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मुद्रा स्पीति या मुद्रा प्रसार या INFLATION

मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन से अर्थव्यवस्था में प्रभाव



मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन दोनों दिशाओं में होता है

अर्थव्यवस्था मेंमूल्य स्तरीय मुद्रा में होने वाले परिवर्तन को निम्न रूपों में देख सकते हैं :-

  1. मुद्रा स्फीति या मुद्रा प्रसार(Inflation)
  2. मुद्रा अवस्फीति या मुद्रा संकुचन(Deflation)
  3. मुद्रा संस्फीति(Reflation)
  4. मुद्रा अपस्फीति(Disinflation)
  5. मुद्र निस्पंद स्फीति(Stagflation)

मुद्रा स्फीति या मुद्रा प्रसार(Inflation)

जब सामान्य मूल्य स्तर में वृद्धि तथा मुद्रा के मूल्य में कमी आती है तो इससे मुद्रा प्रसार या मुद्रास्फीति या इंफ्लेशन कहते हैं

प्रो. किन्स के अनुसार ''केवल मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होने से मुद्रा प्रसार नहीं होता बल्कि बचत, विनियोग  ब्याज दर भी मुद्रास्फीति को जन्म देती है ।''

किन्स के अनुसार पूर्णरोजगार के बिंदु के पूर्व मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होने पर भी स्फीति नहीं होगी क्योंकि मूल्य में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन बढ़ जाएगापता है पूर्ण रोजगार से पहले होने वाली मात्रा में वृद्धि से मूल्य स्तर में होने वाली वृद्धि की अवस्था को अर्धमुद्रा स्फीति कहा है

क्रॉउथर के अनुसार ''मुद्रास्फीति वह अवस्था है जिसमें मुद्रा का मूल्य गिरता है अर्थात् कीमत बढ़ती हैं ।''

केमरर के अनुसार ''जब विनिमय माध्यम की मात्रा उसकी मांग की तुलना में इस प्रकार बढ़ती है की कीमत स्तर बढ़ जाता है तो इसे मुद्रास्फीति की स्थिति कहते हैं ''

ग्रेगरी के अनुसार ''क्रय शक्ति की मात्रा में ऐसा धारण वृद्धि मुद्रास्फीति है ।''

हाट्रे के अनुसार ''अत्यधिक मुद्रा निगमन को मुद्रास्फीति माना जाता है ।''

प्रो . पॉल ईजिंग के अनुसार ''मुद्रास्फीति क्रय शक्ति की विस्तारशील प्रवृत्ति है जो मूल्य स्तर में वृद्धि का कारण या प्रभाव बताती है ।''

प्रो. पीगू के अनुसार ''मुद्रा प्रसार की स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब मौद्रिक आय धनोपार्जन क्रियो से अधिक तेजी से बढ़ रही हो ।'' अतः मुद्रा स्फीति निम्न परिस्थितियों में उत्पन्न होती है-

(i) मौद्रिक आय और धन उपार्जन क्रियाओं में वृद्धि हो रही हो पर मौद्रिक आय में तुलनात्मक अधिक वृद्धि हो।

(ii) मौद्रिक आय में वृद्धि पर उत्पादन कम रहे।

(iii) मौद्रिक आय में वृद्धि पर उत्पादन स्थिर रहे।

(iv) मौद्रिक आय में स्थिरता पर उत्पादन में कमी हो।

(v) मौद्रिक आय और उत्पादन दोनों में कमी पर उत्पादन में कमी तीव्र गति से हो।

वेब्स्टर शब्दकोश में 'मुद्रा स्फीति को सरल शब्दों में परिभाषित किया गया है-“मुद्रा स्फीति वह अवस्था है जब वस्तुओं की उपलब्ध मात्रा की तुलना में मुद्रा तथा साख की मात्रा में अधिक वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप मूल्य-स्तर में निरन्तर तथा महत्वपूर्ण वृद्धि होती रहती है।''

उपर्युक्त परिभाषाओं से हम समझ सकते हैं कि जब मुद्रा की पूर्ति उसकी मांग से अधिक होती है तो कीमत स्तर बढ़ जाता है और मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है

व्यापार चक्र के पुनरुत्थान का में कीमत स्तर ऊपर उठ जाने से उत्पन्न स्थिति को मुद्रास्फीति नहीं कहा जाएगा

देश में औसत उत्पादन लागत बढ़ जाने पर अगर सामान्य मूल्य स्तर भी बढ़ जाए तो मुद्रास्फीति नहीं कहा जाता है । 

पूर्ण रोजगार के बिंदु के बाद मुद्रा की प्रत्येक वृद्धि मुद्रास्फीति को जन्म देती है किन्स ने इसे ही वास्तविक मुद्रास्फीति कहा है


 मुद्रास्फीति  के कारण :-  मौद्रिक आय बढ़ने व  उत्पादन की मात्रा व पूर्ति के घटने से मुद्रास्फीति उत्पन्न होती है।  अत: मुद्रास्फीति के निम्नलिखित 2 कारण हैं:-

  • मौद्रिक आय बढ़ाने वाले घटकों से मुद्रास्फीति
  • उत्पादन की मात्रा में पूर्ति को घटाने वाले तत्व

मौद्रिक आय बढ़ाने वाले घटकों से मुद्रास्फीति:-

  • विकासात्मक व्यय
  • युद्धकालीन व्यय
  • हीनाथ प्रबंधन:– नोट छापकर बजट घाटे को पूरा करना प्रो. पॉल  ईजिंग ने इसे बजट स्पीति कहा है
  • केंद्रीय बैंक द्वारा साख निर्माण को प्रोत्साहन :- बैंक दर में कमी ,खुले बाजार की क्रियाएं आदि
  • व्यापारिक बैंक द्वारा साख निर्माण :- उपभोक्ता साख
  • करो में छूट
  • उधार कार्यक्रम में डील पुराने ऋण ब्याज का भुगतान
  • सार्वजनिक निजी वियोग में वृद्धि :- अंतर अवधि में


उत्पादन की मात्रा में पूर्ति को घटाने वाले तत्व:-

  • प्राकृतिक संकट :- सूखा, बाढ़ अन्य किसी प्राकृतिक प्रकोप से उत्पादन पूर्ति में कमी होने से
  • औद्योगिक संकट :मजदूर हड़ताल या तालाबंदी से कार्य अवरुद्ध हो जाने से मौद्रिक आय स्थिर रहने पर भी मुद्रा स्थिति उत्पन्न होती है
  • सरकार की घातक नीतियां :- अत्यधिक नियंत्रण, लाइसेंस नीति के क्रियान्वयन में शथिलता, अनावश्यक विलंब, अत्यधिक करारोपण आदि
  • व्यापारिक नीति :- आयत को हतोत्साहित करना निर्यात को प्रोत्साहित करना
  • संग्रह प्रवृत्ति : - वस्तुओं की पूर्ति कम होने तथा मांग अपरिवर्तित रहने पर
  • जनसंख्या वृद्धि से  मांग बढ़ने के कारण 
  • उत्पादक लागत में वृद्धि :- श्रम शक्ति की कमी या श्रमिक संघ के दबाव से मजदूरी वृद्धि या उत्पादन ह्रास नियम के कारण लागत में वृद्धि से लागत जनित स्थिति पैदा होती है
  • प्रौद्योगिकी परिवर्तन :- अल्पकाल में उत्पादन रुक जाने से पूर्ति कम होने पर

 

मुद्रास्फीति या मुद्रा प्रसार के रूप : -

  • करण के आधार पर
  • परिस्थितियों के आधार पर
  • गति के आधार पर


जब लोगों की आय बढ़ने से उपभोग पर बिना नियंत्रण व्यय किया जाता है तो इससे उत्पन्न स्थिति को खुली मुद्रास्फीति कहते हैं जबकि उपभोग पर नियंत्रण लगाने से राशन आदि के कालाबाजारी अथवा मनोवैज्ञानिक भय से हुई मूल्य वृद्धि के कारण उत्पन्न  हुई मुद्रास्फीति को दबी मुद्रास्फीति कहते हैं

जब देश में क्षमता से अधिक पूंजी का विनियोग किया जाता है तो उत्पादन वस्तुओं और सेवाओं की मांग में तीव्र वृद्धि से उनके मूल्यों में वृद्धि हो जाती है और इससे उत्पन्न मुद्रास्फीति को अधिविनियोग मुद्रास्फीति कहा जाता है

 

मुद्रास्फीति का आर्थिक गतिविधि के स्तर पर प्रभाव :-

निश्चित आय वाले विनियोगिता जैसे ऋण दाता और प्रेफरेंस शेयर होल्डर्स को मुद्रा प्रसार से हानि होती है क्योंकि इससे उनकी आय में मूल्य की वृद्धि के अनुसार वृद्धि नहीं होती अर्थात उनकी वास्तविक आय कम हो जाती है और उनकी बाजार कीमत घट जाती है

परिवर्तनशील आय वाले विनियोगिता को मुद्रास्फीति से लाभ होता है

उत्पादन तथा उद्योगों को लोगों के पास क्रय शक्ति बढ़ाने से लाभ होता है

व्यापारी वर्ग को लाभ एवं व्यापार का विकास होता है

ऊंचे लाभ कमाने के लिए विदेशी भी निर्यात बढ़ाते हैं

कृषकों को इससे लाभ मिलता है तथा कृषि का विकास होता है क्योंकि कृषिगत कच्चे माल की मांग बढ़ जाती है

श्रमिकों की मांग एवं रोजगार में वृद्धि होती है और उनकी मजदूरी में भी वृद्धि होती है

यातायात एवं संचार व्यवस्था का विकास होता है क्योंकि इस क्षेत्र में पूंजी वियोग बढ़ता है

सभी वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाने से सामान्य जनता की उपभोग की सब वस्तुएं महंगी हो जाती हैं तथाउनकी मुद्रा की क्रिया शक्ति घट जाती है अतः स्थिर आय वाले उपभोक्ताओं का उपभोक्ता स्तर नीचे गिर जाता है

ऋणी को ऋण तथा ब्याज चुकाने या ऋण का भुगतान करने में सरलता होती है अतः उसे लाभ होता है तथा ऋणदाता को हानीउठानी पड़ती है

बैंकिंग व्यवस्था का विकास होता है क्योंकि मुद्रास्फीति से मिलने वाले लाभ से पूंजी विनियोग एवं व्यापार का विकास होता है

मुद्रास्फीति के समय सरकार पर भार बढ़ जाता है और अपने विभिन्न कार्यों पर ऊंचे मूल्य के कारण खर्च बढ़ जाता है कर्मचारियों को महंगाई भत्ता देना पड़ता है तथा उनके वेतन में वृद्धि करनी पड़ती है । उपभोक्ताओं में असंतोष से सरकार पर मुद्रास्फीति नियंत्रित करने का दबाव बढ़ने लगता है, जिससे सरकार को आर्थिक नियंत्रण लगाने हेतु राजकोषीय उपाय करने  पड़ते हैं 

आय में वृद्धि

आर्थिक विषमता में वृद्धि

आर्थिक संपन्नता एवं गतिशीलता

नकद बचतों को हतोत्साहन

वास्तविक संपत्ति में विनियोग बढ़ता है अर्थात लोग वस्तुओं को संग्रहित करते हैं मुद्रा को नहीं


मुद्रास्फीति के प्रभाव : -

अनैतिक कार्यों को बढ़ावा:- मुनाफाखोरी, मिलावट, चोर बाजारी में बेचने की प्रवृत्ति, रिश्वत एवं घूसखोरी को प्रोत्साहन, चौरी, धोखाधड़ी आदि


आर्थिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में मुद्रा प्रसार लाभदायक सिद्ध हो सकता है परंतु अंत में यह भयानक सिद्ध होता है


मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के उपाय :-

चलन मुद्रा में कमी :- नए नोट कम छापना, प्रचलित मुद्राबंद करना अर्थात विमुद्रीकरण(Demonetisation) आदि

साख नियंत्रण : - साख की मात्रा को कम करना मौद्रिक आय को कम करना तथा नए विनियोग को हतोत्साहित करना इसमें बैंक दर में वृद्धि, खुले बाजार में प्रतिभूतियों की बिक्री, न्यूनतम जमा कोष में वृद्धि, सिधी कार्यवाही, रिजर्व राशि में वृद्धि आदि शामिल है, जिसे केंद्रीय बैंक की साथ नियंत्रित नीति कहा जाता है लेकिन इसके अंतर्गत निम्न कठिनाइयां सामने आती हैं :-

  • इसके तहत पर्याप्त कठोरता संभव नहीं है
  • बैंक दर मुद्रा प्रसार के  समय असफल रहती है
  • केवल मौद्रिक नीति से ही मुद्रा प्रसार का नियंत्रण संभव नहीं होता है
  • अतः  इसके साथ अन्य उपचार भी साथ में करने पड़ते हैं

मूल्य नियंत्रण एवं राशनिंग :- इसके तहत् वस्तुओं के अधिकतम मूल्य(MRP) निर्धारित कर विक्रेता को बेचने को बाध्य कर सकती है आवश्यक वस्तुओं की बिक्री की समूची व्यवस्था सरकार अपने हाथ में(उचित मूल्य की दुकान) ले सकती है । 

 

बेरोजगारी को दूर तथा मुद्रा (नकद) मजदूरी में परिवर्तन की दर में सम्बन्ध:फिलिप्स वक्र (Relation between the Rate of Unemployment and Rate of Change in Money Wage Rates - PHILLIPS CURVE)

इंगलैण्ड के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री . डब्ल्यू. फिलिप्स (A. W. Phillips) ने नवम्बर 1958 में इकोनोमिका’ (Economica) पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख यूनाइटेड किंगडम में 1862-1956 की अवधि में मौद्रिक मजदूरी दरों में परिवर्तन की दर तथा बेरोजगारी में सम्बन्ध (The Relation between Unemployment and the Rate of Change in Money Wage Rates in the United Kingdom, 1862-1956) में यह तथ्य उजागर किया कि बेरोजगारी की दर और मुद्रा (नकद) मजदूरी दरों में बढ़ने की दर के बीच विपरीत सम्बन्ध होता है। 

फिलिप्स ने बेरोजगारी की दर तथा मुद्रा (नकद) मजदूरी दरों में परिवर्तन की दर के पारस्परिक सम्बन्ध का विश्लेषण ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के आंकड़ों पर आधारित करके उसने यह अनुभवजन्य निष्कर्ष निकाला कि जब बेरोजगारी की दर ऊँची हो है तो मुद्रा मजदूरी दरों में बढ़ने की दर नीची होती है और इसके विपरीत जब बेरोजगारी की दर नीची होती है तो मुद्रा मजदूरी दरों में वृद्धि की दर ऊंची होती है। इस प्रकार बेरोजगारी की दर तथा मुद्रा मजदूरी दरों में परिवर्तन की दर के बीच विपरीत (Negative) तथा गैर-रेखीय (Non-linear) सम्बन्ध है।


फिलिप्स ने अपने अध्ययन में पाया कि जब बेरोजगारी अधिक थी तो मुद्रा मजदूरी दरों में वृद्धि की दर कम थी, पर जब बेरोजगारी की दर कम थी तो मुद्रा मजदूरी दरों में वृद्धि की दर ऊंची रही

FF फिलिप्स वक्र ऋणात्मक ढालू है और मूल बिन्दु के उन्नतोदर (Convex to the point of origin) जो यह बताता है कि जब बेरोजगारी की दर में गिरावट होती है तो मुद्रा मजदूरी दरों में प्रतिशत परिवर्तन अधिक होता है।

इस प्रकार फिलिप्स वक्र (Phillips Curve) अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की दर तथा मुद्रा मजदूरी दरों में परिवर्तन की दर के बीच विपरीत सम्बन्ध को बताने वाला वक्र है।


बेरोजगारी तथा मजदूरी दरों में विपरीत सम्बन्ध के कारण(Causes of Inverse Relation in Unemployment and Wage Rates) :-

(1) श्रम संघों तथा प्रबन्ध की मोल-भाव की सापेक्षिक शक्ति (Relative Bargaining Strength of Trade Unions and Management) :- बेरोज़गारी दर क होने पर श्रमिक संघ प्रबंधकों से अपनी मजदूरी दर में वृद्धि कराने में सफल हो जाते हैं

(2) मजदूरों की मांग में सामान्य वृद्धि (Generalised Excess Demand of Labour):- फिलिप्स के अनुसारजब श्रम के लिये मांग अधिक होती है और बेरोजगार कम होते हैं तो हमें आशा करनी चाहिये कि मालिक बहुत जल्दी-जल्दी मजदूरी दरें बढ़ायेंगे।

(3) व्यापारिक गतिविधियों की प्रकृति (Nature of Business Activity):- जब अर्थव्यवस्था में व्यापारिक गतिविधियाँ तेज होती हैं तो बेरोजगारी कम होती है और मजदूरों की बढ़ती मांग के कारण मुद्रा मजदूरी दरों में वृद्धि की दर बढ़ जाती है; जबकि व्यापारिक गतिविधियाँ घट जाने पर श्रम की मांग में कमी के कारण मजदूरी दरों में वृद्धि का क्रम रुक जाता है।

(4) श्रम की मांग एवं पूर्ति में असन्तुलन (Imbalance between Supply and Demand of Labour):- जब श्रम बाजार में श्रम की मांग घट जाती है तो बेरोजगारी बढ़ने के कारण मुद्रा मजदूरी दरों में वृद्धि रुक जाती है, जबकि श्रम बाजार में श्रम की मांग बढ़ जाने पर जिन-जिन क्षेत्रों में श्रम का अभाव दृष्टिगोचर होगा, वहां उनकी मजदूरी दरों में वृद्धि की दर बढ़ जायेगी

 

सैम्यूलसन तथा सोलो द्वारा फिलिप्स वक्र विश्लेषण का विस्तार

प्रो. सैम्यूलसन एवं सोलो (Samuelson and Solow) ने अपने लेख ‘Analytical Aspects of Anti-inflation Policy’ में फिलिप्स वक्र के विश्लेषण को आगे बढ़ाया और यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि स्फीति को और बढाकर बेरोजगारी का स्तर घटाया जा सकता है और बेरोजगारी को और बढ़ाकर मुद्रा-स्फीति की दर घटाई जा सकती है।


सोलो का मत है कि फिलिप्स वक्र स्फीति की धनात्मक दरों पर अनुलम्ब (Vertical) होता है जबकि स्फीति की ऋणात्मक दरों पर क्षैतिज (Horizontal) होता है। 

इसी प्रकार टोबिन भी यह नहीं मानता कि फिलिप्स वक्र स्फीति की सब दरों पर अनुलम्ब होता है। 

अमेरिका के मिल्टन फ्रीडमेन तथा फेलप्स ने भी फिलिप्स वक्र विश्लेषण का अपने सिद्धान्त में उपयोग कर उसे आगे बढ़ाया है।

फिलिप्स वक्र की सहायता से मुद्रा स्फीति एवं बेरोजगारी के बीच चुनाव (Trade-off between Inflation and Unemployment with the help of Phillips Curve)


अर्थव्यवस्था में प्रायः नकद मजदूरी तथा मुद्रा स्फीति में परस्पर सीधा सम्बन्ध होता है अर्थात् मुद्रास्फीति में वृद्धि होने पर नकद मजदूरी में भी वृद्धि की प्रवृत्ति होती है जबकि मुद्रा स्फीति में कमी होने पर नकद मजदूरी में भी कमी की प्रवृत्ति होती है इसलिये फिलिप्स वक्र की सहायता से अल्पकाल में बेरोजगारी दरों तथा मुद्रा स्फीति दरों में परस्पर सम्बन्ध स्थापित करने से दोनों के बीच चुनाव की समस्या आती है

इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की दर को घटाने के लिये मुद्रा-स्फीति की ऊँची दर को स्वीकार करना होगा जबकि मुद्रा स्फीति की दर को घटाने या नीचा लाने के लिये बेरोजगारी की ऊँची दर बर्दाश्त करने को तत्पर रहना होगा अर्थात् एक समस्या का निराकरण करने के लिये दूसरी समस्या का सामना करने का चुनाव करना होगा।


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https://youtu.be/PwwCPqWfYyw?si=ztNeEDmQCPnI6XW4

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