💸 मुद्रा संकुचन या अवस्फीति(Deflation)
मुद्रा संकुचन बिल्कुल मुद्रा-स्फीति की एक विपरीत स्थिति है। मुद्रा संकुचन में मूल्य सामान्य स्तर से भी बहुत नीचे गिर जाते हैं।
प्रो. पीगू के अनुसार ''मुद्रा संकुचन मूल्यों के गिरने की वह स्थिति है जो उस समय उत्पन्न होती है जब किसी समाज की मौद्रिक आय की तुलना में वहाँ पर वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन अधिक तेजी से बढ़ता है जिससे मुद्रा की क्रय शक्ति बढ़ जाती है अथवा वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य कम हो जाते हैं।''
प्रो. कीन्स के शब्दों में ''मुद्रा संकुचन वह स्थिति है जिसके द्वारा देश में मुद्रा की मात्रा और उसकी माँग के बीच का अनुपात इतना कर दिया जाए कि उससे मुद्रा की विनिमय शक्ति बढ़ जाए तथा वस्तुओं के मूल्य गिर जाएँ।''
इन परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि मुद्रा संकुचन निम्न परिस्थितियों में दृष्टिगोचर होता है:-
(i) मौद्रिक आय घटती हो पर वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि हो।
(ii) मौद्रिक आय यथावत् रहे पर वस्तुओं का उत्पादन बढ़े ।
(iii) मौद्रिक आय तथा उत्पादन दोनों बढ़ें पर उत्पादन में वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक हो।
(iv) मौद्रिक आय तथा उत्पादन दोनों घटें पर मौद्रिक आय में कमी अधिक हो।
(v) उत्पादन यथावत् रहे पर मौद्रिक आय घटे।
(vi) जब वस्तुओं की पूर्ति माँग से अधिक हो।
यह ध्यान रखने योग्य है कि जब मुद्रा-स्फीति की चरम सीमा के बाद मूल्य-स्तर में कमी होती है तो सामान्य स्तर तक उसे मुद्रा संकुचन नहीं कहते, बल्कि मुद्रा-अपस्फीति (Disinflation) कहते हैं।
मुद्रा संकुचन या मुद्रा अवस्फीति (Deflation) के कारण:-
मुद्रा संकुचन देश में मौद्रिक आय में कमी तथा उत्पादन में वृद्धि के कारण से होता है और यह चलन-मुद्रा व साख की मात्रा में अत्यधिक कमी, प्रभावपूर्ण माँग में कमी तथा वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में वृद्धि से उत्पन्न होती है।
इसके प्रमुख कारण इस प्रकार है:-
1. मुद्रा तथा साख की मात्रा में कमी:- जब केन्द्रीय बैंक मुद्रा निर्गमन की मात्रा घटा देता है या बैंक दर बढ़ाकर, नकद कोषानुपात(CRR) में वृद्धि कर अथवा खुले बाजार की प्रवृत्तियों आदि से बैंकों की साख निर्माण करने की शक्ति को बहुत कम कर देता है तो इससे मौद्रिक आय में कमी हो जाती है अर्थात् मुद्रा एवं साख की मात्रा कम हो जाती है।
2. करारोपण व बलात् ऋण:- जब सरकार अत्यधिक कर लगाकर अथवा अनिवार्य ऋण लेकर लोगों की क्रय-शक्ति कम कर देती है तो उससे मुद्रा संकुचन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
3. उत्पादन या पूर्ति में वृद्धि:- अगर देश में कुल उत्पादन तथा पूर्ति मात्रा मांग की अपेक्षा बहुत बढ़ जाये तो अति उत्पादन मुद्रा संकुचन को जन्म देता है।
4. सरकारी व्यय में कमी:- जब सरकार अपने व्यय में अप्रत्याशित कमी कर देती है तो सरकार के बचत के बजट से मन्दी की स्थिति उत्पन्न होती है।
5. निजी विनियोग में गिरावट:- निजी विनियोग में गिरावट होने पर आय, उत्पादन तथा रोजगार का स्तर गिरने से मुद्रा संचयन होगा।
मुद्रा संकुचन के प्रभाव:-
मुद्रा संकुचन के प्रभाव मुद्रा प्रसार के प्रभावों से बिल्कुल विपरीत हैं, इसके अतिरिक्त मुद्रा-स्फीति के दुष्प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक घातक एवं भयंकर होते हैं। मुद्रा संकुचन के विभिन्न वर्गों को संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं:-
1. विनियोजकों पर प्रभाव:- पूँजी विनियोक्ताओं पर मुद्रा संकुचन का बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि नीचे मूल्यों के कारण लाभ-हानि में परिवर्तित हो जाता है। प्रतिभूतियों के मूल्य गिरते हैं तथा कभी-कभी तो दिवाला निकल जाता है।
2. उद्योगपति:- उद्योगों में माल की माँग के अभाव में स्टॉक जमा हो जाते हैं। नीचे मूल्यों से घाटा होता है। औद्योगिक संस्थाओं की आर्थिक स्थिति बिगड़ने से उद्योग बन्द हो जाते हैं, उत्पादन गिर जाता है और उद्योगों में मायूसी छा जाती है।
3. कृषक वर्ग:- कृषि उत्पादित वस्तुओं के मूल्य अपेक्षाकृत तेज गति से गिरते हैं अतः किसानों को भारी हानि उठानी पड़ती है।
4. व्यापारी वर्ग एवं व्यापार:- उत्पादन आधिक्य तथा माँग में कमी होने से व्यापार ठप्प हो जाता है, नीचे मूल्यों पर व्यापारी घाटा उठाते हैं।
5. श्रमिक तथा रोजगार:- उद्योग, व्यापार, कृषि आदि में भारी मंदी से रोजगार के अवसर समाप्त हो जाते हैं, श्रमिकों में बेरोजगारी बढ़ती है, उनकी मोल-भाव करने की शक्ति घट जाती है तथा मालिक शोषण करने लगते हैं।
6. उपभोक्ता एवं सामान्य जनता:- यद्यपि वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य कम हो जाने से उपभोक्ताओं को लाभ होता है पर यह विडम्बना मात्र है क्योंकि आय के अभाव में उपभोग कैसा?
यहाँ समृद्धि के बीच गरीबी (Poverty in Midst of Plenty) का बोलबाला होता है। मूल्यों के गिरने के बावजूद उपभोग नहीं हो पाता।
7. बैंकिंग व्यवस्था:- बैंकिंग व्यवस्था फैल हो जाती है क्योंकि न तो जमा प्राप्त होते हैं और न ही दिये गये ऋणों की वसूली। अतः मुद्रा संकुचन बैंकिंग व्यवस्था के दुर्भाग्य का कारण बनता है।
8. सरकार:- सरकार की आय में कमी हो जाती है। सरकारी समस्यायें बढ़ जाती है क्योंकि अर्थव्यवस्था में बेकारी, भुखमरी की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
9. उत्पादन, आर्थिक विकास, रोजगार, वितरण तथा आय पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
मुद्रा संकुचन के नियन्त्रण के उपाय:-
मुद्रा संकुचन पर नियंत्रण करना अपेक्षाकृत अधिक कठिन होता है क्योंकि मन्दी के समय एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक भय रहता है। इसके कुचक्र से निकलने में अधिक समय और अधिक प्रभावी कदम उठाने पड़ते हैं और सरकार को पहल करनी पड़ती है।
(A) मौद्रिक उपाय:-
1. मुद्रा की मात्रा में वृद्धि:- केन्द्रीय बैंक अधिक मात्रा में मुद्रा निर्गमन या नोटों का निर्गमन कर मुद्रा की मात्रा में वृद्धि कर सकता है। इससे मुद्रा की पूर्ति बढ़ने से मूल्य-स्तर बढ़ेगा।
2. साख विस्तार और वृद्धि:- केन्द्रीय बैंक, बैंक दर घटाकर, प्रतिभूतियाँ खरीद कर, नकद कोषों में कमी कर या न्यूनतम जमा राशि घटाकर व्यापारिक बैंकों को अधिक साख निर्माण का प्रोत्साहन दे सकता है। नये-नये क्षेत्रों में बैंकिंग साख उपलब्ध करवाकर विनियोगों को बढ़ावा दिया जा सकता है।
(B) राजकोषीय नीति:-
1. करों में छूट:- सरकार अनेक प्रकार के करों में छूट देकर या करों को कम करके उपभोक्ताओं के पास अधिक क्रय-शक्ति छोड़ सकती है जिससे प्रभावपूर्ण माँग में एवं मूल्यों में वृद्धि होगी।
2. सार्वजनिक कार्यों पर व्यय में वृद्धि:- सरकार द्वारा सड़क, रेल, नहर आदि निर्माण कार्यों पर व्यय से लोगों को रोजगार व उनके पास क्रय-शक्ति का निर्माण होगा, उनका उपभोग बढ़ेगा और मन्दी पर नियन्त्रण सम्भव होगा।
3. ऋणों की वापसी:- सरकार पुराने ऋणों का भुगतान करे तथा नये ऋण न ले तो लोगों के पास अधिक क्रय-शक्ति बची रहने से उनके उपभोग व विनियोग की माँग बढ़ेगी और कीमतों में वृद्धि सम्भव होगी।
4. आर्थिक सहायता:- सरकार लोगों को आर्थिक अनुदान व सहायता देकर उनकी क्रय-शक्ति में वृद्धि से प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि कर सकती है जिससे मूल्यों में वृद्धि हो।
5. मुद्रा का अवमूल्यन:- मुद्रा का अवमूल्यन करने से निर्यात बढ़ेंगे और आयात घटेंगे। इससे वस्तुओं की पूर्ति कम होगी और मूल्यों में सुधार होगा।
6. खरिद प्रोत्साहन:- सरकार उद्योगों को आर्थिक मन्दी के दौर से निकलने के लिए सरकारी खरीद प्रारम्भ कर सकती है और संग्रह को बढ़ावा दिया जा सकता है।
(C) भौतिक या गैर-मौद्रिक उपाय:-
(1) अतिरिक्त उत्पादन का विनाश:- उत्पादन में कमी करने का यह सबसे सुविधाजनक तरीका है, जैसे अमेरिका में कृषि उपज मूल्य स्थिरीकरण के लिए फसलों को नष्ट कर दिया जाता है।
(2) निर्यातों को प्रोत्साहन तथा आयातों पर प्रतिबन्ध:- इससे वस्तुओं की उपलब्ध पूर्ति में कमी कर मूल्यों में वृद्धि की जा सकती है।
(3) विदेशी पूँजी को प्रोत्साहन:- इससे प्रारम्भिक अवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की माँग बढ़ जाती है और मूल्यों में वृद्धि हो सकती है।
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