सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

अरस्तू का नागरिकता का सिद्धान्त (Theory of Citizenship)

👨‍🎤 अरस्तू का नागरिकता का सिद्धान्त (Theory of Citizenship)


अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचार उसके ग्रन्थ 'पॉलिटिक्स' (Politics) की तीसरी पुस्तक में वर्णित हैं। उसके अनुसार राज्य (Polis) नागरिकों (Polita) का एक समुदाय (Kainonia) है। वह कहता है कि राज्य स्वतन्त्र मनुष्यों का एक समुदाय है। अतएव राज्य को समझने के लिए नागरिकता की व्याख्या करना आवश्यक हो जाता है। 

इसकी व्याख्या से प्रश्न उठता है कि नागरिक कौन है तथा नागरिकता किसे कहते हैं ? अपने इन प्रश्नों का उत्तर अरस्तू ने विश्लेषणात्मक विधि का प्रयोग करके दिया है। अरस्तू ने नागरिकता की परिभाषा नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाकर दी है। वह स्पष्ट करता है कि नागरिक कौन नहीं है ? इस बारे में उसने कुछ तर्क दिए हैं।

1. नागरिक कौन नहीं है ? (Who is not a Citizen ?):–

अरस्तू ने निम्नलिखित व्यक्तियों को नागरिक नहीं माना है :-

  1. राज्य में निवास करने मात्र से ही नागरिकता नहीं मिलती। स्त्री, दास और विदेशी नागरिक नहीं हैं।
  2. अल्पायु के कारण बच्चे तथा नागरिकता के कर्त्तव्य से मुक्त वृद्ध नागरिक नहीं हो सकते।
  3. राज्य से निष्कासित व्यक्ति तथा मताधिकार से वंचित व्यक्ति भी नागरिक नहीं हो सकते।
  4. अभियोग चलाने और अभियुक्त बनाने का अधिकार रखने वाला कोई भी व्यक्ति नागरिक नहीं होता क्योंकि संधि द्वारा यह अधिकार तो विदेशी भी प्राप्त कर सकता है।

2. नागरिकता की प्रकृति संविधान की प्रकृति पर निर्भर है (Nature of Citizenship Depends of the Nature of Constitution):–

अरस्तू की नागरिकता की परिभाषा लोकतन्त्र के लिए तो सही हो सकती है, अन्य राज्यों के लिए नहीं। राजतन्त्र, निरंकुशतन्त्र, कुलीनतन्त्र, अल्पतन्त्र आदि व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में अरस्तू द्वारा नागरिकता को दी गई परिभाषा मान्य नहीं हो सकती। प्रत्येक संविधान आवश्यकतानुसार ही नागरिकता को परिभाषित करता है।

3. नागरिकता के लिए योग्यताएँ (Qualifications for Citizenship):– 

अरस्तू के अनुसार उपर्युक्त योग्यताएँ प्राप्त व्यक्ति ही नागरिक बन सकता है:–

(i) नागरिकता के लिए शासन करने की योग्यता के साथ ही शासन करने का गुण भी होना चाहिए। 

(ii) जिन व्यक्तियों की राज्य के कार्यों में रुचि हो, उन्हें ही नागरिक बनाया जाना चाहिए। 

(iii) नागरिकता के लिए व्यक्ति के पास निजी सम्पत्ति व अवकाश का होना अनिवार्य है। 

(iv) नागरिक बनने के लिए व्यक्ति में बौद्धिक और नैतिक योग्यताएँ भी होनी चाहिएं। 

4. नागरिकता के लिए अयोग्यताएँ (Disqualifications for Citizenship):–

अरस्तू के अनुसार दास, विदेश मे जन्मे व्यक्ति, श्रमिक, कारीगर, शिल्पी, विदेशी, नागरिक कार्यों की अयोग्यता प्राप्त व्यक्ति, राज्य से निष्कासित, मताधिकार से वंचित, वृद्धों, स्त्रियों, बच्चों को नागरिकता प्रदान नहीं की जा सकती, क्योंकि वे या तो बौद्धिक शक्ति से हीन होते हैं या उनके पास अवकाश नहीं होता।

5. अवकाश का महत्त्व (Importance of Leisure):–

अरस्तू के अनुसार उन्हीं व्यक्तियों को नागरिकता प्राप्त हो सकती है जिनके पास अवकाश होता है। अरस्तू अवकाश का अर्थ छुट्टी या आराम से न लेकर एक प्रकार की सक्रियता से लेता है। अरस्तू के अनुसार शासन करना, सार्वजनिक क्रियाओं में भाग लेना, समाज सेवा के कार्य करना, विज्ञान और दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना आदि कार्य अवकाश के अन्तर्गत आते हैं। जो व्यक्ति इन कार्यों में भाग लेता है, वह नागरिक बन सकता है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार अरस्तू अवकाश प्राप्त व्यक्तियों को ही नागरिकता प्रदान करता है।


प्लेटो तथा अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचारों में अन्तर Difference Between the Views of Plato and Aristotle on Citizenship):- 

प्लेटो के विचारों में अन्तर निम्नलिखित हैं :-

1. अरस्तू नागरिकता के लिए शासन में सक्रिय सहभागिता को अनिवार्य मानता है, जबकि प्लेटो के लिए ऐसा अनिवार्य नहीं है।

2. प्लेटो ने नागरिकता की न तो सुव्यवस्थित परिभाषा दी और न ही योग्यताएँ निर्धारित कीं। अरस्तू इस बारे विस्तृत रूप में लिखता है।

3. प्लेटो के राज्य में दासों और नागरिकों में कोई अन्तर नहीं है, परन्तु अरस्तू दासों व श्रमिकों को नागरिकता से वंचित करता है।

4. प्लेटो इस प्रश्न पर चुप है कि स्त्रियों को नागरिकता देनी चाहिए या नहीं, अरस्तू स्त्रियों को नागरिकता से वंचित करता है।

उपर्युक्त अन्तरों के बाद भी प्लेटो और अरस्तू नागरिकता के बारे में एक ही स्थान पर आकर विश्राम करते हैं। दोनों ने नागरिकता को उच्च वर्गों तक ही सीमित कर दिया है। दोनों सीमित नागरिकता के पक्षधर है


नागरिकता सम्बन्धी आधुनिक एवं अरस्तू का दृष्टिकोण (Views of Aristotle on Citizenship Campared with Modern Approach to Citizenship):–

आधुनिक युग की सरकारों को नागरिकता के बारे में बहुत ही उदारवादी दृष्टिकोण अपनाकर चलना पड़ता है। यदि अरस्तू की तरह विधानपालिका और न्यायपालिका में व्यक्ति की सहभागिता को नागरिकता का आधार बनाया जाए तो अधिकांश जनता नागरिकता से वंचित रह जाएगी। आज नागरिकता का निर्धारण करने का मूल आधार व्यक्ति का वह अधिकार है जिसके होने पर व्यक्ति अपने प्रतिनिधियों के चुनाव कार्य में भाग ले सकता है, स्वयं प्रतिनिधि बन सकता है तथा राजकीय सेवा का अवसर प्राप्त कर सकता है। आज नागरिकता अभिजात वर्ग तक ही सीमित न होकर समाज के प्रत्येक वर्ग तक फैली हुई है। अरस्तू की तरह नागरिकता को सीमित करना प्रजातन्त्रीय सिद्धान्तों के विरुद्ध जाता है। इसलिए अरस्तू के नगर राज्य में खोई गई नागरिकता आधुनिक राज्यों में आसानी से प्राप्त हो गई है। इस प्रकार अरस्तू की नागरिकता सीमित है, जबकि आधुनिक युग में नागरिकता सार्वभौमिक है।


अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचारों की आलोचना (Criticisms):–

अरस्तू के नागरिकता सम्बन्धी विचारों की निम्न आधारों पर आलोचना की गई है:–

1. आधुनिक प्रजातन्त्र पर लागू नहीं (Not fit for Modern Democracy):–

अरस्तू द्वारा दी गई परिभाषा आधुनिक प्रजातन्त्र पर सही नहीं बैठती। आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है। आधुनिक लोकतन्त्र में सभी नागरिक न तो विधि-निर्माण में भाग ले सकते हैं, न ही न्याय के प्रशासन में।

2. सैद्धान्तिक अन्तर्विरोध (Theoretical Contradiction):– 

अरस्तू के अनुसार राज्य का उद्देश्य सार्वजनिक हित में वृद्धि करना है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राज्य की जनसंख्या के सभी वर्गों को शासन क्रियाओं में भाग लेने का अवसर मिलना चाहिए अर्थात् सभी को नागरिकता का अधिकार मिलना चाहिए। परंतु अरस्तू ने सीमित नागरिकता की व्यवस्था करके जनसंख्या के एक बड़े भाग को सार्वजनिक हित की वृद्धि करने से रोक दिया है।

3. कठोर सिद्धान्त (Rigid Theory):–

अरस्तू की नागरिकता सम्बन्धी अवधारणा अपनी प्रकृति से एक कठोर सिद्धान्त है। उसने इस प्रकार की कोई व्यवस्था स्वीकार नहीं की है कि यदि कोई अनागरिक उचित व आवश्यक योग्यताएँ प्राप्त कर ले तो उसे नागरिक बना दिया जाएगा। राज्य में ऐसे श्रमिक, जो बाद में आवश्यक योग्यता (शिक्षा व सम्पत्ति) प्राप्त कर लें, वे भी नागरिक बनने का दावा नहीं कर सकते।

4. संकुचित परिभाषा (Narrow Definiton):–

अरस्तू की नागरिकता की परिभाषा अत्यन्त संकीर्ण है। यदि शासन क्रियाओं में भाग लोने मात्र से ही नागरिकता मिले तो राजतन्त्र और कुलीनतन्त्र में यह संख्या बहुत कम होगी।

5. श्रमिकों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित करना (Labourers are deprived of Political Rights):–

अरस्तू ने श्रमिकों और दासों को नागरिकता से वंचित रखा है। एक ओर तो वह नागरिकता की समानता की बात करता है, दूसरी तरफ श्रमिक वर्ग को इस अधिकार से वंचित करता है।

6. धन व सत्ता का प्रयोग (Combination of Wealth and Power):–

अरस्तू के अनुसार निजी सम्पत्ति धारक ही नागरिक बनने के योग्य हैं। वह धनी वर्ग के हाथों में सत्ता सौंपता है। जब धन व सत्ता का गठबन्धन हो जाएगा तो सार्वजनिक हित की वृद्धि के नाम पर वर्गीय हितों की रक्षा ही होगी। इससे विशाल गरीब तबका नागरिकता के अधिकार से वंचित रह जाता है। अतः ऐसे राज्य का पतन निश्चित है। 

7. राज्य की एकता व स्थिरता को भय (Danger to the Unity and Stability of State):– 

अरस्तू राज्य को नागरिक व अनागरिक दो वर्गों में बाँट देता है। एक धनी वर्ग है तो दूसरा निर्धन व असन्तुष्ट वर्ग है। दोनों के हित परस्पर विरोधी होते हैं। इससे दोनों वर्गों में ईर्ष्या व द्वेष की भावना बढ़ती है जो राज्य की एकता व स्थिरता के लिए घातक है।

8. अस्पष्ट विवरण (Vague):– 

अरस्तू ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि राज्य के उपनिवेश में बसने वाले व्यक्तियों को उस नगर-राज्य का नागरिक बनने का अधिकार प्राप्त होगा या नहीं। व्यावहारिक दृष्टि से यह सिद्धान्त दोषपूर्ण है।

9. सीमित नागरिकता (Limited Citizenship):–

अरस्तू ने अपनी नागरिकता की अवधारणा में बच्चे, बूढ़े, स्त्रियों, श्रमिक, विदेशी, मताधिकार से वंचित आदि को शामिल करके केवल शासन क्रियाओं में भाग लेने वाले अवकाश प्राप्त उच्च-वर्ग के लोगों को ही शामिल किया है। अतः यह व्यवस्था कुलीनतन्त्र की पोषक है।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि अरस्तू का नागरिकता का सिद्धान्त अधिक संकीर्ण, रूढ़िवादी, अभिजाततन्त्रीय, अप्रजातांत्रिक, अमानवीय और कुछ हद तक घृणित भी है। आज के प्रजातन्त्र के युग में सीमित नागरिकता की धारणा कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकती। फॉस्टर ने कहा है कि "नागरिकता के सम्बन्ध में अरस्तू की बजाय प्लेटो अधिक प्रगतिशील है।" अरस्तू ने बहुसंख्यक वर्ग को अल्पसंख्यक वर्ग (धनी वर्ग) का साधन मात्र बना दिया है। अरस्तू ने ऐसा करके अमानवीय दृष्टिकोण का ही परिचय दिया है। फिर भी, अरस्तू ने नागरिकता के गुणात्मक पक्ष पर जोर देकर एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्राकृतिक रेशे

प्राकृतिक रेशे रेशे दो प्रकार के होते हैं - 1. प्राकृतिक रेशे - वे रेशे जो पौधे एवं जंतुओं से प्राप्त होते हैं, प्राकृतिक रेशे कहलाते हैं।  उदाहरण- कपास,ऊन,पटसन, मूॅंज,रेशम(सिल्क) आदि। 2. संश्लेषित या कृत्रिम रेशे - मानव द्वारा विभिन्न रसायनों से बनाए गए रेशे कृत्रिम या संश्लेषित रेशे कहलाते हैं।  उदाहरण-रियॉन, डेक्रॉन,नायलॉन आदि। प्राकृतिक रेशों को दो भागों में बांटा गया हैं - (1)पादप रेशे - वे रेशे जो पादपों से प्राप्त होते हैं।  उदाहरण - रूई, जूूट, पटसन । रूई - यह कपास नामक पादप के फल से प्राप्त होती है। हस्त चयन प्रक्रिया से कपास के फलों से प्राप्त की जाती है। बिनौला -कपास तत्वों से ढका कपास का बीज। कपास ओटना -कंकतन द्वारा रूई को बनौलों से अलग करना। [Note:- बीटी कपास (BT Cotton) एक परजीवी कपास है। यह कपास के बॉल्स को छेदकर नुकसान पहुँचाने वाले कीटों के लिए प्रतिरोधी कपास है। कुछ कीट कपास के बॉल्स को नष्ट करके किसानों को आर्थिक हानि पहुँचाते हैं। वैज्ञानिकों ने कपास में एक ऐसे बीटी जीन को ...

1600 ईस्वी का राजलेख

  1600 ईस्वी का राजलेख 👉 इसके तहत कंपनी को 15 वर्षों के लिए पूर्वी देशों में व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया। 👉 यह राजलेख महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने  31 दिसंबर, 1600 ई. को जारी किया। 👉 कंपनी के भारत शासन की समस्त शक्तियां एक गवर्नर(निदेशक), एक उप-गवर्नर (उप-निदेशक) तथा उसकी 24 सदस्यीय परिषद को सौंप दी गई तथा कंपनी के सुचारू प्रबंधन हेतु नियमों तथा अध्यादेश को बनाने का अधिकार दिया गया। 👉 ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के समय इसकी कुल पूंजी  30133 पौण्ड थी तथा इसमें कुल 217 भागीदार थे। 👉 कंपनी के शासन को व्यवस्थित करने हेतु कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास को प्रेसीडेंसी नगर बना दिया गया तथा इसका शासन प्रेसीडेंसी व उसकी परिषद् करती थी। 👉 महारानी एलिजाबेथ ने ईस्ट इंडिया कंपनी को लॉर्ड मेयर की अध्यक्षता में पूर्वी देशों में व्यापार करने की आज्ञा प्रदान की थी। 👉 आंग्ल- भारतीय विधि- संहिताओं के निर्माण एवं विकास की नींव 1600 ई. के चार्टर से प्रारंभ हुई। 👉 ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना कार्य सूरत से प्रारंभ किया। 👉 इस समय भारत में मुगल सम्राट अकबर का शास...

संवैधानिक विकास

संवैधानिक विकास 👉 31 दिसंबर 1600 को महारानी एलिजाबेथ प्रथम के चार्टर के माध्यम से अंग्रेज भारत आए।  👉 प्रारंभ में इनका मुख्य उद्देश्य व्यापार था जो ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से शुरू किया गया।  👉 मुगल बादशाह 1764 में बक्सर के युद्ध में विजय के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को दीवानी अधिकार दिए। 👉 1765 ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल,बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी अधिकार प्राप्त कर लीए। 👉 1858 ईस्वी में हुए सैनिक विद्रोह ऐसे भारत शासन का दायित्व सीधा ब्रिटिश ताज ने ले लिया। 👉 सर्वप्रथम आजाद भारत हेतु संविधान की अवधारणा एम. एन. राय के द्वारा 1934 में दी गई।  👉 एम. एन. राय के सुझावों को अमल में लाने के उद्देश्य से 1946 में सविधान सभा का गठन किया गया। 👉 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ। 👉 संविधान की अनेक विशेषता ब्रिटिश शासन चली गई तथा अन्य देशों से भी, जिनका क्रमवार विकास निम्न प्रकार से हुआ- 1. कंपनी का शासन (1773 ई. - 1858 ई. तक)  2. ब्रिटिश ताज का शासन (1858 ई. – 1947 ई. तक) Constitutional development 👉The Brit...

1781 ई. का एक्ट ऑफ सेटलमेंट

1781 ई. का Act of settlement(बंदोबस्त कानून) 👉 1773 ई. के रेगुलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद के प्रवर समिति के अध्यक्ष एडमंड बर्क के सुझाव पर इस एक्ट का प्रावधान किया गया। 👉 इसके अन्य  नाम - संशोधनात्मक अधिनियम (amending act) , बंगाल जुडीकेचर एक्ट 1781 इस एक्ट की विशेषताएं:- 👉कलकत्ता के सभी निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय के अधिकर क्षेत्र के अंतर्गत कर दिया गया। 👉 इसके तहत कलकत्ता सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार दे दिया गया। अब कलकत्ता की सरकार को विधि बनाने की दो श्रोत प्राप्त हो गए:-  1. रेगुलेटिंग एक्ट के तहत कलकत्ता प्रेसिडेंसी के लिए 2. एक्ट ऑफ सेटलमेंट के अधीन बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के दीवानी प्रदेशों के लिए 👉 सर्वोच्च न्यायालय के लिए आदेशों और विधियों के संपादन में भारतीयों के धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाजों तथा परंपराओं का ध्यान रखने का आदेश दिया गया अर्थात् हिंदुओं व मुसलमानों के धर्मानुसार मामले तय करने का प्रावधान किया गया । 👉 सरकारी अधिकारी की हैसियत से किए गए कार्यों के लिए कंपनी ...

राजस्थान नगरपालिका ( सामान क्रय और अनुबंध) नियम, 1974

  राजस्थान नगरपालिका ( सामान क्रय और अनुबंध) नियम , 1974 कुल नियम:- 17 जी.एस.आर./ 311 (3 ) – राजस्थान नगरपालिका अधिनियम , 1959 (1959 का अधिनियम सं. 38) की धारा 298 और 80 के साथ पठित धारा 297 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए , राज्य सरकार इसके द्वारा , निम्नलिखित नियम बनाती हैं , अर्थात्   नियम 1. संक्षिप्त नाम और प्रारम्भ – ( 1) इन नियमों का नाम राजस्थान नगरपालिका (सामान क्रय और अनुबंध) नियम , 1974 है। ( 2) ये नियम , राजपत्र में इनके प्रकाशन की तारीख से एक मास पश्चात् प्रवृत्त होंगे। राजपत्र में प्रकाशन:- 16 फरवरी 1975 [भाग 4 (ग)(1)] लागू या प्रभावी:- 16 मार्च 1975 [ 1. अधिसूचना सं. एफ. 3 (2) (75 एल.एस.जी./ 74 दिनांक 27-11-1974 राजस्थान राजपत्र भाग IV ( ग) ( I) दिनांक 16-2-1975 को प्रकाशित एवं दिनांक 16-3-1975 से प्रभावी।]   नियम 2. परिभाषाएँ – इन नियमों में , जब तक संदर्भ द्वारा अन्यथा अपेक्षित न हो , (i) ' बोर्ड ' के अन्तर्गत नगर परिषद् ( Municipal Council) आती है ; (ii) ' क्रय अधिकारी ' या ' माँगकर्त्ता अधिकार...

वैश्विक राजनीति का परिचय(Introducing Global Politics)

🌏 वैश्विक राजनीति का परिचय( Introducing Global Politics)

ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

 🗺  ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

अरस्तू

🧠   अरस्तू यूनान के दार्शनिक  अरस्तू का जन्म 384 ईसा पूर्व में मेसीडोनिया के स्टेजिरा/स्तातागीर (Stagira) नामक नगर में हुआ था। अरस्तू के पिता निकोमाकस मेसीडोनिया (राजधानी–पेल्ला) के राजा तथा सिकन्दर के पितामह एमण्टस (Amyntas) के मित्र और चिकित्सक थे। माता फैस्टिस गृहणी थी। अन्त में प्लेटो के विद्या मन्दिर (Academy) के शान्त कुंजों में ही आकर आश्रय ग्रहण करता है। प्लेटो की देख-रेख में उसने आठ या बीस वर्ष तक विद्याध्ययन किया। अरस्तू यूनान की अमर गुरु-शिष्य परम्परा का तीसरा सोपान था।  यूनान का दर्शन बीज की तरह सुकरात में आया, लता की भांति प्लेटो में फैला और पुष्प की भाँति अरस्तू में खिल गया। गुरु-शिष्यों की इतनी महान तीन पीढ़ियाँ विश्व इतिहास में बहुत ही कम दृष्टिगोचर होती हैं।  सुकरात महान के आदर्शवादी तथा कवित्वमय शिष्य प्लेटो का यथार्थवादी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला शिष्य अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। मानव जीवन तथा प्रकृति विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो, जो उनके चिन्तन से अछूता बचा हो। उसकी इसी प्रतिभा के कारण कोई उसे 'बुद्धिमानों का गुरु' कहता है तो कोई ...

राजस्थान के दुर्ग

  दुर्ग

1726 ईस्वी का राजलेख

1726 ईस्वी का राजलेख इसके तहत कलकात्ता, बंबई तथा मद्रास प्रेसिडेंसीयों के गवर्नर तथा उसकी परिषद को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गई, जो पहले कंपनी के इंग्लैंड स्थित विद्युत बोर्ड को प्राप्त थी।  यह सीमित थी क्योंकि - (1) यह ब्रिटिश विधियों के विपरीत नहीं हो सकती थी। (2) यह तभी प्रभावित होंगी जब इंग्लैंड स्थित कंपनी का निदेशक बोर्ड अनुमोदित कर दे। Charter Act of 1726 AD  Under this, the Governor of Calcutta, Bombay and Madras Presidencies and its Council were empowered to make laws, which was previously with the Company's Electricity Board based in England.  It was limited because -  (1) It could not be contrary to British statutes.  (2) It shall be affected only when the Board of Directors of the England-based company approves.