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अरस्तू का क्रांति संबंधी सिद्धांत (Aristotle's Theory of Revolution)

🚨 अरस्तू का क्रांति संबंधी सिद्धांत (Aristotle's Theory of Revolution)

अरस्तू ने पॉलिटिक्स की पांचवीं पुस्तक में एक अत्यन्त अनुभवी एवं योग्य चिकित्सक की भांति अपने प्रौढ़ राजनीतिक विवेक की सहायता से यूनानियों के राजनीतिक जीवन की इस रुग्णता का विश्लेषण किया है तथा इनका प्रतिकार करने के महत्वपूर्ण उपाय सुझाए हैं। इसमे उसने अपनी परिपक्व राजनीतिक बुद्धिमत्ता तथा यूनानी इतिहास के गम्भीर तथा विशद् ज्ञान का सुन्दर परिचय दिया है, इतिहास के बीसियों शिक्षाप्रद तथा मनोरंजक उदाहरणों का उल्लेख किया है। 

डनिंग के अनुसार अपने इस चिन्तन के लिए उसने बड़ी मात्रा में ऐतिहासिक तथ्यों तथा वैज्ञानिक विश्लेषण को आधार बनाया है एवं समुचित चिन्तन के उपरान्त अनेक उपयोगी सुझाव दिए हैं। क्रान्ति संबंधी अपने समग्र चिन्तन में अरस्तू एक वैज्ञानिक, विश्लेषणकर्ता अधिक रहा है और राजनीतिक अथवा सामाजिक सुधारक कम....एक तटस्थ राजनीतिक चिकित्सक के रूप में उसने राजनीतिक रुग्णता के कारणों को खोजने एवं उनके हर सम्भव उपचार ढूंढ निकालने का प्रयत्न किया है। रोगी के अच्छे अथवा बुरे होने से उसका कोई मतलब नहीं है। उसे तो हर रोगी के हर सम्भव ढंग से उपचार करना है।

अरस्तू को प्रथम राजनीतिक यथार्थवादी कहा जाता है। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह भी है कि उसने तत्कालीन समस्याओं का गहन अध्ययन कर उनके समाधान के व्यावहारिक उपाय बताए हैं। 

मैक्सी के अनुसार, "यूनानी राजीतिक जीवन में क्रान्ति से बढ़कर कोई भयंकर समस्या नहीं थी और पॉलिटिक्स के कई पृष्ठों में वह इसी की विवेचना करता है।

गैटेल के शब्दों में, "पॉलिटिक्स राजनीतिक दर्शन का क्रमबद्ध अध्ययन ही नहीं अपितु शासन की कला पर एक ग्रन्थ है। इसमें अरस्तू यूनानी नगर राज्यों में प्रचलित बुराइयों और उनके राजनीतिक संगठनों के दोषों का विश्लेषण करता है, और ऐसे व्यावहारिक सुझाव देता है जिनसे आपत्तिसूचक भयों को दूर किया जा सकता है।

क्रान्तियों के प्रति इसी यथार्थवादी दृष्टिकोण के कारण पोलक जैसे विचारक यह मानते हैं कि अरस्तू पहला दार्शनिक है जिसने राजनीति को नीतिशास्त्र से पृथक् किया है। 

अरस्तू के क्रान्ति को रोकने के उपायों का अध्ययन करते हुए हमें सहसा कौटिल्य और मेकियावेली का स्मरण हो आता है।

अरस्तू की क्रान्ति संबंधी धारणा को स्पष्ट करते हुए मैकिलवेन ने लिखा है कि "अरस्तू क्रान्ति को कानूनी परिवर्तन के बजाय राजनीतिक परिवर्तन अधिक मानता है। क्रान्ति केवल राज्य के कानूनी आधार का ही नहीं वरन् नैतिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों में भी परिवर्तन करती है।"


क्रान्ति का अर्थ, प्रकार एवं कारण (Meaning, Kinds and Causes of Revolution):–


अरस्तू की क्रान्ति संबंधी धारणा तथा हमारी आज की क्रान्ति संबंधी धारणा में महान् अन्तर है। किसी राज्य में जनता अथवा जनता के किसी भाग द्वारा सशस्त्र विद्रोह का नाम ही क्रान्ति नहीं है। 

अरस्तू के अनुसार "क्रान्ति का अर्थ है संविधान में परिवर्तन।"

संविधान में होने वाला छोटा-बड़ा परिवर्तन, संविधान में किसी प्रकार का संशोधन होना, जनतन्त्र का उग्र या उदार रूप धारण करना, जनतन्त्र द्वारा धनिकनन्त्र का या धनिकतन्त्र द्वारा जनतन्त्र का विनाश किया जाना, सरकार में किसी प्रकार का परिवर्तन हुए बिना एक अत्याचारी शासक का दूसरे को हटाकर अपनी सत्ता स्थापित करना इन सब बातों को अरस्तू क्रान्ति मानता है।

संविधान में पूर्ण परिवर्तन के फलस्वरूप राज्य का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्वरूप पूर्णतया बदल जाता है-इसे हम पूर्ण क्रान्ति कह सकते हैं। यह आवश्यक नही कि इस प्रकार के परिवर्तन के लिए रक्तपात किया जाए। अरस्तू संविधान में परिवर्तन को ही क्रान्ति कहता है और संविधान में परिवर्तन चुनाव, धोखे अथवा रक्तहीन उपायों द्वारा भी हो सकते हैं।


क्रान्तियों के प्रकार (Kinds of Revolutions):–


अरस्तू के अनुसार क्रान्तियाँ अग्र पांच प्रकार की होती हैं:-

(1) आंशिक अथवा पूर्ण क्रान्ति(Complete and Partial Revolution):- 

जब सम्पूर्ण संविधान बदल दिया जाए तो उसे पूर्ण क्रान्ति और जब उसका कोई महत्वपूर्ण भाग बदल दिया जाता है तो उसे आंशिक क्रान्ति कहा जाता है। पूर्ण क्रान्ति में राज्य का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रशासनिक स्वरूप पूर्णतः बदल जाता है। यथा, मौजूदा प्रजातन्त्र धनिकतंत्र में अथवा निरंकुशतन्त्र में अथवा कुलीनतन्त्र में परिवर्तित हो जाता है।

(2) रक्तपूर्ण अथवा रक्तहीन क्रान्ति(Bloody and Bloodless Revolution):- 

जब संविधान में परिवर्तन सशस्त्र विद्रोह के कारण व खून-खराबे के कारण हो तो उसे रक्तपूर्ण क्रान्ति कहेंगे। जब संविधान या शासन का परिवर्तन बिना किसी रक्तपूर्ण उपद्रव के सम्भव होता है तो उसे अरस्तू ने तो रक्तहीन क्रान्ति कहा है।

(3) व्यक्तिगत अथवा गैर-व्यक्तिगत क्रान्ति(Personal and Impersonal Revolution):- 

अरस्तू के अनूसार जब संविधान परिवर्तन किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति को पदच्यूत करने से होता है तो उसे वैयक्तिक क्रान्ति कहेंगे। जब संविधान परिवर्तन का उद्देश्य गैर-व्यक्तिगतहोता है तो उसे अरस्तू ने अवैयक्तिक क्रान्ति की संज्ञा दी है। 

(4) वर्ग विशेष के विरुद्ध क्रान्ति(Revolution Against a Particular Class):- 

इसमें राज्य के निर्धन व्यक्ति राजतन्त्र या धनिकतन्त्र के विरुद्ध विद्रोह करते हैं अथवा धनिक व्यक्ति राजतन्त्र या जनतन्त्र के विरुद्ध क्रान्ति करते हैं। यदि निर्धन व्यक्ति राजा या धनी व्यक्तियों के विरुद्ध विद्रोह करके राज्य में जनतन्त्र की स्थापना कर देते हैं तो उसे जनतन्त्रीय क्रान्ति कहते हैं। यदि राज्य के धनी व्यक्ति जनतन्त्रीय या राजतन्त्रीय सरकार के विरुद्ध विद्रोह करके अपना शासन स्थापित कर लेते हैं तो उसे धनतन्त्रीय क्रान्ति कहते हैं।

(5) वाग्वीरों की क्रान्ति(Demagogic Revolution) :- 

जब किसी राज्य में कुछ करिश्मायी नेतागण अथवा वाग्वीर लोग लुभावनकारी नारों अथवा शब्द-चमत्कार द्वारा अपनी महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने के लिए राज्य में क्रान्ति कर दें तो उसे वाग्वीरों की क्रान्तिकहा जाता है।


क्रान्तियों के कारण (Causes of Revolution):–

अरस्तू ने क्रान्तियों के कारणों को तीन भागों में विभक्त किया है:-

(1) सामान्य कारण (General causes of revolution)

(2) विशिष्ट कारण (Particular causes of revolution);

(3) विशिष्ट शासन प्रणालियों में क्रान्ति के विशिष्ट कारण (Causes of revolution in different kinds of states) 


1. क्रान्ति के सामान्य कारण (General Causes of Revolution):–

अरस्तू क्रान्तियों का सामान्य कारण (मूल कारण) विषमता (Inequality) को मानता है। "क्रान्ति का मूल कारण समानता की भावना है।" समानता दो प्रकार की होती है- संख्यात्मक समानता और योग्यता संबंधी समानता। 

अरस्तू योग्यता संबंधी समानता का तात्पर्य आनुपातिक समानता समझता है। संख्या की दृष्टि से तीन दो से उतना ही बड़ा है, जितना दो एक से, किन्तु आनुपातिक दृष्टि से चार दो से उतना ही बड़ा है, जितना दो एक से, क्योंकि दो चार का वही अंश है जो एक दो का। सब मनुष्य इस बात पर तो सहमत हो जाते हैं कि निरपेक्ष न्याय योग्यता के अनुपात में होना चाहिए, किन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में योग्यता के प्रश्न पर मतभेद रखते हैं। 

कुछ लोगों का विचार है कि यदि मनुष्य किसी एक बात में समान हों तो सभी बातों में समान होने चाहिए। जब ये मनुष्यतत्व की दृष्टि से समान हैं तो उनके अधिकारों, धन-सम्पत्ति आदि में भी समानता होनी चाहिए, किसी प्रकार विषमता नहीं होनी चाहिए। 

दूसरी ओर कुछ व्यक्तियों का यह मत है कि यदि कोई व्यक्ति एक बात में कुल या धन की दृष्टि से दूसरों से बढ़-चढ़कर है तो अन्य सभी बातों में बढ़कर होना चाहिए। 

दोनों विरोधी विचारधाराओं के संघर्ष के कारण विद्रोह होते हैं। उदाहरणार्थ, जनतन्त्र में सब व्यक्तियों के अधिकार समान माने जाते हैं, किन्तु कुलीनतन्त्र और धनिकतन्त्र में उच्च कुलों में उत्पन्न तथा धनवान व्यक्तियों के विशेषाधिकार समझे जाते हैं। अधिकारों की यह विषमता, समानता के सिद्धान्त में विश्वास रखने वाली जनता को सह्य नहीं होती है। अतः धनिकतन्त्रों और जनतन्त्रों में अधिक क्रान्तियाँ होती हैं। 

धनिकतन्त्र में विद्रोह दोहरे ढंग से होते हैं:- 

प्रथम, धनिक वर्ग में ही दो गुट हो जाते हैं और एक गुट दूसरे के विरुद्ध क्रान्ति करता है; 

द्वितीय, धनिक वर्ग के विरुद्ध निर्धन वर्ग विद्रोह करता है, 

किन्तु, जनतन्त्र में जनता का समूह केवल उस राज्य के धनी वर्ग के विरुद्ध क्रान्ति करता है। 

अतः यह स्पष्ट है कि समानता का अर्थ जनतन्त्र और धनिकतन्त्र में एक जैसा नहीं होता और विषमता को दूर कर समानता लाने की भावना से इन दोनों पद्धतियों में अनेक क्रान्तियाँ होती हैं। वस्तुतः क्रान्तियों का मूल कारण न्याय का एकाकी दूषित दृष्टिकोण है। 

जनतन्त्रवादी यह समझते हैं कि सब मनुष्य समान रूप से स्वतन्त्र हैं, अतः उनमें समानता होनी चाहिए। इसके विपरीत, धनिकतन्त्रवादियों का यह विश्वास है कि मनुष्यों में धन की विषमता है, अतः अन्य बातों में भी विषमता होनी चाहिए।

अरस्तू इस स्थिति से उत्पन्न होने वाली मनोदशा को क्रान्ति का सामान्य (मूल कारण) कारण मानते हुए कहता है-"कुछ मनुष्य ऐसे हैं जिनके हृदय समानता की भावना से ओतप्रोत हैं, वे यह जानते हुए विद्रोह खड़ा किया करते हैं कि यद्यपि वे उन लोगों के समान हैं, जो उनसे कहीं अधिक (धन सम्पत्ति) पाए हुए हैं तथापि उनको स्वयं अन्य लोगों से कम (सुविधाएँ) प्राप्त हैं। दूसरे, कुछ विद्रोह करने वाले वे लोग होते हैं जिनका हृदय असमानता (अर्थात् अपनी उच्चता) की भावना से भरा होता है क्योंकि वे यह समझते हैं कि यद्यपि वे अन्य मनुष्यों से बढ़कर हैं तथापि उनको अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक कुछ नहीं मिलता प्रत्युत् या तो दूसरों के बराबर या उनसे कम मिलता है।... इस प्रकार छोटे व्यक्ति बराबर होने के लिए विद्रोही बना करते हैं और बराबर स्थिति वाले बड़े बनने के लिए। यही वह मनोदशा है, जिससे क्रान्तियों की उत्पत्ति होती है।"

2. क्रान्तियों के विशिष्ट कारण (Particular Causes of Revolution):–

क्रान्तियों के सामान्य कारण की चर्चा करने के बाद अरस्तू क्रान्ति के विशिष्ट कारणों की एक लम्बी सूची प्रस्तुत करता है। क्रान्ति के विभिन्न विशिष्ट कारणों का उल्लेख कर अरस्तू ने सामाजिक और आर्थिक वास्तविकता के प्रति अपनी सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। क्रान्ति के विशिष्ट कारण निम्नलिखित हैं:-

1. शासकों की धृष्टता या लालच:-

जब राज्य के शासक या शासन सत्ता से सम्पन्न व्यक्तियों के व्यवहार में धृष्टता या उद्दण्डता आ जाती है और वे लालच के वश में होकर व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक सम्पत्ति को हड़पना आरम्भ कर देते हैं तो जनता उनके विरुद्ध विद्रोह कर देती है।

2. शासन सत्ता का दुरुपयोग:–

जब शासक वर्ग भ्रष्ट हो जाए, इसमें रिश्वत का बोलबाला हो तथा भाई-भतीजावाद उग्र रूप धारण कर ले तब भी क्रान्ति हो सकती है।

3. अयोग्य व्यक्ति का शासन:–

जब शासक अयोग्य हो और शासन की भागीदारी में योग्य लोगों को स्थान न हो तो क्रान्ति की भूमिका बनती है।

4. मध्यम वर्ग का अभाव:–

समाज को दो वर्गों धनवान और निर्धन में बंटना भी क्रान्ति का एक कारण हो सकता है। मध्यमवर्ग, जो समाज में सन्तुलित अवस्था में रहता है, के अभाव में निर्धन वर्ग द्वारा क्रान्ति की सम्भावना हो सकती है।

5. आर्थिक असन्तुलन:–

अरस्तू इस तथ्य पर बहुत जोर देता है। जिस समाज में अमीरी व गरीबी के बीच भारी खाई हो वहां क्रान्ति का होना स्वाभाविक है।

6. विदेशियों का बाहुल्य:–

यदि किसी राज्य में विदेशी बहुत बड़ी संख्या में आ जाएँ तो उससे वहां के नागरिकों को चुनौती मिलती है और इस प्रकार दो संस्कृतियों की टकराहट क्रान्ति को जन्म देती है।

7. सम्मान की लालसा:–

यह सबमें स्वाभाविक है, किन्तु जब शासक किसी को अनुचित रूप से बिना योग्यता या कारण के सम्मानित या अपमानित करते हैं तो जनता रुष्ट होकर विद्रोह कर देती है।

8. भय की भावना:–

भय दो प्रकार के व्यक्तियों को क्रान्ति के लिए बाधित करता है-

  • प्रथम, अपराध करने वाले व्यक्तियों को दण्ड का भय होता है, इससे बचने के लिए वे विद्रोह कर देते हैं। 
  • द्वितीय, कुछ व्यक्तियों को यह डर होता है कि उनके साथ अन्याय होने वाला है। इसके प्रतिकार के लिए वे विद्रोह कर बैठते हैं। इसका उदाहरण रोड्स टापू के कुलीन व्यक्ति थे, साधारण जनता इस पर अभियोग चलाने की धमकियाँ दे रही थी, अतः इन्होंने जनता के विरुद्ध षड्यन्त्र किया।

9. घृणा:-

जब राज्य में एक वर्ग या दल बहुत समय तक सत्तारूढ़ रहता है तब उसका विरोधी वर्ग या दल उससे घृणा करने लगता है। इस घृणा का कुछ समय के बाद क्रान्ति के रूप में विस्फोट होता है। उदाहरणार्थ, धनिकतन्त्र में उस समय क्रान्ति होती है, जब बहुसंख्यक लोगों को नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं होते और वे अपने को शक्तिशाली समझने गलते हैं। जनतन्त्र में विद्रोह तब होता है, जब सम्पत्तिशाली मनुष्यों को राज्य में फैली हुई अव्यवस्था और अराजकता के कारण जनसाधारण से घृणा हो जाती है।

10. पारिवारिक झगड़े 

पारिवारिक झगड़े, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य के कारण भी राज्य में क्रान्ति हो जाती है। राजतन्त्र और कुलीनतन्त्र में तो प्रायः क्रान्तियाँ पारिवारिक घृणा या व्यक्तिगत ईर्ष्या के कारण होती हैं।

11. शासक वर्ग की असावधानी 

क्रान्ति का एक कारण शासक वर्ग की असावधानी होता है। शासक वर्ग कभी-कभी अज्ञान तथा असावधानी के कारण राजद्रोहियों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर देता है। इससे किसी भी समय अवसर प्राप्त होने पर वे व्यक्ति राज्य का तख्ता उलट देते हैं।

12. भौगोलिक स्थिति- 

अरस्तू ने क्रान्ति के विशिष्ट कारणों में राज्य की भौगोलिक स्थिति की भी चर्चा की है। उसने कहा है कि जो राज्य नदियों, घाटियों और पर्वतों से विभिन्न हिस्सों में बंटा है उसके लोग एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में नहीं रहते और इसलिए राज्य का कोई हिस्सा किसी तथ्य को लेकर कभी भी क्रान्ति करने की सुविधा में रहता है। अतः राज्य की भौगोलिक स्थिति, अरस्तू के अनुसार, क्रान्ति के सहायक तत्वों में से एक है।

13. अल्प परिवर्तनों की उपेक्षा 

अल्प परिवर्तनों की उपेक्षा भी कई बार क्रान्ति का कारण होता है। ये छोटे-छोटे परिवर्तन शनैः शनैः महान् परिवर्तन उत्पन्न कर देते हैं, जैसे अम्ब्राकिया में मताधिकार की शर्तों में सामान्य परिवर्तन से शासन में क्रान्ति हो गई।

14. प्रमाद- 

प्रमाद भी क्रान्ति का कारण होता है। जनता अपने आलस्य और उपेक्षा के कारण ऐसे व्यक्तियों को सत्तारूढ़ होने दे सकती है जो वर्तमान शासन के प्रति निष्ठावान नहीं होते और शासन को बदल लेते हैं।

15. निर्वाचन संबंधी षड्यन्त्र 

निर्वाचन संबंधी षड्यन्त्र भी क्रान्ति उत्पन्न करते हैं। हेराइया में चुनावों में बड़े षड्यन्त्र होते थे और इनके कारण परिणाम पहले से ही निश्चित हो जाता था। इस दोष को दूर करने के लिए यहां परची या गोट पद्धति (Lot) को अपना करके निर्वाचन पद्धति में क्रान्ति की गई।

16. परस्पर विरोधी वर्गों का शक्ति में सन्तुलित होना- 

क्रान्तियाँ का एक बड़ा कारण राज्य में परस्पर विरोधी वर्गों (निर्धन एवं धनी आदि) का शक्ति में सन्तुलित होना भी है। जहां एक से दूसरे पक्ष से अधिक प्रबल होता है तो निर्बल पक्ष प्रबल पक्ष के साथ लड़ाई मोल नहीं लेता है, किन्तु, जब दोनों पक्षों में शक्ति सन्तुलन हो तो दोनों को सफलता की सम्भावना होती है और विद्रोह करके सत्ता हस्तगत करने का प्रयत्न करते हैं।  

17. जातीय विभिन्न:–

यदि किसी राज्य में आवश्यकता से अधिक जातियों के लोग रहते हों तो उससे द्वेष, कलह और फूट के कारण राज्य में विद्रोह के आसार हो जाते हैं।  

18. प्रणय-सम्बन्धी झगड़ा:–

अरस्तू के अनुसार प्रणय विवाद भी क्रान्ति का कारण बन सकता है। सिरक्यूज के संविधान में परिवर्तन का मूल कारण यही था।

19. शक्ति का दुरुपयोग:–

जब शासक अत्याचारी होकर जनता व अपने राजनीतिक विरोधियों पर दमनचक्र चलाता है तो उनमें आक्रोश की भावना पैदा होती है। राजशक्ति के प्रति इस आक्रोश से क्रान्ति का बिगुल बज उठता है।

3. विभिन्न शासन प्रणालियों में क्रान्ति के विशिष्ट कारण (Causes of Revolutions in Different Kinds of States):–

क्रान्ति के विशिष्ट कारणों की विवेचना करने के बाद अरस्तू ने विभिन्न शासन प्रणालियों में होने वाली क्रान्तियों का उल्लेख किया है।

प्रजातन्त्र में क्रान्ति:- 

अरस्तू के अनुसार सम्पूर्ण अर्थ में समानता (absolute equality) की भूख प्रजातन्त्र में क्रान्ति पैदा करने वाला एक प्रमुख कारण है। इसके अतिरिक्त प्रजातन्त्र में होने वाली क्रान्तियों के लिए वाग्वीरों के उच्छृंखल व्यवहार को अरस्तू ने प्रमुख रूप से जिम्मेदार माना है। प्रजातन्त्र में ये वाग्वीर नेता कभी तो धनिक वर्ग पर प्रहार करते हैं और कभी जनसाधारण को धनिक वर्ग के विरुद्ध उत्तेजित करते हैं। रोड्स, हेरीक्लीआ, मोगरा आदि नगर राज्यों में इन वाग्वीरों के उच्छृंखल व्यवहार ने ही प्रजातन्त्र विधान को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था; ये वाग्वीर अपने न्यस्त स्वार्थों और अपनी लोकप्रियता बनाये रखने के लिए प्रजातन्त्र में सेनापति पद पर आरूढ़ हैं तो उसकी कार्यवाहियाँ प्रजातन्त्र को नष्ट कर निरंकुशतन्त्र को जन्म देने वाली सिद्ध होती हैं।

धनिकतन्त्र में क्रान्ति:- 

धनिकतन्त्र का आधार यह सिद्धान्त है कि जो लोग किसी एक बात में असमान हैं, वे सभी बातों में बिल्कुल भिन्न हैं। धनिक वर्ग का यह असमानता का सिद्धान्त अपने अन्तिम रूप में धनिकतन्त्र के जीवन के लिए समय-समय पर विभिन्न रूपों में संकट पैदा करता रहता है। इसी असमानता के आभास के कारण सरकार द्वारा जन साधारण की उपेक्षा की जाती है एवं अनुचित व्यवहार किया जाता है। जब जनसाधारण की दयनीय स्थिति पराकाष्ठा तक पहुंच जाती है तो शासक वर्ग के ही किसी महत्वाकांक्षी व्यक्ति को जनसाधारण का नेता बनने का अवसर बड़ी सुगमता से प्राप्त हो जाता है और क्रान्ति का सूत्रपात होता है। अरस्तू के अनुसार अपने न्यस्त स्वार्थों के कारण धनिक वर्ग में से ही लोग धनिकतन्त्र की कब्र खोदने वाले बन जाते हैं। प्रायः ऐसा देखा गया है कि धनिक वर्ग के वे व्यक्ति जिन्हें शासन संचालन में हाथ बंटाने का अवसर प्राप्त नहीं होता, वर्गद्रोही बन जाते हैं।

धनिकतन्त्र में क्रान्ति का सूत्रपात उस स्थिति में भी हो जाता है जबकि शासक वर्ग के कुछ लोग फिजूलखर्ची द्वारा अपनी समस्त सम्पत्ति को स्वाह कर देते हैं। ऐसे लोग क्रान्ति के माध्य से शासन सत्ता हथिया कर निरंकुश बनने की मनोकामना रखते हैं ताकि अपने दरिद्रता से छुटकारा पाने की आशा कर सकते हैं। सिराक्यूज, एम्फीपोलिस तथा एजिना आदि राज्यों में इसी प्रकार के लोगों ने उपद्रव पैदा किये। शादी विवाह, पारस्परिक झगड़े-फसाद तथा कुछ आकस्मिक घटनाओं के द्वारा भी क्रान्ति का सूत्रपात हो सकता है। अरस्तू का यह भी कहना है कि धनिकतन्त्रों में सम्पत्ति के आधार पर मतदान का निर्णय किया जाता है, वहां आर्थिक समृद्धि के कारण मतदाताओं की संख्या में भारी वृद्धिा हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप विधान में परिवर्तन हो जाता है।

कुलीनतन्त्र में क्रान्ति:- 

अरस्तू के अनुसार कुलीनतन्त्र के जनसाधारण में जब यह धारणा पैदा हो जाती है कि वे श्रेष्ठता में शासक वर्ग के अनुरूप है तो कुलीनतन्त्र में विग्रह का शुभारम्भ हो सकता है। इसी कुलीनतन्त्र में विग्रह होने का एक अवसर उस स्थिति में भी उपस्थित होता है जब सर्वश्रेष्ठ प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है अथवा जब तेजस्वी पुरुषों को शासन संचालन का गौरव प्राप्त नहीं होता। विद्रोह का एक अवसर इस कारण भी उपस्थित हो सकता है कि शासक वर्ग का एक अंग युद्ध, अथवा किसी अन्य कारण से अत्यन्त दरिद्र हो जाये एवं अपने राज्य सहयोगियों से सम्पत्ति के पुनः विभाजन की मांग कर बैठे। कुलीनतन्त्र का सबसे घातक शत्रु, अरस्तू इस विधान में उपस्थित धनिकतन्त्र के तत्वों को मानता है।

राजतन्त्र में क्रान्ति:- 

राजतन्त्र को अरस्तू उन विधानों में मानता है जिनको बाह्य कारण सहसा नष्ट नहीं कर सकते एवं जिनकी कमजोरियाँ ही उनके उन्मूलन का कारण बनती हैं। राजतन्त्र में राज परिवार में आन्तरिक कलह होने पर अथवा राजा के निरंकुश बनने के प्रयास करने पर ही विद्रोह की उपस्थिति पैदा होती है। राजा द्वारा किये जाने वाले अन्यायपूर्ण अपमान एवं अन्य लोगों को पहुंचायी जाने वाली क्षति भी राजतन्त्र को नुकसान पहुंचा देती है। निरंकुशतन्त्र में क्रान्ति-निरंकुशतन्त्र व्यक्तिगत स्वार्थों की असीमित रूप में पूर्ति के उद्देश्य को लेकर स्थापित होता है। इसमें विद्रोह का मुख्य कारण अन्यायपूर्ण उत्पीड़न, आतंक, अत्यधिक तिरस्कार आदि होते हैं। असह्य अपमान, सम्पत्ति का अपहरण आदि कुछ प्रमुख प्रकार के अन्यायपूर्ण उत्पीड़न कहे जा सकते हैं। अपने प्रियजनों, सम्बन्धियों आदि के साथ किया जाने वाला यौन संबंधी अपमानजनक व्यवहार निरंकुशतन्त्र विधानों के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। इसी प्रकार अत्यधिक भय अथवा तिरस्कार की भावना भी निरंकुशतन्त्र विधानों के हित में नहीं होती। आन्तरिक कलह तथा विग्रह भी निरंकुशतन्त्र को नष्ट कर देता है।

Note:– अरस्तू के अनुसार घृणा तथा तिरस्कार प्रमुख रूप से निरंकुश तन्त्र के लिए घातक प्रमाणित होते हैं, अत्याचारी शासक शीघ्र ही अपने विरुद्ध घृणा का वातावरण तैयार कर लेते हैं। उनका भोगविलासमय जीवन अन्य लोगों में घृणा तथा तिरस्कार के भाव भर देता है जिसके परिणामस्वरूप निरंकुश शासक का पतन होता है।


क्रान्तियों को रोकने के उपाय (Remedies For The Prevention of Revolution):–

अरस्तू ने क्रान्तियों के कारणों का ही विश्लेषण नहीं किया है अपितु एक चिकित्सक की भांति उनके निदान के उपाय भी बताये हैं। डनिंग के अनुसार, "अरस्तू क्रान्तियों को उत्पन्न करने वाले कारणों की विस्तृत सूची देने के पश्चात उसके समान ही प्रभावोत्पादक उनको रोकने वाले उपायों की सूची भी देता है।" मैक्सी का कथन है कि आधुनिक राजनीतिक विचारक शायद ही क्रान्ति को रोकने का अरस्तू के उपायों के अतिरिक्त कोई अन्य ठोस उपाय बता सकें। अरस्तू द्वारा, क्रान्तियों से बचने के उपाय निम्नलिखित हैं:-

1. संविधान के प्रति आस्था:-

अरस्तू के अनुसार संविधान के प्रति आस्था रखना क्रान्ति से बचने का महत्वपूर्ण उपाय है। शासक वर्ग इस बात का हर सम्भव उपाय करे कि जनता द्वारा कानून की आज्ञाओं का पालन हो।

कानून उल्लंघन करने की छोटी-छोटी घटनाएँ भी महत्वपूर्ण हैं, अतः उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

2. शासक एवं शासितों में सम्वाद:-

अरस्तू यह आवश्यक मानता है कि शासक व शासितों के बीच निरन्तर सम्वाद बना रहे, शासक शासितों को शासन के समक्ष आने वाली समस्याओं से अवगत करवाये एवं शासित अपनी समस्याएँ शासकों के समक्ष रख सकें। इस प्रकार का सम्वाद व सम्वाद की विभिन्न प्रक्रियाओं का बना रहना क्रान्ति को दूर करने का सबल उपाय है।

3. विधि का शासन:-

अरस्तू जिस बात पर बल देता है, वह है विधि का शासन। व्यक्ति के शासन की अपेक्षा विधि का शासन सदा अच्छा होता है क्योंकि इसमें विधि द्वारा शासक की महत्वाकांक्षाओं पर नियन्त्रण हो सकता है।

4. समानता का व्यवहार:-

विषमता क्रान्ति की जननी है अतः शासन का लक्ष्य सदैव समानता का व्यवहार होना चाहिए। अरस्तू का यह मत है कि शासन के पदों की अवधि छः मास होनी चाहिए ताकि अधिक से अधिक व्यक्ति शासक बन सकें, थोड़े समय के लिए शासनरूढ़ व्यक्ति अन्याय नहीं कर सकते।

5. मध्यम वर्ग की प्रधानता:–

अरस्तू की मान्यता है कि मध्यम वर्ग सदा मर्यादा तथा स्वामित्व का हामी रहा है. इसलिए इसकी प्रधानता का होना क्रान्ति को रोकने का सबल उपाय है।

6. आर्थिक समानता:-

समाज में अत्यधिक आर्थिक असमानता क्रान्ति का एक महत्वपूर्ण कारण है। इस कारण के निवारण के लिए अरस्तू का मत है कि राज्य की ओर से यह प्रयत्न होना चाहिए कि समाज में आर्थिक असमानता कम से कम हो। धन का वितरण इस प्रकार होना चाहिए कि न तो कोई वर्ग अत्यन्त धनवान बन जाए और न दूसरा वर्ग अत्यन्त निर्धन।

7. समुचित शिक्षा पद्धति:-

किसी शासन प्रणाली की स्थिरता के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा पद्धति उस शासन पद्धति के अनुरूप हो। बच्चों को शुरू से उस प्रणाली के ढांचे में ऐसा प्रशिक्षित करना चाहिए कि वे उस व्यवस्था को आदर्श मानते हुए अपना जीवन उसी के अनुसार ढालने का प्रयत्न करें।

8. विदेशी समस्याओं की तरफ जनता का ध्यान केन्द्रित करना:–

शासकों को चाहिए कि वे राज्य की जनता का ध्यान देश की आन्तरिक समस्याओं की ओर से हटाकर विदेशी मामलों की ओर केन्द्रित करें। राज्य में विदेशी आक्रमण का भय आदि दिखाकर वह जनता में देश प्रेम की भावना को सदा जागृत रखें। अरस्तू के शब्दों में, "शासक जो राज्य की चिन्ता करते हैं, उन्हें चाहिए कि वे नये खतरों का अन्वेषण करें, दूर के भय को समीप लाएँ ताकि जनता पहरेदार की भांति अपनी रक्षा के लिए सदा सचेत और तत्पर रहे।"

9. राजकीय पदों एवं सम्मानों का न्यायोचित वितरण:–

अरस्तू के अनुसार राज्य में पदों और सम्मान का वितरण समान होना चाहिए। योग्य व्यक्तियों का उनका उचित मान और पद प्राप्त होना चाहिए। एक ही वर्ग के व्यक्तियों को अथवा राज्य के एक ही भाग के व्यक्तियों को सारे पद नहीं दे देने चाहिए अन्यथा शेष वर्ग अथवा वर्गों में असन्तोष उत्पन्न हो जाता है। साथ ही इस संबंध में सचेत भी रहना चाहिए कि कहीं अवांछनीय व्यक्तियों को राज्य के पद प्राप्त न हो जाएँ।

10. परिवर्तनों पर निगरानी:–

क्रान्ति शासन व्यवस्था और संविधान में परिवर्तन करती है। अतः अरस्तू ने कहा है कि राज्य को क्रान्ति से बचाने के लिए परिवर्तनों पर निगरानी रखनी चाहिए। जो परिवर्तन क्रान्ति की और अग्रसर होने वाले हों, उन पर तुरन्त रोक लगानी चाहिए। इस प्रकार क्रान्ति से राज्य की रक्षा हो सकेगी।

11. धनार्जन पर नियन्त्रण:–

क्रान्ति को रोकने के लिए अरस्तू ने शासकों के धनार्जन पर नियन्त्रण रखने की बात कही है।

12. शासकों में परस्पर सद्भाव:-

अरस्तू शासक वर्ग के बीच सद्भाव व तालमेल बनाये रखने पर भी जोर देता है।


संक्षेप में, क्रान्ति को रोकने के लिए अरस्तू मध्य वर्ग पर आधारित मिश्रित संविधान और शिक्षा पर सबसे अधिक जोर देता है।


विशिष्ट शासन प्रणालियों में क्रान्ति को रोकने के लिए विशिष्ट उपाय (Means of Avoiding Sedition in Particular States):–


राजतन्त्र में:–  

क्रान्ति को रोकने के लिए अरस्तू ने संयताचार (Moderation) को अनिवार्य माना है। जो शासक संयत व्यवहार करता है एवं जितनी मात्रा में संयत व्यवहार करता है उसका शासन उतना ही स्थायी हो जाता है क्योंकि जनता में उस शासन के प्रति द्वेष की भावना का अभाव होता है।

निरंकुशतन्त्र:- 

निरंकुशतन्त्र में क्रान्ति को रोकने के लिए अरस्तू ने निम्न सुझाव दिये हैं-

(1) शासन की समस्त बागडोर अपने हाथ में रखते हुए भी निरंकुश इस प्रकार का सफल अभिनय करे कि वह राजा है निरंकुश नहीं। 

(2) उसे सार्वजनिक आय के प्रति सजग रहना चाहिए तथा सार्वजनिक धन का उपहार आदि देने में अपव्यय नहीं करना चाहिए। 

(3) कर आदि लगाने एवं उगाहने में भी उसे इस प्रकार दर्शाना चाहिए कि यह कर जन साधारण के हित में खर्च करने के लिए वसूल किया जा रहा है। 

(4) निरंकुश का व्यक्तिगत व्यवहार गम्भीर होना चाहिए जिससे उसके सम्पर्क में आने वाले लोगों में उसके प्रति श्रद्ध मिश्रित डर रहे, किन्तु आतंक पैदा न हो।

प्रजातन्त्र:- 

प्रजातन्त्र विधान में क्रान्ति को रोकने के लिए अरस्तू ने सुझाया है कि सम्पन्न लोगों के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाये एवं उनकी सम्पत्ति को किसी प्रकार नुकसान न पहुंचाया जाये। इसी प्रकार लोगों को खर्चीले, किन्तु अनुपयोगी लोक सेवा कार्य भी नहीं करने देना चाहिए।

धनिकतन्त्र:- 

धनिकतन्त्र में क्रान्ति को रोकने के लिए गरीबों की और पूरा ध्यान रखना उचित होगा। उनको उचित मात्रा में शासन में सहयोग करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। धनिक द्वारा किसी गरीबी के साथ दुर्व्यवहार किये जाने पर उस धनिक को कठोर दण्ड दिया जाना उपयुक्त होगा। धनिकतन्त्र के हित में एक बात यह भी है कि यथासम्भव सम्पत्ति एवं जागीरों की समानता हो और उनका अधिक लोगों में बंटबारा हो सके, इसके लिए अरस्तू ने यह सुझाव दिया है कि सम्पत्ति का उत्तराधिकार दान के आधार पर न होकर सन्तति क्रम के आधार पर हो तथा किसी भी व्यक्ति को एक से अधिक सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त न हो सके।


अरस्तू के क्रान्ति संबंधी विचारों की विशेषताएँ (Salient Features of Aristotle's Theory of Revolution):–


अरस्तू के क्रान्ति संबंधी विचारों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:-

प्रथम, अरस्तू के क्रान्ति 'शब्द' का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। न केवल राज्य में एवं विधान में होने वाले महत्वपूर्ण परिवर्तनों को ही उसने क्रान्ति माना है, अपितु विधान के स्वरूप में किंचित मात्रा होने वाले परिवर्तन को भी वह क्रान्ति की संज्ञा देता है। 

द्वितीय, अरस्तू ने जहां क्रान्तियों की विशद विवेचना की है वहां सैद्धांतिक रूप से इस विषय पर विचार व्यक्त नहीं किया कि प्रजा को क्रान्ति करने का अधिकार है अथवा नहीं। उसने हर प्रमुख प्रकार के विधान में क्रान्तियों के होने के कारणों का उल्लेख किया है एवं उनके निदान का मार्ग सुझाया है, किन्तु क्रान्तियों के औचित्य अथवा अनौचित्य पर कोई मत व्यक्त नहीं किया। 

तृतीय, अरस्तू के क्रान्ति विषयक विचारों से एक तथ्य हमें यह स्पष्ट अवश्य हो जाता है कि क्रान्तियाँ शासक वर्ग एवं शासित वर्ग में पाये जाने वाले विरोध का अवश्यम्भावी परिणाम है। 

चतुर्थ, अरस्तू के विवेचन से यह भी स्पष्ट होता है कि आर्थिक विषमताएँ भी क्रान्तियों का सृजन करती हैं। 

पंचम, अरस्तू क्रान्तियों को कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं मानता था। कुल मिलाकर वह यही वांछनीय समझता था कि हर प्रकार के विधान में स्थायित्व कायम रहे।

आलोचकों के अनुसार मार्क्स और लेनिन की भांति अरस्तू अपने विचारों द्वारा सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन का हिमायती नहीं था। वह एक रूढ़िवादी और यथापूर्व स्थिति का पोषक था क्योंकि उसने क्रान्तियों को रोकने के संबंध में सविस्तार प्रस्तुत किया है तथापि यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि उसने क्रान्ति के कारणों तथा उनके निराकरण के साधनों का एक ऐसा विवेचन प्रस्तुत किया है जो पूर्णतः यथार्थवादी है। इसीलिए मैक्सी ने लिखा है कि, "समकालीन राजनीति विज्ञान क्रान्ति के विष के प्रतिकार के लिए इससे अधिक विश्वसनीय उपायों का निर्देश नहीं कर सकता।"

"पॉलिटिक्स के वे पृष्ठ जो इस समस्या (क्रान्ति) का निरूपण करते हैं, राजनेताओं के लिए आने वाले समस्त युगों में मार्ग निर्देशिका (Handbook) का कार्य करेंगे।"


अरस्तू के क्रान्ति सम्बन्धी विचारों की आलोचनाएँ(Criticisms):–

1. वह एक तरफ तो निरंकुश तन्त्र को सबसे निकृष्ट शासन-प्रणाली मानता है, लेकिन दूसरी तरफ इसे स्थायित्व प्रदान करने के उपाय बताता है जो अनावश्यक और अवांछनीय प्रतीत होता है।

2. अरस्तू क्रान्ति को एक बुराई की नजर से देखता है, अच्छाई की नजर से नहीं। आलोचकों के मत में क्रान्ति द्वारा सुधार व वांछनीय परिवर्तन लाए जा सकते हैं और किसी भी व्यवस्था को उचित दिशा में स्थायित्व प्रदान किया जा सकता है।

3. अरस्तू ने 'क्रान्ति' शब्द का प्रयोग केवल संविधान और शासन प्रणालियों में परिवर्तन के अर्थ में किया है। आलोचकों का मत है कि 'क्रान्ति' शब्द इतना व्यापक है कि इसका प्रयोग किसी भी क्षेत्र में किया जा सकता है।

4. अरस्तू ने अपने विचारों से निरंकुश शासक के हाथ में कुछ ऐसी खतरनाक, क्रूर और अमानुषिक युक्तियाँ दी हैं जिनसे जनता के सारे अधिकार, सारी मान-मर्यादाएँ और सम्पत्ति लूटी जा सकती है।

उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद भी इन विचारों का अपना विशेष महत्त्व है। अरस्तू ने क्रान्ति के कारणों व उसे रोकने के उपायों की वास्तविक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक व्याख्या कर राजनीतिक दर्शन के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा है। अरस्तू द्वारा बताए गए क्रान्ति के कारण आधुनिक शासन-प्रणालियों के लिए भी मार्गदर्शक का कार्य करते हैं। यदि शासकों द्वारा अरस्तू बताए गए उपचारों का पालन किया जाए तो आधुनिक राजनीतिक व्यवस्थाओं में स्थायित्व का गुण पैदा किया जा सकता है। मैक्सी ने कहा है- "क्रान्ति को रोकने के जिन साधनों का प्रतिपादन अरस्तू ने किया है क्या आधुनिक राजनीतिक-विज्ञान उनसे अधिक उपयोगी व कारगार साधन प्रस्तुत कर सकता है।" अतः यह अरस्तू की महत्त्वपूर्ण देन है।

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