सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

केन्ज़ का रोजगार सिद्धांत(KEYNES IS THEORY OF EMPLOYMENT)

केन्ज़ का रोजगार सिद्धांत

केन्ज़ का रोजगार सिद्धांत अल्पकाल के लिए है क्योंकि यह अल्पकाल के लिए पूंजी की मात्रा, जनसंख्या व श्रम शक्ति, तकनीकी ज्ञान, श्रमिकों की कार्य कुशलता अधिक को स्थिर मानता है। अतः रोजगार की मात्रा राष्ट्रीय आय अथवा उत्पादन के स्तर पर निर्भर करती है । इन सभी के अल्पकाल में स्थिर होने के कारण पहले से बेरोजगार श्रमिकों को काम में लगाकर राष्ट्रीय आय को बढ़ाया जा सकता है। 

केन्ज़ का सिद्धांत रोजगार निर्धारण और राष्ट्रीय आय के निर्धारण का सिद्धांत है। रोजगार तथा राष्ट्रीय आय दोनों को निर्धारित करने वाले तत्व समान है।

रोजगार अथवा आय के निर्धारण के आधारभूत विचार के रूप में प्रभावी अथवा समर्थ मांग का नियम दिया। इस नियम के अनुसार किसी देश में अल्पकाल में रोजगार की मात्रा वस्तुओं के लिए समस्त समर्थ मांग पर निर्भर करती है अर्थात् समस्त समर्थ मांग जितनी अधिक होगी रोजगार की मात्रा उतनी ही है अधिक होगी।

संपूर्ण अर्थव्यवस्था में रोजगार का निर्धारण समस्त पूर्ति और समस्त मांग द्वारा होता है ।


समस्त पूर्ति कीमत :-

अर्थव्यवस्था के सभी उद्यमी श्रमिकों की विभिन्न संख्याओं को कम पर लगाते हैं तो उन्हें उन श्रमिकों द्वारा बनाई गई कुल  वस्तुओं के लिए तथा कार्य अथवा रोजगार पर लगाए रखने हेतु  जितनी कुल मुद्रा राशि की लागत (उत्पादन की कुल लागत) उद्यमी को उठानी पड़ती है, उसे समस्त पूर्ति कीमत कहा जाता है ।


समस्त पूर्ति वक्र :-

अर्थव्यवस्था की कुल लागत या समस्त पूर्ति कीमत रोजगार पर लगाए गए श्रमिकों के अनुसार अलग-अलग होती है , जिससे एक वक्र द्वारा प्रकट किया जा सकता है । इस वक्र को समस्त पूर्ति वक्र कहा जाता है । 

यह वक्र उत्पादन संबंधी भौतिक अथवा तकनीक स्थितियों पर निर्भर करता है , अल्पकाल में स्थिर रहती है ।

समस्त मांग :-

देश की जनता द्वारा एक वर्ष में वस्तु तथा सेवाओं परकिया जाने वाला वास्तविक व्यय ।

समस्त मांग वक्र रोजगार के विभिन्न स्तरों पर समस्त मांग कीमतों को व्यक्त करता है ।

रोजगार के भिन्न - भिन्न स्तरों परसमस्त मांग कीमत भी भिन्न - भिन्न होती है ।

यदि कुल मांग और वे में समानुपात वृद्धि होती है तो समस्त मांग वक्र ऊपर की ओर चढ़ता हुआ सरल रेखा के आकार का होगा किंतु वास्तव में समस्त मांग में तो वृद्धि होती है किंतु कम दर से वृद्धि होती है जिससे अधिक रोजगार व उत्पादन पर समस्त मांग वक्र की ढाल घट जाती है ।

समर्थ मांग:-

समस्त मांग और समस्त पूर्ति का संतुलन अल्पकालीन संतुलन होता है और इस संतुलन स्तर पर समस्त मांग समर्थ मांग कहलाती है ।

देश के अल्पकाल में रोजगार समर्थ मांग द्वारा निर्धारित होता है और समर्थ मांग उपभोग मांग तथा निवेश मांग पर निर्भर करती है ।

अतः केन्ज़ ने मांग पक्ष के माध्यम से रोजगार संबंधी समस्या को हल करने की कोशिश की ।

केन्ज़  के अनुसार समर्थ मांग को बढ़ाकर रोजगार को बढ़ाया जा सकता है तथा रोजगार के संतुलन का निर्धारण उस बिंदु पर होता है, जहां समस्त पूर्ति वक्र व समस्त मंगवाकर एक दूसरे को काटते हैं ।


उपर्युक्त रेखाकृति में एक काल्पनिक अर्थव्यवस्था के समस्त पूर्ति वक्र (Aggregate Supply Curve) तथा समस्त माँग-वक्र (Aggregate Demand Curve) खींचे गए हैं। सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में जितने व्यक्ति काम पर लगाये गए हैं, उनकी संख्या को तो X- अक्ष पर दिखाया गया है और उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं को बेचने से सभी उद्यमियों को कुल प्राप्त होने वाली रकम (receipts or proceeds) को, अर्थात् जितनी कुल रकम सारा समाज उद्यमियों द्वारा प्रस्तुत उत्पादन पर व्यय करता है, उसको Y- अक्ष पर दिखाया गया है।

पहले समस्त पूर्ति वक्र AS को देखें। यह दिखलाता है कि उत्पादन को बेचने से उद्यमियों को जितनी भिन्न-भिन्न कुल राशियाँ प्राप्त होती हैं, उनके अनुसार वे सभी सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में कुल कितने व्यक्तियों को रोज़गार पर लगाने के लिए तैयार होंगे। उदाहरणतया, यदि उद्यमियों को निश्चित हो कि उन्हें N1 C रुपये अवश्य प्राप्त होंगे, तो वे श्रमिकों की ON संख्या को रोज़गार पर लगायेंगे। अब समस्त माँग के वक्र AD को देखें । यह दिखलाता है कि रोज़गार के भिन्न स्तरों पर उद्यमियों को कितनी - कितनी कुल राशि प्राप्त होने की आशा है। उदाहरणतया जब वे ON व्यक्तियों को रोजगार पर लगाते हैं तो वे आशा करते हैं कि उन्हें NH रुपये ON व्यक्तियों द्वारा किये गये उत्पादन को बेचने से प्राप्त होंगे।

AS वक्र में एक विशेष देखने योग्य बात यह कि यह वक्र पहले धीमी गति से ऊँचा उठता है। इसका तात्पर्य यह है कि ज्यों-ज्यों रोज़गार पर लगाये गए व्यक्तियों की संख्या बढ़ाई जाती है, उत्पादन पर लागत शीघ्र गति से नहीं बढ़ती अर्थात् आरम्भ में उत्पादन लागत शीघ्र गति से नहीं बढ़ती । यदि उद्यमियों को जो आय प्राप्त होती है, वह बढ़ती जाती है तो वे रोज़गार बढ़ाते जाएँगे यहाँ तक कि जितने भी व्यक्ति रोज़गार चाहते हैं वे सभी रोज़गार में लगा लिए जाते हैं। रेखाकृति में कुल ONF व्यक्ति रोज़गार चाहते हैं, तो ज्योंही उद्यमियों को कुल NR मुद्रा - राशि प्राप्त होने लग जाती है, वे उन सभी व्यक्तियों को लगाने के लिए उद्यत हो जाते हैं। परन्तु अब यदि उद्यमियों को प्राप्त होने वाली राशि NFR अथवा OT से भले ही बढ़ जाए, कुल रोज़गार ON से आगे नहीं बढ़ सकता अर्थात् इस बिन्दु पर पूर्ण रोजगार स्थापित हो जाएगा। अत: ONF स्तर पर समस्त पूर्ति वक्र AS लम्बरूप (vertical) हो जाता है।

अब AD वक्र की आकृति को ध्यानपूर्वक समझें। यह आरम्भ में ही बड़ी तीव्रता से ऊँचा चढ़ने लग जाता है। यह इस बात का सूचक है कि जब पहले-पहल रोज़गार बढ़ता है तो उद्यमियों को उत्पादन से जो राशि वास्तव में प्राप्त होने की आशा हाती है, वह तेजी से बढ़ने लग जाती है । परन्तु रोज़गार के पर्याप्त बढ़ जाने पर प्राप्त होने वाली राशि इतनी तेजी से नहीं बढ़ती।

अर्थव्यवस्था की समस्त माँग और समस्त पूर्ति द्वारा ही यह निर्धारित होता है कि उद्यमियों द्वारा कुल कितने व्यक्ति रोज़गार पर लगाए जाएँगे (The aggregate demand and aggregate supply of any community together determine the volume of employment which is actually offered by entrepreneurs ) । यदि स्थिति ऐसी हो गई है कि जितनी कुल राशि उद्यमियों को अपना उत्पादन बेचकर मिलने की आशा है (अर्थात् समस्त माँग ) वह उस राशि से अधिक है जो उद्यमियों को अवश्य प्राप्त होनी चाहिये (जो उनके द्वारा उठाई गई लागत के समान होती है) जिससे वे रोज़गार के उस स्तर को प्रस्तुत करने के लिए तैयार हों (अर्थात् समस्त पूर्ति), तो उन्हें श्रमिकों को अपने यहां उत्पादन कार्य में लगाने से लाभ प्राप्त होगा और इस लिए उद्यमियों में श्रमिकों को अपने यहाँ लगाने के लिए आपस में प्रतियोगिता रहेगी जिससे अर्थव्यवस्था में रोज़गार बढ़ेगा। दूसरे शब्दों में, जब तक समस्त-मांग अथवा व्यय (aggregate demand or expenditure) समस्त - पूर्ति लागत (aggregate supply cost) से अधिक होगी तो लाभ अर्जित करने के अवसर मौजूद होंगे और उद्यमी रोजगार बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित होंगे। रेखाकृति में बिन्दु E से बाईं ओर, अर्थात् जब तक रोज़गार ON2 नहीं हो जाता, समस्त मांग (AD) समस्त पूर्ति (AS) से अधिक है, अर्थात् अर्थव्यवस्था में उद्यमियों द्वारा प्रस्तुत उत्पादन की माँग कीमत उनकी पूर्ति - कीमत से अधिक है। अतः स्वाभाविक है कि उद्यमी अधिक श्रमिक रोज़गार पर लगाने के लिए प्रोत्साहित होंगे और इसके परिणामस्वरूप अधिक श्रमिक रोज़गार पर लगाये जाएँगे ।

अब यदि रोज़गार पर लगे श्रमिकों की संख्या ON से बढ़ जाती है, तो AD वक्र AS वक्र के नीचे चला जाता है, अर्थात् समस्त पूर्ति लागत ( AS) समस्त माँग की व्यय राशि (AD) की तुलना में अधिक हो जाती है। ON 2 से अधिक रोज़गार के प्रत्येक स्तर पर उद्यमियों को अपना कुल उत्पादन बेचकर जितनी कुल राशि मिलने की आशा है वह उस कुल राशि की तुलना में कम है जो उन्हें श्रमिकों के उस रोज़गार के स्तर पर अवश्य मिलनी चाहिए (अर्थात् उनकी लागत) ताकि वे उतने श्रमिकों को काम पर लगाए रखें। दूसरे शब्दों में, रोजगार ON2 स्तर से बढ़ जाने पर उद्यमियों को लाभ के स्थान पर हानि होगी, अतः वे कम व्यक्ति काम पर लगायेंगे। इस प्रकार श्रमिकों की जो छँटनी (retrenchment) होगी, वह तब तक होती चली जाएगी जब तक कि कुल रोज़गार ON2 तक नहीं पहुंच जाता। ON2 रोज़गार का वह स्तर है जहाँ समस्त माँग वक्र (AD curve) और समस्त पूर्ति - वक्र ( AS curve) एक दूसरे को काटते हैं। दूसरे शब्दों में, सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में रोज़गार तब सन्तुलन की अवस्था में होगा जब उद्यमियों को अपना उत्पादन बेचने से उतनी राशि मिलने की आशा होती है जितनी राशि उन्हें अवश्य मिलनी चाहिए जिससे वे रोज़गार के उस स्तर को प्रस्तुत करने पर उद्यत हों (Employment in the economy as a whole will be in equilibrium only when the amount of proceeds which entrepreneurs expect to receive from providing any given number of jobs is just equal to the amount which they must receive if the employment of those men is to be worthwhile for the entrepreneurs) |


केन्ज़ के अनुसार मगर यह आवश्यक नहीं है कि संतुलन के स्तर पर पूर्ण रोजगार हो अर्थात् रोजगार संतुलन के बिंदु के बाद भी अनैच्छिक बेरोजगारी बनी रह सकती है ।

उपर्युक्त रेखाकृति  में AS वक्र अर्थव्यवस्था का समस्त पूर्ति वक्र है और AD वक्र इसका समस्त माँग वक्र है। इस दशा में चूँकि ये दो वक्र एक दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं जिसका यह अर्थ है कि ON2 श्रमिक रोजगार पर लगाए जाते हैं और उद्यमियों को कुल OM रुपए प्राप्त होने की आशा है। अर्थव्यवस्था की समस्त माँग और समस्त पूर्ति की इस दी गई दशा में ON2 संतुलन रोज़गार का स्तर ( level of equilibrium employment) है। परन्तु जैसाकि रेखाकृति में दिखाया गया है, कुल ON श्रमिक रोज़गार चाहते हैं, अर्थात् पूर्ण रोज़गार तब होगा जब ON श्रमिकों को रोज़गार दिया जाएगा। अन्य शब्दों में, इस दशा में रोज़गार सन्तुलन की अवस्था में तो है परन्तु पूर्ण रोज़गार प्राप्त नहीं है वरन् N2NE श्रमिक अभी बेकार हैं। यह बेकारी तभी हटेगी जब कि किन्हीं अनुकूल कारणों से समस्त माँग इतनी बढ़ जाए (अर्थात् OM रु. से बढ़कर OT रू. हो जाय) कि उद्यमी ON श्रमिकों को काम पर लगाने को तत्पर हो जाते हैं और कोई ऐसा व्यक्ति जो काम चाहता है बेकार नहीं बचा रहता। रेखाकृति में केवल R बिन्दु वाली स्थिति पूर्ण रोज़गार को प्रकट करती है। अर्थव्यवस्था की वह सन्तुलन स्थिति जिससे पूर्ण रोज़गार होता है " इष्टतम" स्थिति कहलाती है। जब कभी अर्थव्यवस्था इस प्रकार की इष्टतम अवस्था में नहीं होती तो इसमें बेरोज़गारी पाई जाती है। प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री (Classical economists) यह मानने को तैयार नहीं थे कि अर्थव्यवस्था में ऐसा सन्तुलन भी हो सकता है जिसमें बेरोज़गारी हो । परन्तु रेखाकृति में हमने देखा कि जब समस्त माँग और समस्त पूर्ति एक दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं तब अर्थव्यवस्था सन्तुलन में तो है परन्तु अभी बड़ी मात्रा में बेकारी है। N2Nf श्रमिक रोज़गार चाहते हैं परन्तु बिना रोज़गार के हैं। दूसरे शब्दों में, N2Nf के समान अनैच्छिक बेरोज़गारी (involuntary unemployment) है।

केन्ज़ ने पीगू उसे मत का भी खंडन किया जिसमें उसने बताया था की मजदूरी दर को घटाकर बेरोजगारी दूर की जा सकती है और पूर्ण रोजगार संतुलन स्थापित किया जा सकता है |

केन्ज़ ने बताया कि मजदूरी दर अर्थव्यवस्था के उद्योगों की उत्पादन लागत के साथ श्रमिक वर्ग की आय भी है। श्रमिकों की आय घटना से उपभोग मांग घट जाएगी और समस्त मांग वक्र नीचे की ओर सरक जाएगा। उत्पादन लागत कम होने से दूसरी ओर समस्त पूर्ति वक्र भी नीचे की ओर विवर्तित होगा। अतः मजदूरी दर घट देने से अपूर्ण रोजगार संतुलन बना रहेगा और बेरोजगारी भी काम नहीं होगी।

केन्ज़ ने रोजगार तथा आय में वृद्धि के लिए तथा मंदी व बेरोजगारी से निकलने के लिए मौद्रिक तथा राजकोषीय नीति अपनाने पर भी बल दिया।  

मौद्रिक नीति के अंतर्गत मुद्रा पूर्ति में वृद्धि करने से ब्याज की दर घट सकती हैं जिससे निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जा सकता है।  निवेश बढ़ने सेमांग में वृद्धि होगी , रोजगार व आय का स्तर बढ़ेगा और मंदी दूर होगी। मगर केन्ज़ के अनुसार निवेश मांग वक्र ब्याज दर के प्रति अधिक लोचदार नहीं होता। अतः राजकोषीय नीति पर अधिक बल देना चाहिए।  

राजकोषीय नीति के अंतर्गत सार्वजनिक परियोजनाओं पर व्यय को बढ़ा देना चाहिए। सरकारी व्यय के  बढ़ने से समस्त मांग वक्र ऊपर की ओर विवर्तित होगा।  इससे रोजगार तथा  आय का स्तर बढ़ेगा और मंदी दूर होगी। राजकोषीय नीति के अंतर्गत् करों  को घटकर भी समस्त मांग को बढ़ाया जा सकता है।  इससे व्यक्तिगत आयकर घटा देने से लोगों के उपभोग योग्य आय में वृद्धि होगी और उपभोग मांग ऊपर की ओर विवर्तित हो जाएगी।


केन्ज़ के अनुसार 1930 की मंदी में निवेश के अवसर कम हो गए । इससे अल्प मांग उत्पन्न बेरोजगारी  हो गई । निवेश घटने से आय गुणक प्रतिकूल दिशा में कार्यशील हो गया अर्थात जब निवेश घटने लगा तो आय और रोजगार निवेश में कमी की तुलना में कहीं अधिक मात्रा में घटने लगे । गुणन प्रभाव से मंदी और अधिक गंभीर हो गई ।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

प्राकृतिक रेशे

प्राकृतिक रेशे रेशे दो प्रकार के होते हैं - 1. प्राकृतिक रेशे - वे रेशे जो पौधे एवं जंतुओं से प्राप्त होते हैं, प्राकृतिक रेशे कहलाते हैं।  उदाहरण- कपास,ऊन,पटसन, मूॅंज,रेशम(सिल्क) आदि। 2. संश्लेषित या कृत्रिम रेशे - मानव द्वारा विभिन्न रसायनों से बनाए गए रेशे कृत्रिम या संश्लेषित रेशे कहलाते हैं।  उदाहरण-रियॉन, डेक्रॉन,नायलॉन आदि। प्राकृतिक रेशों को दो भागों में बांटा गया हैं - (1)पादप रेशे - वे रेशे जो पादपों से प्राप्त होते हैं।  उदाहरण - रूई, जूूट, पटसन । रूई - यह कपास नामक पादप के फल से प्राप्त होती है। हस्त चयन प्रक्रिया से कपास के फलों से प्राप्त की जाती है। बिनौला -कपास तत्वों से ढका कपास का बीज। कपास ओटना -कंकतन द्वारा रूई को बनौलों से अलग करना। [Note:- बीटी कपास (BT Cotton) एक परजीवी कपास है। यह कपास के बॉल्स को छेदकर नुकसान पहुँचाने वाले कीटों के लिए प्रतिरोधी कपास है। कुछ कीट कपास के बॉल्स को नष्ट करके किसानों को आर्थिक हानि पहुँचाते हैं। वैज्ञानिकों ने कपास में एक ऐसे बीटी जीन को ...

1600 ईस्वी का राजलेख

  1600 ईस्वी का राजलेख 👉 इसके तहत कंपनी को 15 वर्षों के लिए पूर्वी देशों में व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया। 👉 यह राजलेख महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने  31 दिसंबर, 1600 ई. को जारी किया। 👉 कंपनी के भारत शासन की समस्त शक्तियां एक गवर्नर(निदेशक), एक उप-गवर्नर (उप-निदेशक) तथा उसकी 24 सदस्यीय परिषद को सौंप दी गई तथा कंपनी के सुचारू प्रबंधन हेतु नियमों तथा अध्यादेश को बनाने का अधिकार दिया गया। 👉 ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के समय इसकी कुल पूंजी  30133 पौण्ड थी तथा इसमें कुल 217 भागीदार थे। 👉 कंपनी के शासन को व्यवस्थित करने हेतु कलकत्ता, बंबई तथा मद्रास को प्रेसीडेंसी नगर बना दिया गया तथा इसका शासन प्रेसीडेंसी व उसकी परिषद् करती थी। 👉 महारानी एलिजाबेथ ने ईस्ट इंडिया कंपनी को लॉर्ड मेयर की अध्यक्षता में पूर्वी देशों में व्यापार करने की आज्ञा प्रदान की थी। 👉 आंग्ल- भारतीय विधि- संहिताओं के निर्माण एवं विकास की नींव 1600 ई. के चार्टर से प्रारंभ हुई। 👉 ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना कार्य सूरत से प्रारंभ किया। 👉 इस समय भारत में मुगल सम्राट अकबर का शास...

संवैधानिक विकास

संवैधानिक विकास 👉 31 दिसंबर 1600 को महारानी एलिजाबेथ प्रथम के चार्टर के माध्यम से अंग्रेज भारत आए।  👉 प्रारंभ में इनका मुख्य उद्देश्य व्यापार था जो ईस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से शुरू किया गया।  👉 मुगल बादशाह 1764 में बक्सर के युद्ध में विजय के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को दीवानी अधिकार दिए। 👉 1765 ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल,बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी अधिकार प्राप्त कर लीए। 👉 1858 ईस्वी में हुए सैनिक विद्रोह ऐसे भारत शासन का दायित्व सीधा ब्रिटिश ताज ने ले लिया। 👉 सर्वप्रथम आजाद भारत हेतु संविधान की अवधारणा एम. एन. राय के द्वारा 1934 में दी गई।  👉 एम. एन. राय के सुझावों को अमल में लाने के उद्देश्य से 1946 में सविधान सभा का गठन किया गया। 👉 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ। 👉 संविधान की अनेक विशेषता ब्रिटिश शासन चली गई तथा अन्य देशों से भी, जिनका क्रमवार विकास निम्न प्रकार से हुआ- 1. कंपनी का शासन (1773 ई. - 1858 ई. तक)  2. ब्रिटिश ताज का शासन (1858 ई. – 1947 ई. तक) Constitutional development 👉The Brit...

1781 ई. का एक्ट ऑफ सेटलमेंट

1781 ई. का Act of settlement(बंदोबस्त कानून) 👉 1773 ई. के रेगुलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद के प्रवर समिति के अध्यक्ष एडमंड बर्क के सुझाव पर इस एक्ट का प्रावधान किया गया। 👉 इसके अन्य  नाम - संशोधनात्मक अधिनियम (amending act) , बंगाल जुडीकेचर एक्ट 1781 इस एक्ट की विशेषताएं:- 👉कलकत्ता के सभी निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय के अधिकर क्षेत्र के अंतर्गत कर दिया गया। 👉 इसके तहत कलकत्ता सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार दे दिया गया। अब कलकत्ता की सरकार को विधि बनाने की दो श्रोत प्राप्त हो गए:-  1. रेगुलेटिंग एक्ट के तहत कलकत्ता प्रेसिडेंसी के लिए 2. एक्ट ऑफ सेटलमेंट के अधीन बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के दीवानी प्रदेशों के लिए 👉 सर्वोच्च न्यायालय के लिए आदेशों और विधियों के संपादन में भारतीयों के धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाजों तथा परंपराओं का ध्यान रखने का आदेश दिया गया अर्थात् हिंदुओं व मुसलमानों के धर्मानुसार मामले तय करने का प्रावधान किया गया । 👉 सरकारी अधिकारी की हैसियत से किए गए कार्यों के लिए कंपनी ...

राजस्थान नगरपालिका ( सामान क्रय और अनुबंध) नियम, 1974

  राजस्थान नगरपालिका ( सामान क्रय और अनुबंध) नियम , 1974 कुल नियम:- 17 जी.एस.आर./ 311 (3 ) – राजस्थान नगरपालिका अधिनियम , 1959 (1959 का अधिनियम सं. 38) की धारा 298 और 80 के साथ पठित धारा 297 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए , राज्य सरकार इसके द्वारा , निम्नलिखित नियम बनाती हैं , अर्थात्   नियम 1. संक्षिप्त नाम और प्रारम्भ – ( 1) इन नियमों का नाम राजस्थान नगरपालिका (सामान क्रय और अनुबंध) नियम , 1974 है। ( 2) ये नियम , राजपत्र में इनके प्रकाशन की तारीख से एक मास पश्चात् प्रवृत्त होंगे। राजपत्र में प्रकाशन:- 16 फरवरी 1975 [भाग 4 (ग)(1)] लागू या प्रभावी:- 16 मार्च 1975 [ 1. अधिसूचना सं. एफ. 3 (2) (75 एल.एस.जी./ 74 दिनांक 27-11-1974 राजस्थान राजपत्र भाग IV ( ग) ( I) दिनांक 16-2-1975 को प्रकाशित एवं दिनांक 16-3-1975 से प्रभावी।]   नियम 2. परिभाषाएँ – इन नियमों में , जब तक संदर्भ द्वारा अन्यथा अपेक्षित न हो , (i) ' बोर्ड ' के अन्तर्गत नगर परिषद् ( Municipal Council) आती है ; (ii) ' क्रय अधिकारी ' या ' माँगकर्त्ता अधिकार...

वैश्विक राजनीति का परिचय(Introducing Global Politics)

🌏 वैश्विक राजनीति का परिचय( Introducing Global Politics)

ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

 🗺  ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

अरस्तू

🧠   अरस्तू यूनान के दार्शनिक  अरस्तू का जन्म 384 ईसा पूर्व में मेसीडोनिया के स्टेजिरा/स्तातागीर (Stagira) नामक नगर में हुआ था। अरस्तू के पिता निकोमाकस मेसीडोनिया (राजधानी–पेल्ला) के राजा तथा सिकन्दर के पितामह एमण्टस (Amyntas) के मित्र और चिकित्सक थे। माता फैस्टिस गृहणी थी। अन्त में प्लेटो के विद्या मन्दिर (Academy) के शान्त कुंजों में ही आकर आश्रय ग्रहण करता है। प्लेटो की देख-रेख में उसने आठ या बीस वर्ष तक विद्याध्ययन किया। अरस्तू यूनान की अमर गुरु-शिष्य परम्परा का तीसरा सोपान था।  यूनान का दर्शन बीज की तरह सुकरात में आया, लता की भांति प्लेटो में फैला और पुष्प की भाँति अरस्तू में खिल गया। गुरु-शिष्यों की इतनी महान तीन पीढ़ियाँ विश्व इतिहास में बहुत ही कम दृष्टिगोचर होती हैं।  सुकरात महान के आदर्शवादी तथा कवित्वमय शिष्य प्लेटो का यथार्थवादी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला शिष्य अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। मानव जीवन तथा प्रकृति विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो, जो उनके चिन्तन से अछूता बचा हो। उसकी इसी प्रतिभा के कारण कोई उसे 'बुद्धिमानों का गुरु' कहता है तो कोई ...

राजस्थान के दुर्ग

  दुर्ग

1726 ईस्वी का राजलेख

1726 ईस्वी का राजलेख इसके तहत कलकात्ता, बंबई तथा मद्रास प्रेसिडेंसीयों के गवर्नर तथा उसकी परिषद को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गई, जो पहले कंपनी के इंग्लैंड स्थित विद्युत बोर्ड को प्राप्त थी।  यह सीमित थी क्योंकि - (1) यह ब्रिटिश विधियों के विपरीत नहीं हो सकती थी। (2) यह तभी प्रभावित होंगी जब इंग्लैंड स्थित कंपनी का निदेशक बोर्ड अनुमोदित कर दे। Charter Act of 1726 AD  Under this, the Governor of Calcutta, Bombay and Madras Presidencies and its Council were empowered to make laws, which was previously with the Company's Electricity Board based in England.  It was limited because -  (1) It could not be contrary to British statutes.  (2) It shall be affected only when the Board of Directors of the England-based company approves.