कौटिल्य [Kautilya]
संरचना (Structure)
उद्देश्य (Objectives)
प्रस्तावना (Introduction)
कौटिल्य ( Kautilya)
राजतंत्र (Kingship)
न्याय व्यवस्था ( Justice System)न्यायालय एवं न्यायाधीश (Court and Justice )
मण्डल सिद्धान्त (Mandal Theory)
षाड्गुण्य नीति ( Six-Fold Policy)
अर्थ व्यवस्था (Economy System)
📖 उद्देश्य (Objectives)
विद्यार्थी इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् योग्य होंगे:-
• कौटिल्य के अर्थशास्य में वर्णित राजतंत्र, न्याय व्यवस्था, न्यायालय एवं न्यायाधीश, मंडल - सिद्धांत, षाड्गुण्य नीति एवं अर्थव्यवस्था को समझने में ।
📖 प्रस्तावना ( Introduction)
'अर्थशास्त्र' की रचना 317 ई०पू० से 239 ई०पू० सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में हुई। चंद्रगुप्त के महामंत्री विष्णुगुप्त अर्थात् कौटिल्य की यह रचना प्राचीन विश्व की एक महत्त्वपूर्ण धरोधर है। 'अर्थशास्त्र' राजनीतिक जगत की कार्यशैली का विश्लेषण करती है। राज्य की उत्पत्ति तथा उसके सात अंगों की चर्चा संवाद के रूप में की गई है।
सात अंगों में पहला स्वामी जो कि राजा होता है, आमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड तथा मित्र। कौटिल्य ने षाड्गुण्य के अंतर्गत विदेशीनिति का वर्णन किया है। अर्थव्यवस्था पर विस्तार से चर्चा की गई है ।
📖 कौटिल्य ( Kautilya)
सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, (शासनकाल : 317 ई.पू. से 239 ई.पू.) जिन्होंने सर्वप्रथम भारतीय उपमहाद्वीप को एकीकृत कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, के महामंत्री विष्णुगुप्त अर्थात कौटिल्य द्वारा रचित ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' प्राचीन विश्व की महानतम् कृतियों में से एक है। प्रमुख समाजशास्त्री (Max weber 1864-1920) ने अपने प्रसिद्ध व्याख्यान 'पॉलिटिक्स ऐज़ ए वोकेशन' (Politics as a Vocation) में कौटिल्य के ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' की तुलना में फ्लोरेंटाइन (Florantine) के 'राजपुरुष' तथा लेखक मैकियावेली (Machiavelli 1469-1527) के ग्रंथ 'प्रिंस' (The Prince) को बच्चों की कहानी की संज्ञा दी है। कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' राजशास्त्र पर लिखा गया एक ऐसा ग्रंथ है जिसका मुख्य उद्देश्य एक बुद्धिमान राजा को शासन करने की कला से अवगत कराना था । इस पुस्तक में कौटिल्य ने युद्ध, राजनय, राजा को विश्व विजयी बनाने की अपनी इच्छा, कौन-सा राज्य प्राकृतिक मित्र है तथा कौन-सा शत्रु का विश्लेषण, संधि, शांत युद्ध (Silent war) अथवा एक अनभिज्ञ राजा की हत्या पर आधारित युद्ध, गुप्तचरों तथा उनके द्वारा शत्रु नेताओं की हत्या का षड्यंत्र, स्त्रियों की युद्ध में भूमिका तथा युद्ध-बंदियों के साथ मानवता के व्यवहार संबंधी उनके विचारों आदि का एक वृहत् स्तर पर वास्तव में हृदयग्राही वर्णन प्रस्तुत किया है।
323 ई. पू. में सिकंदर (Alexander) की मृत्यु के पश्चात् कौटिल्य एवं चंद्रगुप्त ने भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का कार्य प्रारंभ, यूनानी आक्रमणकारियों को भारत में आगे बढ़ने से रोककर किया। इसी क्रम में उन्होंने दो यूनानी प्रशासकों निकानोर (Nicanor) तथा फिलिप (Philip) की हत्या कर दी। इसके पश्चात् पश्चिमी भारत का अधिकांश भाग अपने अधिकार में लेकर सेल्युकस (पश्चिमी भारत में सिकंदर के उत्तराधिकारी) के साथ संधि करके कौटिल्य तथा चंद्रगुप्त ने लगभग समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को अपने अधीन करने में सफलता प्राप्त की। कौटिल्य की सहायता से चंद्रगुप्त ने मगध से नंदवंश के शासन को समाप्त कर लगभग 324-322 ई. पू. में एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी (जो पूर्वी भारत में आधुनिक पटना नगर के निकट स्थित था)। पाटलिपुत्र संभवत: तत्कालीन विश्व का सबसे बड़ा नगर था जो आठ मील लंबा तथा डेढ़ मील चौड़ा था। इसमें 570 मीनारें तथा 64 प्रवेश द्वार थे जो 6 फुट चौड़ी तथा 45 फुट गहरी खाई से घिरे थे। पाटलिपुत्र सम्राट मार्कस औरेलियस (Marcus Aurelius) द्वारा शासित रोम से दो गुना बड़ा था।
सामान्य रूप से मान्य आर्य विश्लेषण पद्धति के अनुसार मनुष्य जीवन के उद्देश्यों के चार आधारभूत लक्ष्य हैं- धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। उसी प्रकार नैतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दर्शन के विभिन्न विचार संप्रदायों को वर्गीकृत किया जाये तब तीन सैद्धांतिक परंपराएँ हमारे सामने आएँगी 'धर्मशास्त्र', 'अर्थशास्त्र' तथा 'कामशास्त्र' परंपरा । चौथी परंपरा 'मोक्षशास्त्र' को विभिन्न भारतीय दर्शनों में आत्मा की मुक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है। इस प्रकार अगर सामाजिक-राजनीतिक तथा नैतिक चिंतन के विचार-संप्रदायों को वर्गीकृत तथा उनके अंतर संबंधों का विश्लेषण किया जाएगा तब मुख्यतः उपर्युक्त तीन परंपराएँ ही उभर कर सामने आएँगी। राजनीतिक विषयों की चर्चा मुख्यतः अर्थशास्त्र में विस्तार से की गई है तथा केवल नाममात्र के लिए ही धर्मशास्त्रों में की गई है। अर्थशास्त्र में मनुष्य के पार्थिव उद्देश्यों की प्राप्ति में अर्थ पर अत्यधिक महत्त्व दिया गया है जबकि धर्मशास्त्रों में धर्म तथा उससे जुड़े त्याग की भावना पर बल दिया गया है। विंटरनिट्ज़ तथा जूलियस जॉली (Wintenitz and Julius Jolly) ने सबसे प्रसिद्ध उपलब्ध 'अर्थशास्त्र' के लेखक कौटिल्य की धर्मनिरपेक्ष तथा भौतिकवादी मनोवृत्ति की चर्चा की है। जबकि मनु, नारद, विष्णु तथा याज्ञवल्क्य आदि धर्मशास्त्र परम्परा के लेखकों में रूढ़िवादी मनोवृत्ति पाई जाती है। वैदिक साहित्य, महाभारत तथा मनुस्मृति में मानव जीवन तथा कर्त्तव्यों संबंधी सामान्य चर्चा के बीच राजनीतिक चिंतन पर भी विमर्श देखने में आता है। परंतु धीरे-धीरे राज्य शासन का सैद्धांतिक विश्लेषण इस काल में रचित कई प्रसिद्ध ग्रंथों का विषय बना ! महाभारत में कई अर्थशास्त्रों का वर्णन मिलता है। परंतु आधुनिक काल में कौटिल्य रचित 'अर्थशास्त्र' ही केवल उपलब्ध है जिसे बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में मैसूर राज्य की औरियंटल पुस्तकालय के अध्यक्ष डॉ. आर. शामाशास्त्री ने तिरुवनन्तपुरम के निकट तंजौर जिले के एक पंडित के पास एक हस्तलिखित संस्करण के रूप में प्राप्त किया है।
सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य, (शासनकाल : 317 ई.पू. से 239 ई.पू.) जिन्होंने सर्वप्रथम भारतीय उपमहाद्वीप को एकीकृत कर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, के महामंत्री विष्णुगुप्त अर्थात कौटिल्य द्वारा रचित ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' प्राचीन विश्व की महानतम् कृतियों में से एक है। प्रमुख समाजशास्त्री (Max weber 1864-1920) ने अपने प्रसिद्ध व्याख्यान 'पॉलिटिक्स ऐज़ ए वोकेशन' (Politics as a Vocation) में कौटिल्य के ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' की तुलना में फ्लोरेंटाइन (Florantine) के 'राजपुरुष' तथा लेखक मैकियावेली (Machiavelli 1469-1527) के ग्रंथ 'प्रिंस' (The Prince) को बच्चों की कहानी की संज्ञा दी है। कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र' राजशास्त्र पर लिखा गया एक ऐसा ग्रंथ है जिसका मुख्य उद्देश्य एक बुद्धिमान राजा को शासन करने की कला से अवगत कराना था । इस पुस्तक में कौटिल्य ने युद्ध, राजनय, राजा को विश्व विजयी बनाने की अपनी इच्छा, कौन-सा राज्य प्राकृतिक मित्र है तथा कौन-सा शत्रु का विश्लेषण, संधि, शांत युद्ध (Silent war) अथवा एक अनभिज्ञ राजा की हत्या पर आधारित युद्ध, गुप्तचरों तथा उनके द्वारा शत्रु नेताओं की हत्या का षड्यंत्र, स्त्रियों की युद्ध में भूमिका तथा युद्ध-बंदियों के साथ मानवता के व्यवहार संबंधी उनके विचारों आदि का एक वृहत् स्तर पर वास्तव में हृदयग्राही वर्णन प्रस्तुत किया है।
323 ई. पू. में सिकंदर (Alexander) की मृत्यु के पश्चात् कौटिल्य एवं चंद्रगुप्त ने भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का कार्य प्रारंभ, यूनानी आक्रमणकारियों को भारत में आगे बढ़ने से रोककर किया। इसी क्रम में उन्होंने दो यूनानी प्रशासकों निकानोर (Nicanor) तथा फिलिप (Philip) की हत्या कर दी। इसके पश्चात् पश्चिमी भारत का अधिकांश भाग अपने अधिकार में लेकर सेल्युकस (पश्चिमी भारत में सिकंदर के उत्तराधिकारी) के साथ संधि करके कौटिल्य तथा चंद्रगुप्त ने लगभग समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को अपने अधीन करने में सफलता प्राप्त की। कौटिल्य की सहायता से चंद्रगुप्त ने मगध से नंदवंश के शासन को समाप्त कर लगभग 324-322 ई. पू. में एक अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी (जो पूर्वी भारत में आधुनिक पटना नगर के निकट स्थित था)। पाटलिपुत्र संभवत: तत्कालीन विश्व का सबसे बड़ा नगर था जो आठ मील लंबा तथा डेढ़ मील चौड़ा था। इसमें 570 मीनारें तथा 64 प्रवेश द्वार थे जो 6 फुट चौड़ी तथा 45 फुट गहरी खाई से घिरे थे। पाटलिपुत्र सम्राट मार्कस औरेलियस (Marcus Aurelius) द्वारा शासित रोम से दो गुना बड़ा था।
सामान्य रूप से मान्य आर्य विश्लेषण पद्धति के अनुसार मनुष्य जीवन के उद्देश्यों के चार आधारभूत लक्ष्य हैं- धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष। उसी प्रकार नैतिक, सामाजिक तथा राजनीतिक दर्शन के विभिन्न विचार संप्रदायों को वर्गीकृत किया जाये तब तीन सैद्धांतिक परंपराएँ हमारे सामने आएँगी 'धर्मशास्त्र', 'अर्थशास्त्र' तथा 'कामशास्त्र' परंपरा । चौथी परंपरा 'मोक्षशास्त्र' को विभिन्न भारतीय दर्शनों में आत्मा की मुक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है। इस प्रकार अगर सामाजिक-राजनीतिक तथा नैतिक चिंतन के विचार-संप्रदायों को वर्गीकृत तथा उनके अंतर संबंधों का विश्लेषण किया जाएगा तब मुख्यतः उपर्युक्त तीन परंपराएँ ही उभर कर सामने आएँगी। राजनीतिक विषयों की चर्चा मुख्यतः अर्थशास्त्र में विस्तार से की गई है तथा केवल नाममात्र के लिए ही धर्मशास्त्रों में की गई है। अर्थशास्त्र में मनुष्य के पार्थिव उद्देश्यों की प्राप्ति में अर्थ पर अत्यधिक महत्त्व दिया गया है जबकि धर्मशास्त्रों में धर्म तथा उससे जुड़े त्याग की भावना पर बल दिया गया है। विंटरनिट्ज़ तथा जूलियस जॉली (Wintenitz and Julius Jolly) ने सबसे प्रसिद्ध उपलब्ध 'अर्थशास्त्र' के लेखक कौटिल्य की धर्मनिरपेक्ष तथा भौतिकवादी मनोवृत्ति की चर्चा की है। जबकि मनु, नारद, विष्णु तथा याज्ञवल्क्य आदि धर्मशास्त्र परम्परा के लेखकों में रूढ़िवादी मनोवृत्ति पाई जाती है। वैदिक साहित्य, महाभारत तथा मनुस्मृति में मानव जीवन तथा कर्त्तव्यों संबंधी सामान्य चर्चा के बीच राजनीतिक चिंतन पर भी विमर्श देखने में आता है। परंतु धीरे-धीरे राज्य शासन का सैद्धांतिक विश्लेषण इस काल में रचित कई प्रसिद्ध ग्रंथों का विषय बना ! महाभारत में कई अर्थशास्त्रों का वर्णन मिलता है। परंतु आधुनिक काल में कौटिल्य रचित 'अर्थशास्त्र' ही केवल उपलब्ध है जिसे बीसवीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में मैसूर राज्य की औरियंटल पुस्तकालय के अध्यक्ष डॉ. आर. शामाशास्त्री ने तिरुवनन्तपुरम के निकट तंजौर जिले के एक पंडित के पास एक हस्तलिखित संस्करण के रूप में प्राप्त किया है।
परपरा के अनुसार 'अर्थशास्त्र' की रचना सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के महामंत्री तथा सलाहकार कौटिल्य अथवा चाणक्य ने की थी। डॉ. शामाशास्त्री ने इस परंपरागत विचार को मान लिया तथा इसके पक्ष में अपने तर्क प्रस्तुत किए। परंतु कुछ विद्वानों जिनमें डॉ. जॉली, डी. आर. भंडारकर, आर्थर बी. कीथ विण्टरनिट्ज़ का नाम प्रमुख है. ने इसे दूसरी अथवा तीसरी शताब्दी की रचना माना है। मैगास्थनीज की 'इंडिका' (Indika) तथा कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में वर्णित तथ्यों के तुलनात्मक अध्ययन से भी यह स्पष्ट है कि दोनों रचनाएँ एक ही समय की नहीं हैं। इसे एक तुलनात्मक तालिका से स्पष्ट किया जा सकता है-
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि मैगास्थनीज की 'इंडिका' तथा कौटिल्य का 'अर्थशास्त्र एक ही काल की रचनाएँ नहीं है। भाषा की दृष्टि से 'अर्थशास्त्र' मौर्यकाल के पश्चात संभवतः गुप्तकालीन ग्रंथ प्रतीत होता है। इसमें प्रयुक्त संस्कृत शब्दावली तथा वाक्य रचना मौर्यकाल में प्रचलित संस्कृत से अधिक परिष्कृत प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त मैगस्थनीज़ ने कहीं भी कौटिल्य अथवा चाणक्य अथवा विष्णुगुप्त के विषय में कुछ भी नहीं लिखा है। पतंजलि ने भी अपने " महाभाष्य" में चंद्रगुप्त तथा अन्य मौर्य सम्राटों का वर्णन किया है परंतु कौटिल्य का कहीं नाम नहीं लिया है।
दूसरी ओर गणपतिशास्त्री, नरेंद्रनाथ लॉ, वी. ए. स्मिथ तथा काशी प्रसाद जायसवाल आदि विद्वान इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार 'अर्थशास्त्र' के रचयिता कौटिल्य तथा रचनाकाल चंद्रगुप्त मौर्य का शासनकाल ही है। इनके अतिरिक्त जैन, बुद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में चंद्रगुप्त के मंत्री के रूप में कौटिल्य के नाम का उल्लेख मिलता है। डॉ. श्यामलाल पांडेय के अनुसार, “प्रस्तुत 'अर्थशास्त्र' चाहे मौर्यकाल की रचना हो चाहे उसके पश्चात किसी समय का नवीन संस्करण हो परंतु इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि इस 'अर्थशास्त्र' में राजशास्त्र संबंधी जिन सिद्धांतों की स्थापना की गई है वह मौर्यकालीन ही है।" अर्थशास्त्र के अंत में "स्वमेव" विष्णुगुप्त तथा प्रारंभ में कौटिल्य ने लिखा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि विष्णुगुप्त तथा कौटिल्य एक ही व्यक्ति के दो. नाम थे जिसने 'नरेंद्र हेतु' अर्थात चंद्रगुप्त मौर्य के लिए यथार्थवादी राजनीति पर आधारित अर्थशास्त्र की रचना की। - इस ठोस प्रमाण के अतिरिक्त कामंदक, दंडी, बाण आदि रचनाकारों की कृतियों से भी इस बात की पुष्टि होती है। कामंदक ने अपने ग्रंथ " नीतिसार" की भूमिका में लिखा है: "नीतिसार का आधार उसी विद्वान की रचना है। जिसके वज्र ने पर्वत की भाँति स्थिर तथा शक्तिशाली नंदवंश के शासन को समाप्त किया, जिसने चंद्रुगप्त को पृथ्वी का स्वामित्व दिया तथा जिसने अर्थशास्त्र रूपी समुद्र का मंथन कर नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला, उसी विद्वान तथा ब्रह्म जैसे विष्णुगुप्त को नमस्कार है। दंडी ने अपनी पुस्तक 'दशकुमारचरित' में अर्थशास्त्र के कुछ उद्धरण दिये हैं तथा उसके श्लोकों की संख्या 6,000 के लगभग बताई है जो वास्तविकता के अत्यंत समीप है। कादंबरी के लेखक बाण ने कौटिल्य के 'नीतिशास्त्र' की आलोचना की है। "
कई भारतीय इतिहासकारों ने कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' को राजनीतिक यथार्थवाद पर एक व्यावहारिक पुस्तक माना है। डी.डी. कोशांबी ने इसे यूनानी दार्शनिकों की रचनाओं की अपेक्षा समय तथा स्थान की दृष्टि से कई गुना अधिक अनुसरण करने योग्य ग्रंथ माना है। कांगले ने इसे "राजनीति का विज्ञान" (Science of Politics) के साथ-साथ एक ऐसी संहिता बताया है जो राजा को पृथ्वी के अधिग्रहण तथा रक्षा करने में सहायता पहुँचाती है। ए.एल बाशम (A.L. Basham) ने इसे शासन व्यवस्था संबंधी संहिता (A Treaties on Polity) कहा है। रोजर बोशे (Roger Boesche) ने इसे राजनीतिक अर्थशास्त्र का विज्ञान (Science of Political Economy) कहा है। हेनरिक ज़िम्मर (Heinrich Zimmer) ने इसे राजनीति, अर्थशास्त्र, राजनय तथा युद्ध के नियमों पर एक कालजयी रचना कहा है।
राजनीतिक यथार्थवाद पर कौटिल्य की पुस्तक 'अर्थशास्त्र' राजनीतिक जगत की कार्यशैली का विश्लेषण करती है तथा राजा को इस बात की जानकारी देती है कि उसे राज्य के संरक्षण तथा जन-कल्याण हेतु किन पूर्व-अनुमानित योजनाओं तथा (कभी-कभी) कठोर उपायों का कार्यान्वयन करना होगा। कौटिल्य का मानना था कि वे अपने पाठकों के लिए एक ऐसा विज्ञान प्रस्तुत कर रहे थे जिससे समूचे विश्व पर अधिकार स्थापित किया जा सकता है। अतः संसार के प्रति अप्रिय अवस्थिति अपनाना अथवा भाग्य या अंधविश्वासों को मानना अनभिज्ञता है। कौटिल्य के अनुसार भाग्य पर भरोसा करने वाला मानव प्रयासों से वंचित हो जाता है तथा अंत में समाप्त हो जाता है। कौटिल्य का दर्शन कर्म पर आधारित था न कि अकर्मण्यता पर अर्थ प्राप्ति हेतु किये गये प्रयास ही अंततः सफलता की ओर ले जाते हैं। वैसे व्यक्ति के हाथों से उसका उद्देश्य निकल जाता है जो उसकी प्राप्ति के लिए निरंतर ग्रहों और तारों की दशा का आकलन करता है। कौटिल्य के शब्दों में, “किम् करिष्यन्ति तारक: ? (What will the stars do?) " इस प्रकार राजा को धार्मिक आदेशों के स्थान पर विज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर कार्य करने की सलाह देकर कौटिल्य ने राजनीतिक चिंतन को धार्मिक मनन से पृथक् करने का कार्य किया है।
अंग्रेज दार्शनिक टॉमस हॉब्स (Thomas Hobbes) के समान कौटिल्य का भी मानना था कि राजनीतिक यथार्थवाद का अर्थ शक्ति की प्राप्ति है। कौटिल्य के शब्दों में, “शक्ति ( का होना) बल है तथा बल मस्तिष्क को बदल देता है।" इससे स्पष्ट है कि कौटिल्य ने शक्ति की इच्छा केवल जनता की बाह्य व्यवहार पर नियंत्रण स्थापित करने हेतु नहीं बल्कि जनता तथा शत्रु दोनों के विचारों पर भी नियंत्रण रखने के उद्देश्य से की थी। राज्य की सुरक्षा के अतिरिक्त राजा कौटिल्य द्वारा बताई गई नीतियों का अनुसरण करके अपने तथा अपनी प्रजा के लिए जीवन के तीन सुखों को पूरा कर सकता है-" भौतिक सुख, आध्यात्मिक सुख तथा आनंद की प्राप्ति। "
कौटिल्य द्वारा अर्थशास्त्र में वर्णित तथ्यों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि उसके मस्तिष्क में मौर्य साम्राज्य : के समान एक विशाल राज्य नहीं अपितु छोटे क्षेत्रफल वाले राज्य थे। उसने प्रशासन की सभी शाखाओं का विश्लेषण किया है, परंतु किसी राज्य विशेष की संस्थाओं का वर्णन नहीं किया है। कौटिल्य को लेखन पद्धति आदेशात्मक (Prescriptive) है। हालांकि उन्होंने मुख्यतः अपने समय में विद्यमान तथ्यों के सामान्यीकरण तथा उनके परिवर्धन द्वारा अपने आदर्श राज्य का चित्र प्रस्तुत किया है। कौटिल्य की रचना से यह स्पष्ट है कि चाहे वह प्रशासक हो या सिद्धांत-निर्माता, उनका शासन व्यवस्था से जुड़े व्यक्तियों से अत्यंत घनिष्ठ संबंध था। उग्र राजनीतिक यथार्थवाद की अवधारणा पर आधारित उनका ग्रंथ 'अर्थशास्त्र', राजनीतिक विज्ञान के अन्य प्राचीन भारतीय लेखकों की तुलना में उनकी विशिष्टता दिखाता है। जहाँ तक राजनीति के गहन प्रश्नों की बात है उनके विश्लेषण में कौटिल्य में मौलिकता की कमी दिखाई पड़ती है। ये सिर्फ अपने पूर्ववर्ती अर्थशास्त्र के रचयिताओं के सिद्धांतों और निष्कर्षो को अपनाते हैं। क्रमस्थापन तथा स्पष्टीकरण ही कौटिल्य की सदा से मुख्य देन रही है।
📖 राज्य
राज्य की उत्पत्ति- अर्थशास्त्र के प्रथम अधिकरण में कौटिल्य ने राज्य की उत्पत्ति की चर्चा की है। उन्होंने
यह विमर्श प्रत्यक्ष रूप से नहीं करके बल्कि दो गुप्तचरों के मध्य आपसी संवाद के माध्यम से किया है। प्रथम
गुप्तचर राजा के दोषों की चर्चा करता है जिसके उत्तर में दूसरा गुप्तचर राजा से प्राप्त होने वाले लाभों की चर्चा
करता है। इस प्रकार वाद-विवाद के माध्यम से वे राज्य की उत्पत्ति, राज्य को दिए जाने वाले करों तथा राजा के
प्रति आज्ञाकारिता आदि विषयों की चर्चा करते हैं। राज्य की उत्पत्ति के संबंध में कौटिल्य का मत इस विषय पर
'महाभारत' तथा 'मनुस्मृति' में वर्णित विचारों से काफी सीमा तक समान है। कौटिल्य के अनुसार आदिकाल में
कोई राजा नहीं था अर्थात संसार में 'मत्स्यन्याय' की सी स्थिति थी (जिसे हॉब्स आदि पश्चिमी विचारकों ने
'प्राकृतिक अवस्था' का नाम दिया है)। इस अवस्था में "शक्ति ही अधिकार है" (Might is Right) का सिद्धांत
लागू था, जिससे बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती थी।
इस अराजक अवस्था से निकलने के लिए लोगों ने वैवस्वत मनु को अपना राजा चुना। उन्होंने राजा द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा तथा कल्याण (योगक्षेम) संबंधी कार्यों के बदले में अपनी उपज का छठा भाग तथा व्यापार में हुए लाभ तथा स्वर्ण का दसवाँ भाग कर के रूप में देना स्वीकार किया। यहाँ तक की वानप्रस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत कर रहे लोगों ने भी राजा को अपने हिस्से की उपज का छठा भाग कर स्वरूप देने की बात मान ली। यह एक प्रकार का सामाजिक अनुबंध था। मनु ने जहाँ राजा के दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत को माना है वहीं कौटिल्य कहीं भी इस सिद्धांत की चर्चा नहीं करते हैं। कौटिल्य के अनुसार- क्योंकि यह अनुबंध जनता तथा राजा के बीच हुआ था। अतः दोनों में से जो इसका उल्लंघन करेगा वह अनुबंध तोड़ने का दोषी होगा। इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने राजा को जनता का सेवक (भर्त्य ) कहा है जिसका भरण-पोषण जनता द्वारा दिए गए खर्च ( भर्त्य ) से होता है। इस बात की चर्चा कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में एक अन्य स्थान (अधिकरण 10 अध्याय 3, श्लोक 27 ) में भी की है, जब राजा युद्ध से पूर्व अपने सैनिकों को संबोधित करते हुए कहता है- "मैं भी तुम्हारी तरह ही अपनी सेवा के बदले पारिश्रमिक प्राप्त करता हूँ।" इस प्रकार कौटिल्य का सामाजिक अनुबंध अंग्रेज विचारक जॉन लॉक के सिद्धांत के बहुत कुछ समान है।
📖 सप्तांग
कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' के अधिकरण 6, अध्याय 1 तथा अधिकरण 8 अध्याय 2 में राज्य के सात अंगों की चर्चा की है जिन्हें उन्होंने 'सप्तांग' कहा है। प्राचीन भारतीय चिंतकों ने राज्य को मुख्य रूप से कल्याणकारी संस्था के रूप में देखा है जिसका विकास मानव जीवन की बेहतर सुरक्षां तथा उच्च आदर्शों की बेहतर प्राप्ति के लिए हुआ था। आदिम कबीले का काफी लंबे समय तक अपना कोई निश्चित क्षेत्रीय आधार नहीं था। केवल उत्तर वैदिक काल में जाकर 'राजनीतिक इकाई के रूप में राज्य का उभरना आरंभ हुआ। परंतु वैदिक साहित्य हमें समकालीन राज्यों के निर्माण के मुख्य संघटकों के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं देते हैं। इस विषय पर पूरी जानकारी हमें ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी से मिलनी आरंभ होती है जब राजनीतिक चिंतन का संतोषजनक विकास हो गया था। राज्य के अंगों पर उपलब्ध विभिन्न सिद्धातों में सप्तांग सिद्धांत सबसे महत्त्वपूर्ण है। महाभारत के 'मोक्ष 'पर्व' में सप्तांग सिद्धांत में तीन अतिरिक्त कारकों-वैभव (Majesty), ऊर्जा (Energy) तथा नीति (Policy) को जोड़कर राज्य के दस तत्वों का वर्णन प्राप्त होता है। दूसरी तरफ 'शान्तिपर्व' में संप्रभु (Sovereign) तथा मित्र (Ally) को मूल सात तत्त्वों में से हटाकर केवल पाँच तत्त्वों को ही राज्य के मुख्य संघटकों के रूप से स्वीकार किया गया है। कामंदक ने भी 'नीतिसार' में सप्तांग सिद्धांत को स्वीकार किया है। बृहस्पति ने यह संख्या अठारह तक पहुंचा दी है।
'अर्थशास्त्र' के अनुसार राज्य के सात अंग हैं- स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, दंड तथा मित्र। इन अंगों के वर्णन के दौरान कौटिल्य ने राज्य को "प्रत्यांग भूत" भी कहकर संबोधित किया है जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वे राज्य के आगिक अथवा जैविक सिद्धांत (Organic Theory of the State) में विश्वास रखते हैं। कौटिल्य का मानना है कि राज्य उसी दशा में अच्छा कार्य कर सकता है जब उसके सातों अंग उचित तालमेल के साथ कार्य करें।
1. स्वामी - स्वामी अर्थात् राजा राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है तथा अन्य अंगों को सुचारु रूप से कार्य करना राजा की योग्यता पर निर्भर करता है। वह स्वयं ही राज्य के सभी पदाधिकारियों को चुनता है, वह प्रशासनिक निकायों के प्रमुखों को निर्देश देता है, वह राज्य के मानवीय तथा भौतिक तत्वों की समस्याओं तथा विपदाओं (Calamities) को दूर करता है तथा उन्हें सुदृढ़ करता है, वह अयोग्य पदाधिकारियों के स्थान पर गुणी जनों को नियुक्त करता है, वह सदा ही योग्य पात्रों को सम्मानित तथा पापियों को दंड देने के कार्य में लगा रहता है। दूसरे शब्दों में, राजा राज्य प्रशासन का सर्वेसर्वा है।
कौटिल्य राजा के दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत को अधिक महत्त्व नहीं देते हैं। राजा सदा ही जन सेवक की भाँति
जन-कल्याण के कार्यों में लगा रहता है। उनके अनुसार राजा को सदा ही सचेत तथा ऊर्जावान रहना होगा अन्यथा
राज्य उन्नति नहीं कर पाएगा। व्यसनों में लीन राजा शत्रु के द्वारा पराजित हो जाता है। उसे धर्म तथा अर्थ की
अनदेखी कर इंद्रिय सुखों की प्राप्ति में लीन नहीं रहना चाहिए। राजा दंड के बुद्धि-संगत व्यवहार से लोगों में
सद्गुण का विकास करता है। कौटिल्य के अनुसार राजा को उच्च कुल में उत्पन्न, कृतज्ञ, दृढ़ निश्चयी,
विचारशील, सत्य वचन बोलने वाला विवेकशील, दूरदर्शी ऊर्जावान तथा युद्धकला में निपुण होना चाहिए। उसे
क्रोध, मोह तथा लोभ से दूर रहना चाहिए। उसमें विपत्ति के समय प्रजा को विद्रोह से दूर रखने तथा शत्रु की
दुर्बलता को पहचानने की क्षमता होनी चाहिए। इनके अतिरिक्त उसमें राजकोष में वृद्धि कर राज्य को समृद्धि के
पथ पर अग्रसर कराने का उत्साह होना चाहिए।
कौटिल्य का मानना है कि मनुष्य में कुछ गुण प्राकृतिक रूप से विकसित होते हैं तथा कुछ गुण अभ्यास के द्वारा प्राप्त किए जाते हैं प्रसिद्ध सूनानी दार्शनिक प्लेटो की भाँति कौटिल्य ने भी राजा की शिक्षा पर विशेष बल दिया है। अशिक्षित राजा की तुलना एक दीमक लगी लकड़ी से करते हुए कौटिल्य कहते हैं कि जिस राजवंश में राजकुमारों की शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया जाता है वे राजवंश दीमक लगी लकड़ी के सामान बिना किसी युद्ध के ही समाप्त हो जाते हैं। कौटिल्य के अनुसार 'मुंडन संस्कार' के पश्चात् राजकुमार को लेखन तथा अंकगणित की शिक्षा प्राप्त होनी चाहिए। उपनयन संस्कार के पश्चात् उसे 'त्रयी' अर्थात् तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद) तथा आविराकी (Philosophy) अर्थात् दर्शनशास्त्र की शिक्षा सुसंस्कृत ज्ञानियों से प्राप्त करनी चाहिए 'वर्त' (Economics) अर्थात् अर्थशास्त्र की शिक्षा विभिन्न प्रशासनिक विभागों के प्रमुखों से तथा दंडनीति (Politics) का ज्ञान इस विषय के सिद्धांतों तथा व्यवहारों में प्रवीण व्यक्तियों से प्राप्त करना चाहिए।
राजकुमार की शिक्षा का कार्यक्रम उसकी सोलहवीं वर्षगांठ पर केश मुंडन तथा विवाह के पश्चात् भी जारी रहना चाहिए। उसे दिवस का प्रथम भाग युद्ध तथा द्वितीय भाग पारंपरिक इतिहास, जिसके अंतर्गत कई विज्ञानों के अध्ययन को सम्मिलित किया गया है, को सीखने में बिताना चाहिए। इन बौद्धिक ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ राजकुमार को विनय (discipline ) भी सीखना चाहिए। राजकुमार को सर्वप्रथम विनय की शिक्षा अपने शिक्षकों से प्राप्त करनी चाहिए। तत्पश्चात् उसे निरंतर ज्ञानियों के संगत में रहकर विनयं की शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। राजकुमार की विनय की शिक्षा पूर्ण तब होगी जब वह अपनी कामेद्रियों को अपने वश में कर छह दोषों जिन्हें " छह शत्रु " के नाम से भी जाना जाता है, पर विजय प्राप्त कर लेगा। कौटिल्य ने चेतावनी देते हुए कहा है कि वैसे राजकुमार जो अपनी इंद्रियों को वश में रखने में सक्षम नहीं होते हैं उनका अंत शीघ्र हो जाता है, बावजूद इसके कि उनका साम्राज्य पृथ्वी पर चार महासागरों तक फैला हुआ ही क्यों न हो।
2. अमात्य - कौटिल्य के अनुसार शासनकार्य (राजत्व) केवल राजपदाधिकारियों के सहयोग से ही संभव है । एक पहिये की गाड़ी कभी आगे नहीं बढ़ती है, अतः राजा को अपने अमात्यों (मंत्रिगण एवं अन्य पदाधिकारियों) को नियुक्त करना चाहिए तथा उनके दिए गए परामर्शों को मानना चाहिए।
राजा के अनेक कार्य हैं जिनका संपादन राज्य के विभिन्न स्थानों पर एक साथ होना आवश्यक होता है। अतः इससे पहले कि समय तथा दूरी के कारण देर हो जाये राजा के लिए उन कार्यों को अमात्यों के माध्यम से संपन्न कराना आवश्यक हो जाता है। दूसरे शब्दों में, अमात्य का महत्त्व इस बात से स्पष्ट है कि राज्य के कार्यों का समय तथा दूरी के आधार पर वृहत् वितरण के कारण एक व्यक्ति द्वारा संपूर्ण शासन कार्य का भार संभालना असंभव है। राज्य का कल्याण तथा आंतरिक और बाह्य शत्रुओं से उसकी सुरक्षा, आपदाओं से बचाव, निर्जन तथा बंजर भूमि विकास तथा उपयोग और कर एवं आर्थिक दंड की वसूली द्वारा राजकोष में वृद्धि का कार्य आदि सभी अमात्यों द्वारा संपन्न होता है। इसके अतिरिक्त राज्य के हृदय अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों की सुरक्षा तथा विकास में भी अमात्यों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
अमात्यों के चयन तथा नियुक्ति के संदर्भ में कौटिल्य सर्वप्रथम अपने पूर्ववर्ती अर्थशास्त्र के लेखकों के विचारों का उद्धरण देते हैं। तत्पश्चात् वे किसी व्यक्ति की कार्यकुशलता एवं क्षमता के परीक्षण के लिये उसके कार्य-संपादन की योग्यता को ही सबसे बड़ा मानदंड मानते हुए कार्य की प्रकृति, समय तथा स्थान को ध्यान में रख अमात्यों के चयन की बात कहते हैं। अमात्यों में सदगुण, धन, इच्छाशक्ति, के साथ-साथ अपने पद की `महत्त्वपूर्ण तकनीकि जानकारियों का होना आवश्यक है। उनकी इस योग्यता की पहचान हेतु कौटिल्य प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष निरीक्षण विधि को अनुशंसा करते हैं।
कौटिल्य के अनुसार राजा को तीन या चार अमात्यों से परामर्श करना चाहिए। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा कि अगर वह एक मंत्री से परामर्श करता है तब वह मंत्री अकेला होने के कारण राजा से अपनी बात मनवा सकता है, अगर वह दो मंत्रियों से परामर्श करता है तब वे एक होकर राजा पर हावी हो सकते हैं अथवा मतभेद होने पर राजा की हत्या कर सकते हैं; अगर वह तीन या चार अमात्यों से परामर्श करता है तब जाकर वह किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकता है तथा समूचे प्रकरण की गोपनीयता को भी बनायें रखा जा सकता है।
3. जनपद - राज्य का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग जनपद है। कौटिल्य के अनुसार जनपद का अर्थ दुर्ग द्वारा सुरिक्षत नगरों के अतिरिक्त मुख्यतः राज्य के ग्रामीण क्षेत्र तथा साथ-साथ वहाँ की जनसंख्या से है। एक अच्छे जनपद के लिए कौटिल्य ने एक सर्वव्यापी सूची प्रस्तुत की है-
(क) एक अच्छे जनपद में दुर्ग आदि के निर्माण हेतु पर्याप्त भूमि होनी चाहिए।
(ख) वहाँ की मूल जनसंख्या तथा विदेशों से आने वाले लोगों के भरण-पोषण हेतु पर्याप्त संसाधन हों।
(ग) वहाँ नागरिकों के जीवन निर्वाह के साधन उपलब्ध हों।
(घ) संकट के समय बचाव के सहज साधन उपलब्ध हों।
(ङ) वहाँ के निवासियों में शत्रु के लिए घृणाभाव हो।
(च) वहाँ की व्यवस्था भू-सामंतों को नियंत्रण में रखने में सक्षम हो।
(छ) वहाँ किसी प्रकार की कीचड़ युक्त, पत्थरों से भरी बंजर तथा असमतल भूमि नहीं हो । ,
(ज) वहाँ विद्रोह भावना से युक्त लोगों का कोई संघ, जंगली पशु तथा जंगल नहीं हों।
(झ) वहाँ खेती योग्य भूमि, खनिजों के भंडार तथा ऐसे वन हों जहाँ आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण सामग्रियों के साथ-साथ हाथियों को भी शरण प्राप्त हो सके।
(ञ) वहाँ पशुधन की बहुलता हो।
(ट) वहाँ अपना जलमार्ग तथा भू-मार्ग दोनों हों।
(ठ) वहाँ का व्यापार महत्त्वपूर्ण तथा विस्तृत हो ।
(ङ) वहाँ के निवासी राजा को कर तथा आर्थिक दंड देने में सक्षम हों।
(ढ) वहाँ के किसान उद्यमी तथा साहसी हों तथा गणमान्य जन बुद्धिमान हों,
(ण) वहाँ शूद्र वर्ण के लोगों की संख्या अच्छी हो तथा लोग देशभक्त तथा 'वर्ण-शुद्ध' हों।
इनके अतिरिक्त कौटिल्य के अनुसार प्रत्येक जनपद में कम से कम सौ घर तथा अधिक से अधिक पाँच सौ घरों वाले गाँव होने चाहिए। ये गाँव एक से दो कोस की दूरी पर बसे होने चाहिए ताकि संकट के समय एक-दूसरे की सहायता कर सकें। कौटिल्य ने जनपद के आकार के विषय में अर्थशास्त्र में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा है। परंतु गहन अध्ययन से जो संकेत प्राप्त होते हैं उनके आधार पर यह कहा जाता सकता है कि वे छोटे आकार के राज्यों की धारणा में विश्वास रखते थे।
4. दुर्ग - कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत के अनुसार राज्य की शक्ति के निर्धारण में दुर्ग का स्थान सर्वोपरि है। उनके अनुसार राजकोष की सुरक्षा व्यवस्था में, सेना को सुरक्षित छावनी प्रदान करने में, शत्रु के साथ कपट- पूर्ण युद्ध संचालन में, राज्य के अंदर स्थित विश्वासघातियों पर नियंत्रण करने में मित्र द्वारा दिए गए सहयोग को ग्रहण करने में तथा शत्रुओं तथा असभ्य जनजातियों से सुरक्षा प्रदान करने में दुर्ग अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिक निभाता है। जिस राजा का दुर्ग सुरक्षित नहीं होगा उसका कोष भी सुरक्षित नहीं रह सकता है, जबकि एक शक्तिशाली दुर्ग में शरण लिए हुए । कोषविहीन राजा को परास्त नहीं किया जा सकता है। कौटिल्य ने दुर्ग के चार प्रकार बताये हैं-
(क) औदक दुर्ग (River Fort) - इसके अंतर्गत वे दुर्ग आते हैं जिनके चारों ओर पानी का एक सुरक्षित घेरा हो। ये शत्रुओं के आक्रमण के समय अत्यंत उपयोगी सिद्ध होते हैं।
(ख) पर्वत दुर्ग (Hill Fort) - इसके अंतर्गत आने वाले दुर्ग पर्वत श्रृंखला अथवा बड़े-बड़े पत्थरों तथा चट्टानों से घिरे होते हैं राज्य सुरक्षा के दृष्टिकोण से ये दुर्ग भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
(ग) धात्वन दुर्ग (Desert Fort) दुर्ग ऐसे मरुस्थलीय प्रदेशों में अवस्थित होते हैं जहाँ पहुंचना शत्रुओं के लिये अत्यंत कठिन होता है। यहाँ जल तथा हरे वृक्षों का पूर्ण अभाव होता है। ये राजा की निजी सुरक्षा की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी होते हैं।
(घ) वन दुर्ग (Jungle Fort) - वैसे दुर्ग जो घने जंगलों के बीच निर्मित हों तथा जहाँ पहुँचने का मार्ग शत्रुओं को आसानी से नहीं ज्ञात हो सके, उन्हें वन दुर्ग की श्रेणी में कौटिल्य ने रखा है। ये दुर्ग भी राजा की निजी सुरक्षा के लिए उपयोगी होते हैं।
5. कोष- राज्य की सुरक्षा तथा शासन संबंधी एवं लोक-कल्याणकारी कार्यों के सफल संपादन हेतु पर्याप्त संसाधन की आवश्यकता होती है। अतः राज्य के अस्तित्व के लिये कोष का महत्त्व अत्यधिक है। कौटिल्य के अनुसार राजा को कोष में वृद्धि के लिये हमेशा प्रयासरत रहना चाचिए। उसके कोष में उपलब्ध धन का छठा भाग स्वर्ण तथा अन्य मूल्यवान पत्थर होने चाहिए। कोष में वृद्धि करते समय राजा को इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि वह किसी प्रकार के अधर्म अथवा बल प्रयोग द्वारा प्रजा से कर प्राप्ति नहीं करे। कौटिल्य के शब्दों में, "राजा जनता से कर प्राप्ति का कार्य उस माली के समान करे जो वृक्षों से फल तोड़ते समय इस बात का ध्यान रखता है कि वह सिर्फ पके फलों को ही तोड़े न कि कच्चे फलों को ।"
कौटिल्य ने राजकोष में वृद्धि हेतु छह आधार बताए हैं-
(क) राजकोष में वृद्धि तभी संभव है जब राज्य के सभी निवासी पूर्ण रूप से संपन्न हों,
(ख) निवासियों का आचरण तथा व्यवहार उत्तम तथा शुद्ध हो,
(ग) राज्य की आय तथा संपत्ति का अनुचित प्रयोग नहीं हो,
(घ) राजकर्मियों की संख्या आवश्यकता के अनुसार हो,
(ङ) राज्य में पर्याप्त अन्न का उत्पादन हो,
(च) उद्योग तथा व्यापार पूर्ण विकसित अवस्था में हों।
6. दंड-राज्य की सात प्रकृतियों में दंड अर्थात् सेना का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कौटिल्य के अनुसार सेना छह प्रकार की होती है-
(क) मूल सेना - यह राजधानी की रक्षा हेतु रखी जाती है।
(ख) भृत्य बल - यह सेना राज्य के नियमित रूप से वेतन प्राप्त करती है।
(ग) श्रेणी बल - यह सेना राज्य के विभिन्न प्रदेशों में रखी जाती है।
(घ) मित्र बल - यह मित्र-राज्य की सेना है जो युद्ध अथवा संकटकाल में सहायतार्थ प्राप्त होती है।
(च) उद्योग तथा व्यापार पूर्ण विकसित अवस्था में हों।
6. दंड-राज्य की सात प्रकृतियों में दंड अर्थात् सेना का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कौटिल्य के अनुसार सेना छह प्रकार की होती है-
(क) मूल सेना - यह राजधानी की रक्षा हेतु रखी जाती है।
(ख) भृत्य बल - यह सेना राज्य के नियमित रूप से वेतन प्राप्त करती है।
(ग) श्रेणी बल - यह सेना राज्य के विभिन्न प्रदेशों में रखी जाती है।
(घ) मित्र बल - यह मित्र-राज्य की सेना है जो युद्ध अथवा संकटकाल में सहायतार्थ प्राप्त होती है।
(ङ) शत्रु बल - यह शत्रु राज्य की सेना है जो छल-कपट से राज्य में प्रवेश कर जाती है।
(च) अटवी बल-यह जंगलों की सुरक्षा हेतु नियुक्त सेना है।
सैन्य संग्रह के विषय में 'कौटिल्य ने' 'अर्थशास्त्र' के नौवें अधिकरण के दूसरे अध्याय में अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने शस्त्र विद्या में निपुण क्षेत्रीय सेना को सर्वश्रेष्ठ माना है। वीर योद्धाओं से युक्त वैश्य अथवा शूद्रों की सेना को भी उन्होंने उत्तम श्रेणी में रखा है। शत्रु की सेना के विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर विजिगीषु राजा का कर्तव्य है कि वह उससे अधिक बलशाली सेना का संगठन कर अपने विजय अभियान की ओर अग्रसर हो । सेना कौटिल्य के अनुसार चतुरंगिनी है- हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल ।
कौटिल्य ने भूमि की सुविधा को दूर रखने की सलाह दी है। राजा को जागृत तथा ऊर्जावान रहना होगा अन्यथा सारी व्यवस्था जड़ तथा विषयुक्त हो जाएगी। अकर्मण्य राजा का शत्रु द्वारा परास्त होना तय होता है। उसे धर्म के अनुसार कार्य करना चाहिये जिससे सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित होती है।
राजा द्वारा दमनकारी शक्ति अर्थात् 'दंड' का बुद्धिपूर्वक प्रयोग उसे पुरुषार्थ की प्राप्ति कराता है तथा लोगों
में सद्गुण का विकास करता है। समानता पर आधारित सांसारिक जीवन का संपूर्ण प्रवाह दंड पर ही पूर्ण रूप से
निर्भर करता है । इस प्रकार राजा के दो प्रमुख आवश्यक कार्य हैं- संरक्षण तथा दंड ।
कौटिल्य के शासन व्यवस्था सिद्धांत की एक प्रमुख विशेषता उनका आनुवंशिक राजतंत्र में पूर्ण विश्वास है। यह उनके संप्रभुता के सिद्धांत को भी प्रभावित करता है। कौटिल्य भारत में सबसे प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य की स्थापना के लिए उत्तरदायी थे। उन्होंने अपनी पुस्तक के माध्यम से राजा को अपने प्रजा के व्यवहार को शुद्ध करने तथा समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं तथा वर्गों के कानूनों को समायोजित करने की सलाह दी है, संप्रभुता राजा में समाहित थी तथा संप्रभु राजा ही राज्य की सत्ता का प्रतीक था। राजा धर्म के प्रति उत्तरदायी था तथा कौटिल्य के शब्दों में 'धर्मप्रवर्तक' था।
'अर्थशास्त्र' के अनुसार समाज के सभी वर्गों से राजसत्ता को आज्ञाकारिता प्राप्त हुई। राजा की सत्ता सिर्फ कार्यपालिका शक्ति तक ही सीमित नहीं रह गई बल्कि उसका विस्तार उस सीमा तक हो गया जो पहले धर्म के लिए आरक्षित था। केंद्रीकृत नियंत्रण पर आधारित सर्वव्यापी विकास एवं कल्याण कौटिल्य के राज्य का प्रतीक बन गया। उनके अनुसार 'स्वामित्व' देखते हुए युद्ध हेतु सेना के व्यूह की रचना करनी चाहिए। मुख्य सेना को विभाजित कर तथा शत्रु की आँखों से सेना को छिपाकर सेनापति तथा नायक को सेना के व्यूह की रचना करनी चाहिए।
7. मित्र- कौटिल्य के अनुसार राज्य की उन्नति एवं विकास तथा संकट के समय राज्य के सहायतार्थ मित्रों की आवश्यकता होती है। उन्होंने तीन प्रकार के मित्र की चर्चा की है-
(च) अटवी बल-यह जंगलों की सुरक्षा हेतु नियुक्त सेना है।
सैन्य संग्रह के विषय में 'कौटिल्य ने' 'अर्थशास्त्र' के नौवें अधिकरण के दूसरे अध्याय में अपने विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने शस्त्र विद्या में निपुण क्षेत्रीय सेना को सर्वश्रेष्ठ माना है। वीर योद्धाओं से युक्त वैश्य अथवा शूद्रों की सेना को भी उन्होंने उत्तम श्रेणी में रखा है। शत्रु की सेना के विषय में पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर विजिगीषु राजा का कर्तव्य है कि वह उससे अधिक बलशाली सेना का संगठन कर अपने विजय अभियान की ओर अग्रसर हो । सेना कौटिल्य के अनुसार चतुरंगिनी है- हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल ।
कौटिल्य ने भूमि की सुविधा को दूर रखने की सलाह दी है। राजा को जागृत तथा ऊर्जावान रहना होगा अन्यथा सारी व्यवस्था जड़ तथा विषयुक्त हो जाएगी। अकर्मण्य राजा का शत्रु द्वारा परास्त होना तय होता है। उसे धर्म के अनुसार कार्य करना चाहिये जिससे सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित होती है।
राजा द्वारा दमनकारी शक्ति अर्थात् 'दंड' का बुद्धिपूर्वक प्रयोग उसे पुरुषार्थ की प्राप्ति कराता है तथा लोगों
में सद्गुण का विकास करता है। समानता पर आधारित सांसारिक जीवन का संपूर्ण प्रवाह दंड पर ही पूर्ण रूप से
निर्भर करता है । इस प्रकार राजा के दो प्रमुख आवश्यक कार्य हैं- संरक्षण तथा दंड ।
कौटिल्य के शासन व्यवस्था सिद्धांत की एक प्रमुख विशेषता उनका आनुवंशिक राजतंत्र में पूर्ण विश्वास है। यह उनके संप्रभुता के सिद्धांत को भी प्रभावित करता है। कौटिल्य भारत में सबसे प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य की स्थापना के लिए उत्तरदायी थे। उन्होंने अपनी पुस्तक के माध्यम से राजा को अपने प्रजा के व्यवहार को शुद्ध करने तथा समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं तथा वर्गों के कानूनों को समायोजित करने की सलाह दी है, संप्रभुता राजा में समाहित थी तथा संप्रभु राजा ही राज्य की सत्ता का प्रतीक था। राजा धर्म के प्रति उत्तरदायी था तथा कौटिल्य के शब्दों में 'धर्मप्रवर्तक' था।
'अर्थशास्त्र' के अनुसार समाज के सभी वर्गों से राजसत्ता को आज्ञाकारिता प्राप्त हुई। राजा की सत्ता सिर्फ कार्यपालिका शक्ति तक ही सीमित नहीं रह गई बल्कि उसका विस्तार उस सीमा तक हो गया जो पहले धर्म के लिए आरक्षित था। केंद्रीकृत नियंत्रण पर आधारित सर्वव्यापी विकास एवं कल्याण कौटिल्य के राज्य का प्रतीक बन गया। उनके अनुसार 'स्वामित्व' देखते हुए युद्ध हेतु सेना के व्यूह की रचना करनी चाहिए। मुख्य सेना को विभाजित कर तथा शत्रु की आँखों से सेना को छिपाकर सेनापति तथा नायक को सेना के व्यूह की रचना करनी चाहिए।
7. मित्र- कौटिल्य के अनुसार राज्य की उन्नति एवं विकास तथा संकट के समय राज्य के सहायतार्थ मित्रों की आवश्यकता होती है। उन्होंने तीन प्रकार के मित्र की चर्चा की है-
(क) प्राकृतिक मित्र - इसके अंतर्गत राज्य के पड़ोसी राज्य जो कौटिल्य के अनुसार 'अरि' अर्थात् शत्रु राज्य है, का पड़ोसी राज्य आता है।
(ख) सहज मित्र- माता अथवा पिता की ओर से रक्त संबंध से जुड़े मित्र 'सहज मित्र' की श्रेणी में आते हैं।
(ख) सहज मित्र- माता अथवा पिता की ओर से रक्त संबंध से जुड़े मित्र 'सहज मित्र' की श्रेणी में आते हैं।
(ग) कृत्रिम मित्र - धन अथवा जीवन-रक्षा के लिए राजा की शरण में आने वाले 'कृत्रिम मित्र' की श्रेणी में आते हैं।
निष्कर्ष - कौटिल्य ने 'सप्तांग सिद्धांत' में संप्रभुता के भाव की कहीं भी चर्चा नहीं की है। यह सिद्धांत मुख्य रूप से शासन व्यवस्था के प्रमुख संपन्न तत्वों की एक सूची मात्र है। इसके द्वारा राज्य के आवश्यक तत्वों का पूर्ण ज्ञान संभव नहीं है।
निष्कर्ष - कौटिल्य ने 'सप्तांग सिद्धांत' में संप्रभुता के भाव की कहीं भी चर्चा नहीं की है। यह सिद्धांत मुख्य रूप से शासन व्यवस्था के प्रमुख संपन्न तत्वों की एक सूची मात्र है। इसके द्वारा राज्य के आवश्यक तत्वों का पूर्ण ज्ञान संभव नहीं है।
राजतंत्र (Kingship)
इंद्रिय सुख कौटिल्य ने अपने ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' में राज्य रूपी शरीर में राजा को सबसे प्रमुख अंग माना है। उन्होंने राजा के 'दैवी उत्पत्ति' के सिद्धांत को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया है। राजा सदा से ही राज्य की सेवा में पूर्णरूप से समर्पित जन सेवक रहा है। आत्मसंयम पर विशेष बल देकर कौटिल्य ने राजा को किसी भी प्रकार की प्राप्ति, जिससे धर्म तथा अर्थ की हानि हो, से स्वयं को दूर रखने की बात कही है। सम्प्रभुता का अर्थ शक्ति है तथा यह शक्ति राजा के व्यक्तित्व पर निर्भर करती है जो समूचे राज्य में उसी के अंदर से प्रवाहित होती है। दूसरे शब्दों में, सम्प्रभु राजा राज्य की सभी शक्तियों का प्रतीक तथा स्रोत है।
कौटिल्य का मानना है कि विश्व को अति शक्तिशाली आतताइयों के कहर से सिर्फ सत्ता के प्रतीक दंड को ठीक ढंग से पकड़ कर तथा राजा में सभी शक्तियों को केंद्रित कर ही बचाया जा सकता है। राजा ही राज्य के अन्य सभी तत्वों की निष्पत्ति है। वह सेना का प्रधान सेनानायक है। हालाँकि कौटिल्य ने राजा की मनमानी तथा सत्ता के दुरुपयोग पर कई प्रकार से रोक लगाने का भी प्रयास किया है। वे कहते हैं कि अगर प्रजा राजा से असंतुष्ट हो तब वे स्वेच्छा से शत्रु पक्ष से मिलकर अपने राजा का विनाश कर सकते हैं। कौटिल्य के अनुसार प्रजा के सुख तथा कल्याण में राजा का सुख तथा कल्याण रहता है। राजा को वही करना चाहिए जो उसकी प्रजा को अच्छा लगता है तथा उसे शासन विधिसंगत तथा न्यायपूर्ण तरीके से करना चाहिए।
कौटिल्य ने राजा को छह शत्रुओं- काम, क्रोध, लोभ, दंभ, अभिमान एवं अहंकार तथा अति विलासिता पर नियंत्रण प्राप्त कर अपनी इंद्रियों को वश में करने की सलाह दी है। कौटिल्य के अनुसार राजा तथा प्रजा का संबंध एक प्रकार से स्वामी तथा दास जैसा है। उन्होंने अपनी राजतंत्र की विचारधारा को पैतृक सह उदार निरंकुशतावाद के सिद्धांत पर आधारित किया है। पितृवाद कौटिल्य के अर्थशास्त्र' में हर स्थान पर झलकता है। उन्होंने राजा को नए बसे क्षेत्रों की रक्षा एक पिता की भाँति करने की सलाह दी है। राजा ही अपनी प्रजा के कल्याण का सर्वेसर्वा है तथा उसे वर्णाश्रम धर्म के बन्धनों के अधीन रहकर प्रजा की भलाई के कार्यों को क्रियान्वित करना है।
राजा की शिक्षा- सभी प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतकों ने राजा की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया है। कौटिल्य के राजतंत्र के सिद्धांत की झलक हमें राजा की शिक्षा से संबंधित उनकी व्यापक योजना से प्राप्त होती है । उनके अनुसार राजा को अपने राज्य का मूल निवासी होना चाहिए, उसे शास्त्रों में वर्णित बातों का पूर्ण पालन करना चाहिये तथा उसे उच्च कुल में उत्पन्न तथा रोगमुक्त होना चाहिए। राजा के तीन गुण हैं-
(क) अभिगामिक गुण उच्च कुल में जन्म, दया भावना तथा न्यायप्रियता !
(ख) प्रज्ञा गुण (बौद्धिक गुण ) - समझने तथा विचार करने की क्षमता ।
(ग) उत्साह गुण- वीरता, शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता तथा मानसिक रूप से शक्तिशाली।
उपर्युक्त तीनों गुणों को सामूहिक रूप से स्वामीसंपद (राजा की संपत्ति) के नाम से जाना जाता है। इन सभी गुणों को लेकर कोई राजा जन्म नहीं लेता है। अतः कौटिल्य ने महान यूनानी दार्शनिक प्लेटो (428-348 ई. पू.) के समान राजा की शिक्षा के संबंध में एक वृहत् कार्यक्रम प्रस्तुत किया है। कौटिल्य के अनुसार प्रथम चरण में राजा को आन्विशकी अथवा दर्शनशास्त्र (Philosophy), जिसे तीन धाराओं-सांख्य, योग तथा लोकायत द्वारा प्रस्तुत किया गया है, का अध्यन करना चाहिए। आन्विशकी ज्ञान की अन्य शाखाओं पर प्रकाश डालता है तथा सभी कार्यों तथा कर्तव्यों को एक बौद्धिक आधार प्रदान करता है। दूसरे चरण में कौटिल्य राजा को यी अर्थात् तीनों वेदों-ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद के अध्ययन की सलाह देते हैं। उनके अनुसार वेदों का अध्ययन राजा को वर्णाश्रम धर्म की उत्पत्ति, महत्त्व तथा उसकी रक्षा करने की आवश्यकता का सही ज्ञान देता है। तीसरे चरण में कौटिल्य 'वर्त' अर्थात् अर्थशास्त्र (economics) तथा दंडनीति अर्थात् राजनीति विज्ञान (Science • of politics) के अध्ययन की अनुशंसा करते हैं। वर्त के अध्ययन से राज्य के आर्थिक जीवन को समझने तथा सुनियोजित करने की क्षमता का विकास होता है। दंडनीति का ज्ञान राज्य की शांति तथा व्यवस्था को बनाए रखने . के लिये आवश्यक है जो राज्य के विकास, अर्थ की प्राप्ति तथा योगक्षेम' (Prosperity) के लिए प्रयोजनीय है।
उपर्युक्त शिक्षा के अतिरिक्त राजा के लिए आवश्यक है कि वह अपनी इंद्रियों पर भी विजय प्राप्त करे। कौटिल्य के अनुसार राजा को किसी भी प्रकार का व्यवसन नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यसन राजा के लिये उसके सर्वोच्च अच्छाई की प्राप्ति के मार्ग में बाधक सिद्ध होते हैं।
प्लेटो के विपरीत कौटिल्य ने अपने राजा को एक सांसारिक पुरुष का जीवन व्यतीत करने की बात कही है। उनके अनुसार मनुष्य के जीवन के तीन लक्ष्य हैं-धर्म, अर्थ तथा काम की प्राप्ति । कौटिल्य ने राजा को इन तीनों लक्ष्यों के आधार पर अपने जीवन को सुनियोजित करने की सलाह दी है। इन तीनों में कौटिल्य अर्थ को सबसे अधिक महत्त्व देते हैं क्योंकि अन्य दो की प्राप्ति इसी पर निर्भर करती है। ऐसा उन्होंने अपनी प्रजा के प्रति राजा की विशेष स्थिति को ध्यान में रखकर कहा है।
राजा की दिनचर्या -कौटिल्य ने अनुसार अगर राजा ऊर्जावान है तब उसकी प्रजा भी समान रूप से ऊर्जावान होगी। अगर वह असावधान और उतावले स्वभाव का है तब उसकी प्रजा भी न सिर्फ असावधान होगी बल्कि उसके कार्यों तथा प्रयोजनों पर प्रतिकूल प्रभाव भी डालेगी। इसके अतिरिक्त एक असावधान राजा शत्रु द्वारा आसानी से पराजित किया जा सकता है। इसी कारण से कौटिल्य राजा को सचेत अवस्था में रहने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार राजा को दिन तथा रात्रि दोनों को आठ-आठ नलिकाओं (घड़ी/भाग) जिसकी अवधि डेढ़ घंटे की होती है, में विभाजित करना चाहिए। इसे निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है-
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि राजा के लिए राज्य की सुरक्षा तथा अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ रखने हेतु सदैव क्रियाशील रहना आवश्यक है। धन का स्रोत आर्थिक क्रियाएँ हैं तथा उनके अभाव में राज्य में भौतिक साधनों की कमी हो जायेगी तथा राज्य की वर्तमान समृद्धि तथा भविष्य में होने वाले विकास दोनों ही खतरे में पड़ जाएँगे ।
राजा के कर्तव्य कौटिल्य 'राजसी पितृवाद' (Royal Paternalism) के सिद्धांत के समर्थक थे। उन्होंने राजा को राज्य में बसे नए लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार करने का निर्देश दिया है जैसा पिता अपनी संतान के साथ करता है। प्राकृतिक विपदाओं जैसे-दुर्भिक्ष, बाढ़ के समय भी राज़ा को अपनी प्रजा की रक्षा एक पिता की भाँति करनी चाहिए। पिता अपने बच्चों की रक्षा तथा पालन-पोषण किसी के प्रति अपने उत्तरदायी होने के कारण नहीं बल्कि हृदय में बसे अपने बच्चों के प्रति असीम प्रेम के कारण करता है।
राजा के कर्तव्य कौटिल्य 'राजसी पितृवाद' (Royal Paternalism) के सिद्धांत के समर्थक थे। उन्होंने राजा को राज्य में बसे नए लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार करने का निर्देश दिया है जैसा पिता अपनी संतान के साथ करता है। प्राकृतिक विपदाओं जैसे-दुर्भिक्ष, बाढ़ के समय भी राज़ा को अपनी प्रजा की रक्षा एक पिता की भाँति करनी चाहिए। पिता अपने बच्चों की रक्षा तथा पालन-पोषण किसी के प्रति अपने उत्तरदायी होने के कारण नहीं बल्कि हृदय में बसे अपने बच्चों के प्रति असीम प्रेम के कारण करता है।
उदार- निरंकुश पितृवाद के इसी सिद्धांत को आधार बनाकर ही कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजा के अपनी प्रजा के प्रति कर्तव्यों का वर्णन किया है।-
(1) कार्यकारी कर्तव्य (Executive Duties) - राजा के कार्यकारी कर्तव्यों का हम निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत वर्णन कर सकते हैं-
(क) राज्य की रक्षा आठ प्रकार की विपदाओं अग्नि, बाढ़, महामारी, रोग: दुर्भिक्ष, चूहों, शेर, साँप तथा दानवों से रक्षा करना।
(ख) राज्य में शांति भंग करने वाले तत्वों से समाज को मुक्ति दिलाना। यह कार्य मुख्य दंडाधिकारी के अधीन होता है जिसका कर्तव्य राज्य को तेरह प्रकार के अपराधियों से मुक्ति दिलाना है।
(ग) दुःखी तथा दरिद्र जनों को राहत पहुँचाने का कार्य करना ।
(घ) प्राकृतिक विपदाओं के समय अतिशीघ्र उससे निबटने की व्यवस्था करना।
(ङ) मंत्रियों तथा अन्य नागरिक तथा सैन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति मंत्रिपरिषद् के साथ परामर्श, गुप्तचरों द्वारा प्रस्तुत आलेखों पर विचार-विमर्श करना ।
(च) अर्थ तथा सेवा को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखना तथा राज्य तथा आय-व्यय का ब्यौरा लेना।
(छ) अंतर्राज्यीय संबंध तथा सेना की गतिविधियों की योजना तैयार करना। नई भूमि को राज्य में सम्मिलित करने को अर्थशास्त्र में अत्यंत महत्त्व दिया गया है। अर्थशास्त्र का केंद्र एक ऐसा विजिगीषु राजा है। जिसका उद्देश्य निरंतर नई भूमि प्राप्त कर अपने क्षेत्र की वृद्धि करना है। 15 अधिकरणों में से 9 अधिकरण प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से युद्ध की चर्चा करते हैं।
(2) विधायी तथा न्यायिक कर्तव्य कौटिल्य के अनुसार राजा न्यायपालिका का प्रमुख है। उसे - अध्यादेशों के माध्यम से कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। न्यायाधीश इन्हीं अध्यादेशों के माध्यम से कार्य करते थे। राजा अपने ऊपर किसी भी प्रकार की न्यायिक कार्यवाही से पूर्णरूप से मुक्त था। वह किसी भी प्रकार के कर से भी मुक्त था। सभी प्रकार के प्राप्त खजाने तथा खोई वस्तुएँ प्राप्त होने पर उसी के नियंत्रण में जाती थीं। उसे किसी भी न्यायालय में साक्षी के रूप में नहीं प्रस्तुत किया जा सकता था। देशद्रोह एक गंभीर अपराध था तथा देशद्रोहियों को अत्यंत कठोर दंड दिया जाता था। राजा के प्रति अपमानयुक्त वचन बोलने वाले की जिह्वा काट ली जाती थी तथा ब्राह्मण भी इस कानून की परिधि से मुक्त नहीं थे।
राजा को न्याय बिना किसी भेदभाव के करना था। कौटिल्य राजा को मुख्य विधि-निर्माता अथवा कानून का स्रोत नहीं मानते थे। राजा का मुख्य न्यायिक कर्तव्य कानून के अनुसार शासन करना था। उन्होंने विधि- प्रशासन का राजा के अंतर्गत केंद्रीकरण किया था।
( 3 ) प्रशासनिक कर्तव्य - राजा का प्रशासनिक कर्तव्य अत्यंत व्यापक था। कौटिल्य के राज्य की प्रमुख विशेषता केंद्रीकृत नियंत्रण पर आधारित व्यापक सुदृढ़ प्रशासन था। दिवस के आठ भाग राजा अपने अमात्यों के साथ बैठकर प्रशासनिक व्यवस्था पर विमर्श करता था।
( 4 ) राजस्व संबंधी कर्तव्य कौटिल्य के राजा की वित्तीय शक्तियाँ असीम थीं। वह राज्य के आय-व्यय की पूरी जाँच करता था तथा वित्तीय महानियंत्रक को नियुक्त करता था जो इस कार्य में उसकी सहायता करता था।
(5) राजा सेना का सर्वोच्च सेनाध्यक्ष था।
( 6 ) राजा उच्च पुरोहितों को नियुक्त करता था। वह विद्वानों को अपने राज्य में उच्च स्थान तथा जीवन-यापन हेतु "महादेव भूमि" देता था।
(7) वह चिकित्सालयों का निर्माण कराता था तथा प्रजा की भलाई हेतु अन्य कल्याणकारी उपायों को करता था।
( 8 ) वह जीविकोपार्जन के साधनों को नियंत्रित करता था।
( 9 ) विधवाओं, अनाथों तथा रोगियों का राज्य द्वारा भरण-पोषण करता था।
( 10 ) कृषि तथा उद्योगों को बढ़ावा देता था।
( 11 ) साधुओं, श्रोत्रियों तथा ज्ञानोपार्जन में लगे विद्यार्थियों की रक्षा करता था।
(12) लोगों को उनके कार्यों के अंतिम लक्ष्य धर्म, अर्थ तथा काम का ज्ञान कराता था तथा इनकी प्राप्ति के महत्त्व से अवगत कराता था ।
(13) राजा का एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य वर्णाश्रम धर्म की रक्षा था। कौटिल्य के शब्दों में- "जिस राजा की प्रजा आर्य मर्यादा के आधार पर व्यवस्थित रहती है, जो वर्ण तथा आश्रम के नियमों का पालन करती है और जो त्रयी (तीनों वेदों) द्वारा निहित विधानों से रक्षित रहती है, वह प्रजा सदैव प्रसन्न रहती है और उसका कभी नाश नहीं होता है।"
इसके अतिरिक्त कौटिल्य कहते हैं कि राजा राज्य का जीवन है। अतः उसके जीवन को सभी स्वाभाविक खतरों से बचाना आवश्यक है। कौटिल्य ने राजा की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया है तथा उसके लिये कुछ विशेष प्रावधानों का उल्लेख किया है। उनके अनुसार राजा को परम विश्वासी राजसी अंगरक्षकों जिन्होंने कई पीढ़ियों से राजा की रक्षा की है तथा राज्य की सेवा के लिए जिन्हें पुरस्कृत किया गया है, द्वारा घिरा रहना चाहिए। अंगरक्षकों को शिक्षित, बुद्धिमान, अनुभवी तथा आर्थिक रूप से समृद्ध होना चाहिए। विदेशियों को अंगरक्षकों के रूप में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। राजा को किसी जन सभा में भाग लेते समय तथा यात्रा के दौरान कम-से-कम दस अंगरक्षकों से घिरा होना चाहिए।
📖 न्याय व्यवस्था (Justice System )
'अर्थशास्त्र' नागरिकों के जीवन संपत्ति अतिक्रमण, मानहानि, हिंसात्मक प्रहार, स्वतंत्रता, शासन व्यवस्था में लगे अधिकारियों से रक्षा हेतु व्यापक कानूनी प्रावधानों की चर्चा करता है। हालाँकि कौटिल्य ने सरकारी अतिक्रमण के विरुद्ध किसी भी प्रकार का प्रावधान नहीं किया है क्योंकि कौटिल्य का राज्य सरकार तथा राज्य दोनों का प्रतिनिधित्व करता था। विधि का उद्देश्य प्रजा का वैयक्तिक तथा सामाजिक दोनों प्रकार का कल्याण था। प्राचीन भारत में सर्वप्रथम कौटिल्य के द्वारा ही एक वैज्ञानिक आधार पर विधि को संहिताबद्ध करने का प्रयास किया गया था। हालाँकि कौटिल्य अपने इस प्रयास में पूर्णत: तत्व- मिमांसा (Metaphysics) के बंधन से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
कौटिल्य का विश्वास था कि दंड ही राज्य का आधार है। त्रयी अर्थात् तीनों वेदों (ऋग्वेद, युजर्वेद तथा सामवेद) के अध्ययन पर उनके विशेष बल से उनके सामाजिक व्यवस्था संबंधित विधि का पता चलता है। वे वेदों को विज्ञान की श्रेणी में रखने को उचित ठहराते हैं क्योंकि ये चारों वर्णों, जीवन के चार आश्रमों तथा उनसे संबंधित कर्तव्यों को स्थापित करते हैं। धर्म के आधार पर अपने कर्तव्यों का पालन करना मोक्ष की ओर तथा उनका उल्लंघन वर्णसंकर तथा दुःख की ओर ले जाता है। वर्णाश्रम धर्म का प्रजा द्वारा पालन करवा कर राजा केवल अपने लिए परलोक में सुख की प्राप्ति को ही सुनिश्चित नहीं करता है बल्कि नागरिकों को इसी संसार में सुख की प्राप्ति करवाता है। राजा के द्वारा अपने इस कर्तव्य के निर्वहन में कमी से राज्य में वर्णसंकर उत्पन्न हो जाता है जिससे सामाजिक व्यवस्था पूर्णत: चरमरा जाती है।
कौटिल्य ने विधि के चार अंगों (चतुष्पद) की चर्चा की है-
1. धर्म-पवित्र विधि, नीतिवचन ।
2. व्यवहार - समसामयिक विधि।
3. चरित्र - इतिहास तथा परंपराओं पर आधारित विधि |
4. न्याय राजा के आदेश द्वारा निर्मित विधि। कौटिल्य इसे धर्म न्याय भी कहते हैं। उनके अनुसार जब कभी भी पवित्र विधि तर्कयुक्त नहीं प्रतीत होती है तब विवेक तथा बुद्धि के आधार पर राजा को न्याय करना चाहिए।
कौटिल्य से पूर्व विधि के मुख्य स्रोत श्रुति, स्मृति, न्याय तथा सदाचार थे। विधि के स्रोत के रूप में राजा का कोई स्थान नारद स्मृति को छोड़कर कहीं भी धर्मशास्त्र में नहीं था। आचार-व्यवहार विधि का एक मुख्य स्रोत था । वेद का महत्त्व विधि के स्रोत के रूप में अत्यधिक था। परंतु जैसे-जैसे परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ, विधि को भी सामाजिक विकास के साथ-साथ चलना पड़ा तथा समय के अंतराल में प्राचीन विधि-वेत्ताओं ने न्याय अर्थात् तर्क या बुद्धि को भी विधि के स्रोत के रूप में स्थान दिया। कौटिल्य ने सर्वप्रथम राजा को विधि के स्रोत ही नहीं बल्कि उसकी उद्घोषणाओं को धार्मिक विधि से ऊपर स्थान प्रदान किया। कौटिल्य के अनुसार, "वह राजा जो धर्म, व्यवहार, संस्था तथा तर्क के आधार पर न्याय करता है वह संसार- विजय करने में सफल होगा। जब कभी भी संस्था तथा धार्मिक विधि या व्यवहार में परस्पर विरोध हो तब धार्मिक विधि के आधार पर समूचे प्रकरण का निवारण होना चाहिए, परंतु अगर धार्मिक विधि तथा न्याय (बुद्धि या तर्क) में विवाद हो तब न्याय का स्थान ऊपर होगा। कौटिल्य का यह प्रयास एक क्रान्तिकारी कार्य था।
कौटिल्य के अनुसार, राज्य का एक मुख्य कार्य " योगक्षेम" अर्थात् जन कल्याण था। यह तभी संभव था जब लोगों का जीवन तथा संपत्ति सुरक्षित हो। समाज में शांति को बराबर चोर, डाकुओं तथा हत्यारों का भय बना रहता है। इनके अतिरिक्त समाज विरोधी तत्वों जैसे भ्रष्ट पदाधिकारियों कपटपूर्ण व्यापारियों एवं कारीगरों द्वारा भी योगक्षेम पर संकट मंडराता रहता है। कौटिल्य ने अपराधियों तथा समाज विरोधी तत्वों को राज्य रूपी शरीर में कंटक (thorn) कहकर संबोधित किया है। इन काँटों को निकालना (कंटकशोधन) अर्थात् अपराधियों तथा समाज विरोधी तत्वों के दमन की चर्चा कौटिल्य ने अर्धशास्त्र के चतुर्थ अधिकरण में विस्तार से की है।
जनपद अर्थात् ग्रामीण क्षेत्रों में अपराध रोकने तथा विधि-व्यवस्था स्थापित करने का कार्य समाहर्तार (samahartar) नामक पदाधिकारी का था। गुप्तचरों के माध्यम से समाहर्तार का यह उत्तरदायित्व था कि वह अपराधियों तथा भ्रष्ट राज पदाधिकारियों का पता लगाए तथा उनका दमन कर राजा की सत्ता को स्थापित करे। सभी व्यक्ति जो अपराध रोकने तथा अपराधियों को दंडित करने के कार्य में लगे थे वे समाहर्तार के अधीन कार्य करते थे। नगर क्षेत्र में 'नगरिक' (nagarik) नामक पदाधिकारी अपराध का पता लगाने तथा अपराधियों को दंड देने हेतु उत्तरदायी था।
कौटिल्य राजद्रोह को एक अत्यंत गंभीर अपराध की श्रेणी में रखते हैं क्योंकि राजद्रोही राज्य की सुरक्षा को संकट में डालते हैं। राजद्रोह से संबंधित मामलों से राजा सवयं निबटता था। गुप्तचरों तथा अन्य दूतों के माध्यम -से जनता के मध्य राजद्रोह की भावना का पता लगाया जाता था। यह संभव है कि जन-प्रधान तथा राज्य के उच्च पदाधिकारी जो सामान्य रूप से प्रशासन चलाने का कार्य तथा राज्य की सुरक्षा आदि से जुड़े होते हैं, राजद्रोह की भावना से ग्रसित हों। ऐसी अवस्था में कौटिल्य चार उपायों-साम, दाम, दंड तथा भेद के प्रयोग द्वारा इन तत्वों को अपने में वापस मिलाने अथवा इनसे मुक्ति पाने की सलाह देते हैं। ऐसे जन प्रधान अथवा मुख्य व्यक्ति (Chiefs ) जो राज्य के लिए संकट उत्पन्न कर सकते हैं उन्हें 'दृश्य' कहते हैं। यह राज्य की भलाई में नहीं है कि इन्हें खुले में दंड दिया जाए। ऐसे लोगों के लिए कौटिल्य राजा को 'गुप्त दंड' की व्यवस्था की सलाह देते हैं।
कौटिल्य द्वारा 'अर्थशास्त्र' में वर्णित विभिन्न दंड संबंधी सिद्धांतों को मुख्यतः आठ वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
1. विभिन्न प्रकार के दंड का सिद्धांत-इसके अंतर्गत शारीरिक दंड आर्थिक दंड तथा कारावास आदि के प्रावधान की चर्चा कौटिल्य ने की है।
2. अपराध के अनुपात में दंड का सिद्धांत- इसके अंतर्गत अपराध की प्रकृति तथा गंभीरता के अनुसार अधिक कठोर तथा हल्के दंड की व्यवस्था की गई है।
3. वर्ण के आधार पर दंड का सिद्धांत-कौटिल्य द्वारा वर्णित दंड व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था पर आधारित भेद-भाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। एक ही प्रकार के अपराध के लिए ब्राह्मणों को अन्य वर्णों के सदस्यों की अपेक्षा कम दंड देने की व्यवस्था थी । ब्राह्मणों के लिये मृत्युदंड तथा ताड़न दंड वर्जित था। उनके लिए उनके माथे पर " जितने अपराध उतने निशान " लगाने की व्यवस्था थी ताकि उन्हें पतित ब्राह्मण की श्रेणी में रखा जा सके। 'अर्थशास्त्र' के अधिकरण चार के तेरहवें अध्याय में स्पष्ट रूप से कहा गया है: "यदि कोई व्यक्ति किसी ब्राह्मण को अभक्ष्य तथा अपेय वस्तु का सेवन कराए तब उसे क्रमशः उत्तम साहस दंड, यदि क्षत्रिय को उसका सेवन कराए तब उसे मध्यम साहस दंड, यदि वैश्य को उसका सेवन कराए तब उसे प्रथम साहस- दंड तथा शूद्र को उसका सेवन कराए तो उसे सिर्फ 54 पण का आर्थिक दंड दिया जाए। "
4. अपराधी के सामर्थ्य के आधार पर दंड का सिद्धांत-कौटिल्य ने एक ही अपराध के लिए पुरुष की अपेक्षा स्त्री को आधा दंड देने की बात कही है। साथ ही साथ वे अपराधों की आर्थिक स्थिति के आधार पर भी दंड देने की चर्चा करते हैं।
5. विशेष परिस्थिति के आधार पर दंड का सिद्धांत-कौटिल्य ने प्रमाद, मद, मोह आदि के प्रभाव में आकर दूसरे व्यक्ति के लिए घृणित शब्दों का प्रयोग करने वाले के लिये आधे दंड की व्यवस्था की है।
6. लोगों में भय उत्पन्न करने के उद्देश्य से दंड का सिद्धांत-कौटिल्य ने कुछ गंभीर अपराधों के लिए बर्बर एवं अत्यंत कठोर दंड देने की व्यवस्था की है। जैसे त्वचा एवं शरीर पर प्रज्ज्वलित अग्नि रखकर मृत्यु-दंड देना जोभ में छेद करना, हाथ-पैर बांधकर उल्या लटकाना, नाखूनों में सुई चुभाना आदि ऐसे दंड सार्वजनिक स्थानों पर दिए जाने चाहिए ताकि अन्य लोग दंड की बर्बरता से भयभीत होकर इस प्रकार के अपराध करने की बात भी मन में नहीं लाएँ ।
7. लज्जित कर दंड देने का सिद्धांत-कौटिल्य ने विद्वान ब्राह्मण अपराधियों के लिये इस प्रकार के दंड की चर्चा की है।
8. अपराधियों के आचरण सुधारने का सिद्धांत - कौटिल्य ने कारागार में बंद अपराधियों के आचरण में परिवर्तन लाने की भी बात बताई है। कारागारों का निरीक्षण समय-समय पर किया जाना चाहिए तथा वहाँ बंद अपराधियों में जिनके आचरण अच्छे पाए जाएँ उनके दंड कम कराने की अनुशंसा की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त कौटिल्य ने प्रायश्चित पद्धति द्वारा भी अपराधियों के हृदय परिवर्तन कराने की बात का उल्लेख किया है।
📖 न्यायालय एवं न्यायाधीश (Court and Justice )
कौटिल्य ने न्याय प्रशासन के सुचारु रूप से संचालन को ध्यान में रखते हुए कई प्रकार के न्यायालयों की व्यवस्था की है। उनके अनुसार दस ग्रामों के बीच स्थित संग्रहण, 400 ग्रामों के बीच स्थित द्रोणमुख, 800 ग्रामों के बीच स्थित नगरों में तथा जनपद की सीमा संधियों पर न्यायालयों को स्थापित किया जाना चाहिए। इन न्यायालयों में तीन न्यायाधीश (धर्मरथ) और तीन अमात्य विवादों को सुनने तथा उन पर अपना निर्णय दिए जाने के उद्देश्य से नियुक्त किए जाने चाहिए। इनके अतिरिक्त ग्रामों में न्याय कार्य का संपादन ग्राम के बुजुर्गों तथा सामन्तों द्वारा किया जाना चाहिए। ग्राम बुजुगों के किसी विवादास्पद विषय पर निर्णय पर पहुँचने से पूर्व धार्मिक पुरुषों से भी विचार-विमर्श अवश्य करना चाहिए। ग्रामों के सीमा विवादों का निर्णय संबंधित ग्रामों के मुखिया (सामंत) अथवा पाँच ग्रामों के मुख्य अधिकारी (पंचग्रामी) या दस ग्रामों के मुख्य अधिकारी (दशग्रामी) मिलकर करें। कौटिल्य ने मध्यस्थता द्वारा निर्णय किए जाने को भी मान्यता दी है। उपर्युक्त सभी न्यायालय व्यवहार क्षेत्र में होने वाले विवादों पर निर्णय देने हेतु स्थापित किये जाते हैं। आपराधिक विवादों के लिये पृथक् दंड- न्यायालयों की व्यवस्था की बात कौटिल्य करते हैं। आपराधिक तथा प्रशासनिक अधिकार क्षेत्र के लिए अमात्यों के अधीन न्यायालयों की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार कंटक शोध न्यायालय का संगठन धर्मस्थ अधीन व्यवहार न्यायालय से भिन्न है। - श्रेणी न्यायालयों में तीन अमात्य अथवा तीन प्रदेष्टा होते हैं। सरकारी अधिकारियों एवं प्रशासनिक विभागों की शुद्धता बनाए रखने के लिए स्थापित न्यायालयों में अध्यक्ष, समाहर्ता एवं प्रदेष्टा होते हैं। अन्य न्यायालयों के अध्यक्ष संबंधित विभागों के अध्यक्ष होते हैं।
कौटिल्य के अनुसार न्यायाधीशों को अपने कार्य संपादन में छल का त्याग करना चाहिए, सभी के प्रति समता का व्यवहार करना चाहिए। उन्हें लोकप्रिय तथा सबका विश्वासपात्र होना चाहिए तथा वादी एवं प्रतिवादी के प्रति उनका व्यवहार शिष्ट होना चाहिए।
मंडल सिद्धांत (Mandal Theory)
मंडल अथवा राजमंडल की अपरिहार्य रूप से गतिशील संकल्पना कौटिल्य का राजनय के सिद्धांत के क्षेत्र में एक अद्वितीय योगदान है। कौटिल्य ने अपनी विदेश नीति के सिद्धांत का प्रतिपादन बारह राज्यों के समूह के बीच के अंतर- संबंधों के आधार पर किया है। ये सभी राज्य विजिगीषु अर्थात् विजय की इच्छा रखने वाले राज्य के चारों ओर इस प्रकार से सुसज्जित अवस्था में रहते हैं जिससे वे विजिगीषु के भाग्य को सीधे तौर से प्रभावित कर सकते हैं। मंडल सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य छोटे राज्यों की व्यवस्था में शक्ति संतुलन की स्थापना करना है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्यों के आपसी संबंध उनकी भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करते हैं। दूसरे शब्दों में मंडल सिद्धांत इस परिकल्पना पर आधारित है कि सीमा से सटे राज्य आपस में शत्रु होते हैं।
वैसे तो मंडल सिद्धांत प्राचीन भारतीय चिंतन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, परंतु इसे सर्वप्रथम अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में विकसित करने का प्रयास कौटिल्य ने अपनी पुस्तक 'अर्थशास्त्र' के अधिकरण चार के दूसरे अध्याय में किया है। उन्होंने इस सिद्धांत के माध्यम से भारतीय राजनय में यथार्थवाद के तत्वों को मिश्रित करने का प्रयास किया है। उन्होंने निरंकुश संप्रभु साम्राज्य स्थापित करने के इच्छुक राजा को उचित समय पर आक्रमण करने की तथा मंडल के विभिन्न राजाओं के बीच शक्ति संतुलन स्थापित करने की सलाह दी है। कौटिल्य के अनुसार राज्यमंडल का निर्माण- बारह राज्यों से होता है। इसका मुख्य कर्ता विजिगीषु अर्थात् विजय की इच्छा रखने वाला राजा है। विजिगीषु के अग्र भाग में पाँच राजा होते हैं जो विकल्पतः उसके शत्रु तथा मित्र होते हैं। परंतु इस संबंध की तीव्रता विजिगीषु के राज्य से उन राज्यों की दूरी के आधार पर तय होती है और वे भी विकल्पतः उसके शत्रु तथा मित्र होते हैं। इनके अतिरिक्त दायें तथा बायें राजमंडल में दो तटस्थ राज्य भी होते हैं। राजमंडल के बारह राज्य इस प्रकार हैं-
(i) विजिगीषु अर्थात् विजय की इच्छा रखने वाला राजा ।
(ii) अरि अर्थात् शत्रु जिसके राज्य की सीमा विजिगीषु के राज्य से सटी होती है ।
(iii) मित्र अर्थात् विजिगीषु का सहयोगी जिसके राज्य की सीमा अरि के राज्य से सटी होती है।
(iv) अरिमित्र अर्थात् शत्रु का मित्र जिसके राज्य की भौगोलिक स्थिति मित्र राज्य की सीमा से सटी होती है।
(v) मित्र - मित्र अर्थात् विजिगीषु के मित्र का मित्र जिसका राज्य अरिमित्र के राज्य के बाद अवस्थित होता
है।
(vi) अरि मित्र-मित्र अर्थात् विजिगीषु के शत्रु के मित्र का मित्र जिसके राज्य की सीमा मित्र-मित्र के राज्य से सटी होती है।
उपर्युक्त सभी राज्य (ii से vi) विजिगीषु के अग्र भाग में स्थित होते हैं।
(vii) पार्षणिग्राह अर्थात् पीछे स्थित शत्रु जो अग्रभाग में स्थित शत्रु राज्य (अरि) के समान है।
(viii) आक्रंद अर्थात् पीछे भाग में स्थित विजिगीषु का मित्र जिसके राज्य की सीमा पार्षणिग्राह राज्य से सटी होती है तथा वह अग्रभाग स्थित 'मित्र' राज्य के समान होता है।
(ix) पार्षणिग्राहासार अर्थात् पाणिग्राह का मित्र जो आक्रंद का पहला पड़ोसी होता है तथा अग्र भाग स्थित अरिमित्र (शत्रु का मित्र) के समान होता है ।
(x) आक्रांदासार अर्थात् आनंद का मित्र अग्रभाग स्थित मित्र मित्र के समान होता है।
(xi) मध्यम अर्थात् तटस्थ राज्य जिसके राज्य की सीमा विजिगीषु तथा अरि दोनों से सटी होती है तथा
यह दोनों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है।
(xii) उदासीन अर्थात् मध्यम की भाँति ही दूसरा तटस्थ राज्य। यह विजिगीषु, अरि तथा मध्यम तीनों से अधिक शक्तिशाली होता है। उदासीन राजा का प्रदेश उपर्युक्त तीनों राज्य से दूरी पर अवस्थित होता है।
कौटिल्य के मंडल सिद्धांत की प्रकृति अत्यंत साहित्यिक एवं तार्किक सूक्ष्मताओं तथा बौद्धिक उहापोह में लीन है। यह कथन मंडल सिद्धांत में वर्णित घटक राज्यों की परंपरागत संख्या तथा भौगोलिक स्थिति के आधार पर उनके आपसी संबंधों की पूर्वकल्पना से भी स्पष्ट होता है। कौटिल्य ने इस सिद्धांत को आधार प्रदान करने हेतु आधुनिक राजनीति विज्ञान के लेखकों के समान प्रतिरूप निर्माण (Model building) की बौद्धिक तकनीक का सहारा लिया है। दूसरे शब्दों में, मंडल सिद्धांत एक ऐसी योजना है जिससे राज्यों के मध्य का संबंध उनकी भौगोलिक स्थिति के आधार पर तय होता है। परंतु व्यवहार में राज्यों की वास्तविक संख्या परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहेगी तथा उनके आपसी संबंध भौगोलिक स्थिति की अपेक्षा उनके पारस्परिक हितों के टकराव पर अधिक निर्भर करेंगे, तथापि मंडल सिद्धांत प्राचीन भारतोय राजनीतिक चिंतन के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण देन है।
📖 षाड्गुण्य नीति ( Six Fold Policy)
कौटिल्य ने अपनी विदेश नीति का वर्णन षाड्गुण्य के अंतर्गत वर्णित छह नीतियों के माध्यम से किया है। उन्होंने राजा के समक्ष जो लक्ष्य रखा है उसका सीधा संबंध राज्य विस्तार से है। परिस्थितियों के अनुसार विजय की इच्छा रखने वाले राजा अर्थात् विजिगीषु को कौटिल्य द्वारा वर्णित युद्ध तथा शांति की छह नीतियों में से एक अथवा दो को चुनना चाहिए। ये चयन कार्यसाधकता के सिद्धांत के आधार पर विजिगीषु को अपनी बौद्धिक क्षमता के प्रयोग द्वारा दो प्रतिस्पर्धी राज्यों की पारस्परिक शक्तियों के आकलन के पश्चात् करना चाहिए। कौटिल्य के अनुसार षाड्गुण्य के अंतर्गत जिन छह नीतियों का अनुसरण किया जाता है वे इस प्रकार हैं-संधि (Peace), विग्रह (War or Diplomatic Conquest), आसन (Maintaining a Post Against an Enemy), यन (Preparedness for Attack), संश्रय (Friendship), द्वैधिभाव (Double Dealing or Duplicity)।
विजिगीषु को राज्य विस्तार की नीति का अनुसरण करने से पूर्व यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि उसका राज्य संपन्नता की स्थिति में हो तथा उसका शत्रु सजग नहीं हो। वे कहते हैं कि राजमंडल ही षाड्गुण्य का स्रोत है।
जो राज्य दूसरे राज्य की अपेक्षा कम शक्तिशाली है वह उसके साथ संधि की नीति अपनाएगा, जो राज्य शक्तिशाली है वह युद्ध-नीति का अनुसरण करेगा, जो राज्य अनासक्त है वह तटस्थता की नीति पर चलेगा, जो राज्य संपन्न है वह अपने शत्रु पर आक्रमण करेगा, जो राज्य अपनी रक्षा में असमर्थ है वह दूसरे राज्य की शरण में जायेगा तथा जो राज्य समझेंगा कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दूसरे राज्य की सहायता आवश्यक है वह एक राज्य के साथ शांति समझौते का तथा दूसरे राज्य के साथ युद्ध नीति का पालन करेगा।
संधि- कौटिल्य के अनुसार किसी राजा के लिए संधि की नीति का अनुसरण करने का मुख्य कारण अपनी रक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करना तथा अपने शत्रु को कमजोर बनाना है। संधियाँ दो प्रकार की होती हैं - चल संधि (Temporary Treaties) अथवा अस्थाई संधि तथा स्थवर संधि (Permanent Treaties) अथवा स्थायी संधि । उन्होंने संधि के अनेक भेदों का वर्णन किया है-
(क) हीन संधि-इसके अंतर्गत एक कम शक्तिशाली राजा अपनी सेना धन तथा भूमि देकर एक अधिक शक्तिशाली राजा के साथ संधि करता है।
(ख) आत्मामिष संधि (Offering Himself as Hostage) - इसके अंतर्गत कम शक्तिशाली राजा अधिक शक्ति वाले राजा के समक्ष सेना तथा धन के साथ-साथ स्वयं को भी प्रस्तुत करता है।
(ग) पुरुषांतर संधि (Peace with Hostage Other Than King Himself)- परास्त राजा द्वारा सेनापति अथवा युवराज को शत्रु के समक्ष भेजकर की जाने वाली संधि इसके अंतर्गत आती है। इसमें राजा स्वयं को शत्रु के समक्ष नहीं प्रस्तुत करता है।
(घ) अदृष्टपुरुष संधि- इसके अंतर्गत राजा स्वयं अथवा अपनी सेना के द्वारा बताए गए कार्य के संपादन को तैयार रहता है। इस संधि के माध्यम से राजा तथा उसके मुख्य सैनिकों की रक्षा होती है। अतः इसे 'मुख्यात्मरक्षण संधि' भी कहते हैं।
(ङ) परिक्रय संधि- धन देकर राज्य की संप्रभुता के अन्य तत्वों की रक्षा करने के उद्देश्य से की गई संधि को परिक्रय संधि की संज्ञा कौटिल्य ने दी है। (च) उपग्रह संधि परिक्रय साँध को सुविधापूर्वक निधाने हेतु जब धन कंधे पर उठाए जाने योग्य किस्तों में दिया जाए तब उसे 'उपग्रह संधि' कहते हैं।
(छ) प्रत्यय संधि- जब किसी विशेष समय तथा स्थान से धन देने का वचन दिया जाए तब उस प्रकार की उपग्रह संधि को 'प्रत्यय संधि' कहते हैं।
(ज) सुवर्ण संधि-ठहरे हुए धन को नियत समय में देना तथा कन्या आदि के दान द्वारा शांतिपूर्ण भविष्य सुनिश्चित करने हेतु की गई संधि को 'सुवर्ण संधि' कहते हैं।
(झ) कपाल संधि - सुवर्ण संधि के विपरीत जिस संधि के अनुसार माँगी हुई धनराशि तत्काल देनी पड़े उसे 'कपाल संधि' कहते हैं।
(ञ) अदिष्ठ संधि - इसके अंतर्गत राज्य के किसी क्षेत्र को शत्रु राजा को देकर अन्य भागों की रक्षा की
'जाती है।
(ट) अच्छिन्न संधि-इसके अंतर्गत राज्य की राजधानी को छोड़कर अन्य सारे क्षेत्र को शत्रु को दिया जाता है।
(ठ) अवकाश (Rest) संधि - इसके द्वारा भूमि से प्राप्त उत्पादन का एक तय भाग शत्रु को देकर शांति
स्थापना की जाती है।
(ड) परिभूषण संधि- इसके अंतर्गत भूमि के उत्पादन से अधिक धन शत्रु राज्य को देकर अथवा देने का आश्वासन देकर शांति स्थापना की जाती है।
कौटिल्य के अनुसार संधि के चार प्रकार होते हैं-
(i) अकृतचिकृषा (Akritachikerisha) - अर्थात् वैसी संधि जिनका कोई विशेष लक्ष्य नहीं हो इसके अंतर्गत राजनय के सभी विधियों के प्रयोग से शांति स्थापित की जाती है तथा क्रमशः समान, कम तथा अधिक शक्तिशाली राज्यों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाता है। (ii) कृतश्लेषण (Kritashleshana) अर्थात् वैसी संधियाँ जिनकी शर्तें आवश्यक हों। इसके अतंर्गत
स्थापित शांति की शर्तों को कठोरतापूर्वक मित्रों के सहयोग से पालन कराया जाता है। (III) कृतविदुषण (Kritvidushana) इसके अंतर्गत अगर संधि का एक पक्ष संधि की शर्तों का देशद्रोहियों, गुप्तचरों के माध्यम से उल्लंघन करता है तब वह संधि समाप्त हो जाती है। (iv) अपसर्नक्रिय (Restoration of Peace Broken ) - इसके अंतर्गत इस वचन पर कि दोनों पक्ष संधि
की शर्तों का कठोरतापूर्वक पालन करेंगे, समाप्त हुई संधि एक बार फिर जीवित हो उठती है। मूल संधि की
पुनर्स्थापना उस प्रकारण की विशेष परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
कौटिल्य जहाँ तक कि राजनीतिक संधियों का प्रश्न है, अंधाधुंध एवं अविवेकपूर्ण मैत्री संबंधों के विरुद्ध हैं। उनके अनुसार अस्थिर प्रकृति वाले मनुष्यों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। वह जो हानिकारक हो उसे छोड़ देना चाहिए। परंतु वह जो शत्रु के लिए हानिकारक हो उसके साथ समझौता कर लेना चाहिए। देशद्रोहियों को समाप्त कर देना चाहिए।
(2) विग्रह कौटिल्य राजनयिक संघर्ष को सैन्य संघर्ष, जिसके लिए उन्होंने 'संग्रामिका' शब्द का - प्रयोग किया है, की अपेक्षा अधिक महत्त्व देते हैं। मनु का मानना है कि विग्रह एक साध्य नहीं है बल्कि युद्ध से बचने का एक साधन है। कौटिल्य की राजनयिक योजना में विग्रह एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन्होंने आक्रमणकारी तथा जिस राज्य के ऊपर आक्रमण हुआ है, उनके मध्य चलने वाले राजनयिक संघर्ष का वर्णन करते हुए कहा है दोनों पक्ष एक-दूसरे पर श्रेष्ठता स्थापित करने का निरंतर प्रयास करते हैं। कौटिल्य के अनुसार युद्ध आरंभ हो जाने के पश्चात् भी उसे भविष्य में होने वाले स्थायी लाभ को देखते हुए रोका जा सकता है। राजनयिक संघर्ष का समापन प्रायः सामान्यतः सैनिक, धन या मित्र को देकर होता है। बाद के दिनों के भारतीय विचारकों आठ भिन्न प्रकार के विग्रहों की चर्चा की है-
(क) कामविग्रह - वैसा विग्रह जिसका मुख्य कारण स्त्री अथवा प्रेम हो।
(ख) लोभज-वैसा विग्रह जिसकी उत्पत्ति का मुख्य कारण लोभ हो।
(ग) भूविग्रह - भूमि अथवा क्षेत्रफल को लेकर उत्पन्न संघर्ष ।
(घ) मानसंभव - अपमान का आभास जिस संघर्ष का मुख्य कारण हो ।
(ङ) इच्छज - वैसा संघर्ष जिसका मुख्य कारण महत्त्वाकांक्षा हो ।
(च) अभय-मित्रों तथा संबंधियों के लिए संघर्ष ।
(छ) मदोत्थित- घमण्ड तथा मूर्खता के कारण उत्पन्न संघर्ष।
(ज) एकद्रव्यविलास- किसी विशेष वस्तु की प्राप्ति हेतु संघर्ष
(3) आसन आसन से कौटिल्य का अभिप्राय सशस्त्र तटस्थता से है। दूसरे शब्दों में आसन का अर्थ . युद्ध की घोषणा के पश्चात् शत्रु के प्रति बाह्य शांति तथा निष्क्रिय मुद्रा अपनाना है। आसन का अर्थ शत्रु पर आक्रमण की तैयारी दर्शाकर युद्ध की सी स्थिति बनाए रखने से है न कि वास्तविक युद्ध से है। कौटिल्य ने दस प्रकार के आसनों का वर्णन किया है--
(क) स्वस्थान; अपने स्थान पर जमे रहना,
(ख) उपेक्षा; उदासीनता दर्शाना,
(ग) मार्गरोध; जलमार्गों को अवरुद्ध करना,
(घ) दुर्गसाध्य दुर्ग पर अधिकार स्थापित करना,
(ङ) राष्ट्रविकर्ण; शत्रु पर नियंत्रण स्थापित करना,
(च) रमणीय; अपने स्थान पर प्रसन्नचित्त होकर स्थिर रहना,
(छ) निकटासन; शत्रु को उसी के क्षेत्र के निकट परास्त करना,
(ज) दुर्गमार्ग; युद्ध के लिए अपनी पसंद का स्थान चुनना तथा उस पर अपना अधिकार स्थापित करना,
(झ) प्रलोपासन; विजित प्रदेश पर अपनी सत्ता स्थापित करना,
(ञ) पराधीन; शक्तिशाली राजा के पास शरण लेना।
(4) यन-कौटिल्य के अनुसार पूर्णरूप से अपने राज्य को सुरक्षा निश्चित करके विजिगीषु की सेना आक्रमण हेतु आगे बढ़ सकती है। जैसे ही राजा अपेक्षित शक्ति प्राप्त कर लेता है तथा यह सुनिश्चित कर लेता है कि उसके राज्य के आगे तथा पीछे स्थित मित्र इतने शक्तिशाली हैं कि उसके दोनों दिशाओं में स्थित शत्रुओं पर दबाव डालने में सफल हो जाएँगे, तब वह शत्रु के विनाश हेतु सेना समेत प्रस्थान कर सकता है। कौटिल्य ने तीन प्रकार के यन की चर्चा की है-
(क) विग्रह यन; जब विजिगीषु अपने शत्रु को समस्याओं से घिरा उसकी प्रजा को निराश तथा उसके राज्य को महामारी के चंगुल में पाता है, तब वह उस पर आक्रमण कर सकता है।
(ख) संधपयनम्; राजा अपने पीछे स्थित शत्रु से शांति संधि करके अपने आगे स्थित शत्रु के राज्य पर आक्रमण कर सकता है।
(ग) संभूय प्रयनम् राजा विभिन्न प्रकार के संसाधनों वाले कई राज्यों के संघ का निर्माण कर तथा युद्ध से प्राप्त धन के बँटवारे का प्रतिशत तय कर शत्रु की सीमा पर चढ़ाई कर सकता है।
(5) संश्रय- इसका शाब्दिक अर्थ समर्थन है तथा वृहत् तौर पर इसका आशय मित्रों का समर्थन प्राप्त करना है । मनु ने दो प्रकार के संश्रय का वर्णन किया है।
प्रथम, ऐसी मैत्री जो राजा अपने शत्रु के अत्यधिक दबाव में आकर करता है तथा द्वितीय, वैसी मैत्री जो राजा अपने संभावित आक्रमणकारियों को भयभीत करने के लिए करता है। कौटिल्य के अनुसार, कम शक्तिशाली राजा को अपने शत्रु की गतिविधियों का गम्भीरता के साथ अवलोकन करना चाहिए। अगर वह दो अत्यन्त राज्यों के बीच स्वयं को पाता है तब उसे दोनों के साथ मैत्री संधि कर लेनी चाहिए तथा धीरे-धीरे दोनों में मतभेद उत्पन्न कर एक-दूसरे के विरुद्ध कर देना चाहिए।
कौटिल्य के अनुसार किसी भी प्रकार की मैत्री संधि को अस्थायी समझना चाहिए। यह समय तथा परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। राजा को उसी के साथ मैत्री करनी चाहिए जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो तथा जिसकी मित्रता सत्य पर आधारित हो ।
(6) द्वैधीभाव - इसका अर्थ 'दोहरी नीति का अनुसरण' अर्थात् एक के साथ संधि तथा दूसरे के साथ विग्रह की नीति अपनाना है। कौटिल्य के अनुसार, पड़ोस के राजा के साथ संधि कर विजिगीषु को दूसरे पड़ोसी राज्य पर चढ़ाई करनी चाहिए। द्वैधीभाव राजनय का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम कौटिल्य के बाद के काल में भी रहा।
अन्य स्रोतों से हमें पाँच प्रकार के द्वैधीभाव का ज्ञान होता है-
(क) मिथ्याचिंत- किसी राजा के प्रति घृणा का भाव रखना परंतु उसके प्रति मित्रता का स्वांग रचना ।
(ख) मिथ्यावचनसमयम्-अपनी जड़ा से कुछ बोलना परंतु अपने मस्तिष्क में कुछ और होना।
(ग) मिथ्याकारण किसी राजा के लिए ऐसे कार्य करना जिससे यह प्रतीत हो कि वह उसकी भलाई के लिए कर रहा है परंतु मौका प्राप्त होने पर छलपूर्वक, उस पर अधिकार स्थापित कर लेना ।
(घ) उभयवतन-अपने राज्य की सेवा में रहते हुए जब राज्य के अधिकारीगण शत्रु राज्य से छिपकर धन प्राप्त करते हैं।
(ङ) युगमप्रभृतक - ऐसा आभास दिलाना कि वह किसी अन्य ऐसी योजना हेतु धन तथा सेना इकट्ठा कर रहा है, परंतु छिपे रूप से इस क्रिया द्वारा अपना उद्देश्य सिद्ध करना।
कौटिल्य ने द्वैधीभाव को अधिक स्पष्ट करने के उद्देश्य से कहा है कि व्यसन पीड़ित एवं प्राकृतिक प्रकोप से पीड़ित शक्ति संपन्न राजा के साथ उसके द्वारा दी जाने वाली सेना के अनुपात में विजय लाभ देकर संधि कर लेनी चाहिए। संधि के पश्चात् अगर विजिगीषु उसे परास्त करने में समर्थ हो तो उस पर आक्रमण करे अन्यथा पूर्ववत् संधि को मानता रहे। व्यसन तथा प्रकृति प्रकोप से युक्त कम शक्ति वाले राजा से अधिक शक्तिशाली राजा अपनी शक्ति की अपेक्षा थोड़ा लाभ देकर संधि कर सकता है। यदि वह अपकार करने में सक्षम हो तब वह उस पर आक्रमण करे अन्यथा शांतिभाव से संधि की शर्तों को मानता रहे। इस प्रकार संधि करने वाला तथा जिसके साथ संधि की जाए दोनों ही संधि तथा विग्रह की लाभ या हानि को अच्छी तरह से समझ कर अपने कल्याण के अनुरूप जिस मार्ग को चाहें ग्रहण करें।
ने कौटिल्य ने षाड्गुण्य के विषय में एक सामान्य नियम की भी चर्चा की है। उनके अनुसार राजा को संधि की नीति का अनुसरण तब करना चाहिए जब वह शत्रु की अपेक्षा कम शक्तिशाली हो। अगर वह शत्रु से अधिक बलशाली हो तब उसे विग्रह की नीति का पालन करना चाहिए। अगर वह तथा उसका शत्रु समान शक्ति वाले हों तब उसे आसन की नीति अपनानी चाहिए। अगर राजा शक्तिशाली हो तब उसे यन अर्थात् शत्रु के राज्य पर आक्रमण हेतु प्रस्थान करना चाहिए। अगर वह शक्तिहीन अनुभव करे तब उसे संश्रय अथवा शरण की नीति का सहारा लेना चाहिए। द्वैधीभाव की नीति तब कारगर सिद्ध होती है जब राजा अपने शत्रु से युद्ध करने हेतु दूसरे का सहयोग चाहता हो। हालाँकि कौटिल्य ने राजा को सलाह दी है कि वह उपर्युक्त सामान्य नियम को अनदेखा कर सकता है अगर वह किसी अन्य प्रकार से अपने शत्रु को परास्त करने में सफल होने का विश्वास रखता हो। षाड्गुण्य का मुख्य उद्देश्य राजा को आगे चलकर शत्रु की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाना है। कौटिल्य के अनुसार विदेश नीति की सफलता का अर्थ अपने शत्रु से अधिक शक्तिशाली सैन्य तथा राजनीतिक स्थिति की प्राप्ति है। उनके अनुसार सफलता अगर युद्ध तथा शांति दोनों से प्राप्त हो सकती है तब राजा को शांति का मार्ग ही अपनाना चाहिए क्योंकि युद्ध से मनुष्यों (जन) तथा धन दोनों की हानि होती है तथा विदेश में रहने का कष्ट झेलना पड़ता है। उपर्युक्त कारण से ही कौटिल्य तटस्थता तथा आक्रमण में तटस्थता की नीति को ही अच्छा मानते हैं। उसी प्रकार अगर सफलता संश्रय तथा द्वैधीभाव दोनों से प्राप्त हो सकती है, तब कौटिल्य द्वैधीभाव की नीति को मानने की बात कहते हैं क्योंकि शरण प्राप्त करने की नीति से शत्रु को लाभ प्राप्त होता है न कि राजा को। दूसरी तरफ द्वैधीभाव की नीति का अनुसरण राजा के हित में होता है।
📖 अर्थ व्यवस्था (Economy System)
'अर्थशास्त्र' में कौटिल्य ने राज्य के आर्थिक आधार पर एक विस्तृत वर्णन प्रस्तुत किया है। धर्म तथा काम भी धन पर आधारित हैं क्योंकि सभी योजनाएँ तभी पूरी की जा सकती हैं जब राजकोष भरा हो। कौटिल्य ने कुछ विशेष प्रकार के करों का वर्णन किया है जिनका सार अग्रलिखित रूप से प्रस्तुत किया जा सकता है-
(क) सीता-इसका अभिप्राय भूमि के उस भाग से है जिसका स्वामित्व राजा के पास हो तथा उस पर उसी के लिए कृषि कार्य किया जाता हो। राज्य भूमि के कितने भाग पर राजा का स्वामित्व होगा यह सदा ही विवाद का विषय रहा है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि कुल भूमि का एक-तिहाई भाग अथवा उससे थोड़ा कम राजा की व्यक्तिगत संपत्ति होगी।
(ख) भाग -इसका अभिप्राय उस भूमि से है जिस पर जनता का स्वामित्व हो। इसके लिए उन्हें कुल उत्पादन का 16 प्रतिशत भूमि कर के रूप में राजकोष में देना होता था ।
(ग) बलि - बलि एक प्रकार का चढ़ावा था जो जनता से वैदिक काल से ही प्राप्त किया जाता था। यह श्राद्ध कर्म पर लगाया जाता था।
(घ) कर-कर एक प्रकार का सामान्य नाम उन सभी प्रकार के आर्थिक योगदानों के लिये था जो जनता से प्राप्त किये जाते थे। इसमें आर्थिक दंड को सम्मिलित नहीं किया जाता था।
(ङ) पिण्डकर - इसे कभी-कभी लागू किया जाता था। संभवतः यह राजा द्वारा किये गये अन्त्येष्ठि तथा संभवत: किसी धार्मिक अनुष्ठान के समय राजा को दिया जाता था।
(च) सेनाभक्त यह मुख्यतः सेना के अभियानों पर आने वाले खर्चों के लिए लगाया जाता था।
(छ) राज्य द्वारा स्थापित उद्योगों तथा वस्तु निर्माण स्थलों पर लगाए गए कर से प्राप्त धन ।
(ज) द्वारवेय- संभवत: इसका अभिप्राय बड़े पुरों (नगरों) में प्रवेश के समय दिए गए कर से है।
(झ) बुनकरों तथा सूत कातने वालों द्वारा प्राप्त कर ।
(ञ) कुछ आर्थिक लाभ नदी तथा समुद्री मार्ग से किए गए व्यापार से भी राजकोष को प्राप्त होता था ।
(ट) तारदेय - जलयानों से प्राप्त धन ।
(ठ) पंतनाम - बाजारों में होने वाले क्रय-विक्रय से प्राप्त धन ।
(ड) श्रमिकों जैसे शिल्पियों तथा अन्य कारीगरों से प्राप्त धन ।
(ढ) नमक व्यापार से प्राप्त धन ।
(ण) राजा के स्वामित्व वाले जंगलों से प्राप्त कर ।
(त) चारागाहों से प्राप्त कर ।
(थ) राज्य टकसालों से प्राप्त धन।
(द) वैसे लोग जो बिना उत्तराधिकारी के दिवंगत हो जाते हैं, उनके धन से प्राप्त आय ।
(ध) मदिरा के विक्रय से प्राप्त धन ।
(न) जुआरियों, पशुवधगृह तथा अन्य छोटे व्यवसायियों से प्राप्त कर ।
(प) वास्तुका - इसका अभिप्राय उस कर से है जो आवासों के निर्माण से प्राप्त होता है।
(फ) उत्संग - यह त्योहारों के अवसर पर लगाया जाने वाला कर था ।
कौटिल्य ने राजा को जनता से कर वसूली के समय उदारता का परिचय देने को कहा है। अगर राजा जनता की क्षमता से अधिक कर प्राप्ति की चेष्टा करेगा तो अन्ततः जनता इस योग्य नहीं रह जाएगी कि वह राजकोष में कुछ भी दे सके तथा उनमें राज्य के प्रति विद्रोह की भावना जागृत होने लगेगी।
📖 निष्कर्ष
पश्चिमी राजनीतिशास्त्र के पिता अरस्तु के ही समान कौटिल्य को भी भारतीय राजनीतिक विचारों के जनक की संज्ञा दी जा सकती है। प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारधाराओं में सबसे अधिक ध्यान देने योग्य कौटिल्य की विचारधारा है।
इसका महत्त्व मुख्यतः तीन कारणों से है-
प्रथम, उनका ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' सभी पूर्वगामी अर्थशास्त्रों का संग्रह अथवा सार है।
द्वितीय, उन्होंने पूर्णत: व्यावहारिक उद्देश्य से इस पुस्तक की रचना की। राज्य के विषय में लिखने वाले सभी प्राचीन भारतीय विचाकों में उन्होंने सर्वप्रथम राजनीति को धर्म से पृथक् कर अपने सिद्धांतों की रचना की।
तृतीय, उन्होंने वास्तव में 'शासनकला के लिए पृथक् तथा विशिष्ट विज्ञान की रचना का गंभीर प्रयास किया है।
Nyc
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