समष्टि अर्थशास्त्र के मुख्य विषय
- रोज़गार तथा बेरोज़गार (Employment and Unemployment)
- राष्ट्रीय आय का निर्धारण (Determination of National Income)
- भुगतान शेष तथा विदेशी विनिमय दर (Balance of Payments and Foreign Exchange Rate)
- व्यापारिक चक्र (Business
Cycles)
- सामान्य कीमत स्तर तथा मुद्रास्फीति (General Price Level and Inflation)
- स्थैतिक-स्फीति (Stagflation)
- आर्थिक विकास (Economic
Growth)
- राष्ट्रीय आय में विभिन्न वर्गों के सापेक्ष भाग (Relative Shares in National
Income)
इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है:-
रोज़गार तथा
बेरोज़गार (Employment
and Unemployment):-
समष्टि
अर्थशास्त्र का एक मुख्य विषय यह है कि एक मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था में
रोज़गार की मात्रा का निर्धारण किस प्रकार होता है और अनैच्छिक बेराजगारी की
समस्या क्यों उत्पन्न होती है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया प्रतिष्ठित
अर्थशास्त्री भ्रम की अनैच्छिक बेरोज़गारी उत्पन्न होने की बात से भी इन्कार करते
थे। उनके मतानुसार मज़दूरी की दरों तथा वस्तुओं की कीमतों में अनुकूल रूप से
परिवर्तन हो जाने से बेरोजगारी अपने आप दूर हो जाती है अर्थात् उनके मतानुसार
पूर्ण रोजगारी की स्थिति सदा बनी रहती हैं।
केन्ज़
ने इस विचार को चुनौती दी और सिद्ध किया कि किस प्रकार मुक्त बाजार
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में मन्दी के समय समस्त मांग की कमी के कारण (deficiency
of aggregate demand) अर्थव्यवस्था
का सन्तुलन पूर्ण रोजगार की स्थिति से कम स्तर पर सम्भव होता है जिससे बड़ी मात्रा
में श्रमिक बेरोज़गार हो जाते हैं। न केवल श्रमिक बल्कि उपलब्ध पूंजी स्टाक जो
उद्योगों की उत्पादन क्षमता को निर्धारित करता है उत्पादन कार्य के लिए प्रयुक्त
नहीं होता।
केन्ज़
ने यह सिद्ध किया कि किस प्रकार एक मुक्त मार्किट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में निजी
निवेश (private
investruct) घट जाता है जिससे वस्तुओं
तथा सेवाओं के लिए समस्त मांग में कमी होती है जो मन्दी की दशा को उत्पन्न कर देती
है। परिणामस्वरूप श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं जिससे बड़ी
मात्रा में चक्रवात बेरोजगारी (cyclical unemployment) उत्पन्न हो जाती है।
राष्ट्रीय आय का
निर्धारण (Determination
of National Income):-
रोज़गार
के अतिरिक्त राष्ट्रीय आय का निर्धारण समष्टि अर्थशास्त्र का एक अन्य प्रमुख विषय
है।
राष्ट्रीय
आय किसी देश की प्रति वर्ष समस्त उत्पादित अन्तिम वस्तुओं तथा सेवाओं के मार्किट
मूल्यों का जोड़ होती है।
किसी
देश की राष्ट्रीय आप उसको सफलता एवं उपलब्धि का प्रतीक होती है तथा प्रति
व्यक्ति आय पर ही एक देश के लोगों का औसत जीवन स्तर निर्भर करता है।
उत्पादन
टकनॉलोजी स्थिर रहने पर किसी अर्थव्यवस्था में राष्ट्रीय उत्पादन का स्तर जितना
अधिक होगा रोजगार की मात्रा उतनी अधिक होगी।
जब
किसी देश के सभी उत्पादन साधन विशेषकर समस्त उपलब्ध श्रमिक उत्पादन कार्य के लिए
प्रयुक्त हो रहे होते हैं तो उत्पन्न कुल राष्ट्रीय उत्पाद को सम्याव्य राष्ट्रीय उत्पाद (Potential GNP) कहते हैं।
एक
मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था में समस्त मांग के घट जाने से अल्पकाल में राष्ट्रीय आय
सम्याव्य राष्ट्रीय उत्पाद से कम हो जाती है। केन्ज़ के मतानुसार अल्पकाल में देश
की राष्ट्रीय आय समस्त मांग के स्तर (जो उपभोग मांग, निवेश, सरकारी व्यय तथा निवल निर्यात के जोड़ से बनती है) पर निर्भर करती है।
मुद्रावादियों
(monetarists)
जिनमें अमरीकी अर्थशास्त्री मिलटन फ्रीडमेन (Milton
Friedman) प्रमुख है के मतानुसार
मुद्रा पूर्ति में परिवर्तन अल्पकाल में राष्ट्रीय आय को प्रभावित करते हैं।
इसके
अतिरिक्त ब्याज की दर किस पर किसी देश में निवेश तथा राष्ट्रीय आय को प्रभावित
करती है। विदेशी विनियम दर जिसके द्वारा किसी देश के निर्यात व आयात निर्धारित
होते हैं भी राष्ट्रीय आय को प्रभावित करती है।
भारत
जैसे विकासशील देशों में राष्ट्रीय आय का निर्धारण केवल समस्त मांग (aggregate
demand) के स्तर द्वारा निर्धारित
नहीं होता। विकासशील देशों में पूर्ति पक्ष के तत्त्व (Supply
Side factors) जैसे कि भौतिक पूँजी की
उपलब्ध मात्रा, मानवीय पूँजी (Human
Capital) अर्थात् लोगों की शिक्षा व
कला-कौशल,
कच्चे माल की पूर्ति, मौलिक ढाँचे की उपलब्धि (availability of
infrastructure), उत्पादन तकनॉलोजी का स्तर
इत्यादि राष्ट्रीय आय के स्तर तथा उसमें वृद्धि करने में अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका
निभाते हैं।
व्यापारिक चक्र (Business Cycles):-
समष्टि
अर्थशास्त्र का अन्य महत्त्वपूर्ण विषय व्यापारिक चक्रों का विश्लेषण करना है।
पूँजीवादी देश प्रायः व्यापारिक चक्रो से ग्रस्त रहते हैं।
व्यापारिक
चक्रो से अभिप्राय आर्थित कार्य-कलाप अथवा राष्ट्रीय आय, रोजगार, पूँजी स्तर निवेश आदि में उतार-चढ़ाव होना है अर्थात इनमें
कभी तेजी और कभी मन्दी की स्थिति उत्पन्न होती रहती है।
मन्दी
की स्थिति में कुल उत्पादन तथा रोजगार की मात्राएं घट जाती हैं और तेज़ी की स्थिति
में ये बढ़ जाती हैं और प्राय: मुद्रा-स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मुक्त मार्किट अर्थव्यवस्थाओं अथवा पूँजीवादी
देशों में ये व्यापारिक क्यों उत्पन्न होते हैं की व्याख्या समष्टिपरक सिद्धान्त
में एक अति विवादस्पद प्रश्न रहा है और इसके कारणो की व्याख्या के लिए समय-समय पर
कई सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं।
समष्टिपरक आर्थिक नीति (Macroeconomic
policy) का प्रमुख उद्देश्य
अर्थव्यवस्था को इन व्यापारिक चक्रों से मुक्त करना है जिससे पूर्ण रोजगार के स्तर पर राष्ट्रीय आय
का सन्तुलन स्थापित हो तथा राष्ट्रीय आय में तीव्र वृद्ध संभव हो सके । इस सम्बन्ध में सरकार
द्वारा पूर्ण रोज़गार के स्तर को प्राप्त करने, आर्थिक विकास की दर बढ़ाने तथा मुद्रास्फीति को
नियन्त्रित करने के लिए उपयुक्त राजकोषीय तथा मौद्रिक आर्थिक नीतियाँ अपनाती हैं ।
सामान्य कीमत स्तर
तथा मुद्रास्फीति (General Price Level and Inflation):-
अर्थव्यवस्था
में आय व रोजगार के स्तर के निर्धारण के अध्ययन के अतिरिक्त, समष्टि अर्थशास्त्र कीमतों के सामान्य स्तर (general
level of prices) के निर्धारण का भी अध्ययन
करता है।
यह
सिद्ध करके कि मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होने पर कीमतों में सदा वृद्धि नहीं
होती,
केन्ज़ ने मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त (Quantity
Theory of Money) में महत्त्वपूर्ण सुधार
किया। इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण विषय
मुद्रास्फीति (inflation) के
कारणों को स्पष्ट करना है।
केन्ज़
ने द्वितीय महायुद्ध से पूर्व यह स्पष्ट किया कि अनैच्छिक बेरोजगारी तथा
मन्दी समस्त मांग में कमी के कारण उत्पन्न होती हैं। युद्धकाल में जबकि
कीमतें बहुत अधिक बढ़ गई तो उन्होंने एक पुस्तक 'How to Pay for War' में बताया कि जिस प्रकार समस्त माग में कमी के कारण
बेरोजगारी व मन्दी फैलती हैं, उसी
प्रकार मुद्रास्फीति अत्यधिक समस्त मांग के कारण उत्पन्न होती है।
केन्ज़
के पश्चात् मुद्राफीति के सिद्धान्त का अधिक विकास हुआ है और विभिन्न कारणों पर
आधारित विभिन्न प्रकार की मुद्रास्फीतियों का वर्णन किया गया है। मुद्रास्फीति
आजकल एक गम्भीर समस्या बन गई है जोकि विकासशील तथा विकसित दोनों प्रकार के देशों
में पाई जाती है। मुद्रास्फीति का सिद्धांत समष्टिपरक अर्थशास्त्र का एक
महत्त्वपूर्ण विषय है।
स्थैतिक-स्फीति (Stagflation):-
मुक्त
बाजार पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यावसायिक चक्रों को नियन्त्रित करके आर्थिक
स्थिरता लाना एक बड़ो कठिन समस्या रही है। किन्तु बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक (1970s)
में तथा कई बार उसके पश्चात पूँजीवादी देशों में एक विचित्र
एवं अधिक कठिन समस्या स्थैतिक-स्फीति (stagflation) की रही है।
व्यापारिक चक्रों के दौरान जब अर्थव्यवस्था में मन्दी (recession
or depression) होती है
तो बड़ी मात्रा में बेरोज़गारी पाई जाती है तथा कीमत स्तर प्रायः घट जाता है। किन्तु स्थैतिक स्फीति की अवस्था में बड़ी मात्रा
में मन्दी के कारण बेरोजगारी की समस्या के साथ साथ मुद्रास्फीति (inflation)
भी होती है (In stagflation, recession or unemployment on
the one hand and inflation on the other hand exist side by side)।
यह
समस्या अधिक कठिन इसलिए है कि बेरोज़गारी व मन्दी को दूर करने के लिए
विस्तारवादी राजकोषीय तथा मौद्रिक नीतियां (expansionary
fiscal and monentary -policies) अपनाने की आवश्यकता होती है जबकि मुद्रास्फीति को
नियन्त्रित करने के लिए संकुचनवादी आर्थिक नीती की आवश्यकता होती है। अतः स्थैतिक-स्फीति के समाधान के लिए उपयुक्त नीति
निर्धारण एक कठिन विषय है।
भुगतान शेष तथा
विदेशी विनिमय दर (Balance of Payments and Foreign Exchange Rate):-
एक
महत्त्वपूर्ण समष्टिपरक विषय किसी देश के भुगतान शेष तथा विदेशी विनियम दर के
निर्धारण का विश्लेषण करना है।
भुगतान शेष किसी देश के निवासियों के विदशों के साथ लेन-देन
के विशद लेखा-जोखा को कहते हैं।
इस
लेखे- जोख में वस्तुओं तथा सेवाओं के परस्पर क्रय-विक्रय के मूल्यों के विवरण के
अतिरिक्त वित्तीय पूँजी के आदान-प्रदान का ब्यौरा दिया जाता है। इस भुगतान
शेष में घाटे (deficit) अथवा अतिरेक (surplus) की स्थिति हो सकती है। यदि किसी देश का भुगतान शेष घाटे का होता है तो इसकी
पूर्ती के लिए विदेशी पूँजी की आवश्यकता होती है। यदि हमारे भुगतान शेष में अतिरेक
(surplus)
हो तो हमारी पूँजी विदेशों में निवेश के लिए जाएगी।
महत्त्वपूर्ण
बात समझने की यह है कि किसी देश का भुगतान शेष सदा के लिए घाटे में वहीं हो सकता
है जहाँ 'विदेशी विनिमय (foreign exchange) के भुगतान के लिए पर्याप्त मात्रा में विदेशी विनिमय संग्रह
(foreign
exchange resources) उपलब्ध नहीं हो सकते।
अतएव भुगतान शेष में सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। इसके लिए निर्यात
में वृद्धि तथा आयात में समुचित कमी करने के लिए उपयुक्त आर्थिक नीतियां अपनानी
चाहिए।
भुगतान
शेष से सम्बन्धित अन्य विषय विदेशी विनिमय दर का है।
1970 से पूर्व अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक लेन-देन को सुगम बनाने के
लिए IMF
के अधीन ब्रेटन वुड के
समझोते (Bretton Woods Agreement) विश्व के अनेक देशों द्वारा स्थिर विदेशी विनिमय प्रणाली (Fixed
Exchange Rate System) अपनाई गई।
इस
स्थिर विदेशी विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत किसी देश की करेन्सी विनिमय दर
स्वर्ण (gold) अथवा US डालरों की विशेष मात्रा में निश्चित होती थी। किन्तु 1970 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने स्वर्ण मान (gold
Standard) को त्याग देने पर स्थिर
विनिमय दर प्रणाली समाप्त हो गई और इसके स्थान पर परिवर्तनशील विनिमय दर प्रणाली (flexible
exchange rate system) को अपनाया गया।
इसके
अतिरिक्त किसी देश के करेन्सी का विदेशी करेन्सियों से बदलने की दर उसकी
मार्किट मांग तथा पूर्ति द्वारा निर्धारित होती है। किसी देश की विदेशी
विनिमय दर में घट-बढ़ उसके भुगतान शेष को प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए यदि
किसी देश की करेन्सी का अन्य करेन्सियों से विनिमय दर का अवमूल्यन (depreciation
or devaluation) होता है
तो उस देश के निर्यात बढ़ेंगे तथा आयात कम होंगे। इसके विपरीत यदि किसी देश की करेन्सी का अन्य देशों
की करेन्सियों से विनिमय दर का मूल्य बढ़ता (appreciate)
है तो उसकी वस्तुएं
विदेशों की तुलना में महंगी हो जाएंगी जिससे उसके निर्यात निरूत्साहित होंगे तथा
आयात प्रोत्साहिता । परिणामस्वरूप
देश के भुगतान शेष में असन्तुलन की समस्या उत्पन्न हो जाएगी। अतः विदेशी विनिमय दर
में अत्यधिक अस्थिरता को नहीं रहने देने चाहिए।
आर्थिक विकास (Economic Growth):-
समष्टिपरक
अर्थशास्त्र की एक और महत्त्वपूर्ण विषय, जिसका विकास अभी हाल ही में हुआ है, आर्थिक विकास का सिद्धान्त है जिसको संक्षेप में 'विकास अर्थशास्त्र' (Growth
Economics) कहा जाता है ।
विकास
की समस्या एक दीर्घकालीन समस्या है और केन्ज ने इस पर विचार नहीं किया था। वस्तुतः
केन्ज़ ने तो कहा था कि "दीर्घकाल में हम सब मर जायेंगे" ("We
are all dead in the long run")।
परन्तु
केन्ज़ के इस कथन से हमें यह नहीं समझ लेना चाहिए। कि उन्होंने दोर्घकाल को
बिल्कुल महत्त्वहीन समझा। इस कथन से तो उन्होंने आर्थिक क्रियाओं के उच्चावचन की
अल्पकालीन समस्या अर्थात् अनैच्छिक चक्रीय बेरोजगारों, मंदी, मुद्रास्फीति
के महत्त्व पर अधिक बल दिया।
हेरड (Harrod) तथा डोमर (Domar) ने केन्ज़ के विश्लेषण को विकास की दीर्घकालीन समस्या पर
लागू किया । उन्होंने निवेश
के द्वैत पक्षों (dunl aspects) के महत्त्व को बताया एक आय सर्जन का, जिस पर केन्ज़ ने विचार किया था, और दूसरे उत्पादन क्षमता में वृद्धि का (increase
in capacity) जिसकी केन्ज़ ने अवज्ञा की
थी क्योंकि वह अल्पकाल की समस्याओं को सुलझाने में ही व्यस्त था ।
इस
बात को ध्यान में रखते हुए कि निवेश से उत्पादन क्षमता (पूँजी भण्डार) में वृद्धि
होती है,
यदि स्थिरता के साथ विकास अर्थात् दौर्घकालीन मंदी (secular
stagnation) अथवा दीर्घकालीन मुद्रास्फीति
(secular
inflation) के बिना प्राप्त करता है
तो आय या मांग में इस दर से अवश्य 'वृद्धि होनी चाहिए कि बढ़ती हुई उत्पादन क्षमता का
पूरा-पूरा प्रयोग किया जा सके।
इस
प्रकार हेरड (Harrod) तथा डोमर
(Domar)
के समष्टिपरक मॉडल आय की उन विकास दरों को बताते हैं जो अर्थव्यवस्था
के स्थायी विकास के लिए आवश्यक हैं।
हैरड
तथा डोमर के उपरान्त विकास के अर्थशास्त्र का अधिक विकास तथा विस्तार किया गया है।
यद्यपि एक सामान्य विकास सिद्धांत, विकसित तथा विकासशील दोनों अर्थव्यवस्थाओं पर लागू होता है
परन्तु उन विशेष सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया गया है जो अल्पविकास के कारणों
अथवा अल्पविकसित देशों में निर्धनता की व्याख्या करते हैं तथा इन देशों में विकास
को प्रारम्भ करने तथा तीव्र करने के लिए आवश्यक रणनीतियों (strategies)
का सुझाव भी देते हैं।
राष्ट्रीय आय में
विभिन्न वर्गों के सापेक्ष भाग (Relative Shares in National Income):-
समष्टिपरक
आर्थिक सिद्धान्त का एक और महत्त्वपूर्ण विषय कुल राष्ट्रीय आय में से समाज
के विभिन्न वर्गों, मुख्यत: श्रमिकों तथा पूँजीपतियों के सापेक्ष भागों (relativeshares)
के निर्धारण का विश्लेषण
करना है।
इस
विषय में रूचि रिकार्डो (Ricardo) के समय से है। रिकार्डो ने केवल यह ही नहीं बताया कि भूमि
की उपज का समाज के तीन वर्गों - भूस्वामियों, श्रमिकों तथा पूँजीपतियों में विभाजन अर्थशास्त्र की प्रमुख समस्या है बल्कि कुल
राष्ट्रीय आय में लगान, मजदूरियों तथा लाभों के सापेक्ष भागों के निर्धारण के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया।
रिकाडों
के समान मार्क्स (Mars) ने भी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में साधनों के सापेक्ष
हिस्सों के निर्धारण में विशेष रूचि दिखाई।
परन्तु
मार्क्स के बाद अर्थशास्त्रियों की रूचि इस विषय में कम हो गई और वितरण के
सिद्धान्त का वर्णन मुख्यतः व्यष्टिपरक रूप में किया जाने लगा; अर्थात्, वितरण का सिद्धान्त केवल साधनों की कीमतों के निर्धारण की
व्याख्या करने लगा; सामाजिक वर्गों के सापेक्ष सामूहिक हिस्सों की नहीं।
एम.
कलेस्की (M. Kalecki) तथा
निकोलस केलडर (Nicholas Kaldor) ने
समष्टिपरक सिद्धान्त (macro-theory of distribution) में पुन: रूचि जाग्रत की ।
कलेस्की ने यह विचार प्रस्तुत किया कि राष्ट्रीय आय में
मजदूरियों तथा लाभों के सापेक्ष हिस्से अर्थव्यवस्था में एकाधिकार की मात्रा (degree
of monopoly) पर
निर्भर करते हैं ।
दूसरी
ओर,
केलडर ने केन्जियन विश्लेषण का प्रयोग
करके बताया कि राष्ट्रीय आय में मजदूरियों तथा लाभों के सापेक्ष हिस्से
अर्थव्यवस्था में उपभोग प्रवृत्ति तथा निवेश की दर पर निर्भर करते हैं।
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