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सिंधु घाटी की कलाएँ

सिंधु घाटी की कलाएँ

सिंधु नदी की घाटी में कला का उद्भव ईसा-पूर्व तीसरी सहस्राब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ था। 

इस सभ्यता के विभिन्न स्थलों से कला के जो रूप प्राप्‍त हुए हैं, उनमें प्रतिमाएँ, मुहरें, मिट्टी के बर्तन, आभूषण, पकी हुई मिट्टी की मूर्तियाँ आदि शामिल हैं। 

उस समय के कलाकारों में निश्‍चित रूप से उच्च कोटि की कलात्मक सूझ-बूझ और कल्पनाशक्‍ति विद्यमान थी। उनके द्वारा बनाई गई मनुष्यों तथा पशुओं की मूर्तियाँ अत्यंत स्वाभाविक किस्म की हैं क्योंकि उनमें अंगों की बनावट असली अंगों जैसी ही है। 

मृण्‍मूर्तियों में जानवरों की मूर्तियों का निर्माण बड़ी सूझ-बूझ और सावधानी के साथ किया गया था।

सिंधु घाटी सभ्यता के दो प्रमुख स्थल हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो नगर थे, जिनमें से हड़प्पा उत्तर में और मोहनजोदड़ो दक्षिण में सिंधु नदी के तट पर बसे हुये थे। ये दोनों नगर सुंदर नगर नियोजन की कला के प्राचीनतम उदाहरण थे। इन नगरों में रहने के मकान, बाजार, भंडार घर, कार्यालय, सार्वजनिक स्नानागार आदि सभी अत्यंत व्यवस्थित रूप से यथास्थान बनाए गए थे। इन नगरों में जल निकासी की व्यवस्था भी काफी विकसित थी। 

हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो इस समय पाकिस्तान में स्थित हैं। कुछ अन्य महत्वपूर्ण स्थलों से भी हमें कला-वस्तुओं के नमूने मिले हैं, जिनके नाम हैं—लोथल और धौलावीरा (गुजरात), राखीगढ़ी (हरियाणा), रोपड़ (पंजाब) तथा कालीबंगा (राजस्थान)


पत्‍थर की मूर्तियाँ:–

हड़प्पाई स्थलों पर पाई गई मूर्तियाँ, भले ही वे पत्थर, कांसे या मिट्टी की बनी हों, संख्या की दृष्‍टि से बहुत अधिक नहीं हैं पर कला की दृष्‍टि से उच्च कोटि की हैं। 

हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाई गई पत्थर की मूर्तियाँ त्रि-आयामी वस्तुएं बनाने का उत्कृष्‍ट उदाहरण हैं। 

पत्थर की मूर्तियों में दो पुरुष प्रतिमाएं बहुचर्चित हैं, जिनमें से एक पुरुष धड़ है, जो लाल चूना पत्थर का बना है और दूसरी दाढ़ी वाले पुरुष की आवक्ष मूर्ति है, जो सेलखड़ी की बनी है।

दाढ़ी वाले पुजारी की प्रतिमा

दाढ़ी वाले पुरुष को एक धार्मिक व्यक्‍ति माना जाता है। इस आवक्ष मूर्ति को शाॅल ओढ़े हुए दिखाया गया है। शॉल बाएं कंधे के ऊपर से और दाहिनी भुजा के नीचे से डाली गई है। शाॅल त्रिफुलिया नमूनों से सजी हुई है।आँखें कुछ लंबी और आधी बंद दिखाई गई हैं, मानों वह पुरुष ध्यानावस्थित हो। नाक सुंदर बनी हुई है और होंठ कुछ आगे निकले हुए हैं जिनके बीच की रेखा गहरी है। दाढ़ी-मूँछ और गलमुच्छें चेहरे पर उभरी हुई दिखाई गई हैं। कान सीप जैसे दिखाई देते हैं और उनके बीच में छेद हैं। बालों को बीच की मांग के द्वारा दो हिस्सों में बाँटा गया है और सिर के चारों ओर एक सादा बना हुआ फीता बंधा हुआ दिखाया गया है। दाहिनी भुजा पर एक बाजूबंद है और गर्दन के चारों ओर छोटे-छोटे छेद बने हैं जिससे लगता है कि वह हार पहने हुए है।

पुरुष धड़ 

कांसे की ढलाई:–

हड़प्पा के लोग कांसे की ढलाई बड़े पैमाने पर करते थे और इस काम में प्रवीण थे। इनकी कांस्य मूर्तियाँ कांसे को ढालकर बनाई जाती थीं। इस तकनीक के अंतर्गत सर्वप्रथम मोम की एक प्रतिमा या मूर्ति बनाई जाती थी। इसे चिकनी मिट्टी से पूरी तरह लीपकर सूखने के लिए छोड़ दिया जाता था। जब वह पूरी तरह सूख जाती थी तो उसे गर्म किया जाता था और उसके मिट्टी के आवरण में एक छोटा सा छेद बनाकर उस छेद के रास्ते सारा पिघला हुआ मोम बाहर निकाल दिया जाता था। इसके बाद चिकनी मिट्टी के खाली सांचे में उसी छेद के रास्ते पिघली हुई धातु भर दी जाती थी। जब वह धातु ठंडी होकर ठोस हो जाती थी तो चिकनी मिट्टी के आवरण को हटा दिया जाता था। कांस्य में मनुष्यों और जानवरों दोनों की ही मूर्तियाँ बनाई गई हैं। 

मानव मूर्तियों का सर्वोत्तम नमूना है एक लड़की की मूर्ति, जिसे नर्तकी के रूप में जाना जाता है। 

कांसे की बनी हुई जानवरों की मूर्तियों में भैंस और बकरी की मूर्तियाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। भैंस का सिर और कमर ऊँची उठी हुई है तथा सींग फैले हुए हैं। 

सिंधु सभ्यता के सभी केंद्रों में कांसे की ढलाई का काम बहुतायत में होता था। लोथल में पाया गया तांबे का कुत्ता और पक्षी तथा कालीबंगा में पाई गई साँड़ की कांस्य मूर्ति को हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाई गई ताँबे और कांसे की मानव मूर्तियों से किसी प्रकार भी कमतर नहीं कहा जा सकता।

आज भी देश के कई भागों में कांसे की ढलाई की इस तकनीक से इस प्रकार के कार्य करने की परंपरा चली आ रही है।

मिट्टी से बनी आकृति/मृण्मूर्तियाँ (टेराकोटा):–

सिंधु घाटी के लोग मिट्टी की मूर्तियाँ भी बनाते थे लेकिन वे पत्थर और कांसे की मूर्तियों जितनी बढ़िया नहीं होती थीं। 

सिंधु घाटी की मूर्तियों में मातृदेवी की प्रतिमाएं अधिक उल्लेखलीय हैं। कालीबंगा और लोथल में पाई गई नारी मूर्तियाँ हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाई गई मातृदेवी की मूर्तियों से बहुत ही अलग तरह की हैं। 

मिट्टी की मूर्तियों में कुछ दाढ़ी-मूँछ वाले ऐसे पुरुषों की भी छोटी-छोटी मूर्तियाँ पाई गई हैं, जिनके बाल गुंथे हुए (कुंडलित) हैं, जो एकदम सीधे खड़े हुए हैं, टांगें थोड़ी चौड़ी हैं और भुजाएं शरीर के समानांतर नीचे की ओर लटकी हुई हैं। ठीक ऐसी ही मुद्रा में मूर्तियाँ बार-बार पाई गई हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि ये किसी देवता की मूर्तियाँ हैं। 

एक सींग वाले देवता का मिट्टी का बना मुखौटा भी मिला है। 

इनके अलावा, मिट्टी की बनी पहिएदार गाड़ियाँ, छकड़े, सीटियाँ, पशु-पक्षियों की आकृतियाँ, खेलने के पासे, गिट्टियाँ, चक्रिका (डिस्क) भी मिली हैं।

टेराकोटा के खिलौने:–

मुद्राएँ (मुहरें):–

पुरातत्वविदों को हज़ारों की संख्या में मुहरें (मुद्राएं) मिली हैं, जो आमतौर पर सेलखड़ी और कभी-कभी गोमेद, चकमक पत्थर, तांबा, कांस्य और मिट्टी से बनाई गई थीं। 

उन पर एक सींग वाले साँड़, गैंडा, बाघ, हाथी, जंगली भैंसा, बकरा, भैंसा आदि पशुओं की सुंदर आकृतियाँ बनी हुई थीं। 

इन आकृतियों में प्रदर्शित विभिन्न स्वाभाविक मनोभावों की अभिव्यक्‍ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन मुद्राओं को तैयार करने का उद्देश्य मुख्यत: वाणिज्यिक था। 

ऐसा प्रतीत होता है कि ये मुद्राएं बाजूबंद के तौर पर भी कुछ लोगों द्वारा पहनी जाती थीं जिनसे उन व्यक्‍तियों की पहचान की जा सकती थी, जैसे कि आजकल लोग पहचान पत्र धारण करते हैं। 

हड़प्पा की मानक मुद्रा 2x2 इंच की वर्गाकार पटिया होती थी, जो आमतौर पर सेलखड़ी से बनाई जाती थी। प्रत्येक मुद्रा में एक चित्रात्मक लिपि खुदी होती थी जो अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है। कुछ मुद्राएँ हाथीदांत की भी पाई गई हैं। 

मुद्राओं के डिज़ाइन अनेक प्रकार के होते थे पर अधिकांश में कोई जानवर, जैसे कि कूबड़दार या बिना कूबड़ वाला साँड़, हाथी, बाघ, बकरे और दैत्याकार जानवर बने होते हैं। 

उनमें कहीं-कहीं पेड़ों और मानवों की आकृतियाँ भी बनी पाई गई हैं। 

इनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय एक ऐसी मुद्रा है जिसके केंद्र में एक मानव आकृति और उसके चारों ओर कई जानवर बने हैं। इस मुद्रा को कुछ विद्वानों द्वारा पशुपति मुद्रा कहा जाता है (आकार 1/2 से 2 इंच तक के वर्ग या आयत के रूप में) जबकि कुछ अन्य इसे किसी देवी की आकृति मानते हैं। इस मुद्रा में एक मानव आकृति पालथी मारकर बैठी हुई दिखाई गई है। इस मानव आकृति के दाहिनी ओर एक हाथी और एक बाघ (शेर) है जबकि बाँयी ओर एक गैंडा और भैंसा दिखाए गए हैं। इन पशुओं के अलावा, स्टूल के नीचे दो बारहसिंगे हैं। इस तरह की मुद्राएं 2500 –1900 ई.पू. की हैं और ये सिंधु घाटी के प्राचीन नगर मोहनजोदड़ो जैसे अनेक पुरास्थलों पर बड़ी संख्या में पाई गई हैं। इनकी सतहों पर मानव और पशु आकृतियाँ उत्कीर्ण हैं।

इन मुद्राओं के अलावा, तांबे की वर्गाकार या आयताकार पट्टियाँ (टैबलेट) पाई गई हैं, जिनमें एक ओर मानव आकृति और दूसरी ओर कोई अभिलेख अथवा दोनों ओर ही कोई अभिलेख है। इन पट्टियों पर आकृतियाँ और अभिलेख किसी नोकदार औजार (छेनी) से सावधानीपूर्वक काटकर अंकित किए गए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये ताम्रपट्टियाँ बाजूबंद की तरह भुजा पर बांधी जाती थीं। मुद्राओं पर अंकित अभिलेख हर मामले में अलग-अलग किस्म के होते थे, मगर इन ताम्रपट्टियों पर अंकित अभिलेख उन पशुओं से ही संबद्ध थे, जो उन पर चित्रित किए गए थे।

मृद्भांड:–

इन पुरास्थलों से बड़ी संख्‍या में प्राप्‍त मृद्भांडों (मिट्टी के बर्तनों) की शक्ल सूरत तथा उन्हें बनाने की शैलियों से हमें तत्कालीन डिज़ाइनों के भिन्न-भिन्न रूपों तथा विषयों के विकास का पता चलता है। सिंधु घाटी में पाए गए मिट्टी के बर्तन अधिकतर कुम्हार की चाक पर बनाए गए बर्तन हैं, हाथ से बनाए गए बर्तन नहीं। इनमें रंग किए हुए बर्तन कम और सादे बर्तन अधिक हैं। ये सादे बर्तन आमतौर पर लाल चिकनी मिट्टी के बने हैं। इनमें से कुछ पर सुंदर लाल या स्लेटी लेप लगी है। कुछ घुंडीदार पात्र हैं, जो घुंडियों की पंक्‍तियों से सजे हैं। काले रंगीन बर्तनों पर लाल लेप की एक सुंदर परत है, जिस पर चमकीले काले रंग से ज्यामितीय आकृतियाँ और पशुओं के डिज़ाइन बने हैं।

बहुरंगी मृद्भांड बहुत कम पाए गए हैं। इनमें मुख्यत: छोटे-छोटे कलश शामिल हैं जिन पर लाल, काले, हरे और कभी-कभार सफ़ेद तथा पीले रंगों में ज्यामितीय आकृतियाँ बनी हुई हैं। उत्कीर्णित बर्तन भी बहुत कम पाए गए हैं; और जो पाए गए हैं, उनमें उत्कीर्णन की सजावट पेंदे पर और बलि-स्तंभ की तश्तरियों तक ही सीमित थी। 

छिद्रित पात्रों में एक बड़ा छिद्र बर्तन के तल पर और छोटे छेद उनकी दीवार पर सर्वत्र पाए गए हैं। ऐसे बर्तन शायद पेय पदार्थों को छानने के काम में लाए जाते थे। घरेलू कामकाज में प्रयोग किए जाने वाले मिट्टी के बर्तन अनेक रूपों तथा आकारों में पाए गए हैं। सीधे और कोणीय रूपों वाले बर्तन अपवाद के तौर पर भले ही मिले हों, पर लगभग सभी बर्तनों में सुंदर मोड़ पाए गए हैं। छोटे-छोटे पात्र, जो अधिकतर आधे इंच से भी कम ऊंचाई वाले हैं, खासतौर पर इतने अधिक सुंदर बने हुए हैं कि कोई भी दर्शक उनकी प्रशंसा किए बिना नहीं रहता।

आभूषण:–

हड़प्पा के पुरुष और स्त्रियां अपने आपको तरह-तरह के आभूषणों से सजाते थे। ये गहने बहुमूल्य धातुओं और रत्नों से लेकर हड्डी और पकी हुई मिट्टी तक के बने होते थे। गले के हार, फीते, बाजूबंद और अंगूठियाँ आमतौर पर पुरुषों और स्त्रियों दोनों के द्वारा समान रूप से पहनी जाती थीं, पर करधनियाँ, बुंदे (कर्णफूल) और पैरों के कड़े या पैजनियाँ स्त्रियाँ ही पहना करती थीं। मोहनजोदड़ो और लोथल से ढेरों गहने मिले हैं, जिनमें साेने और मूल्यवान नगों के हार, तांबे के कड़े और मनके, सोने के कुंडल, बुंदे/झुमके और शीर्ष-आभूषण, लटकनें तथा बटनें और सेलखड़ी के मनके तथा बहुमूल्य रत्न शामिल हैं। सभी आभूषणों को सुंदर ढंग से बनाया गया है। यह ध्यान देने वाली बात है कि हरियाणा के फरमाना पुरास्थल पर एक कब्रिस्तान (शवाधान) पाया गया है, जहाँ शवों को गहनों के साथ दफनाया गया है।

चन्हुदड़ो और लोथल में पाई गई कार्यशालाओं से पता चलता है कि मनके बनाने का उद्योग काफी अधिक विकसित था। मनके कार्नीलियन, जमुनिया, सूर्यकांत, स्फटिक, कांचमणि, सेलखड़ी, फीरोज़ा, लाजवर्द मणि आदि के बने होते थे। इसके अलावा तांबा, कांसा और सोने जैसी धातुएँ और शंख-सीपियां और पकी मिट्टी भी मनके बनाने के काम में आती थीं। मनके तरह-तरह के रूप और आकार के होते थे—कोई तश्तरीनुमा, बेलनाकार, गोल या ढोलकाकार होता था तो कोई कई खंडों में विभाजित। कुछ मनके दो या अधिक पत्थरों के जोड़ से बने होते थे, कुछ पत्थर पर सोने का आवरण चढ़ा होता था, कुछ को काटकर या रंगकर सुंदर बनाया जाता था तो कुछ में तरह-तरह के नमूने खुदे होते थे। मनकों के निर्माण में अत्यधिक तकनीकी कुशलता का प्रयोग दर्शाया गया है।

हड़प्पा के लोग पशुओं, विशेष रूप से बंदरों और गिलहरियों के नमूने बनाते थे, जो एकदम असली जैसे दिखाई देते थे। इनका उपयोग पिन की नोक और मनकों के रूप में किया जाता था।

सिंधु घाटी के घरों में बड़ी संख्या में तकुए और तकुआ चक्रियां भी मिली हैं, जिससे पता चलता है कि उन दिनों कपास और ऊन की कताई बहुत प्रचलित थी। गरीब और अमीर दोनों तरह के लोगों में कताई का आम रिवाज था। यह तथ्य इस बात से उजागर होता है कि तकुए की चक्रियां मिट्टी तथा सीपियों की बनी हुई पाई गई हैं। पुरुष और स्‍त्रियाँ, धोती और शाॅल जैसे दो अलग-अलग कपड़े पहनते थे। शाॅल दाएं कंधे के नीचे से ले जाकर बाएं कंधे के ऊपर ओढ़ी जाती थी।

पुरातत्वीय खोजों में मिली चीजों से यह प्रतीत होता है कि सिंधु घाटी के लोग साज-सिंगार और फ़ैशन के प्रति काफ़ी जागरूक थे। उनमें केश-सज्जा की भिन्न-भिन्न शैलियां प्रचलित थीं। पुरुष दाढ़ी-मूँछ रखते थे। स्‍त्रियों सुंदर दिखने के लिए सिंदूर, काजल, लाली का प्रयोग करती थीं और चेहरे पर लेप लगाती थीं। धौलावीरा में पत्थरों के ढाँचों के अनेक अवशेष मिले हैं जिनसे यह प्रकट होता है कि सिंधु घाटी के लोग अपने घर आदि के निर्माण में पत्थर का प्रयोग करते थे।

सिंधु घाटी के कलाकार एवं शिल्पकार अनेकों शिल्पों में अत्यधिक पारंगत थे जिनमें धातु का ढलाव, पत्थरों पर नक्काशी, मिट्टी के बर्तन बनाना और उन्हें रंगना एवं जानवरों, पौधों और पक्षियों के साधारण रूप को लेकर टेराकोटा का निर्माण मुख्य है।


नर्तकी की मूर्ति

सिंधु घाटी की कलाकृतियों में एक सर्वोत्कृष्ट कृति एक नाचती हुई लड़की यानी नर्तकी की कांस्य प्रतिमा है, जिसकी ऊँचाई लगभग चार इंच है। मोहनजोदड़ो में पाई गई यह मूर्ति तत्कालीन ढलाई कला का एक उत्तम नमूना है। नर्तकी की त्वचा का रंग सांवला दिखाया गया है। वह लगभग निर्वस्‍त्र है और उसके लंबे केश सिर के पीछे एक जूड़े के रूप में गुंथे हुए हैं। उसकी बाँई भुजा चूि‍ड़यों में ढकी हुई है। वह अपनी दाँई भुजा के ऊपरी भाग में बाजूबंद और नीचे के भाग में कड़ा पहने हुए है। कौड़यों से बना एक हार उसके गले की शोभा बढ़ा रहा है। उसका दाहिना हाथ उसकी कमर पर टिका है और बायाँ हाथ परंपरागत भारतीय नृत्य की मुद्रा में उसके घुटने से कुछ ऊपर बाँई जंघा पर टिका हुआ प्रतीत होता है। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी और नाक चपटी है। यह आकृति भावाभिव्यक्‍ति और शारीरिक ऊर्जा से ओतप्रोत है और हमें बहुत कुछ कह रही है।

वृषभ प्रतिमा

मोहनजोदड़ो में पाई गई यह कांस्य प्रतिमा विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि इसमें एक भारी भरकम वृषभ को आक्रामक मुद्रा में बखूबी प्रस्तुत किया गया है। वृषभ गुस्से में अपना सिर दाँई ओर घुमाए हुए है और उसके गले में एक रस्सा बंधा हुआ है।

पुरुष धड़

पुरुष धड़ की यह मूर्ति लाल बलुआ पत्थर की बनी है। इसमें सिर और भुजाएं जोड़ने के लिए गर्दन और कंधो में गड्ढे बने हुए हैं। धड़ के सामने वाले हिस्से को एक विशेष मुद्रा में सोच-समझकर बनाया गया है। कंधे अच्छे पके हुए हैं और पेट कुछ बाहर निकला हुआ है।

चित्रित मृद्भांड 

मोहनजोदड़ो में पाया गया यह पात्र कुम्हार की चाक पर चिकनी मिट्टी से बना हुआ है। कुम्हार ने अपनी कुशल अंगुलियों की सहायता से उसे एक आकर्षक रूप दिया है। आग में पकाने के बाद इस मिट्टी के पात्र को काले रंग से रंगा गया था। इस पर बने हुए चित्र वनस्पतियों और ज्यामितीय आकृतियों के हैं। वैसे तो ये चित्र साधारण हैं लेकिन इनमें अमूर्तिकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है।

मातृका

मातृका की मूर्तियों को आमतौर पर भद्दी अपरिष्कृत खड़ी मुद्रा में, उन्नत उरोजों पर हार लटकाए और कमर के चारों ओर एक अधोवस्त्र लपेटे हुए और करधनी पहने हुए दिखाया गया है। सिर पर पंखे जैसा आवरण और दोनों तरफ़ प्यालेनुमा उभार सिंधु घाटी की मातृ-देवी की प्रतिमाओं की एक आलंकारिक विशेषता है। इन आकृतियों की गोल-गोल आँखें और चोंच जैसी नाक बहुत भद्दी दिखाई देती है और उनका मुँह ऐसा लगता है कि जैसे चीरकर बनाया गया हो।

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  दुर्ग

1726 ईस्वी का राजलेख

1726 ईस्वी का राजलेख इसके तहत कलकात्ता, बंबई तथा मद्रास प्रेसिडेंसीयों के गवर्नर तथा उसकी परिषद को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गई, जो पहले कंपनी के इंग्लैंड स्थित विद्युत बोर्ड को प्राप्त थी।  यह सीमित थी क्योंकि - (1) यह ब्रिटिश विधियों के विपरीत नहीं हो सकती थी। (2) यह तभी प्रभावित होंगी जब इंग्लैंड स्थित कंपनी का निदेशक बोर्ड अनुमोदित कर दे। Charter Act of 1726 AD  Under this, the Governor of Calcutta, Bombay and Madras Presidencies and its Council were empowered to make laws, which was previously with the Company's Electricity Board based in England.  It was limited because -  (1) It could not be contrary to British statutes.  (2) It shall be affected only when the Board of Directors of the England-based company approves.