संविधान की प्रमुख विशेषताएं(Salient Features of then Costitution)
भारतीय संविधान तत्वों और मूल भावना की दृष्टि से अद्वितीय है। हालांकि इसके कई तत्व विश्व के विभिन्न संविधानों से उधार लिये गये हैं, भारतीय संविधान के कई ऐसे तत्व हैं जो उसे अन्य देशों के संविधानों से अलग पहचान प्रदान करते हैं।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि सन 1949 में अपनाए गए संविधान के अनेक वास्तविक लक्षणों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।
विशेष रूप से 7वें, 42वें, 44वें, 73वें, 74वें, 97वें और 101वें संशोधन में।
संविधान में कई बड़े परिवर्तन करने वाले 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 को 'मिनी कॉन्स्टिट्यूशन' कहा जाता है।
हालांकि केशवानंद भारती मामले (1973)' में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि अनुच्छेद 368 के तहत् संसद को मिली संवैधानिक शक्ति संविधान के 'मूल ढांचे' को बदलने की अनुमति नहीं देती।
संविधान की विशेषताएं:–
संविधान के वर्तमान रूप में इसकी विशेषताएं निम्नलिखित हैं:-
1. सबसे लंबा लिखित संविधान:–
संविधान को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है लिखित (जैसे-अमेरिकी संविधान) और अलिखित (जैसे-ब्रिटेन का संविधान)संविधान।
भारत का संविधान विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान है। यह बहुत बृहद समग्र और विस्तृत दस्तावेज़ है।
मूल रूप से (26 नवम्बर1949) संविधान में एक प्रस्तावना, 395 अनुच्छेद (22 भागों में विभक्त) और 8 अनुसूचियां थीं।
वर्तमान में, इसमें एक प्रस्तावना, 470 अनुच्छेद (25 भागों में विभक्त) और 12 अनुसूचियां हैं।
सन् 1951 से हुए विभिन्न संशोधनों ने करीब 20 अनुच्छेद व एक भाग (भाग-VII) को हटा दिया और इसमें करीब 95 अनुच्छेद, चार भागों (4क, 9क, 9ख और 14क) और चार अनुसूचियों (9. 10, 11, 12) को जोड़ा गया।
विश्व के किसी अन्य संविधान में इतने अनुच्छेद और अनुसूचियां नहीं हैं।
Note:– अमेरिकी संविधान में मूलतः केवल 7 अनुच्छेद हैं। ऑस्ट्रेलियाई संविधान में 128, चीनी संविधान में 138 और कनाडाई संविधान में 147 अनुच्छेद हैं।
भारत के संविधान को विस्तृत बनाने के पीछे निम्न चार कारण हैं:–
(अ) भौगोलिक कारण, भारत का विस्तार और विविधता।
(ब) ऐतिहासिक, इसके उदाहरण के रूप में भारत शासन अधिनियम, 1935 के प्रभाव को देखा जा सकता है। यह अधिनियम बहुत विस्तृत था।
(स) जम्मू-कश्मीर को छोड़कर केंद्र और राज्यों के लिए एकल संविधान।
(द) संविधान सभा में कानून विशेषज्ञों का प्रभुत्व।
संविधान में न सिर्फ शासन के मौलिक सिद्धांत बल्कि विस्तृत रूप में प्रशासनिक प्रावधान भी विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त अन्य आधुनिक लोकतंत्रों में जिन मामलों को आम विधानों अथवा स्थापित राजनैतिक परिपाटी पर छोड़ दिया गया है, उन्हें भी भारत के संवैधानिक दस्तावेज में शामिल किया गया है।
2019 तक, जम्मू एवं कश्मीर के तत्कालीन राज्य का अपना संविधान था और इसलिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत उसे विशेष दर्जा प्राप्त था। 2019 में राष्ट्रपति के एक आदेश - 'संविधान (जम्मू एवं कश्मीर पर लागू) आदेश, 2019' द्वारा यह विशेष दर्जा समाप्त कर दिया गया। इस आदेश ने पूर्व के 'संविधान (जम्मू एवं कश्मीर पर लागू) आदेश 1954' को अधिक्रमित कर दिया। 2019 के आदेश ने भारत के संविधान के समस्त प्रावधानों को जम्मू एवं कश्मीर राज्य तक विस्तारित कर दिया।
इसके अतिरिक्त, जम्मू एवं कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 ने जम्मू एवं कश्मीर राज्य को दो अलग-अलग संघीय क्षेत्रों में विभाजित कर दिया है- जम्मू एवं कश्मीर और लद्दाख।
2. विभिन्न स्रोतों से विहित:–
भारत के संविधान ने अपने अधिकतर उपबंध विश्व के कई देशों के संविधानों और भारत शासन अधिनियम, 1935' के उपबंधों से लिए हैं। डॉ. अंबेडकर ने गर्व के साथ घोषणा की थी कि, "भारत के संविधान का निर्माण विश्व के विभिन्न संविधानों को छानने के बाद किया गया है।"
संविधान का अधिकांश ढांचागत हिस्सा भारत शासन अधिनियम, 1935 से लिया गया है। संविधान का दार्शनिक भाग (मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत) क्रमशः अमेरिका और आयरलैंड से प्रेरित है। भारतीय संविधान के राजनीतिक भाग (कैबिनेट सरकार का सिद्धांत और कार्यपालिका और विधायिका के संबंध) का अधिकांश हिस्सा ब्रिटेन के संविधान से लिया गया है।
संविधान के अन्य प्रावधान कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, यूएसएसआर (अब रूस), फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका, जापान इत्यादि देशों के संविधानों से लिए गए हैं।
भारत के संविधान पर सबसे बड़ा प्रभाव और भौतिक सामग्री का स्त्रोत भारत सरकार अधिनियम, 1935 रहा है। संघीय व्यवस्था, न्यायपालिका, राज्यपाल, आपातकालीन अधिकार, लोक सेवा आयोग और अधिकतर प्रशासनिक विवरण इसी से लिए गए हैं। संविधान के आधे से अधिक प्रावधान या तो 1935 के अधिनियम के समान हैं या फिर इससे मिलते-जुलते हैं।
1935 के अधिनियम में से करीब 250 उपबंधों को संविधान में शामिल किया गया है।
संविधान के लक्षण (प्रावधान) जिन्हें विभिन्न स्रोतों से उधार लिया गया है:–
3. नम्यता एवं अनम्यता का समन्वय:–
संविधानों को नम्यता और अनम्यता की दृष्टि से भी वर्गीकृत किया जाता है।
कठोर या अनम्य संविधान उसे माना जाता है, जिसमें संशोधन करने के लिए विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता हो। उदाहरण के लिए अमेरिकी संविधान।
लचीला या नम्य संविधान वह कहलाता है, जिसमें संशोधन की प्रक्रिया वही हो, जैसी किसी आम कानूनों के निर्माण की, जैसे-ब्रिटेन का संविधान।
भारत का संविधान न तो लचीला है और न ही कठोर, बल्कि यह दोनों का मिला-जुला रूप है।
अनुच्छेद 368 में दो तरह के संशोधनों का प्रावधान है:
(अ) कुछ उपबंधों को संसद में विशेष बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, दोनों सदनों में उपस्थित और मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत और प्रत्येक सदन में कुल सदस्यों का बहुमत।
(ब) कुछ अन्य प्रावधानों को संसद के विशेष बहुमत और कुल राज्यों के आधे से अधिक राज्यों के अनुमोदन से ही संशोधित किया जा सकता है।
इसके अलावा संविधान के कुछ प्रावधान आम विधायी प्रक्रिया की तरह संसद में सामान्य बहुमत के माध्यम से संशोधित किए जा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि ये संशोधन अनुच्छेद 368 के अंतर्गत नहीं आते।
4. एकात्मकता की ओर झुकाव के साथ संघीय व्यवस्था:–
भारत का संविधान संघीय सरकार की स्थापना करता है। इसमें संघ के सभी आम लक्षण विद्यमान हैं, जैसे-दो सरकार, शक्तियों का विभाजन, लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता, संविधान की कठोरता, स्वतंत्र न्यायपालिका एवं द्विसदनीयता आदि।
यद्यपि भारतीय संविधान में बड़ी संख्या में एकात्मकता और गैर-संघीय लक्षण भी विद्यमान हैं, जैसे-एक सशक्त केंद्र, एक संविधान, एकल नागरिकता, संविधान का लचीलापन, एकीकृत न्यायपालिका, केंद्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति, अखिल भारतीय सेवाएं, आपातकालीन प्रावधान इत्यादि।
फिर भी, संविधान में कहीं भी 'संघीय' शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। दूसरी ओर अनुच्छेद(1) में भारत का उल्लेख 'राज्यों के संघ' के रूप में किया गया है। इसके दो अभिप्राय हैं:-
- पहला, भारतीय संघ राज्यों के बीच हुए किसी समझौते का निष्कर्ष नहीं है, और
- दूसरा, किसी भी राज्य को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है।
इसी वजह से भारतीय संविधान को निम्नांकित नाम दिए गए हैं, जैसे कि एकात्मकता की भावना में संघ, अर्द्ध संघ(के.सी. वेरे), बारगेनिंग फेडरेलिज्म (मॉरिज जोंस), को-ऑपरेटिव फेडरेलिज्म' (ग्रेनविल ऑस्टिन), फेडरेशन विद ए सेंट्रलाइजिंग टेंडेंसी' (आइवर जेनिंग्स व अन्य)।
5 सरकार का संसदीय रूप:–
भारतीय संविधान ने अमेरिका की अध्यक्षीय प्रणाली की बजाए ब्रिटेन के संसदीय तंत्र को अपनाया है।
संसदीय व्यवस्था विधायिका और कार्यपालिका के मध्य समन्वय व सहयोग के सिद्धांत पर आधारित है, जबकि अध्यक्षीय प्रणाली दोनों के बीच शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत पर आधारित है।
संसदीय प्रणाली को सरकार के 'वेस्टमिंस्टर" रूप, उत्तरदायी सरकार और मंत्रिमंडलीय सरकार के नाम से भी जाना जाता है। संविधान केवल केंद्र में ही नहीं, बल्कि राज्य में भी संसदीय प्रणाली की स्थापना करता है।
Note:– वेस्टमिंस्टर लंदन में एक स्थान है, जहां ब्रिटिश संसद है। अक्सर इसका ब्रिटिश संसद के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
भारत में संसदीय प्रणाली की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:–
1. वास्तविक व नाममात्र के कार्यपालकों की उपस्थिति
2. बहुमत वाले दल की सत्ता
3. विधायिका के समक्ष कार्यपालिका की संयुक्त जवाबदेही
4. विधायिका में मंत्रियों की सदस्यता
5. प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का नेतृत्व
6. निचले सदन का विघटन (लोकसभा अथवा विधानसभा)
हालांकि भारतीय संसदीय प्रणाली बड़े पैमाने पर ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है फिर भी दोनों में कुछ मूलभूत अंतर हैं। उदाहरण के लिए ब्रिटिश संसद की तरह भारतीय संसद संप्रभु नहीं है। इसके अलावा भारत का प्रधान निर्वाचित व्यक्ति होता है (गणतंत्र), जबकि ब्रिटेन में उत्तराधिकारी व्यवस्था है।
किसी भी संसदीय व्यवस्था में, चाहे वह भारत की हो अथवा ब्रिटेन की, प्रधानमंत्री की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गई है। जैसा कि राजनीति के जानकार इसे 'प्रधानमंत्रीय सरकार' का नाम देते हैं।
6.संसदीय संप्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय:–
संसद की संप्रभुता का नियम ब्रिटिश संसद से जुड़ा हुआ है, जबकि न्यायपालिका की सर्वोच्चता का सिद्धांत, अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से लिया गया है।
जिस प्रकार भारतीय संसदीय प्रणाली, ब्रिटिश प्रणाली से भिन्न है, ठीक उसी प्रकार भारत में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय से कम है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अमेरिकी संविधान में 'विधि की नियत प्रक्रिया' का प्रावधान है, जबकि भारतीय संविधान में 'विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया' (अनुच्छेद 21) का प्रावधान है। इसलिए भारतीय संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन की संसदीय संप्रभुता और अमेरिका की न्यायपालिका सर्वोच्चता के बीच उचित संतुलन बनाने को प्राथमिकता दी।
एक ओर जहां सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक समीक्षा की शक्तियों के तहत संसदीय कानूनों को असंवैधानिक घोषित कर सकता है, वहीं दूसरी ओर संसद अपनी संवैधानिक शक्तियों के बल पर संविधान के बड़े भाग को संशोधित कर सकती है।
7. एकीकृत व स्वतंत्र न्यायपालिका (अनु 50):–
भारतीय संविधान एक ऐसी न्यायपालिका की स्थापना करता है, जो अपने आप में एकीकृत होने के साथ-साथ स्वतंत्र है।
भारत की न्याय व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है। इसके नीचे राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय हैं। राज्यों में उच्च न्यायालय के नीचे क्रमवार अधीनस्थ न्यायालय हैं, जैसे- जिला अदालत व अन्य निचली अदालतें।
न्यायालयों का एकल तंत्र, केंद्रीय कानूनों के साथ-साथ राज्य कानूनों को लागू करता है। हालाकि अमेरिका में संघीय कानूनों को संघीय न्यायपालिका और राज्य कानूनों को राज्य न्यायपालिका लागू करती है।
सर्वोच्च न्यायालय, संघीय अदालत है। यह शीर्ष न्यायालय है, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी देता है और संविधान का संरक्षक है।
इसलिए संविधान में इसकी स्वतंत्रता के लिए कई प्रावधान किए गए हैं, जैसे- न्यायाधीशों के कार्यकाल की सुरक्षा, न्यायाधीशों के लिए निर्धारित सेवा शर्तें, भारत की संचित निधि से सर्वोच्च न्यायालय के सभी खर्चों का वहन, विधायिका में न्यायाधीशों के कामकाज पर चर्चा पर रोक, सेवानिवृत्ति के बाद अदालत में कामकाज पर रोक, अवमानना के लिए दंड देने की शक्ति, कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग रखना इत्यादि।
8. मौलिक अधिकार[भाग–3, अनुच्छेद 12 से 35]:–
संविधान के तीसरे भाग में छह मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। ये अधिकार हैं:–
1. समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)।
2. स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)1
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)।
5. सांस्कृतिक व शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 29-30)।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)।
मूलतः संविधान में 7 मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई थी तथापि संपत्ति के अधिकार (अनुच्छेद 31) को 44वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 के जरिए मौलिक अधिकारों से हटा दिया गया। इसको संविधान के भाग XII में अनुच्छेद 300-क के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया।
मौलिक अधिकार का उद्देश्य वस्तुतः राजनीतिक लोकतंत्र की भावना को प्रोत्साहन देना है। यह कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों पर निरोधक की तरह काम करते हैं। उल्लंघन की स्थिति में इन्हें न्यायालय के माध्यम से लागू किया जा सकता है। जिस व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, वह सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है, जो अधिकारों की रक्षा के लिए बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा व उत्प्रेषण जैसे अभिलेख या रिट जारी कर सकता है।
हालांकि मौलिक अधिकार कुछ सीमाओं के दायरे में आते हैं लेकिन ये अपरिवर्तनीय भी नहीं हैं। संसद इन्हें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से समाप्त कर सकती है अथवा इनमें कटौती भी कर सकती है। अनुच्छेद 20-21 द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छोड़कर राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान इन्हें स्थगित किया जा सकता है।
9. राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत[भाग 4, अनुच्छेद 36 से 51]:–
डॉ. बी. आर. अंबेडकर के अनुसार, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत भारतीय संविधान की अनूठी विशेषता हैं। इनका उल्लेख संविधान के चौथे भाग में किया गया है। इन्हें मोटेतौर पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-:सामाजिक, गांधीवादी तथा उदार-बौद्धिक।
नीति निदेशक तत्वों का कार्य सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को बढ़ावा देना है। इनका उद्देश्य भारत में एक 'कल्याणकारी राज्य' की स्थापना करना है। हालांकि मौलिक अधिकारों की तरह इन्हें कानून रूप में लागू नहीं किया जा सकता। संविधान में कहा गया है कि देश की शासन व्यवस्था में ये सिद्धांत मौलिक हैं और यह देश की जिम्मेदारी है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को अपनाए। इसलिए इन्हें लागू करना राज्यों का नैतिक कर्तव्य है किंतु इनकी पृष्ठभूमि में वास्तविक शक्ति राजनैतिक है, अर्थात् जनमत। मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि "भारतीय संविधान की नींव मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक सिद्धांतों के संतुलन पर रखी गई है।"
10. मौलिक कर्तव्य:–
मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं किया गया है। इन्हें स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 1976 के 42 वें संविधान संशोधन के माध्यम से आंतरिक आपातकाल (1975-77) के दौरान शामिल किया गया था। 2002 के 86 वें संविधान संशोधन ने एक और 11 वॉं मौलिक कर्तव्य को जोड़ा।
संविधान के 4 ए भाग में मौलिक कर्तव्यों का जिक्र किया गया है (जिसमें केवल एक अनुच्छेद 51-क है)। इसके तहत प्रत्येक भारतीय का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे, राष्ट्र की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें; हमारी मिश्रित संस्कृति की समृद्ध धरोहर का अनुरक्षण करें; सभी लोगों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास करें, इत्यादि।
मौलिक कर्तव्य नागरिकों को यह याद दिलाते हैं कि अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते समय उन्हें याद रखना चाहिए कि उन्हें अपने समाज, देश व अन्य नागरिकों के प्रति कुछ जिम्मेदारियों का निर्वाह भी करना है। नीति निदेशक तत्वों की तरह कर्तव्यों को भी कानून रूप में लागू नहीं किया जा सकता।
11. एक धर्मनिरपेक्ष राज्य:–
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष है। इसलिए यह किसी धर्म विशेष को भारत के धर्म के तौर पर मान्यता नहीं देता। संविधान के निम्नलिखित प्रावधान भारत के धर्मनिरपेक्ष लक्षणों को दर्शाते हैं:–
1. वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को जोड़ा गया।
2. प्रस्तावना हर भारतीय नागरिक की आस्था, पूजा-अर्चना व विश्वास की स्वतन्त्रता की रक्षा करती है।
3. किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समान समझा जाएगा और उसे कानून की समान सुरक्षा प्रदान की जाएगी (अनुच्छेद-14)।
4. धर्म के नाम पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा (अनुच्छेद-15)।
5. सार्वजनिक सेवाओं में सभी नागरिकों को समान अवसर दिए जाएंगे (अनुच्छेद-16)।
6. हर व्यक्ति को किसी भी धर्म को अपनाने व उसके अनुसार पूजा-अर्चना करने का समान अधिकार है (अनुच्छेद 25)।
7. हर धार्मिक समूह अथवा इसके किसी हिस्से को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार है (अनुच्छेद 26)।
8. किसी भी व्यक्ति को किसी भी धर्म विशेष के प्रचार के लिए किसी प्रकार का कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा (अनुच्छेद-27)।
9. किसी भी सरकारी शैक्षिक संस्थान में किसी प्रकार के धार्मिक निर्देश नहीं दिए जाएंगे (अनुच्छेद-28)।
10. नागरिकों के किसी भी वर्ग को अपनी भाषा, लिपि अथवा संस्कृति को संरक्षित रखने का अधिकार है (अनुच्छेद-29)।
11. अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना करने और उन्हें संचालित करने का अधिकार है (अनुच्छेद-30)।
12. राज्य सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने के लिए प्रयास करेगा (अनुच्छेद-44)।
धर्मनिरपेक्षता की पश्चिमी अवधारणा धर्म (चर्च) और राज्य (राजनीति) के बीच पूर्ण अलगाव रखती है। धर्मनिरपेक्षता की यह नकारात्मक अवधारणा भारतीय परिवेश में लागू नहीं हो सकती क्योंकि यहां का समाज बहुधर्मवादी है।
इसलिए भारतीय संविधान में सभी धर्मों को समान आदर अथवा सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करते हुए धर्मनिरपेक्षता के सकारात्मक पहलू को शामिल किया गया है। इसके अलावा, संविधान ने विधायिका में धर्म के आधार पर कुर्सी का आरक्षण देने वाले पुराने धर्म आधारित प्रतिनिधित्व को भी समाप्त कर दिया है। 1909, 1919 और 1935 अधिनियमों ने सामुदायिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की।
हालाकि संविधान अनुसूचित जाति और जनजाति को उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए अस्थायी आरक्षण प्रदान करता है।
12. सार्वभौम वयस्क मताधिकार:–
भारतीय संविधान द्वारा राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव के आधार स्वरूप सार्वभौम वयस्क मताधिकार को अपनाया गया है। हर वह व्यक्ति जिसकी उम्र कम-से-कम 18 वर्ष है, उसे धर्म, जाति, लिंग, साक्षरता अथवा संपदा इत्यादि के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना मतदान करने का अधिकार है। वर्ष 1989 में 61वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1988 के द्वारा मतदान करने की उम्र को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया था।
देश के वृहद आकार, जनसंख्या, उच्च गरीबी, सामाजिक असमानता, अशिक्षा आदि को देखते हुए संविधान निर्माताओं द्वारा सार्वभौम वयस्क मताधिकार को संविधान में शामिल करना एक साहसिक व सराहनीय प्रयोग था।
यहां तक कि पश्चिमी देशों में मताधिकार को धीरे-धीरे विस्तार रूप दिया जाता है। उदाहरण के लिए अमेरिका ने महिलाओं को प्रतिनिधित्व 1920 में दिया, ब्रिटेन ने 1928 में, सोवियत संघ (अब रूस) ने 1936 में, फ्रांस ने 1945 में, इटली ने 1948 और स्विट्जरलैंड ने 1971 में।
वयस्क मताधिकार लोकतंत्र को बड़ा आधार देने के साथ-साथ आम जनता के स्वाभिमान में वृद्धि करता है, समानता के सिद्धांत को लागू करता है, अल्पसंख्यकों को अपने हितों की रक्षा करने का अवसर देता है तथा कमजोर वर्गों के लिए नई आशाएं और प्रत्याशा जगाता है।
13. एकल नागरिकता:–
यद्यपि भारतीय संविधान फेडरल है और दो लक्षणों (एकल व संघीय) का प्रतिनिधित्व करता है मगर इसमें केवल एकल नागरिकता का प्रावधान है अर्थात् भारतीय नागरिकता।
दूसरी ओर, अमेरिका जैसे देशों में प्रत्येक व्यक्ति के पास न केवल देश की नागरिकता होती है बल्कि वह जिस राज्य में रहता है उसकी भी नागरिकता होती है। इसलिए वह अधिकारों के दो समूहों का लाभ उठाता है- पहला, राष्ट्रीय सरकार द्वारा प्रदत्त, तथा; दूसरा, राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त।
भारत में, सभी नागरिकों को चाहे वो किसी भी राज्य में पैदा हुए हो या रहते हों, संपूर्ण देश में नागरिकता के समान राजनीतिक और नागरिक अधिकार प्राप्त होते हैं और उनमें कोई भेदभाव नहीं किया जाता।
सभी नागरिकों के लिए एकल नागरिकता और समान अधिकारों के संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद भारत में सांप्रदायिक दंगे, वर्ग संघर्ष, जातिगत युद्ध, भाषायी विवाद और नृजातीय विवाद होते रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि, संविधान के निर्माताओं ने एकीकृत और संगठित भारत राष्ट्र के निर्माण का जो सपना देखा था, वह पूरी तरह पूरा नहीं हो पाया है।
14. स्वतंत्र निकाय:–
भारतीय संविधान न केवल विधायिका, कार्यपालिका व सरकार (केंद्र और राज्य) तथा न्यायिक अंग ही उपलब्ध कराता है बल्कि यह कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना भी करता है। इन्हें संविधान ने भारत सरकार के लोकतांत्रिक तंत्र के महत्त्वपूर्ण स्तंभों के रूप में परिकल्पित किया है। ऐसे कुछ स्वतंत्र निकाय निम्नलिखित हैं:–
(अ)निर्वाचन आयोग:–
संसद तथा राज्य विधानसभाओं, भारत के राष्ट्रपति और भारत के उप-राष्ट्रपति के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने हेतु निर्वाचन आयोग।
(ब)महालेखाकार:–
राज्य और केंद्र सरकार के खातों के अंकेक्षण के लिए भारत का नियंत्रक एवं महालेखाकार। ये जनता के पैसे के संरक्षक होते हैं और सरकार द्वारा किए गए खचों की वैधानिकता और उनके उचित होने पर टिप्पणी करते हैं।
(स) संघ लोक सेवा आयोग:–
अखिल भारतीय सेवाओं व उच्च स्तरीय केंद्रीय सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करता है तथा अनुशासनात्मक मामलों पर राष्ट्रपति को सलाह देता है।
इस समय तीन अखिल भारतीय सेवाएं हैं- भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा (आईएफएस)। 1947 में भारतीय नागरिक प्रशासन सेवा (आईसीएस) को आईएएस में परिवर्तित कर दिया गया और भारतीय पुलिस (आईपी) को आईपीएस में। इन्हें संविधान में अखिल भारतीय सेवा के रूप में मान्यता दी गई। 1963 में आईएफओएस बनाया गया, जो 1966 से अस्तित्व में आया।
(द) राज्य लोक सेवा आयोग:–
जिसका काम हर राज्य में राज्य सेवाओं के लिए भर्ती हेतु परीक्षाओं का आयोजन करना व अनुशासनात्मक मामलों पर राज्यपाल को सलाह देना है।
विभिन्न प्रावधानों, यथा-कार्यकाल की सुरक्षा, निर्धारित सेवा शर्ते, भारत की संचित निधि पर भारित विभिन्न व्यय आदि के माध्यम से संविधान इन निकायों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।
15. आपातकालीन प्रावधान[भाग 18 , अनुच्छेद 352 से 360]:–
आपातकाल की स्थिति से प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए भारतीय संविधान में राष्ट्रपति के लिए बृहद आपातकालीन प्रावधानों की व्यवस्था है। इन प्रावधानों को संविधान में शामिल करने का उद्देश्य है- देश की संप्रभुता, एकता, अखण्डता और सुरक्षा, संविधान एवं देश के लोकतांत्रिक ढांचे को सुरक्षा प्रदान करना।
संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल की विवेचना की गई है:–
1. राष्ट्रीय आपातकाल:– युद्ध, आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह से पैदा हुई राष्ट्रीय अशांति की अवस्था (अनुच्छेद-352)।
44वें संशोधन अधिनियम (1978) ने मूल उक्ति आंतरिक उपद्रव को 'सशस्त्र विद्रोह' कहा गया।
2. राज्य में आपातकाल (राष्ट्रपति शासन):– राज्यों में संवैधानिक तंत्र की असफलता (अनुच्छेद 356) या केंद्र के निदेशों का अनुपालन करने में असफलता (अनुच्छेद-365)।
3. वित्तीय आपातकाल भारत की वित्तीय स्थिरता या प्रत्यय संकट में हो (अनुच्छेद-360)।
आपातकाल के दौरान देश की पूरी सत्ता केंद्र सरकार के हाथों में आ जाती है और राज्य केंद्र के नियंत्रण में चले जाते हैं। इससे संविधान में संशोधन किए बगैर देश का ढांचा संघीय से एकात्मक हो जाता है। राजनीतिक तंत्र का संघीय (सामान्य परिस्थितियों के दौरान) से एकात्मक (आपातकाल के दौरान) में परिवर्तित होना भारतीय संविधान की एक अद्वितीय विशेषता है।
16. त्रिस्तरीय सरकार:–
मूल रूप से अन्य संघीय संविधानों की तरह भारतीय संविधान में दो स्तरीय राजव्यवस्था (केंद्र व राज्य) और संगठन के संबंध में प्रावधान तथा केंद्र एवं राज्यों की शक्तियां अंतर्विष्ट थीं। बाद में वर्ष 1992 में 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन ने तीन स्तरीय (स्थानीय) सरकार का प्रावधान किया गया, जो विश्व के किसी और संविधान में नहीं है।
संविधान में एक नए भाग (9वें) एवं नई अनुसूची (11वीं) जोड़कर वर्ष 1992 के 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायतों को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई। इसमें एक नया भाग 9 जोड़ा गया। यह भाग प्रत्येक राज्य में पंचायती राज की त्रिस्तरीय प्रणाली प्रदान करता है, अर्थात् ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर पंचायतें।
इसी प्रकार से 74वें संविधान संशोधन विधेयक, 1992 ने एक नए भाग 9ए तथा नई अनुसूची 12 वीं को जोड़कर नगरपालिकाओं (शहरी स्थानीय सरकारें) को संवैधानिक मान्यता प्रदान की। यह भाग प्रत्येक राज्य में तीन प्रकार की नगर पालिकाओं का प्रावधान करता है, अर्थात् एक संक्रमणकालीन क्षेत्र के लिए नगर पंचायत, एक छोटे शहरी क्षेत्र के लिए नगरपालिका परिषद् और एक बड़े शहरी क्षेत्र के लिए नगर निगम।
17. सहकारी समितियां:–
97 वां संविधान संशोधन अधिनियम 2011 ने सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा और संरक्षण प्रदान किया। इस संदर्भ में इसने निम्न तीन परिवर्तन इसने संविधान में किए:–
1. इसने सहकारी समिति गठित करने के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया (अनुच्छेद-19)।
2. इसने एक नया राज्य का नीति निदेशक तत्व जोड़ा सहकारी समितियों के प्रोत्साहन देने के लिए (अनुच्छेद 43–ठ)
3. इसने संविधान में एक नया भाग IX-B जोड़ा- "सहकारी समितियां" (The Co-operative Societies) शीर्षक से (अनुच्छेद 243 ZH से लेकर 243-ZT तक)।
नया भाग IX B के अंतर्गत अनेक ऐसे प्रावधानों के द्वारा सुनिश्चित किया गया है कि देशभर में सहकारी समितियां लोकतांत्रिक. व्यावसायिक, स्वायत्त ढंग से तथा आर्थिक मजबूती के साथ कार्य करें। यह संसद को अंतर राज्य सहकारी समितियों तथा राज्य विधायिकाओं को अन्य सहकारी समितियों के लिए उपयुक्त कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
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