस्पंद-स्फीति की विचित्र और विरोधाभासी आर्थिक संकट के प्रभावी नियंत्रण के लिये जहाँ एक ओर मुद्रा-स्फीति (Inflation) को नियंत्रित करने के उपाय करने होते हैं वहाँ दूसरी ओर अर्थव्यवस्था में उत्पादन बढ़ाने और रोजगार के अवसर पैदा करने के लिये प्रयास करना जरूरी है। अतः इस विषम स्थिति से निपटने के लिये समग्र पूर्ति को अल्पकाल तथा दीर्घकाल में बढ़ाने का प्रयास किया जाता है।
आयकर में कटौती तथा रियायतों से उत्पादन की खपत और माँग बढ़ाने से उत्पादन बढ़ाने की कोशिश की जाती है।
उत्पादकों को भी कई रियायतें दी जाती हैं; जैसे बैंक ब्याज दरों में कटौती, अप्रत्यक्ष करों में रियायतें, उत्पादन वृद्धि के लिये अनुदान, अर्थव्यवस्था में आधारभूत संरचना जैसे विद्युत, परिवहन एवं संचार सेवाओं का द्रुत गति से विकास और आर्थिक उदारीकरण की नीति को मूर्त रूप दिया जाता है।
विदेशी पूँजी निवेश, प्रौद्योगिकी तथा विदेशी व्यापार को बढ़ाने के प्रयास किये जाते हैं।
भारत में भी मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के साथ-साथ उत्पादन, रोजगार तथा लोगों की आय बढ़ाने के प्रयास इसी दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम हैं।
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