🗺️ राज्य के विकास का स्वरूप (Nature of the State Evolution)
अरस्तू के अनुसार राज्य एक जीवधारी के समान है, अतः जिस प्रकार एक सावयवी जीवधारी का विकास होता है उसी प्रकार राज्य का भी विकास होता है।
अरस्तू के विचार को मानव शरीर के उदाहरण से समझाया जा सकता है। मानव शरीर में हाथ, पैर, नाक, कान आदि अनेक अंग होते हैं, इन अंगों को अलग-अलग कार्य करने पड़ते हैं और इन्हें करने के लिए वे शरीर पर निर्भर रहते हैं। यदि शरीर का कोई अंग अपना कार्य करना बन्द कर देता है या उसे ठीक प्रकार से नहीं करता है तो शरीर निर्बल हो जाता है। जो बात शरीर के बारे में कही गयी है, वही राज्य के बारे में भी कही जा सकती है। जिस प्रकार शरीर का विकास स्वाभाविक ढंग से होता है, उसी प्रकार राज्य का भी हुआ है। शरीर के समान राज्य भी अनेक अंगों से मिलकर बना है। ये अंग हैं-व्यक्ति और उनकी संस्थाएँ, परिवार, ग्राम आदि। जिस प्रकार शरीर के सब अंगों को अपने-अपने निर्धारित कार्य करने पड़ते हैं, उसी प्रकार राज्य के सब अंगों को भी अपने निर्धारित कार्य करने आवश्यक हैं।
इस प्रकार राज्य के विकास का स्वरूप सावयवी (Organic) या जैविक है। व्यक्ति, परिवार और ग्राम इसके विभिन्न अंग हैं। ये अंग एक-दूसरे से संबंधित होते हैं और इनका क्रमिक विकास होता रहता है। इनके विकास की अंतिम परिणति राज्य में होती है।
राज्य के विकास के संबंध में अरस्तू के दृष्टिकोण को समझाते हुए बार्कर ने लिखा है "राजनीतिक विकास, जैविक विकास है। राज्य तो मानो पहले से ही ग्राम, परिवार और व्यक्ति के रूप में भ्रूणावस्था में होता है। राजनीतिक विकास की प्रक्रिया ऐसी है मानो राज्य आरम्भ से लेकर अन्त तक विभिन्न रूपों को धारण करता है और प्रत्येक रूप इसको पूर्णता के अधिक से अधिक निकट ले जाता है।"
इस प्रकार अरस्तू के राज्य की उत्पत्ति संबंधी विचार, 'विकासवादी सिद्धांत' के अनुरूप है। परिवार के विकास से व्यक्ति पूर्णत्व की दिशा में कुछ कदम बढ़ाता नजर आता है। कुछ और अधिक पूर्णता की प्राप्ति उसकी नैसर्गिक प्रवृत्ति ग्राम को जन्म देती है और सम्पूर्णता एवं आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़े हुए मानव के चरण अपनी मंजिल तक उस समय पहुँच जाते हैं जबकि सर्वोच्च एवं सर्वव्यापी समुदाय राज्य की स्थापना सम्भव हो जाती है।
राज्य की विशेषताएँ (Characteristics of the State):–
1. राज्य एक स्वाभाविक/ प्राकृतिक संस्था है (State is a Natural Institution):-
अरस्तू द्वारा राज्य के प्रादुर्भाव के बारे में प्रकट किये गये विचारों से प्रकट होता है कि वह राज्य को स्वाभाविक संस्था मानता है। उसके अनुसार राज्य मानव के भावनात्मक जीवन की अभिव्यंजना है और इससे अलग रहकर व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। राज्य परिवार का ही वृहत रूप होने के कारण यह भी वैसे ही स्वाभाविक है जैसा कि परिवार। व्यक्ति के विकास का जो कार्य परिवार में प्रारम्भ होता है उसकी पूर्ण सिद्धि राज्य में ही की जा सकती है।
'राज्य एक स्वाभाविक संस्था है' इस कथन की पुष्टि में अरस्तू का एक तर्क यह भी है कि जिन संस्थाओं पर राज्य आधारित है वे संस्थाएँ स्वाभाविक हैं, तो निश्चय ही उन संस्थाओं का विकसित रूप भी स्वाभाविक होगा।
अरस्तू का मत है कि राज्य एक स्वाभाविक संस्था इसलिए भी है कि राज्य का जन्म मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एवं उसके सर्वांगीण विकास के लिए स्वाभाविक रूप से हुआ है। उसके शब्दों में, "मानवीय आवश्यकताओं पर आधारित मानव समुदाय के बढ़ते हुए घेरे की पराकाष्ठा राज्य है।" वह कहता है राज्य स्वाभाविक है और इसके बिना मनुष्य का जीवन सम्भव नहीं है। जो व्यक्ति राज्य में नहीं रहता वह या तो देवता है या पशु।
2. राज्य व्यक्ति से पूर्व का संगठन है (State is Prior to Individual):-
अरस्तू का कहना है राज्य मनुष्य से प्राथमिक है। ऐसा कहने में अरस्तू का तात्पर्य यह नहीं था कि ऐतिहासिक दृष्टि से राज्य का जन्म पहले हुआ, वरन उसके कहने का अभिप्राय यह था कि मानसिक या मनोवैज्ञानिक दृष्टि से राज्य का जन्म पहले ही हो चुका था। यह कैसे हुआ, इस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि राज्य एक पूर्ण समुदाय है, व्यक्ति केवल एक तत्व। पूर्णता पहले आती है, उसके बाद में अंग, इसलिए राज्य व्यक्ति से पूर्ववर्ती है। मनुष्य के बौद्धिक विकास की पूर्ण कल्पना के रूप में राज्य का जन्म व्यक्ति, परिवार और ग्राम के अस्तित्व में आने से पूर्व ही हो चुका था। अरस्तु का कथन है कि, "समय की दृष्टि से परिवार पहले है, परन्तु प्रकृति की दृष्टि से राज्य पहले है।"
अरस्तु के इस दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए फॉस्टर ने लिखा है- "राज्य का स्थान प्रकृतिवश परिवार और व्यक्ति से पहले है, क्योंकि अवयवी अनिवार्यतः अवयव से पहले आता है। राज्य प्रकृति की रचना है और वह व्यक्ति से पहले आता है- इसका प्रमाण यह है कि जब व्यक्ति को राज्य से पृथक कर दिया जाये तो वह आत्मनिर्भर नहीं रह जाता, अतः उसकी स्थिति अवयवी की तुलना में अवयव जैसी होती है।"
3. राज्य सर्वोच्च समुदाय है (The State is a Supreme Association):-
अरस्तू के अनुसार राज्य एक सर्वोच्च समुदाय है। उसके शब्दों में, "राज्य केवल समुदायों का समुदाय ही नहीं है, वरन् सर्वोच्च समुदाय है।" इस दृष्टिकोण के पक्ष में अरस्तू कहता है:-
- प्रथम, राज्य में अनेक प्रकार की सामाजिक धार्मिक, आर्थिक संस्थाएँ होती हैं। इन सब संस्थाओं का अस्तित्व राज्य के कारण ही होता है; ये केवल राज्य के अन्दर ही कार्य कर सकती हैं; ये राज्य के अधीन होती हैं और राज्य का इन पर पूर्ण नियन्त्रण होता है।
- द्वितीय, राज्य के अन्तर्गत कार्यरत विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक संस्थाएँ एकपक्षीय होती हैं। जैसे, धार्मिक संस्थाएँ धार्मिक आवश्यकताओं और सामाजिक संस्थाएँ सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। इनमें से कोई भी व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती। राज्य ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो व्यक्ति की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति करके उसका अधिकतम विकास करती है, अतः राज्य सर्वोच्च समुदाय है।
- तृतीय, राज्य के अन्तर्गत कार्यरत सभी संस्थाओं का कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होता है, पर राज्य के लक्ष्य की तुलना में ये सभी लक्ष्य निम्नतर होते हैं। इसका कारण यह है कि राज्य अपने नागरिकों को अपने जीवन को शुभ और सुखी बनाने का अवसर प्रदान करता है।
वे इस प्रकार के जीवन की प्राप्ति राज्य के सदस्यों के रूप में ही कर सकते हैं, समुदायों या संस्थाओं के सदस्यों के रूप में नहीं। अतः राज्य सर्वोच्च समुदाय है।
4. राज्य का स्वरूप जैविक है (State is Like an Organic):-
अरस्तू के राज्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता उसका स्वरूप जैविक अथवा आंगिक (Organic) है। जैविक सिद्धांत के अनुसार सम्पूर्ण के बहुत से विभिन्न अंग होते हैं, प्रत्येक अंग का अपना पृथक कार्य होता है और प्रत्येक अंग अपने अस्तित्व एवं जीवन के हेतु सम्पूर्ण पर पूर्ण रूप से निर्भर करता है। जब अरस्तू राज्य को समुदायों का समुदाय कहता है, तब उसके सिद्धांत में राज्य का यही जैविक तत्व परिलक्षित होता है। उसने राज्य की तुलना शरीर से और व्यक्ति की तुलना हाथ जैसे अंग से की है। उसके अनुसार राज्य और व्यक्ति में वही सम्बन्ध होता है जो शरीर और हाथ में है। उसने यह भी कहा है कि जिस शरीर के किसी एक अंग में अत्यधिक वृद्धि होने से समस्त शरीर का सन्तुलन बिगड़ जाता है, उसी प्रकार राज्य के किसी एक तत्व में अत्यधिक वृद्धि होने से राज्य का स्थायित्व खतरे में पड़ जाता है।
5. राज्य एक आत्मनिर्भर संगठन है (The State is Self-sufficient):-
अरस्तू के अनुसार राज्य की एक प्रमुख विशेषता उसका आत्मनिर्भर होना है। आत्मनिर्भरता से अभिप्राय है कि वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करता है। अरस्तू ने 'आत्मनिर्भरता' शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में किया है। उसने इसके लिए यूनानी शब्द 'आतरकिया' (Autarkia) का प्रयोग किया है, जिसका अर्थ है 'पूर्ण निर्भरता'। अरस्तू के शब्दों में, "आत्मनिर्भरता वह गुण है जिसके कारण और जिसके द्वारा जीवन स्वयं वांछनीय बन जाता है और उसमें किसी प्रकार का अभाव नहीं रह जाता है।" वस्तुतः अरस्तू ने आत्मनिर्भर शब्द का प्रयोग अतिव्यापक अर्थ में किया है। इससे उसका अभिप्राय यह है कि राज्य न केवल व्यक्ति की भौतिक समस्याओं का समाधान करता है अपितु उसे अच्छा और सुखी सम्पन्न जीवन व्यतीत करने भी सहायता देता है। राज्य व्यक्ति के लिए उन समस्त परिस्थितियों का निर्माण करता है जो उसके शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास के लिए आवश्यक हैं। अरस्तू के दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए बार्कर ने लिखा है, "आत्मनिर्भरता का अर्थ है- राज्य में ऐसे भौतिक साधनों और ऐसी नैतिक प्रेरणाओं और भावनाओं की उपस्थिति जो किसी प्रकार की बाह्य भौतिक या नैतिक सहायता पर निर्भर हुए बिना पूर्ण मानव विकास को सम्भव बनाइए।"
6. नगर राज्य सर्वश्रेष्ठ राजनीतिक संगठन है (City State is the Highest Political Association):-
अरस्तु के लिए प्लेटो की ही भांति नगर राज्य सर्वाधिक श्रेष्ठ राजनीतिक संगठन था। यद्यपि उसके जीवनकाल में ही फिलिप ने यूनान के नगर राज्यों का अन्त कर अपने साम्राज्य की स्थापना की थी, लेकिन अरस्तू ने इन साम्राज्यों के संबंध में बिलकुल भी विचार नहीं किया है। उसने तो आदर्श राज्य का चित्रण एक नगर राज्य के रूप में ही किया है। अरस्तू का यह नगर राज्य समस्त विज्ञान, कला, गुणों और पूर्णता में एक साझेदारी है।
7. राज्य विविधता में एकता है (The State is a Unity is Diversity):-
अरस्तु के अनुसार राज्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता 'विविधता में एकता' है। प्लेटो ने अपने आदर्श राज्य में एकता पर विशेष बल दिया है और वह सम्पूर्ण राज्य को एक परिवार का रूप देना चाहता था, किन्तु अरस्तू प्लेटो के एकता संबंधी विचारों से सहमत नहीं है। प्लेटो के अनुसार "राज्यों में अवयवी एकता होनी चाहिए अर्थात् जिस प्रकार पैर में काँटा चुभने पर उसकी अनुभूति सारे शरीर को होती है, उसी प्रकार एकता की अनुभूति सारे व्यक्तियों व राज्य में होनी चाहिए।" प्लेटो के समान अरस्तू राज्य की चरम एकता पर बल न देकर, राज्य की विविधता में एकता का समर्थन करता है। अरस्तू के अनुसार राज्य का आदर्श स्वरूप, उसकी विविधता में एकता है। उसका निर्माण विभिन्न तत्वों के मिलने से होता है। जिस प्रकार सुन्दर चित्र विभिन्न रंगों के अनुपम मिश्रण से बनता है और जिस प्रकार मधुर संगीत की सृष्टि विभिन्न रागों और तालों के समन्वय से होती है, उसी प्रकार आदर्श राज्य का निर्माण उसके विभिन्न अंगों के उचित सामंजस्य और संगठन के आधार पर होता है। स्वयं अरस्तू ने कहा है, "राज्य तो स्वभाव से ही बहु-आयामी होता है। एकता की ओर अधिकाधिक बढ़ना तो राज्य का विनाश करना होता है।"
8. राज्य एक क्रमिक विकास है (The State is a Gradual Evolution):-
अरस्तू राज्य के विकासवादी सिद्धांत का समर्थक है। उसके अनुसार राज्य का क्रमिक विकास हुआ है। राज्य का विकास उसी प्रकार हुआ है जिस प्रकार सावयवी जीवधारी का होता है। राज्य के विकास का रूप आगिक (Organic) है। व्यक्ति, परिवार और ग्राम इसके विभिन्न अंग हैं। ये अंग एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं और इनका क्रमिक विकास होता रहता है। अन्त में इनके पूर्ण रूप से विकसित हो जाने पर राज्य के दर्शन होते हैं।
9. राज्य एक आध्यात्मिक संगठन है (The State is a Spiritual Organism):-
अरस्तू के अनुसार राज्य एक मानवीय समुदाय है, अतः इसका उद्देश्य मानव में सद्गुणों या अच्छी शक्तियों का विकास करना है। यह मानव को बौद्धिक, नैतिक और शारीरिक श्रेष्ठता की प्राप्ति के साधन प्रदान करता है। तभी तो अरस्तू कहता है "राज्य नैतिक जीवन में आध्यात्मिक समुदाय है।" (State is a spiritual association in moral life) जिस प्रकार व्यक्ति नैतिक जीवन का अनुसरण कर आनन्द की प्राप्ति करता है उसी प्रकार राज्य का आनन्द भी सकारात्मक अच्छाई का विकास करता है।"
10. संविधान राज्य की पहचान है (Constitution is the Identity of the State):-
अरस्तू की धारणा है कि संविधान राज्य की पहचान है और संविधान में परिवर्तन राज्य में परिवर्तन करने के समान है।
11. राज्य और शासन में भेद (Distinction between State and Government):-
अरस्तू ने राज्य और शासन में स्पष्ट भेद किया है। जहाँ राज्य समस्त नागरिकों और गैर नागरिकों का समूह है वहाँ शासन उन नागरिकों का समूह है जिनके हाथ में सर्वोच्च राजनीतिक सत्ता है। अरस्तू लिखता है शासन में परिवर्तन तो उसी समय आ जाता है जब शासकों को अपदस्थ कर दिया जाता है। राज्य में परिवर्तन तभी होता है जब उसके संविधान में परिवर्तन होता है।
12. विवेक से उत्पत्ति (Product of Reason):–
अरस्तू के अनुसार व्यक्ति तर्कशील प्राणी है। वह अच्छे-बुरे में भेद करने में सक्षम है, इसलिए वह नैतिक प्राणी के रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए सामुदायिक जीवन जीता है। इससे क्रमिक विकास द्वारा राज्य का जन्म होता है। वह यूनानी जाति को विवेक का प्रतिबिम्ब मानकर उसे सर्वश्रेष्ठ जाति मानता है। वह अन्य जातियों को असभ्य मानकर उनसे घृणा करता है। उसका नगर-राज्य यूनानी लोगों की विवेकशीलता से उत्पन्न संस्था है। इस प्रकार अरस्तू राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक समझौता सिद्धान्त व दैवीय सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए राज्य की उत्पत्ति को मानवीय विवेक का परिणाम मानता है।
राज्य के उद्देश्य एवं कार्य (Aims and Functions of the State):–
अरस्तू के अनुसार "राज्य का अस्तित्व सजीवन के लिए है, मात्र जीवन के लिए नहीं। यदि इसका उद्देश्य मात्र जीवन को बनाये रखना होता तो गुलाम और जंगली जानवर भी राज्य बना लेते, परन्तु वे राज्य नहीं बना सकते क्योंकि न तो जीवन के आनंद में उसका कोई हिस्सा होता है न वे अपनी पसन्द का जीवन जी सकते हैं... राज्य का अस्तित्व मैत्री के लिए या अन्याय से सुरक्षा के लिए भी नहीं होता, न परस्पर संसर्ग तथा विनिमय के लिए ही होता है क्योंकि तब तो टाइरेनियम और कार्थेजिनियन तथा वे सब लोग जिन्होंने एक-दूसरे के साथ वाणिज्य सन्धियाँ कर रखी हैं, एक ही राज्य के नागरिक होते... अतः हमारा निष्कर्ष यह है कि राजनीतिक समाज का अस्तित्व उदात्त कार्यों के लिए है, मात्र साहचर्य के लिए नहीं।"
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि राज्य के कार्यों और उद्देश्यों के प्रति अरस्तू का दृष्टिकोण रचनात्मक और सकारात्मक (Positive) है। उसका यह दृष्टिकोण लॉक और स्पेन्सर जैसे व्यक्तियों के नकारात्मक और विध्वंसात्मक दृष्टिकोण से पूर्णतया भिन्न है।
अरस्तू के अनुसार "राज्य एक सकारात्मक अच्छाई है, अतः इसका कार्य केवल बुरे कामों अथवा अपराधों को रोकना नहीं वरन् मानव को नैतिकता और सद्गुणों के मार्ग पर आगे बढ़ाना है। "
इस प्रकार राज्य का उद्देश्य है व्यक्ति के जीवन को श्रेष्ठ बनाना और व्यवहार में उसके द्वारा वे सभी कार्य किये जाने चाहिए जो इस लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हों। संक्षेप में, अरस्तू राज्य को निम्न कार्य सौंपता है:-
1. आत्मनिर्भर जीवन की व्यवस्था(self reliant living arrangement):– अपने सदस्यों के लिए पूर्ण और आत्मनिर्भर जीवन की व्यवस्था करना। आत्मनिर्भरता का व्यापक अर्थ है-व्यक्ति न केवल भौतिक उपकरणों की दृष्टि से ही आत्मनिर्भर हों, अपितु नैतिक प्रोत्साहनों एवं प्रेरणाओं की दृष्टि से ही आत्मनिर्भर बनें। इस विस्तृत अर्थ में आत्मनिर्भरता की प्राप्ति का एकमात्र साधन राज्य है।
2. उत्तम और आनन्दपूर्ण जीवन का निर्माण(Good Life):– उत्तम जीवन की व्याख्या करते हुए बार्कर ने लिखा है कि यह एक ऐसा जीवन है जो उत्तम कार्य और उत्तम आचरणों से ओत-प्रोत है। नैतिक और बौद्धिक सद्गुण ही उत्तम जीवन के मुख्य तत्व हैं और इन दोनों की प्राप्ति के लिए बाह्य साधन अपरिहार्य हो जाते हैं। बाह्य साधनों में आर्थिक व्यवस्था और शारीरिक स्वास्थ को मुख्य माना गया है। अरस्तु आनन्द को 'सत्' से पृथक् नहीं करता। अरस्तू के शब्दों में "हमें यह मानना होगा कि हर व्यक्ति में आनन्द की मात्रा उसके द्वारा किये गये उत्तम और बुद्धिमत्तापूर्ण कार्यों तथा उत्तमता और बुद्धिमत्ता के गुणों के अनुसार प्राप्त होती है। सार यह है कि मनुष्य का उद्देश्य एक नैतिक और आनन्दपूर्ण जीवन बिताना है और राज्य ऐसे जीवन को सम्भव बनाने के लिए स्थित है और इस प्रकार स्वयं एक नैतिक संस्था है। एक नैतिक और सद्गुणी जीवन का निर्माण करना इसका उद्देश्य है।"
3. नागरिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था(Provision of education for citizens):– राज्य का एक प्रमुख कार्य अरस्तू ने नागरिकों के लिए शिक्षा की व्यवस्था करना माना है। शिक्षा को कुछ अर्थों में अरस्तू ने प्लेटो से भी अधिक महत्व दिया है। फॉस्टर के शब्दों में, "लॉक (व्यक्तिवादी) के विचार से शिक्षा राज्य का कार्य नहीं; अरस्तू के विचार से यह उसका प्रमुख कार्य है। इसकी संस्थाओं का उद्देश्य मनुष्यों को उत्कृष्ट बनाना है-न केवल बौद्धिक स्तर पर बल्कि नैतिक और भौतिक स्तर पर भी; न केवल बाल्यकाल बल्कि उनके सम्पूर्ण जीवन के दौरान। राज्य नागरिक के लिए पाठशाला होना चाहिए।"
4. नागरिकों के लिए अवकाश/आवकासपूर्ण जीवन (Comfartable life):– शिक्षा संबंधी कार्य के साथ ही अरस्तू ने राज्य का यह कार्य भी माना है कि वह नागरिकों के लिए अवकाश जुटाने का प्रयत्न करे। ए. के. रोगर्स के अनुसार, "चूंकि अरस्तू के अनुसार राज्य का उद्देश्य श्रेष्ठ जीवन का निर्माण है और यह अवकाश से ही सम्भव है।"
5. नागरिकों का कल्याण (Welfare of Citizens):-
अरस्तू के अनुसार राज्य व्यक्ति के कल्याण का साधन है। राज्य का लक्ष्य मनुष्य की शक्तियों के अधिकतम विकास हेतु उन्हें जीवन-संचालन की कुछ स्वतन्त्रता प्रदान करना होना चाहिए।
6. सर्वोत्तम गुणों का विकास (Development of Best Qualities):–
अरस्तू का मानना है कि राज्य अपने नागरिकों में उत्तम गुण विकसित करता है। वह नागरिकों को सद्गुणी बनाता है। वह नागरिकों को चरित्रवान बनाता है।
7. बौद्धिक और नैतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि (Satisfaction of Intellectual and Moral Needs):–
अरस्तू के अनुसार व्यक्ति राज्य में ही रहकर अपने को पशु-स्तर से ऊपर उठाकर सही मनुष्यत्व को प्राप्त कर सकता है। राज्य ही व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं के साथ-साथ व्यक्ति की नैतिक और बौद्धिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है।
8. अच्छाई को प्रोत्साहन (Encourage Goodness):–
अरस्तू के अनुसार राज्य को अच्छाई को प्रोत्साहन देना चाहिए। नागरिकों को नेक बनाना राज्य का कार्य है और न्यायनिष्ठा की स्थापना उसका लक्ष्य। अरस्तू के अनुसार राज्य का अस्तित्व श्रेष्ठ जीवन के लिए है अर्थात् अच्छे जीवन के लिए राज्य विद्यमान है।
संक्षेप में, राज्य के कार्य क्षेत्र के बारे में अरस्तू के विचारों से स्पष्ट है कि वह राज्य के अत्यन्त व्यापक कार्यक्षेत्र का समर्थक था। जहां ग्रीन और लॉक जैसे आधुनिक विचारक राज्य के लिए सीमित कार्य क्षेत्र की चर्चा करते हैं वहां अरस्तू ने यह घोषणा की है कि राज्य 'अच्छे जीवन' की स्थापना के लिए यथासम्भव प्रयत्नशील रहे।
व्यक्तिवादियों के इस मत से अरस्तू बिल्कुल भी सहमत नहीं हो सकता था कि राज्य का कार्य क्षेत्र अधिक से अधिक सीमित हो। साथ ही उसके विचार उन आदर्शवादियों से भी मेल नहीं खाते जो राज्य के नकारात्मक (Negative) कार्य-क्षेत्र को उचित ठहराते हैं। अरस्तू की स्पष्ट धारणा थी कि राज्य का कार्य क्षेत्र सकारात्मक (Positive) होना चाहिए। राज्य को वे सब कार्य करने चाहिए जो अच्छे जीवन की स्थापना को सम्भव बनाएं। राज्य का व्यापक कार्य-क्षेत्र अरस्तू निःसंकोच रूप से इसलिए निर्धारित कर पाया क्योंकि वह यूनानी दार्शनिक था। यूनानियों के लिए उस काल में राज्य अत्यन्त व्यापक समुदाय था। यह उनका राजनीतिक संगठन ही नहीं था, अपितु उनका समाज, उनका धार्मिक समुदाय एवं उनका आर्थिक संगठन भी था।
अरस्तू की राज्य की अवधारणा की आलोचनाएँ (Criticisms):–
अरस्तू की राज्य की अवधारणा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होते हुए भी अनेक आलोचनाओं का शिकार हुई। उसकी आलेचना के निम्न आधार हैं :-
1. राज्य की अवधारणा काल्पनिक व अव्यावहारिक है (Conception of State is Utopian):–
अरस्तू ने अपने दर्शन में जिस राज्य का चित्रण किया है, वह एक वास्तविक राज्य नहीं, बल्कि आदर्श राज्य है। यह आदर्श व्यावहारिक नहीं हो सकता। अतः अरस्तू की राज्य की अवधारणा काल्पनिक व अव्यावहारिक है।
2. परिवार प्रथम सामाजिक संगठन नहीं है (Family is not the First Social Organization):-
अरस्तू ने परिवार को राज्य की उत्पत्ति में सबसे पहली इकाई माना है। किन्तु आलोचकों का कहना है कि समाज की सबसे पहली इकाई समूह थी और एक लम्बी सामाजिक प्रक्रिया से ही परिवार की स्थापना हुई।
3. राजनीतिक तत्त्व की उपेक्षा (Neglect of Political Factor):-
अरस्तू ने राज्य की उत्पत्ति के बारे में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण अपनाया है। वह राज्य को परिवार तथा ग्राम जैसी सामाजिक संस्थाओं से विकसित मानता है। उसने राज्य की उत्पत्ति में सहायक राजनीतिक चेतना की उपेक्षा की है।
4. राज्य व्यक्ति से पहले नहीं (State is not Prior to Man):-
इस उक्ति के आधार पर व्यक्ति राज्य का साधन बन जाता है। इससे राज्य के महत्त्व और अधिकारों में अनावश्यक वृद्धि होती है। आलोचकों का मानना है कि जब राज्य का जन्म व्यक्ति को अच्छा बनाने के लिए ही हुआ है तो राज्य को साध्य कैसे माना जा सकता है। इस प्रकार राज्य व्यक्ति के बाद अस्तित्व में आया है, पहले नहीं।
5. आधुनिक दृष्टि से आलोचना (Criticism from Modern Point of View):-
अरस्तू नगर-राज्य को सर्वोत्तम संगठन मानता है। उसने राज्य को स्वयं में पूर्ण तथा आत्मनिर्भर संस्था बताया हैं वह राज्य की सर्वोच्चता की बात भी करता है। ये सब बातें आधुनिक युग में मान्य नहीं हो सकीं। अरस्तू ने जिस नगर राज्य की अवधारणा को प्रस्तुत किया है, वह तत्कालीन यूनान की राजनीतिक-सामाजिक संस्कृति के ही अनुरूप हो सकती है। आधुनिक युग में अरस्तू की कोई भी धारणा जो जातीय द्वेष पैदा करने वाली हो, मान्य नहीं हो सकती। अरस्तू ने यूनानी जाति को सभ्य बताकर शेष विश्व की जातियों के प्रति बर्बरता का दृष्टिकोण आधुनिक दृष्टि से अमानवीय व अप्रजातान्त्रिक है।
6. राज्य एक सावयव नहीं है (State is not an Organ):–
अरस्तू ने राज्य को एक सावयव तथा व्यक्ति को उसका अंग बताया है। किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। व्यक्ति की चेतना राज्य से अलग एवं स्वतन्त्र है। व्यक्ति को राज्य रूपी शरीर का अंग मानना बिलकुल अनुचित है।
7. राज्य द्वारा नैतिकता का विकास अनुचित:–
आलोचकों का मानना है कि यदि राज्य स्वयं प्रत्यक्ष रूप से नैतिकता की भावना का विकास करेगा, तो नैतिकता की भावना समाप्त हो जाएगी। नैतिकता एक ऐसी वस्तु है जो बाहर से लादी नहीं जा सकती। यह तो मनुष्य की इच्छा व आत्मा का परिणाम है। यह एक आन्तरिक वस्तु है, बाह्य नहीं।
यद्यपि अरस्तू की राज्य की अवधारणा की अनेक आलोचनाएँ हुई हैं, लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि अरस्तू ही एक ऐसा प्रथम चिन्तक है जिसने राजनीतिक दर्शन में राज्य की उत्पत्ति के विकासवादी सिद्धान्त का बीजारोपण किया है। उसने राज्य को मानव-प्रकृति पर आधारित करके एक महान् ओर शाश्वत सत्य का रहस्योद्घाटन किया है। उसने एक ओर तत्कालीन यूनान में सोफिस्ट विचारधारा द्वारा राज्य के बारे में पैदा की गई भ्रान्तियों का अन्त किया और दूसरी ओर राज्य की आदर्शवादी धारणा का भी खण्डन किया। यदि उसके चिन्तन में कोई दोष है तो उसका कारण उसके चिन्तन का यूनानी नैतिक मान्यताओं से प्रभावित होना है। फिर भी उसने अपने दर्शन को यथासम्भव वैज्ञानिक एवं यथार्थवादी बनाए राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में अमूल्य योगदान दिया है।

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