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संरचना तथा भूआकृति विज्ञान

 

संरचना तथा भूआकृति विज्ञान

क्या आपने कभी सोचा है कि मिट्टी की उर्वरता, गठन व स्वरूप अलग क्यों है?

अथवा  

क्या आपने यह भी सोचा होगा कि अलग-अलग स्थानों पर चट्टानों के प्रकार भी भिन्न हैं?

चट्टानें व मिट्टी आपस में संबंधित हैं क्योंकि असंगठित चट्टानें वास्तव में मिट्टियाँ ही हैं। पृथ्वी के धरातल पर चट्टानों व मिट्टियों में भिन्नता धरातलीय स्वरूप के अनुसार पाई जाती है। वर्तमान अनुमान के अनुसार पृथ्वी की आयु लगभग 46 करोड़ वर्ष है। इतने लम्बे समय में अंतर्जात व बहिर्जात बलों से अनेक परिवर्तन हुए हैं। इन बलों की पृथ्वी की धरातलीय व अधस्तलीय आकृतियों की रूपरेखा निर्धारण में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। क्या आप जानते हैं कि करोड़ों वर्ष पहले ‘इंडियन प्लेट’ भूमध्य रेखा से दक्षिण में स्थित थी।



 





यह आकार में काफी विशाल थी और ‘आस्ट्रेलियन प्लेट’ इसी का हिस्सा थी। करोड़ों वर्षों के दौरान, यह प्लेट काफी हिस्सों में टूट गई और आस्ट्रेलियन प्लेट दक्षिण-पूर्व तथा इंडियन प्लेट उत्तर दिशा में खिसकने लगी।



प्रश्न:- क्या आप इंडियन प्लेट के खिसकने की विभिन्न अवस्थाओं को रेखांकित कर सकते हैं?

उत्तर:-





इंडियन प्लेट का खिसकना अब भी जारी है और इसका भारतीय उपमहाद्वीप के भौतिक पर्यावरण पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव है।

क्या आप इंडियन प्लेट के उत्तर में खिसकने के परिणामों का अनुमान लगा सकते हैं?

भारतीय उपमहाद्वीप की वर्तमान भूवैज्ञानिक संरचना व इसके क्रियाशील भूआकृतिक प्रक्रम मुख्यतः अंतर्जनित व बहिर्जनिक बलों व प्लेट के क्षैतिज संचरण की अंतः क्रिया के परिणामस्वरुप अस्तित्व में आएँ हैं।

भूवैज्ञानिक संरचना व शैल समूह की भिन्नता के आधार पर भारत को तीन भूवैज्ञानिक खंडों में विभाजित किया जाता है, जो भौतिक लक्षणों पर आधारित हैं –

(क) प्रायद्वीपीय खंड

(ख) हिमालय और अन्य अतिरिक्त प्रायद्वीपीय पर्वत मालाएँ

(ग) सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र मैदान




 (क) प्रायद्वीपीय खंड:-

प्रायद्वीप खंड की उत्तरी सीमा कटी-फटी है, जो कच्छ से आरंभ होकर अरावली पहाड़ियों के पश्चिम से गुजरती हुई दिल्ली तक और फिर यमुना व गंगा नदी के समानांतर राजमहल की पहाड़ियों व गंगा डेल्टा तक जाती है।

इसके अतिरिक्त उत्तर-पूर्व में कर्बी ऐंगलॉग (Karbi Anglong) व मेघालय का पठार तथा पश्चिम में राजस्थान भी इसी खंड के विस्तार हैं। पश्चिम बंगाल में मालदा भ्रंश उत्तरी-पूर्वी भाग में स्थित मेघालय व कर्बी ऐंगलॉग पठार को छोटा नागपुर पठार से अलग करता है। राजस्थान में यह प्रायद्वीपीय खंड मरुस्थल व मरुस्थल सदृश्य स्थलाकृतियों से ढका हुआ है।

प्रायद्वीप मुख्यतः प्राचीन नाइस व ग्रेनाईट से बना है। कैम्ब्रियन कल्प से यह भूखंड एक कठोर खंड के रूप में खड़ा है। अपवाद स्वरूप पश्चिमी तट समुद्र में डूबा होने और कुछ हिस्से विवर्तनिक क्रियाओं से परिवर्तित होने के उपरान्त भी इस भूखंड के वास्तविक आधार तल पर प्रभाव नहीं पड़ता है।

इंडो-आस्ट्रेलियन प्लेट का हिस्सा होने के कारण यह उर्ध्वाधर हलचलों व खंड भ्रंश से प्रभावित है।

नर्मदा, तापी और महानदी की रिफ्ट घाटियाँ और सतपुड़ा ब्लॉक पर्वत इसके उदाहरण हैं। प्रायद्वीप में मुख्यतः अवशिष्ट पहाड़ियाँ शामिल हैं, जैसे - अरावली, नल्लामाला, जावादी, वेलीकोण्डा, पालकोण्डा श्रेणी और महेंद्रगिरी पहाड़ियाँ आदि। यहाँ की नदी घाटियाँ उथली और उनकी प्रवणता कम होती है।



प्रश्न:- क्या आप हिमालय से निकलने वाली और प्रायद्वीपीय नदियों की प्रवणता ज्ञात करके उनकी तुलना कर सकते हैं?

उत्तर:-

नदी की प्रवणता( Gradient )- किसी स्थान की समुद्र तल की ऊॅचाई प्रवणता कहलाती है। नदी की प्रवणता जितनी अधिक होती है, ढाल उतना अधिक होगा। नदियों की शक्ति मुख्य रूप से उनकी प्रवणता मिलती है। इससे नदियो के आरोह या अवरोह की दर निर्धारित होती है।

हिमालयी अपवाह तंत्र की उत्पत्ति हिमालय पर्वत श्रेणियों से होती है जबकि प्रायद्वीपीय अपवाह तंत्र की नदियाँ  प्रायद्वीपीय पठारों से निकलती हैं।

हिमालयी नदियाँ पूर्ववर्ती अपवाह प्रणाली का अनुसरण करती हैं, जबकि प्रायद्वीपीय नदियाँ अनुवर्ती अपवाह तंत्र का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

हिमालय की नदियाँ बारहमासी होती हैं जबकि प्रायद्वीपीय नदियाँ मौसमी होती हैं और प्रायः मानसून में प्रवाहित होती हैं।

हिमालयी नदियाँ अपने विकास क्रम में नवीन हैं और नवीन वलित पर्वतों के मध्य प्रवाहित होती हैं, जबकि प्रायद्वीपीय नदियाँ प्रौढ़ावस्था में हैं और प्रायद्वीपीय पठारों से होकर प्रवाहित होती हैं।

हिमालयी अपवाह तंत्र के नदियों के बेसिन और जलग्रहण क्षेत्र प्रायद्वीपीय नदियों की तुलना में काफी विस्तृत होते हैं।

उल्लेखनीय है कि प्रायद्वीपीय नदियाँ जब समुद्र से मिलती हैं तो ज्वारनदमुख या एश्चुअरी का निर्माण करती हैं जबकि पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ डेल्टा बनाती हैं।

डेल्टा निर्माण- महानदी, गोदावरी और कृष्णा द्वारा निर्मित डेल्टा इसके उदाहरण हैं।



(ख) हिमालय और अन्य अतिरिक्त-प्रायद्वीपीय पर्वतमालाएँ:- 






कठोर एवं स्थिर प्रायद्वीपीय खंड के विपरीत हिमालय और अतिरिक्त-प्रायद्वीपीय पर्वतमालाओं की भूवैज्ञानिक संरचना तरूण, दुर्बल और लचीली है। ये पर्वत वर्तमान समय में भी बहिर्जनिक तथा अंतर्जनित बलों की अंतर्क्रियाओं से प्रभावित हैं। इसके परिणामस्वरूप इनमें वलन, भ्रंश और क्षेप (thrust) बनते हैं। इन पर्वतों की उत्पत्ति विवर्तनिक हलचलों से जुड़ी हैं। तेज बहाव वाली नदियों से अपरदित ये पर्वत अभी भी युवा अवस्था में हैं। गॉर्ज, V-आकार घाटियाँ, क्षिप्रिकाएँ व जल-प्रपात इत्यादि इसका प्रमाण हैं।



(ग) सिंधु-गंगा-बह्मपुत्र मैदान:-



भारत का तृतीय भूवैज्ञानिक खंड सिंधु, गंगा और बह्मपुत्र नदियों का मैदान है। मूलतः यह एक भू-अभिनति गर्त है जिसका निर्माण मुख्य रूप से हिमालय पर्वतमाला निर्माण प्रक्रिया के तीसरे चरण में लगभग 6.4 करोड़ वर्ष पहले हुआ था। तब से इसे हिमालय और प्रायद्वीप से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ लाए हुए अवसादों से पाट रही हैं। इन मैदानों में जलोढ़ की औसत गहराई 1000 से 2000 मीटर है।

भारत के विभिन्न क्षेत्रों की भूवैज्ञानिक संरचना में महत्त्वपूर्ण अंतर है। इसके कारण दूसरे पक्षों जैसे- धरातल और भूआकृति पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है। भारतीय उपमहाद्वीप में भूवैज्ञानिक और भूआकृतिक प्रक्रियाओं का यहाँ की भूआकृति एवं उच्चावच पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पाया जाता है।


भूआकृति:-

किसी स्थान की भूआकृति, उसकी संरचना, प्रक्रिया और विकास की अवस्था का परिणाम है। भारत में धरातलीय विभिन्नताएँ बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसके उत्तर में एक बड़े क्षेत्र में ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृति है। इसमें हिमालय पर्वत शृंखलाएँ हैं, जिसमें अनेकों चोटियाँ, सुंदर घाटियाँ व महाखड्ड हैं। दक्षिण भारत एक स्थिर परंतु कटा-फटा पठार है जहाँ अपरदित चट्टान खंड और कगारों की भरमार है। इन दोनों के बीच उत्तर भारत का विशाल मैदान है।

मोटे तौर पर भारत को निम्नलिखित भूआकृतिक खंडों में बाँटा जा सकता है:-

(1) उत्तर तथा उत्तरी-पूर्वी पर्वतमाला

(2) उत्तरी भारत का मैदान

(3) प्रायद्वीपीय पठार

(4) भारतीय मरुस्थल

(5) तटीय मैदान

(6) द्वीप समूह



(1) उत्तर तथा उत्तरी-पूर्वी पर्वतमाला:-


 

उत्तर तथा उत्तरी-पूर्वी पर्वतमाला में हिमालय पर्वत और उत्तरी-पूर्वी पहाड़ियाँ शामिल हैं। हिमालय में कई समानांतर पर्वत शृंखलाएँ हैं। इसमें बृहत हिमालय, पार हिमालय शृंखलाएँ, मध्य हिमालय और शिवालिक प्रमुख श्रेणियाँ हैं। भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग में हिमालय की ये श्रेणियाँ उत्तर-पश्चिम दिशा से दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर फैली हैं। दार्जिलिंग और सिक्किम क्षेत्रों में ये श्रेणियाँ पूर्व-पश्चिम दिशा में फैली हैं जबकि अरुणाचल प्रदेश में ये दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पश्चिम की ओर घूम जाती हैं। मिजोरम, नागालैंड और मणिपुर में ये पहाड़ियाँ उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली हैं। बृहत हिमालय शृंखला, जिसे केंद्रीय अक्षीय श्रेणी भी कहा जाता है, की पूर्व-पश्चिम लंबाई लगभग 2,500 किलोमीटर तथा उत्तर से दक्षिण इसकी चौड़ाई 160 से 400 किलोमीटर है।

जैसाकि मानचित्र से स्पष्ट है हिमालय, भारतीय उपमहाद्वीप तथा मध्य एवं पूर्वी एशिया के देशों के बीच एक मजबूत लंबी दीवार के रूप में खड़ा है।



हिमालय एक प्राकृतिक रोधक ही नहीं अपितु जलवायु, अपवाह और सांस्कृतिक विभाजक भी है।

क्या आप दक्षिणी एशिया के देशों के भू-पर्यावरण पर हिमालय के प्रभाव बता सकते हैं? क्या आप दुनिया में हिमालय जैसा भू-पर्यावरण विभाजक ढूँढ सकते हैं?


हिमालय पर्वतमाला में भी अनेक क्षेत्रीय विभिन्नताएँ हैं। उच्चावच, पर्वत श्रेणियों के सरेखण और दूसरी भूआकृतियों के आधार पर हिमालय को निम्नलिखित उपखंडों में विभाजित किया जा सकता है:-

(i) कश्मीर या उत्तरी-पश्चिमी हिमालय

(ii) हिमाचल और उत्तरांचल हिमालय

(iii) दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय

(iv) अरुणाचल हिमालय

(v) पूर्वी पहाड़ियाँ और पर्वत


(i) कश्मीर या उत्तरी-पश्चिमी हिमालय:-

कश्मीर हिमालय में अनेक पर्वत श्रेणियाँ हैं, जैसे - कराकोरम, लद्दाख, जास्कर और पीरपंजाल



कश्मीर हिमालय का उत्तरी-पूर्वी भाग, जो बृहत हिमालय और कराकोरम श्रेणियों के बीच स्थित है, एक ठंडा मरुस्थल है।

बृहत हिमालय और पीरपंजाल के बीच विश्व प्रसिद्ध कश्मीर घाटी और डल झील हैं।


दक्षिण एशिया की महत्त्वपूर्ण हिमानी नदियाँ बलटोरो और सियाचिन इसी प्रदेश में हैं।





कश्मीर हिमालय (karewa) के लिए भी प्रसिद्ध है, जहाँ जाफरान की खेती की जाती है।





करेवा

कश्मीर हिमालय में अनेक दर्रे जैसे - करेवा, हिमनद चिकनी मिट्टी और दूसरे पदार्थों का हिमोढ़ (moraine) पर मोटी परत के रूप में जमाव है।

 

 

बृहत हिमालय में ज़ोजीला, पीर पंजाल में बानिहाल, जास्कर श्रेणी में फोटुला और लद्दाख श्रेणी में खर्दुंगला जैसे महत्त्वपूर्ण दर्रे स्थित हैं।





 

 

महत्त्वपूर्ण अलवणजल की झीलें, जैसे- डल और वुलर तथा लवणजल झीलें, जैसे- पाँगाँग सो (Pangong-tso) और सोमुरीरी (Tsomuriri) भी इसी क्षेत्र में पाई जाती हैं।



सिंधु तथा इसकी सहायक नदियाँ, झेलम और चेनाब, इस क्षेत्र को अपवाहित करती हैं।



कश्मीर और उत्तर-पश्चिमी हिमालय विलक्षण सौंदर्य और खूबसूरत दृश्य स्थलों के लिए जाना जाता है। हिमालय की यही रोमांचक दृश्यावली पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कुछ प्रसिद्ध तीर्थस्थान, जैसे- वैष्णो देवी, अमरनाथ गुफ़ा और चरार-ए-शरीफ भी यहीं स्थित है। यहाँ बहुत-से तीर्थ यात्री हर साल आते हैं।



 



विसर्पित झेलम

 

कश्मीर घाटी में झेलम नदी का विसर्पी बहाव रोचक है। यह पूर्व समय में स्थित एक बड़ी झील के कारण है जिसका एक हिस्सा वर्तमान डल झील है। यह बड़ी झील झेलम नदी के लिए एक स्थानीय निम्नतम आधार रही है।

 



जम्मू और कश्मीर की राजधानी श्रीनगर झेलम नदी के किनारे स्थित है। श्रीनगर में डल झील एक रोचक प्राकृतिक स्थल है। कश्मीर घाटी में झेलम नदी युवा अवस्था में बहती है तथापि नदीय स्थल रूप के विकास में प्रौढ़ावस्था में निर्मित होने वाली विशिष्ट आकृति-विसर्पों का निर्माण करती है।

प्रश्न:- क्या आप कुछ और नदीय भूआकृतियाँ बता सकते हैं जिनका निर्माण नदी प्रौढ़ावस्था में करती है?

उत्तर:- नदी जब युवावस्था को पार कर मैदानी भागों में प्रवेश करती है। तो यह उसकी प्रौढ़ावस्था होती है।

जलोढ़ पंख, नदी विसर्प,‘यू’ आकार की घाटी,जलोढ़-शंकु, गोखुर झीलें, बाढ़ के मैदान, प्राकृतिक तटबन्ध आदि स्थलाकृतियों का निर्माण होता है।

 

प्रदेश के दक्षिणी भाग में अनुदैर्ध्य (longitudinal) घाटियाँ पाई जाती है जिन्हें दून कहा जाता है। इनमें जम्मू-दून और पठानकोट-दून प्रमुख हैं।






(ii) हिमाचल और उत्तराखण्ड हिमालय:-






हिमालय का यह हिस्सा पश्चिम में रावी नदी और पूर्व में काली (घाघरा की सहायक नदी) के बीच स्थित है। यह भारत की दो मुख्य नदी तंत्रों, सिंधु और गंगा द्वारा अपवाहित है। इस प्रदेश के अंदर बहने वाली नदियाँ रावी, ब्यास और सतलुज (सिंधु की सहायक नदियाँ) और यमुना और घाघरा (गंगा की सहायक नदियाँ) हैं। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्तार है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है।

हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत शृंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय (जिन्हें हिमाचल में धौलाधर और उत्तराखण्ड में नागतीभा कहा जाता है) और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं।



लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण पर्वत नगर, जैसे - धर्मशाला, मसूरी, कासौली, अलमोड़ा, लैंसडाउन और रानीखेत इसी क्षेत्र में स्थित हैं।





हिमालय पर्वत समूह : दक्षिण से उत्तर तक का पार्श्व चित्र



शिवालिक

शिवालिक शब्द की उत्पत्ति देहरादून के नजदीक शिवावाला में पाए जाने वाले भूगर्भिक रचनाओं से हुई है। किसी समय यहाँ इम्पीरियल (Imperial) सर्वे का मुख्यालय स्थित था, जो बाद में स्थायी रूप से देहरादून में स्थापित हुआ।

इस क्षेत्र की दो महत्त्वपूर्ण स्थलाकृतियाँ शिवालिक और दून हैं। यहाँ स्थित कुछ महत्त्वपूर्ण दून, चंडीगढ़-कालका का दून, नालागढ़ दून, देहरादून, हरीके दून तथा कोटा दून शामिल हैं। इनमें देहरादून सबसे बड़ी घाटी है, जिसकी लंबाई 35 से 45 किलोमीटर और चौड़ाई 22 से 25 किलोमीटर है। बृहत हिमालय की घाटियों में भोटिया प्रजाति के लोग रहते हैं। ये खानाबदोश लोग हैं जो ग्रीष्म ऋतु में बुगयाल (ऊँचाई पर स्थित घास के मैदान) में चले जाते हैं और शरद ऋतु में घाटियों में लौट आते हैं।

 

प्रसिद्ध ‘फूलों की घाटी’ भी इसी पर्वतीय क्षेत्र में स्थित है।



गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ और हेमकुंड साहिब भी इसी इलाके में स्थित हैं।


इस क्षेत्र में पाँच प्रसिद्ध प्रयाग (नदी संगम) हैं ।





प्रश्न:- क्या आप कुछ अन्य प्रयागों के नाम बता सकते हैं जो भारत के अन्य भागों में स्थित हैं?

उत्तर:-

विष्णु प्रयाग – अलकनंदा+धौलीगंगा नदी

नंदप्रयाग – अलकनंदा+नंदानकिनी नदी

कर्णप्रयाग – अलकनंदा+पिंडार नदी

रुद्रप्रयाग – अलकनंदा+मंदानकिनी नदी

देवप्रयाग – अलकनंदा+भागीरथी नदी



(iii) दार्जिलिंग और सिक्किम हिमालय:-



इसके पश्चिम में नेपाल हिमालय और पूर्व में भूटान हिमालय है। यह एक छोटा परंतु हिमालय का बहुत महत्त्वपूर्ण भाग है। यहाँ तेज बहाव वाली तिस्ता नदी बहती है और कंचनजुंगा जैसी ऊँची चोटियाँ और गहरी घाटियाँ पाई जाती हैं।



इन पर्वतों के ऊँचे शिखरों पर लेपचा जनजाति और दक्षिणी भाग (विशेषकर दार्जिलिंग हिमालय) में मिश्रित जनसंख्या, जिसमें नेपाली, बंगाली और मध्य भारत की जन-जातियाँ शामिल हैं, पाई जाती है।

यहाँ की प्राकृतिक दशाओं, जैसे - मध्यम ढाल, गहरी व जीवाश्मयुक्त मिट्टी, संपूर्ण वर्ष वर्षा का होना और मंद शीत ऋतु का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने यहाँ चाय के बागान लगाए। बाकी हिमालय से यह क्षेत्र भिन्न है क्योकि यहाँ दुआर स्थलाकृतियाँ पाई जाती हैं जिनका उपयोग चाय बागान लगाने के लिए किया गया है। सिक्किम और दार्जिलिंग हिमालय अपने रमणीय सौंदर्य, वनस्पति जात और प्राणी जात और आर्किड के लिए जाना जाता है।



(iv) अरुणाचल हिमालय:-





यह पर्वत क्षेत्र भूटान हिमालय से लेकर पूर्व में डिफू दर्रे तक फैला है। 

इस पर्वत श्रेणी की सामान्य दिशा दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पूर्व है। इस क्षेत्र की मुख्य चोटियों में काँगतु और नमचा बरवा शामिल है। 

ये पर्वत श्रेणियाँ उत्तर से दक्षिण दिशा में तेज बहती हुई और गहरे गॉर्ज बनाने वाली नदियों द्वारा विच्छेदित होती हैं। नामचा बरुआ को पार करने के बाद बह्मपुत्र नदी एक गहरी गॉर्ज बनाती है। कामेंग, सुबनसरी, दिहांग, दिबाँग और लोहित यहाँ की प्रमुख नदियाँ  हैं। ये बारहमासी नदियाँ हैं और बहुत से जल-प्रपात बनाती हैं।


 

इसलिए, यहाँ जल विद्युत उत्पादन की क्षमता काफी है। अरुणाचल हिमालय की एक मुख्य विशेषता यह है कि यहाँ बहुत-सी जनजातियाँ निवास करती हैं।

इस क्षेत्र में पश्चिम से पूर्व में बसी कुछ जनजातियाँ इस प्रकार हैं– मोनपा, अबोर, मिशमी, निशी और नागा। 





इनमें से ज्यादातर जनजातियाँ झूम (Jhumming) खेती करती हैं, जिसे स्थानांतरी कृषि या स्लैश और बर्न कृषि भी कहा जाता है।



यह क्षेत्र जैव विविधता में धनी है जिसका संरक्षण देशज समुदायों ने किया। 

ऊबड़-खाबड़ स्थलाकृति के कारण यहाँ पर विभिन्न घाटियों के बीच परिवहन जुड़ाव लगभग नाम मात्र ही है। इसलिए, अरुणाचल-असम सीमा पर स्थित दुआर क्षेत्र से होकर ही यहाँ कारोबार किया जा सकता है।

(v) पूर्वी पहाड़ियाँ और पर्वत:-



हिमालय पर्वत के इस भाग में पहाड़ियों की दिशा उत्तर से दक्षिण है। ये पहाड़ियाँ विभिन्न स्थानीय नामों से जानी जाती है। उत्तर में ये पटकाई बूम, नागा पहाड़ियाँ, मणिपुर पहाड़ियाँ और दक्षिण में मिज़ो या लुसाई पहाड़ियों के नाम से जानी जाती हैं। यह एक नीची पहाड़ियों का क्षेत्र है जहाँ अनेक जनजातियाँ ‘झूम’ या स्थानांतरी खेती करती है। यहाँ ज़्यादातर पहाड़ियाँ, छोटे-बड़े नदी-नालों द्वारा अलग होती हैं। बराक मणिपुर और मिज़ोरम की एक मुख्य नदी है। मणिपुर घाटी के मध्य एक झील स्थित है जिसे ‘लोकताक’ झील कहा जाता है और यह चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी है। मिज़ोरम जिसे ‘मोलेसिस बेसिन’ भी कहा जाता है मृदुल और असंगठित चट्टानों से बना है। नागालैंड में बहने वाली ज़्यादातर नदियाँ बह्मपुत्र नदी की सहायक नदियाँ हैं। मिज़ोरम और मणिपुर की दो नदियाँ बराक नदी की सहायक नदियाँ हैं, जो मेघना नदी की एक सहायक नदी है। मणिपुर के पूर्वी भाग में बहने वाली नदियाँ चिंदविन नदी की सहायक नदियाँ है जो कि म्यांमार में बहने वाली इरावदी नदी की एक सहायक नदी है।

(2) उत्तरी भारत का मैदान:-





त्तरी भारत का मैदान सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों द्वारा बहाकर लाए गए जलोढ़ निक्षेप से बना है। इस मैदान की पूर्व से पश्चिम लंबाई लगभग 3200 किलो मीटर है। इसकी औसत चौड़ाई 150 से 300 किलोमीटर है। जलोढ़ निक्षेप की अधिकतम गहराई 1000 से 2000 मीटर है। उत्तर से दक्षिण दिशा में इन मैदानों को तीन भागों में बाँट सकते हैं:-

1.भाभर मैदान

2.तराई मैदान

3.जलोढ़ मैदान(जलोढ़ मैदान को आगे दो भागों                     में बाँटा जाता है- खादर और बाँगर।)


 



भाभर 8 से 10 किलोमीटर चौड़ाई की पतली पट्टी है जो शिवालिक गिरिपाद के समानांतर फैली हुई है। उसके परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत श्रेणियों से बाहर निकलती नदियाँ यहाँ पर भारी जल-भार, जैसे- बड़े शैल और गोलाश्म जमा कर देती हैं और कभी-कभी स्वयं इसी में लुप्त हो जाती हैं। भाभर के दक्षिण में तराई क्षेत्र है जिसकी चौड़ाई 10 से 20 किलोमीटर है। भाभर क्षेत्र में लुप्त नदियाँ इस प्रदेश में धरातल पर निकल कर प्रकट होती हैं और क्योंकि इनकी निश्चित वाहिकाएँ नहीं होती, ये क्षेत्र अनूप बन जाता है, जिसे तराई कहते हैं। यह क्षेत्र प्राकृतिक वनस्पति से ढका रहता है और विभिन्न प्रकार के वन्य प्राणियों का घर है।

तराई से दक्षिण में मैदान है जो पुराने और नए जलोढ़ से बना होने के कारण बाँगर और खादर कहलाता है। इस मैदान में नदी की प्रौढ़ावस्था में बनने वाली अपरदनी और निक्षेपण स्थलाकृतियाँ, जैसे- बालू-रोधिका, विसर्प, गोखुर झीलें और गुंफित नदियाँ पाई जाती हैं। ब्रह्मपुत्र घाटी का मैदान नदीय द्वीप और बालू-रोधिकाओं की उपस्थिति के लिए जाना जाता है। यहाँ ज़्यादातर क्षेत्र में समय-समय पर बाढ़ आती रहती है और नदियाँ अपना रास्ता बदल कर गुंफित वाहिकाएँ बनाती रहती हैं।

उत्तर भारत के मैदान में बहने वाली विशाल नदियाँ अपने मुहाने पर विश्व के बड़े-बड़े डेल्टाओं का निर्माण करती हैं, जैसे- सुंदर वन डेल्टा। सामान्य तौर पर यह एक सपाट मैदान है जिसकी समुद्र तल से औसत ऊँचाई 50 से 100मीटर है। हरियाणा और दिल्ली राज्य सिंधु और गंगा नदी तंत्रों के बीच जल-विभाजक है। ब्रह्मपुत्र नदी अपनी घाटी में उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहती है। परंतु बांग्लादेश में प्रवेश करने से पहले धुबरी के समीप यह नदी दक्षिण की ओर 90° मुड़ जाती है। ये मैदान उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी से बने हैं। जहाँ कई प्रकार की फसलें, जैसे-गेहूँ, चावल, गन्ना और जूट उगाई जाती हैं। अतः यहाँ जनसंख्या का घनत्व ज़्यादा है।


                  लोकताक झील (Manipur)


(3) प्रायद्वीपीय पठार:-











नदियों के मैदान से 150 मीटर ऊँचाई से ऊपर उठता हुआ प्रायद्वीपीय पठार तिकोने आकार वाला कटा-फटा भूखंड है, जिसकी ऊँचाई 600 से 900 मीटर है।

उत्तर पश्चिम में दिल्ली, कटक (अरावली विस्तार),

पूर्व में राजमहल पहाड़ियाँ,

पश्चिम में गिर पहाड़ियाँ और

 दक्षिण में इलायची (कार्डामम) पहाड़ियाँ

प्रायद्वीप पठार की सीमाएँ निर्धारित करती हैं।

उत्तर-पूर्व में शिलांग तथा कार्बी-ऐंगलोंग पठार भी इसी भूखंड का विस्तार है। प्रायद्वीपीय भारत अनेक पठारों से मिलकर बना है, जैसे- हजारीबाग पठार, पालायु पठार, रांची पठार, मालवा पठार, कोयेम्बटूर पठार और कर्नाटक पठार। यह भारत के प्राचीनतम और स्थिर भूभागों में से एक है। सामान्य तौर पर प्रायद्वीप की ऊँचाई पश्चिम से पूर्व को कम होती चली जाती है, जिसका प्रमाण यहाँ की नदियों के बहाव की दिशा से भी मिलता है।

 

प्रश्न:- प्रायद्वीप पठार की कुछ नदियों के नाम बताएँ जो बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में गिरती हैं?

उत्तर:-

बंगाल की खाड़ी में जल गिराने वाली नदियाँ:– दामोदर, स्वर्णरेखा, वैतरणी, ब्राह्मणी, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, पेन्नार, कावेरी, वैगाईऔर ताम्रपर्णी|

अरब सागर  में जल गिराने वाली नदियाँ:–  लूनी, साबरमती, माही, नर्मदा, तापी, माण्डवी, जुआरी, शारावती, गंगावेली, पेरियार और भरत पूजा|



  


कुछ स्थलाकृतियों के नाम भी बताएँ जो पूर्व की ओर प्रवाहित नदियों से संबंधित हैं परंतु पश्चिम दिशा में बहने वाली नदियों से संबंधित नहीं है।

इस क्षेत्र की मुख्य प्राकृतिक स्थलाकृतियों में टॉर, ब्लॉक पर्वत, भ्रंश घाटियाँ, पर्वत स्कंध, नग्न चट्टान संरचना, टेकरी (hummocky) पहाड़ी शृंखलाएँ और क्वार्ट्जाइट भित्तियाँ (dykes) शामिल हैं जो प्राकृतिक जल संग्रह के स्थल हैं। 

इस पठार के पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग में मुख्य रूप से काली मिट्टी पाई जाती है।

उत्तरी मैदान

प्रायद्वीपीय पठार के अनेक हिस्से भू-उत्थान  निमज्जन, भ्रंश तथा विभंग निर्माण प्रक्रिया के अनेक पुनरावर्ती दौर से गुजरे हैं (भीमा भ्रंश का उल्लेख करना आवश्यक है क्योंकि वहाँ बार-बार भूकंपीय हलचलें होती रहतीं हैं) अपनी पुनरावर्ती भूकंपीय क्रियाओं की क्षेत्रीय विभिन्नता के कारण ही प्रायद्वीपीय पठार पर धरातलीय विविधताएँ पाई जाती हैं। इस पठार के उत्तरी-पश्चिमी भाग में नदी खड्ड और महाखड्ड इसके धरातल को जटिल बनाते हैं। चंबल, भिंड और मोरेना खड्ड इसके उदाहरण हैं।

मुख्य उच्चावच लक्षणों के अनुसार प्रायद्वीपीय पठार को तीन भागों में बाँटा जा सकता है।

(i) दक्कन का पठार

(ii) मध्य उच्च भूभाग

(iii) उत्तरी-पूर्वी पठार

(i) दक्कन का पठार:-




इसके पश्चिम में पश्चिमी घाट, पूर्व में पूर्वी घाट और उत्तर में सतपुड़ा, मैकाल और महादेव पहाड़ियाँ हैं।



पश्चिमी घाट को स्थानीय तौर पर अनेक नाम दिए गए हैं, जैसे– महाराष्ट्र में सहयाद्रि, कर्नाटक और तमिलनाडु में नीलगिरि और केरल में अनामलाई और इलायची (कार्डामम) पहाड़ियाँ।



पूर्वी घाट की तुलना में पश्चिमी घाट ऊँचे और अविरत हैं। इनकी औसत ऊँचाई लगभग 1500 मीटर है, जो कि उत्तर से दक्षिण की तरफ बढ़ती चली जाती है। प्रायद्वीपीय पठार की सबसे ऊँची चोटी अनाईमुडी (2695 मीटर) है, जो पश्चिमी घाट की अनामलाई पहाड़ियों में स्थित है। दूसरी सबसे ऊँची चोटी डोडाबेटा है और यह नीलगिरी पहाड़ियों में है। ज़्यादातर प्रायद्वीपीय नदियों की उत्पत्ति पश्चिमी घाट से है। पूर्वी घाट अविरत नहीं है और महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों द्वारा अपरदित हैं।




यहाँ की कुछ मुख्य श्रेणियाँ जावादी पहाड़ियाँ, पालकोण्डा श्रेणी, नल्लामाला पहाड़ियाँ और महेंद्रगिरि पहाड़ियाँ हैं। पूर्वी और पश्चिमी घाट नीलगिरी पहाड़ियों में आपस में मिलते हैं।



 

(ii) मध्य उच्च भूभाग:-



पश्चिम में अरावली पर्वत इसकी सीमा बनाते हैं। इसके दक्षिण में सतपुड़ा पर्वत उच्छिष्ट पठार की श्रेणियों से बना हैं जिनकी समुद्रतल से ऊँचाई 600 से 900 मीटर है। ये दक्कन पठार की उत्तरी सीमा बनाते हैं। ये अवशिष्ट पर्वतों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जो कि काफी हद तक अपरदित हैं और इनकी शृंखला टूटी हुई है। प्रायद्वीपीय पठार के इस भाग का विस्तार जैसलमेर तक है जहाँ यह अनुदैर्ध्य रेत के टिब्बों और चापाकार (बरखान) रेतीले टिब्बो से ढके हैं। अपने भूगर्भीय इतिहास में यह क्षेत्र कायांतरित प्रक्रियाओं से गुजर चुका है और कायांतरित चट्टानों, जैस-संगमरमर, स्लेट और नाइस की उपस्थिति इसका प्रमाण है।

समुद्र तल से मध्य उच्च भूभाग की ऊँचाई 700 से 1000 मीटर के बीच है और उत्तर तथा उत्तर-पूर्व दिशा में इसकी ऊँचाई कम होती चली जाती है।

यमुना की अधिकतर सहायक नदियाँ विंध्याचल और कैमूर श्रेणियों से निकलती हैं। बनास, चंबल की एकमात्र मुख्य सहायक नदी है, जो पश्चिम में अरावली से निकलती है। मध्य उच्च भूभाग का पूर्वी विस्तार राजमहल की पहाड़ियों तक है, जिसके दक्षिण में स्थित छोटा नागपुर पठार खनिज पदार्थों का भंडार है।



 

(iii) उत्तर-पूर्व पठार:-



वास्तव में यह प्रायद्वीपीय पठार का ही एक विस्तारित भाग है। यह माना जाता है कि हिमालय उत्पत्ति के समय इंडियन प्लेट के उत्तर-पूर्व दिशा में खिसकने के कारण, राजमहल पहाड़ियों और मेघालय के पठार के बीच भ्रंश घाटी बनने से यह अलग हो गया था। बाद में यह नदी द्वारा जमा किए जलोढ़ द्वारा पाट दिया गया। आज मेघालय और कार्बी ऐंगलोंग पठार इसी कारण से मुख्य प्रायद्वीपीय पठार से अलग-थलग हैं। इसमें आवास करने वाली जनजातियों के नाम के आधार पर मेघालय के पठार को तीन भागों में बाँटा गया है– 

(i)           गारो पहाड़ियाँ 

(ii)             खासी पहाड़ियाँ 

(iii)            जयंतिया पहाड़ियाँ


 



असम की कार्बी ऐंगलोंग पहाड़ियाँ भी इसी का विस्तार है।


 

छोटा नागपुर के पठार की तरह मेघालय के पठार भी कोयला, लोहा, सिलीमेनाइट, चूने के पत्थर और यूरेनियम जैसे खनिज पदार्थों का भंडार है। इस क्षेत्र में अधिकतर वर्षा दक्षिण-पश्चिमी मानसून से होती है। परिणामस्वरूप, मेघालय का पठार एक अति अपरदित भूतल है। चेरापूंजी नग्न चट्टानों से ढका स्थल है और यहाँ वनस्पति लगभग नहीं के बराबर है।

(4) भारतीय मरुस्थल:-





विशाल भारतीय मरुस्थल अरावली पहाड़ियों से उत्तर-पूर्व में स्थित है। यह एक ऊबड़-खाबड़ भूतल है जिस पर बहुत से अनुदैर्ध्य रेतीले टीले और बरखान पाए जाते हैं। यहाँ पर वार्षिक वर्षा 150 मिलीमीटर से कम होती है और परिणामस्वरूप यह एक शुष्क और वनस्पति रहित क्षेत्र है। 

इन्ही स्थलाकृतिक गुणों के कारण इसे ‘मरुस्थली’ के नाम से जाना जाता है। यह माना जाता है कि मेसोजोइक काल में यह क्षेत्र समुद्र का हिस्सा था। इसकी पुष्टि आकल में स्थित काष्ठ जीवाश्म पार्क में उपलब्ध प्रमाणों तथा जैसलमेर के निकट ब्रह्मसर के आस-पास के समुद्री निक्षेपों से होती है (काष्ठ जीवाश्म की आयु लगभग 18 करोड़ वर्ष आँकी गई है)। यद्यपि इस क्षेत्र की भूगर्भिक चट्टान संरचना प्रायद्वीपीय पठार का विस्तार है, तथापि अत्यंत शुष्क दशाओं के कारण इसकी धरातलीय आकृतियाँ भौतिक अपक्षय और पवन क्रिया द्वारा निर्मित हैं। यहाँ की प्रमुख स्थलाकृतियाँ स्थानांतरी रेतीले टीले, छत्रक चट्टानें और मरुउद्यान (दक्षिणी भाग में) हैं। ढाल के आधार पर मरुस्थल को दो भागों में बाँटा जा सकता है:-

1.सिंध की ओर ढाल वाला उत्तरी भाग

2.कच्छ के रन की ओर ढाल वाला दक्षिणी भाग

यहाँ की अधिकतर नदियाँ अल्पकालिक हैं। मरुस्थल के दक्षिणी भाग में बहने वाली लूनी नदी महत्त्वपूर्ण है। अल्प वृष्टि और बहुत अधिक वाष्पीकरण की वजह से इस प्रदेश में हमेशा जल का घाटा रहता है। कुछ नदियाँ तो थोड़ी दूरी तय करने के बाद ही मरुस्थल में लुप्त हो जाती हैं। यह अंतः स्थलीय अपवाह का उदाहरण है जहाँ नदियाँ झील या प्लाया में मिल जाती हैं। इन प्लाया झीलों का जल खारा होता है जिससे नमक बनाया जाता है।


प्रश्न:- क्या आप इस चित्र में दिखाए गए बालू के टिब्बों के प्रकार को पहचान सकते हैं?



उत्तर:- बरखान

(5) तटीय मैदान:-





भारत की तट रेखा बहुत लंबी है। भारत की संपूर्ण तट रेखा द्वीप समूहों समेत 7,517 किलोमीटर पर विस्तृत है। स्थिति और सक्रिय भूआकृतिक प्रक्रियाओं के आधार पर तटीय मैदानों को दो भागों में बाँटा जा सकता है:-

1.        पश्चिमी तटीय मैदान 

2.        पूर्वी तटीय मैदान




1. पश्चिमी तटीय मैदान:-

पश्चिमी तटीय मैदान जलमग्न तटीय मैदानों के उदाहरण हैं। ऐसा विश्वास है कि पौराणिक शहर द्वारका, जो किसी समय पश्चिमी तट पर मुख्य भूमि पर स्थित था, अब पानी में डूबा हुआ है। जलमग्न होने के कारण पश्चिमी तटीय मैदान एक संकीर्ण पट्टी मात्र है और पत्तनों एवं बंदरगाह विकास के लिए प्राकृतिक परिस्थितियाँ प्रदान करता है। यहाँ पर स्थित प्राकृतिक बंदरगाहों में कांडला, मजगाँव, जे एल एन नावहा शेवा, मर्मागाओ, मैंगलौर, कोचीन शामिल हैं।



उत्तर में गुजरात तट से, दक्षिण में केरल तट तक फैले पश्चिमी तटीय मैदान को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है:

1.      गुजरात का कच्छ और काठियावाड़ तट,

2.      महाराष्ट्र का कोंकण तट

3.      गोवा तट

4.   कर्नाटक तथा केरल के क्रमशः कन्नड़ तट और  मालाबार तट


पश्चिमी तटीय मैदान मध्य में संकीर्ण है परंतु उत्तर और दक्षिण में चौड़े हो जाते हैं।



इस तटीय मैदान में बहने वाली नदियाँ डेल्टा नहीं बनाती हैं। मालाबार तट की विशेष स्थलाकृति ‘कयाल’ (Backwaters) जिसे मछली पकड़ने और अंतःस्थलीय नौकायन के लिए प्रयोग किया जाता है और पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र है। केरल में हर वर्ष प्रसिद्ध ‘नेहरू ट्राफी वलामकाली’ (नौका दौड़) का आयोजन ‘पुन्नामदा कयाल’ में किया जाता है।



प्रश्न:- 26 दिसम्बर, 2004 को अंडमान और निकोबार द्वीपों पर एक प्राकृतिक आपदा ने कहर ढाया। क्या आप इस आपदा का नाम बता सकते हैं और इससे प्रभावित बाकी क्षेत्रों की पहचान कर सकते हैं?

उत्तर:- 26 दिसंबर की इस तारीख को प्राकृतिक आपदा सुनामी के लिए भी जाना जाता है।बॉक्सिंग डे सुनामी के रूप में भी जाना जाता है। सुनामी की विशाल लहरों ने भारत समेत हिंद महासागर किनारे के 14 देशों में कई किलोमीटर दूर तक तबाही फैला दी थी। सुमात्रा में समुंद्र के नीचे दो प्लेटों में आई दरारें खिसकने से उत्तर से दक्षिण की ओर पानी की लगभग 1000 किलोमीटर लंबी दीवार सी खड़ी हो गई थी। सुनामी भूकंप के केंदर के चारों तरफ नहीं फैली, इसका रुख पूर्व से पश्चिम की तरफ था। भूकंप के पहले घंटे में 15 से 20 मीटर की लहरों ने सुमात्रा के उत्तरी तट को बर्बाद कर दिया।पश्चिम की तरफ बढ़ती सुनामी लहरों ने श्रीलंका और दक्षिण भारत को अपनी चपेट में ले लिया था। इसके साथ आचेह प्रांत का तटीय इलाका भी पूरी तरह से समुंद्री पानी में डूब गया। इसके कुछ देर बाद भारत के निकोबार व अंडमान द्वीप पर भी सुनामी लहरों ने कहर बरपाना शुरू कर दिया। इसके बाद पूर्व की तरह बढ़ रही सुनामी ने थाईलैंड और बर्मा के तटों पर तबाही मचा दी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2004 में आयी सुनामी में 9000 परमाणु बमों जितनी शक्ति थी।


2. पूर्वी तटीय मैदान

पश्चिमी तटीय मैदान की तुलना में पूर्वी तटीय मैदान चौड़ा है और उभरे हुए तट का उदाहरण है।





पूर्व की ओर बहने वाली और बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली नदियाँ यहाँ लम्बे-चौड़े डेल्टा बनाती हैं। इसमें महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी का डेल्टा शामिल है। उभरा तट होने के कारण यहाँ पत्तन और पोता श्रय कम हैं। यहाँ पर महाद्वीपीय शेल्फ की चौड़ाई 500 किलोमीटर है जिसके कारण यहाँ पत्तनों और पोता श्रयों का विकास मुश्किल है।


प्रश्न:- पूर्वी तट के कुछ पत्तनों के नाम बताइए?

उत्तर:- कोलकाता, पारादीप, विशाखापत्तनम, हल्दिया, चेन्‍नई, एन्‍नोर और तूतीकोरिन बंदरगाह भारत के पूर्वी तट पर स्‍थित हैं।

 


  पश्चिमी व पूर्वी तट के कुछ पत्तन



(6) द्वीप समूह:-

भारत में दो प्रमुख द्वीप समूह हैं:-

1.      एक बंगाल की खाड़ी में  

2.      अरब सागर में

 

 



 

1. बंगाल की खाड़ी के द्वीप समूह:-

बंगाल की खाड़ी के द्वीप समूह में लगभग 572 द्वीप हैं। ये द्वीप 6° उत्तर से 14° उत्तर और 92° पूर्व से 94° पूर्व के बीच स्थित हैं। रीची द्वीप समूह और लबरीन्थ द्वीप यहाँ के दो प्रमुख द्वीप समूह हैं।

बंगाल की खाड़ी के द्वीपों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:-

1.      उत्तर में अंडमान

2.      दक्षिण में निकोबार।









ये द्वीप, समुद्र में जलमग्न पवर्तों का हिस्सा है। कुछ छोटे द्वीपों की उत्पत्ति ज्वालामुखी से भी जुड़ी है। बैरन आइलैंड नामक भारत का एकमात्र जीवंत ज्वालामुखी भी निकोबार द्वीपसमूह में स्थित है। यह द्वीप असंगठित कंकड़, पत्थरों और गोलाश्मों से बना हुआ है।

इस द्वीप समूह की मुख्य पर्व चोटियों में सैडल चोटी (उत्तरी अंडमान - 738 मीटर), माउंट डियोवोली (मध्य अंडमान - 515 मीटर), माउंट कोयोब (दक्षिणी अंडमान - 460 मीटर) और माउंट थुईल्लर (ग्रेट निकोबार - 642 मीटर) शामिल हैं।

पश्चिमी तट के साथ कुछ प्रवाल निक्षेप तथा खूबसूरत पुलिन हैं।यहाँ स्थित द्वीपों पर संवहनी वर्षा होती है और भूमध्यरेखीय प्रकार की वनस्पति उगती है।


2. अरब सागर के द्वीप:-









अरब सागर के द्वीपों में लक्षद्वीप और मिनिकॉय शामिल हैं। ये द्वीप 80° उत्तर से 12° उत्तर और 71° पूर्व से 74° पूर्व के बीच बिखरे हुए हैं। ये केरल तट से 280 किलोमीटर से 480 किलोमीटर दूर स्थित है। पूरा द्वीप समूह प्रवाल निक्षेप से बना है। यहाँ 36 द्वीप हैं और इनमें से 11 पर मानव आवास है। मिनिकॉय सबसे बड़ा द्वीप है जिसका क्षेत्रफल 453 वर्ग किलोमीटर है। पूरा द्वीप समूह 10 डिग्री चैनल द्वारा दो भागों में बाँटा गया है, उत्तर में अमीनी द्वीप और दक्षिण में कनानोरे द्वीप। इस द्वीप समूह पर तूफ़ान निर्मित पुलिन हैं, जिस पर अबद्ध गुटिकाऐं, शिंगिल, गोलाश्मिकाऐं तथा गोलाश्म पूर्वी समुद्र तट पर पाए जाते हैं।







 

 

अभ्यास

1. नीचे दिए गए प्रश्नों के सही उत्तर का चयन करें:-

(i) करेवा भूआकृति कहाँ पाई जाती है?

(क) उत्तरी-पूर्वी हिमालय                 (ख) पूर्वी हिमालय

(ग) हिमाचल-उत्तराखण्ड हिमालय     (घ) कश्मीर हिमालय

(ii) निम्नलिखित में से किस राज्य में ‘लोकताक’ झील स्थित है?

(क) केरल              (ख) मणिपुर

(ग) उत्तराखण्ड      (घ) राजस्थान

(iii) अंडमान और निकोबार को कौन-सा जल क्षेत्र अलग करता है?

(क) 11° चैनल                    (ख) 10° चैनल

(ग) मन्नार की खाड़ी          (घ) अंडमान सागर

(iv) डोडाबेटा चोटी निम्नलिखित में से कौन-सी पहाड़ी शृंखला में स्थित है?

(क) नीलगिरि            (ख) कार्डामम

(ग) अनामलाई           (घ) नल्लामाला

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30 शब्दों में दीजिए:-

(i) यदि एक व्यक्ति को लक्षद्वीप जाना हो तो वह कौन-से तटीय मैदान से होकर जाएगा और क्यों?

उत्तर:- यदि किसी व्यक्ति को लक्षद्वीप जाना हो तो उसे पश्चिमी तटीय मैदान होकर जाना होगा, क्योंकि यही उसके लिए निकटतम दूरी वाला मार्ग होगा। यह द्वीप केरल तट से 280 किलोमीटर दूर है।

(ii) भारत में ठंडा मरुस्थल कहाँ स्थित है? इस क्षेत्र की मुख्य श्रेणियों के नाम बताएँ।

उत्तर:- भारत में उत्तरी-पश्चिमी यो कश्मीर हिमालय क्षेत्र ठण्डा मरुस्थल कहलाता है। यहाँ वर्षभर तापमान निम्न रहने के कारण सम्पूर्ण क्षेत्र हिमाच्छादित रहता है, इसलिए यह निर्जन क्षेत्र ठण्डा मरुस्थल कहलाता है। वास्तव में यह क्षेत्र वृहत् हिमालय और कराकोरम श्रेणियों के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में कराकोरम, जास्कर और लद्दाख श्रेणियाँ हैं।

(iv)       पश्चिमी तटीय मैदान पर कोई डेल्टा क्यों नहीं है?

उत्तर:- पश्चिमी तट पर बहने वाली प्रमुख नदियाँ नर्मदा तथा ताप्ती हैं। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक छोटी-छोटी नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलकर अरब सागर में गिरती हैं। ये नदियाँ डेल्टा नहीं बनातीं। इसके निम्नलिखित कारण हैं:-

 

1.      ये नदियाँ सँकरे मैदान में बहकर आती हैं। इनका वेग अधिक होने के कारण ये नदियाँ तेज गति से बहती हैं।

2.      इन नदियों के मार्ग की ढाल प्रवणता अधिक होने के कारण ये तीव्र वेग से बहती हैं, जिससे इनके | मुहाने पर तलछट का निक्षेप न होने के कारण डेल्टा का निर्माण नहीं होता है।

 

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 125 शब्दों में दीजिए :-

(i) अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में स्थित द्वीप समूहों का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करें?



(ii) नदी घाटी मैदान में पाए जाने वाली महत्त्वपूर्ण स्थलाकृतियाँ कौन-सी हैं? इनका विवरण दें?

उत्तर:- नदी घाटी मैदानों का निर्माण नदियों द्वारा लाए गए अवसाद से हुआ है। ये मैदान दो प्रकार के होते हैं–खादर एवं बांगर। खादर मैदान नवीन जलोढ़ मृदा से तथा बांगर पुराने जलोढ़ से बने हैं। नदी घाटी मैदानों की उत्तरी सीमा पर्वतीय है, जिन्हें गिरिपाद मैदान कहते हैं, जो महीन मलबे और मोटे कंकड़ों से बने हैं। इन्हें भाबर कहते हैं। इनके दक्षिण में तराई के मैदान हैं। यहाँ नदियों का विस्तार अधिक हो जाता है तथा कहीं-कहीं दलदले बन जाते हैं। नदी घाटी मैदानों में बाढ़कृत मैदान पेनीप्लेन, ऊँचे टीले, गर्त, विसर्प, गोखुर झील, बालू रोधिका आदि प्रमुख स्थलाकृतियाँ पाई जाती हैं जो नदी की प्रौढ़ावस्था में बनने वाली अपरदनी और निक्षेपण स्थलाकृतियाँ हैं।

(iii) यदि आप बद्रीनाथ से सुंदर वन डेल्टा तक गंगा नदी के साथ-साथ चलते हैं तो आपके रास्ते में कौन-सी मुख्य स्थलाकृतियाँ आएँगी?

उत्तर:- बद्रीनाथ उत्तराखण्ड राज्य के मध्य हिमालय में चमोली जिले की फूलों की घाटी के समीप स्थित है। यदि हम बद्रीनाथ से गंगा के साथ-साथ सुन्दरवन डेल्टा के लिए चलें तो हमें कई प्रकार की भू-आकृतियों से होकर जाना होगा। पर्वतीय क्षेत्र में ऊँची-ऊँची चोटियाँ, गहरी घाटियों व तीव्र ढाल वाले क्षेत्रों को पार करना पड़ेगा। इस मार्ग में गॉर्ज, V-आकार की घाटी और तीव्र ढाल मुख्य स्थलाकृतियाँ हमें मिलेंगी। हरिद्वार के पास हमारा पर्वतीय मार्ग समाप्त हो जाएगा और मैदानी मार्ग आरम्भ हो जाएगा। यहाँ पर तराई अथवा भाबर क्षेत्र से गुजरना पड़ेगा। इसके पश्चात् समतल मैदान पार करना होगा। इस मैदान में धरातल प्राय: समतल मिलेगा, कोई भी ऊँची श्रेणी नहीं मिलेगी। गंगा के टेढ़े विसर्पो और झीलों के साथ हम सुन्दरवन डेल्टा पर पहुंचेंगे। यह डेल्टा गंगा नदी द्वारा निर्मित है। यहाँ गंगा विभिन्न शाखाओं में विभक्त होकर इस डेल्टा का निर्माण करती है। यह डेल्टा 150 मीटर ऊँचा है।


परियोजना/क्रियाकलाप

(i)           एटलस की सहायता से पश्चिम से पूर्व की ओर स्थित हिमालय की चोटियों की एक सूची बनाएँ।









(ii)         आप अपने राज्य में पाई जाने वाली स्थलाकृतियों की पहचान करें और इन पर चलाए जा रहे मुख्य आर्थिक कार्या का विश्लेषण करें।

उत्तर:-



 


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1781 ई. का Act of settlement(बंदोबस्त कानून) 👉 1773 ई. के रेगुलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिए ब्रिटिश संसद के प्रवर समिति के अध्यक्ष एडमंड बर्क के सुझाव पर इस एक्ट का प्रावधान किया गया। 👉 इसके अन्य  नाम - संशोधनात्मक अधिनियम (amending act) , बंगाल जुडीकेचर एक्ट 1781 इस एक्ट की विशेषताएं:- 👉कलकत्ता के सभी निवासियों को सर्वोच्च न्यायालय के अधिकर क्षेत्र के अंतर्गत कर दिया गया। 👉 इसके तहत कलकत्ता सरकार को बंगाल, बिहार और उड़ीसा के लिए भी विधि बनाने का अधिकार दे दिया गया। अब कलकत्ता की सरकार को विधि बनाने की दो श्रोत प्राप्त हो गए:-  1. रेगुलेटिंग एक्ट के तहत कलकत्ता प्रेसिडेंसी के लिए 2. एक्ट ऑफ सेटलमेंट के अधीन बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा के दीवानी प्रदेशों के लिए 👉 सर्वोच्च न्यायालय के लिए आदेशों और विधियों के संपादन में भारतीयों के धार्मिक व सामाजिक रीति-रिवाजों तथा परंपराओं का ध्यान रखने का आदेश दिया गया अर्थात् हिंदुओं व मुसलमानों के धर्मानुसार मामले तय करने का प्रावधान किया गया । 👉 सरकारी अधिकारी की हैसियत से किए गए कार्यों के लिए कंपनी ...

राजस्थान नगरपालिका ( सामान क्रय और अनुबंध) नियम, 1974

  राजस्थान नगरपालिका ( सामान क्रय और अनुबंध) नियम , 1974 कुल नियम:- 17 जी.एस.आर./ 311 (3 ) – राजस्थान नगरपालिका अधिनियम , 1959 (1959 का अधिनियम सं. 38) की धारा 298 और 80 के साथ पठित धारा 297 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए , राज्य सरकार इसके द्वारा , निम्नलिखित नियम बनाती हैं , अर्थात्   नियम 1. संक्षिप्त नाम और प्रारम्भ – ( 1) इन नियमों का नाम राजस्थान नगरपालिका (सामान क्रय और अनुबंध) नियम , 1974 है। ( 2) ये नियम , राजपत्र में इनके प्रकाशन की तारीख से एक मास पश्चात् प्रवृत्त होंगे। राजपत्र में प्रकाशन:- 16 फरवरी 1975 [भाग 4 (ग)(1)] लागू या प्रभावी:- 16 मार्च 1975 [ 1. अधिसूचना सं. एफ. 3 (2) (75 एल.एस.जी./ 74 दिनांक 27-11-1974 राजस्थान राजपत्र भाग IV ( ग) ( I) दिनांक 16-2-1975 को प्रकाशित एवं दिनांक 16-3-1975 से प्रभावी।]   नियम 2. परिभाषाएँ – इन नियमों में , जब तक संदर्भ द्वारा अन्यथा अपेक्षित न हो , (i) ' बोर्ड ' के अन्तर्गत नगर परिषद् ( Municipal Council) आती है ; (ii) ' क्रय अधिकारी ' या ' माँगकर्त्ता अधिकार...

वैश्विक राजनीति का परिचय(Introducing Global Politics)

🌏 वैश्विक राजनीति का परिचय( Introducing Global Politics)

ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

 🗺  ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

अरस्तू

🧠   अरस्तू यूनान के दार्शनिक  अरस्तू का जन्म 384 ईसा पूर्व में मेसीडोनिया के स्टेजिरा/स्तातागीर (Stagira) नामक नगर में हुआ था। अरस्तू के पिता निकोमाकस मेसीडोनिया (राजधानी–पेल्ला) के राजा तथा सिकन्दर के पितामह एमण्टस (Amyntas) के मित्र और चिकित्सक थे। माता फैस्टिस गृहणी थी। अन्त में प्लेटो के विद्या मन्दिर (Academy) के शान्त कुंजों में ही आकर आश्रय ग्रहण करता है। प्लेटो की देख-रेख में उसने आठ या बीस वर्ष तक विद्याध्ययन किया। अरस्तू यूनान की अमर गुरु-शिष्य परम्परा का तीसरा सोपान था।  यूनान का दर्शन बीज की तरह सुकरात में आया, लता की भांति प्लेटो में फैला और पुष्प की भाँति अरस्तू में खिल गया। गुरु-शिष्यों की इतनी महान तीन पीढ़ियाँ विश्व इतिहास में बहुत ही कम दृष्टिगोचर होती हैं।  सुकरात महान के आदर्शवादी तथा कवित्वमय शिष्य प्लेटो का यथार्थवादी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला शिष्य अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। मानव जीवन तथा प्रकृति विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो, जो उनके चिन्तन से अछूता बचा हो। उसकी इसी प्रतिभा के कारण कोई उसे 'बुद्धिमानों का गुरु' कहता है तो कोई ...

राजस्थान के दुर्ग

  दुर्ग

1726 ईस्वी का राजलेख

1726 ईस्वी का राजलेख इसके तहत कलकात्ता, बंबई तथा मद्रास प्रेसिडेंसीयों के गवर्नर तथा उसकी परिषद को विधि बनाने की शक्ति प्रदान की गई, जो पहले कंपनी के इंग्लैंड स्थित विद्युत बोर्ड को प्राप्त थी।  यह सीमित थी क्योंकि - (1) यह ब्रिटिश विधियों के विपरीत नहीं हो सकती थी। (2) यह तभी प्रभावित होंगी जब इंग्लैंड स्थित कंपनी का निदेशक बोर्ड अनुमोदित कर दे। Charter Act of 1726 AD  Under this, the Governor of Calcutta, Bombay and Madras Presidencies and its Council were empowered to make laws, which was previously with the Company's Electricity Board based in England.  It was limited because -  (1) It could not be contrary to British statutes.  (2) It shall be affected only when the Board of Directors of the England-based company approves.