राजस्थानी साहित्य
✍️अभिलेखीय साहित्य -
राजस्थानी साहित्य का प्रारंभिक साहित्य हमें अभिलेखीय सामग्री के रूप में मिलता है, जिसमें शिलालेखों, अभिलेखों, सिक्कों तथा मुहरों में जो साहित्य उत्कीर्ण है उस साहित्य को अभिलेखीय साहित्य कहा जा सकता है।
यह अत्यल्प मात्रा में उपलब्ध होती है लेकिन जितनी भी सामग्री उपलबध होती है उसका साहित्यिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व है।
✍️लोकसाहित्य-
राजस्थानी साहित्य में लिखित साहित्य 'वाणीनिष्ठता' की विशेषता को लिये रहा है जिसे लोकसाहित्य कहा गया है।
यह साहित्य लोक के अनुभव का अक्षय भंडार रहा, जहां विविध विधाओं में साहित्य हमें श्रवण परंपरा से प्राप्त होता रहा।
1. प्राचीन काल- वीरगाथा काल (1050 से 1550 ई.)-
भारतवर्ष पर निरंतर होने वाले हमले पश्चिम दिशा से हो रहे थे। इनका अत्यधिक प्रभाव राजस्थान प्रदेश पर पड़ रहा था और यहां के शासकों को संघर्ष करना पड़ रहा था। ऐसी परिस्थिति में संघर्ष की भावना को बनाए रखने के लिए तथा समाज वीर नायकों के आदर्श को प्रस्तुत करने के लिए वीर रसात्मक काव्यों का सृजन किया गया। इस काल वीरता प्रधान काव्यों की प्रमुखता के कारण ही इस काल को वीरगाथा काल का नाम दिया गया है।
इस काल की महत्त्वपूर्ण रचना श्रीधर व्यास की 'रणमल्ल छंद' है।
इस काल में जैन रचनाकारों की रचनाएं भी उल्लेखनीय रही हैं।
2. पूर्व मध्य काल - भक्ति काल (1450 से 1650 ई.)-
राजस्थान के इतिहास में संघर्ष का लंबा इतिहास रहा तथा इन युद्धों ने धर्म और संस्कृति को व्यापक रूप से प्रभावित किया। संघर्षों के आधार के रूप में साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ धर्म के प्रचार-प्रसार की प्रवृत्ति भी दिखाई दी। ऐसी परिस्थितियों में संघर्ष से मुक्त होने तथा समस्त प्रकार के विभेदों को मिटाने के लिए जन-सामान्य भक्ति की ओर प्रवृत्त होने लगा तथा ऐसे समय में कई संतों और भक्तों ने जन-सामान्य को सही राह दिखाई तथा अपनी कलम से समाज में सभी प्रकार के भेदभावों को मिटाते हुए 'सद् समाज' की कल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने का प्रयास किया। इन संतों तथा भक्तों की रचनाओं की अधिकता के कारण इस काल को भक्ति काल का नाम दिया गया।
इसी काल में विभिन्न संतों और उनके द्वारा प्रवृत्त संप्रदायों ने लोक में अपनी गहरी पैठ बनाई और लोगों ने उनके मार्ग का अनुसरण किया। ऐसे संप्रदायों में रामस्नेही, दादूपंथ, नाथपंथ, अलखिया संप्रदाय, विश्नोई संप्रदाय, जसनाथी संप्रदाय आदि प्रमुख हैं। इन संप्रदायों ने नाम-स्मरण का महत्त्व, निर्गुण उपासना पर बल, गुरु की महत्ता पर बल देते हुए, जाति व्यवस्था में भेदभाव को मिटाते हुए कहा "जात-पांत पूछ नहीं कोई हरि को भजै सो हरि का होय।"
इनके साथ सगुण भक्त कवियों ने भी अपने आराध्य देवों की वन्दना एवं महिमा गान अपनी रचनाओं के माध्यम से किया। इस प्रकार की रचनाओं में भक्त शिरोमणि मीराबाई के पद, पृथ्वीराज राठौड़ की 'वेलि किसण रूकमणि री' माधोदास दधवाडिया की 'रामरासो' ईसरदास की 'हरिरस' और 'देवियांण' सायांजी झूला की 'नागदमण' इस क्रम की प्रमुख रचनाएं हैं।
3. उत्तर मध्य काल- शृंगार, रीति एवं नीति परक काल (1650 से 1850 ई.)-
राजस्थानी साहित्य के उत्तर मध्य काल का साहित्य विविध विषयों से युक्त रहा। इस काल में राजनीतिक दृष्टि से अपेक्षाकृत शांति का काल रहा । शासकों ने अपने राज्य में कलाकारों और साहित्यकारों को संरक्षण प्रदान किया, जिन्होंने साहित्य और कला के विविध आयामों का विकास किया। इस काल में शृंगार, रीति (काव्य शास्त्रों) तथा नीति से संबंधित रचनाएं प्रस्तुत की गईं।
लोक में प्रचलित प्रेमाख्यानों को विभिन्न ग्रंथों के रूप में प्रस्तुत किया गया। काव्य शास्त्र से संबंधित रचनाओं में कवि मंछाराम ने 'रघुनाथ रूपक' प्रस्तुत किया तथा संबोधन परक नीति कारकों में ‘राजिया रा सोरठा', 'चकरिया रा सोरठा', 'भेरिया रा सोरठा', 'मोतिया रा सोरठा' आदि रचनाएं प्रमुख हैं।
4. आधुनिक काल - विविध विषयों एवं विधाओं से युक्त (1850 से अद्यतन) –
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले संग्राम (सन् 1857) के पश्चात् समाज में नवीन चेतना का संचार हुआ, जिसका व्यापक असर समाज के सभी वर्गों पर पड़ा और साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा और साहित्य में आधुनिक चेतना का संचार हुआ, जिसे साहित्य में आधुनिक काल का नाम दिया गया।
राजस्थानी साहित्य में चेतना का शंखनाद मारवाड़ के कविराजा बांकीदास और बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण ने किया। जिनके क्रांतिकारी विचारों से समाज में चेतना जाग्रत हुई तथा इस चेतना को आगे की पीढ़ी के साहित्यकारों ने जगाए रखा, जिसका सुखद परिणाम हमारे देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के रूप में प्राप्त हुआ।
आधुनिक राजस्थानी की साहित्य की गद्य और पद्य विधाओं में प्रचुर साहित्यिक सामग्री का सृजन हो रहा है और उस साहित्यिक सामग्री के आधार पर राजस्थानी साहित्य की परंपरा अत्यंत सुदृढ़ तथा महत्त्वपूर्ण है।
✍️राजस्थानी गद्य-पद्य की विशिष्ट शैलियां
⭐ख्यात-
देशी राज्यों के राजाओं ने अपने सम्मान, सफलताओं और विशेष कार्यों आदि के विवरण के रूप में अपना इतिहास लिखवा कर संचित किया है,जिसे 'ख्यात' कहलाता हैं।
ख्यात भी दो प्रकार की मिलती है|
1. प्रथम श्रेणी की ख्यात में किसी भी नरेश व किसी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध होता है|
उदाहरण- दयालदास री ख्यात
2. दूसरी श्रेणी की ख्यात में अलग-अलग घटनाओं का उल्लेख मिलता है और वह क्रमबद्ध नहीं होता|
प्रथम श्रेणी की ख्यात में हम ले सकते हैं|
उदाहरण- मूहणोत नैणसी और बाकींदास की ख्यात
राजस्थान की प्रमुख ख्यात
1. मुहणौत नैणसी री ख्यात-
इस ख्यात का लेखक मुहणौत नैणसी है। मुहणौत नैणसी जोधपुर के राजा जसवंत सिंह का दीवान था। मुहणौत नैणसी री ख्यात राजस्थान की सबसे प्राचीन ख्यात है। मुहणौत नैणसी री ख्यात की भाषा मारवाड़ी व डिंगल भाषा है। मुंशी देवी प्रसाद ने मुहणौत नैणसी को राजपूताना का अबुल-फजल कहा है। (अबुल-फजल का जन्म राजस्थान के नागौर में हुआ था। अबुल-फजल अकबर ने नवरत्नों में शामिल फारसी इतिहासकार था।) मुहणौत नैणसी री ख्यात में राजपूतों की 36 शाखाओं का वर्णन किया गया है। मुहणौत नैणसी री ख्यात को जोधपुर का गजेटियर कहा जाता है।
2. बांकीदास री ख्यात (जोधपुर राज्य की ख्यात)-
इस ख्यात का लेखक बांकीदास है। बांकीदास जोधपुर के महाराजा मानसिंह का दरबारी कवि था। बांकीदास री ख्यात में राजस्थान में कन्या वध रोकने के बारे में वर्णन किया गया है। बांकीदास री ख्यात में बीकानेर के शासक रतनसिंह के द्वारा प्रयाग (गया) तीर्थ स्थल पर कन्या वध रोकने की शपथ का वर्णन किया गया है। बांकीदास री ख्यात को जोधपुर राज्य री ख्यात भी कहा जाता है।
3. दयालदास री ख्यात (बीकानेर के राठौडों की ख्यात)-
इस ख्यात के लेखक दयालदास है। दयालदास बीकानेर के शासक रतनसिंह का दरबारी था। दयालदास री ख्यात में बीकानेर के राठौड़ शासकों की जानकारी बीकानेर के राव बीकाजी से लेकर महाराजा अनूपसिंह तक का इतिहास मिलती है। दयालदास री ख्यात को बीकानेर के राठौड़ों की ख्यात भी कहा जाता है।
4. मुण्डियार री ख्यात (राठौड़ों की ख्यात)-
मुण्डियार री ख्यात में मुगल शासकों की मारवाड़ की कन्याओं से विवाह की जानकारी मिलती है। मुण्डियार री ख्यात को राठौड़ों की ख्यात भी कहा जाता है।
⭐वचनिका-
संस्कृत के 'वचन' शब्द से बना 'वचनिका' शब्द एक काव्य विधा के रूप में साहित्य में प्रचलित हुआ। 'वचनिका' एक ऐसी तुकान्त गद्य-पद्य रचना है जिसमें अंत्यानुप्रास मिलता है, यद्यपि इसके अपवाद भी मिलते हैं।
राजस्थानी भाषा की दो अत्यंत प्रसिद्ध वचनिकाओं में शिवदास गाडण कृत 'अचलदास खींची री वचनिका' [इसमे गागरोन के शासक अचलदास खींचि व मांडु
के सुल्तान अल्पखां या होशंग शाह के बीच य़द्ध
का वर्णन किया।] तथा खिड़िया जग्गा री कही 'राठौड़ रतनसिंघ महेसदासोत री वचनिका' प्रमुख है।
⭐दवावैत-
दवावैत कलात्मक गद्य का एक अन्य रूप है, जो वचनिका काव्य रूप की तरह ही है। वचनिका राजस्थानी में लिखी होती है, किन्तु दवावैत उर्दू और फारसी के शब्दों से युक्त होती है। इनमें कथा के नायक का गुणगान, राज्य–वैभव, युद्ध, आखेट, नखशिख आदि का वर्णन तुकान्त और प्रवाहयुक्त होता है।
'अखमाल देवड़ा री दवावैत', 'महाराणा जवानसिंह री दवावैत', 'राजा जयसिंह री दवावैत' आदि प्रमुख दवावैत ग्रंथ हैं।
⭐वात-
कहानी की तरह वात कहने और सुनने की विशेष विधा है। कथा कहने वाला कहता चलता है और सुनने वाला हुँकारा' (बीच-बीच में हाँ जैसे शब्दों का प्रयोग, जिससे कथाकार को लगे कि श्रोता रुचि ले रहा है) देता रहता है। इन वातों में जीवन के हर पक्ष, युद्ध, धर्म, दर्शन, मनोरंजन पर प्रकाश डाला गया हैं। गद्यमय, पद्यमय तथा गद्य-पद्यमय तीनों रूपों में वातें मिलती हैं।
राव अमरसिंहजी री वात', 'खींचियां री वात', 'पाबूजी री वात', 'कान्हड़दे री वात', 'अचलदास खींची री वात' आदि प्रमुख वातें हैं।
⭐झमाल-
झमाल राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें पहले पूरा दोहा, फिर पांचवें चरण में दोहे के अंतिम चरण को दोहराया जाता है।
‘राव इन्द्रसिंह री झमाल' प्रसिद्ध है।
⭐झूलणा-
झूलणा राजस्थानी काव्य का मात्रिक छन्द है। इसमें चौबीस अक्षर के वर्णिक छन्द के अंत में यगण होता है।
'अमरसिंह राठौड़ रा झूलणा', 'राजा गजसिंह-रा-झूलणा', 'राव सुरतांण-देवड़े-रा-झूलणा' आदि प्रमुख झूलणा रचनाएं हैं।
⭐परची-
संत-महात्माओं का जीवन परिचय राजस्थानी भाषा में जिस पद्यबद्ध रचना में मिलता है उसे परची कहा गया है।
'संत नामदेव री परची', 'कबीर री परची', 'संत रैदास री परची', 'संत पीपा री परची', 'संत दादू री परची', 'मीराबाई री परची' आदि प्रमुख परची रचनायें हैं।
⭐प्रकास-
किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों या घटना विशेष पर प्रकाश डालने वाली कृतियों को प्रकास कहा गया है।
किशोरदास का 'राजप्रकास', आशिया मानसिंह का 'महायश प्रकास', कविया करणीदान का 'सूरज प्रकास' आदि प्रमुख प्रकास ग्रंथ हैं।
⭐मरस्या-
राजा या किसी व्यक्ति विशेष की मृत्यु बाद शोक व्यक्त करने के लिए 'मरस्या' काव्यों की रचना की गई। इसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अतिरिक्त अन्य महान कार्यो का वर्णन भी किया जाता था।
'राणे जगपत रा मरस्या' मेवाड़ महाराणा जगतसिंह की मृत्यु पर शोक प्रकट करने के लिए लिखा गया था।
⭐रासो-
मोतीलाल मेनारिया के अनुसार, “जिस काव्य ग्रंथ में किसी राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध, वीरता आदि का विस्तृत वर्णन हो, उसे रासो कहते हैं।"
रासो ग्रंथों में चन्द्रबरदाई का 'पृथ्वीराज रासो', नरपति नाल्ह का 'बीसलदेव रासो', गिरधर आसिया का 'सगत रासो', दौलत विजय का खुमाण रासो', कुम्भकर्ण का 'रतन रासो', जोधराज का 'हम्मीर रासो' प्रमुख है। . .
⭐रूपक-
किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों के स्वरूप को दर्शाने वाली काव्य कृति रूपक कहलाती है।
'गजगुणरूपक', 'रूपक गोगादेजी रो', 'राजरूपक' आदि प्रमुख रूपक काव्य हैं।
⭐विगत-
विगत से किसी विषय का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। इसमें इतिहास की दृष्टि से शासक, उसके परिवार, राज्य के क्षेत्र प्रमुख व्यक्ति अथवा उनके राजनीतिक, सामाजिक व्यक्तित्व का वर्णन मिलता है। विगत में उपलब्ध आंकड़े आर्थिक दृष्टि से भी उपयोगी रहे हैं।
मुहणोत नैणसी की ‘मारवाड़ रा परगनां री विगत' में प्रत्येक परगने की आबादी, रेख, भूमि किस्म, फसलों का हाल, सिंचाई के साधन आदि की जानकारियां प्राप्त होती हैं।
⭐वेलि-
वेलि ग्रंथ 'वेलियो' छन्द में लिखे हुए हैं। इनके विविध विषय रहे है, जो धार्मिक, ऐतिहासिक रहे हैं।
'दईदास जैतावत री वेलि', 'रतनसी खीवावत री वेलि' तथा 'राव रतन री वेलि' प्रमुख वेलि ग्रंथ हैं। वेलि परंपरा की प्रमुख रचना पृथ्वीराज राठौड़ की लिखी हुई 'वेलि किसण रूकमणी री' है।
⭐साखी-
साखी साक्षी शब्द से बना है। साखी परक रचनाओं में संत कवियों ने अपने द्वारा अनुभव किये गये ज्ञान का वर्णन किया है।
साखियों में सोरठा छन्द का प्रयोग हुआ है।
कबीर की साखियां प्रसिद्ध हैं।
⭐सिलोका-
सिलोका साधारण पढ़े-लिखे लोगों द्वारा लिखे गये हैं, इसलिए ये जनसाधारण की भावनाओं को आमजन तक पहुँचाते हैं।
राव अमरसिंह रा सिलोका', 'अजमालजी रो सिलोको', 'राठौड़ कुसलसिंह रो सिलोको', 'भाटी केहरसिंह रो सिलोको' आदि प्रमुख सिलोके हैं।
✍️आधुनिक राजस्थानी साहित्य
मारवाड़ के कविराजा बांकीदास तथा बूंदी के सूर्यमल्ल मीसण ने राजस्थानी जन मानस में जिस राष्ट्रीय चेतना का बीज बोया था, वही आगे चलकर आधुनिक काल के अनेक कवियों की कविताओं में प्रकट हुआ।
इन्हीं के साथ हींगलाजदान कविया और शंकरदान सामोर का भी नाम लिया जाना जरूरी है। आधुनिकता का संबंध केवल काल से ही नहीं अपितु विचार से, सोच से भी होता है। जीवन को देखने-समझने की वैज्ञानिक दृष्टि और यथार्थपरक दृष्टिकोण आधुनिकता की विशेषताएं हैं। कवि ऊमरदान की कविताओं में संवत् 1956 के अकाल से दुःखी जनता का मार्मिक चित्रण किया है। साथ ही पाखण्डी साधुओं को बेनकाब किया गया है। रामनाथ कविया ने 'द्रोपदी विनय' से नारी चेतना को जागृत किया।
केसरीसिंह बारहठ, विजयसिंह पथिक, जयनारायण व्यास, हीरालाल शास्त्री, गोकुल भाई भट्ट, माणिक्यलाल वर्मा, जनकवि गणेशीलाल व्यास राजस्थान के ऐसे कवि हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लेने के साथ ही इस लड़ाई के लिए अपनी कलम को भी हथियार बनाया। इनमें से गणेशीलाल व्यास ऐसे कवि हैं जिन्होंने खुद आजादी की लड़ाई में भाग लिया और आजादी के बाद के अपने मोहभंग को भी कविताओं में प्रखर रूप से प्रकट किया है।
रेवतदान चारण की रचनाएं सामन्ती शोषण के प्रति आमजन को जगाने का काम करती हैं।
राजस्थानी के अनेक कवियों ने जन-जन तक अपनी बात पहुँचाने के लिए कवि सम्मेलनों को माध्यम बनाया। एक समय था जब राजस्थानी कवि मेघराज मुकुल की 'सेनाणी' कवि सम्मेलनों की सर्वाधिक लोकप्रिय कविताओं में मानी जाती थीं। सत्यप्रकाश जोशी अपने मौलिक और गैर पारंपरिक सोच के साथ अलग ही स्थान रखते हैं। 1960 ई. में प्रकाशित उनकी काव्य कृति "राधा" इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि जहाँ आम राजस्थानी कविता युद्ध का गौरव गान करती हैं, वहीं जोशी अपनी नायिका राधा के माध्यम से श्रीकृष्ण को यह संदेश देकर कि भयंकर युद्ध टाल दें, युद्ध के विरोध में खड़े दिखाई देते हैं। इसी प्रकार कन्हैयालाल सेठिया (जिनके गीत 'धरती धोरां री' को तो राजस्थान का आदर्श गीत भी कहा जा सकता है) की रचनाएं तो गहरी नींद में सोई हुई आत्मा को भी जगा दे, ऐसी क्षमता रखती है। 'मीझर' और 'लीलटाँस' सेठिया जी के प्रमुख काव्य संग्रह हैं।
सातवें दशक के मध्य तक राजस्थान की आधुनिक कविता का पहला दौर चला। राजस्थान में राजस्थानी भाषा में 'मरुवाणी', 'जलमभोम', 'जांणकारी', 'ओळमो', 'लाडेसर', 'हरावळ', 'राजस्थली', 'ईसरलाट', 'राजस्थानी-एक हेलो', 'दीठ', 'चामळ', 'अपरंच' जैसी अनेक साहित्यिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही थीं और इनके माध्यम से बहुत सारे नए कवि सामने आ रहे थे। यही वह समय है जब पारस अरोड़ा की जुड़ाव, गोरधनसिंह शेखावत की गाँव, तेजसिंह जोधा की 'कठैई की व्हेगौ है', मणि मधुकर की 'सोजती गेट', 'पगफेरो', हरीश भादाणी की 'बोलै सरणाटौ', 'बाथां में भूगोल', चन्द्रप्रकाश देवल की ‘पागी', 'कावड', 'मारग', अर्जुनदेव चारण की 'रिन्दरोही', मालचन्द तिवाड़ी ‘की उतर्यो है आभौ' आदि रचनाओं ने राजस्थानी साहित्य को नई ऊँचाईयां प्रदान की।
शिवचंद्र भरतिया को राजस्थानी का प्रथम आधुनिक गद्यकार कहा जा सकता है।
रानी लक्ष्मी कुमारी चूण्डावत ने राजस्थान के अतीत को सजीव करने वाली ऐतिहासिक सांस्कृतिक गरिमापूर्ण कहानियां लिखीं- 'मांझळ रात', 'अमोलक वाता', 'मूमळ', 'गिर ऊंचा ऊंचा गढ़ां', 'कै रे चकवा बात' आदि।
विजयदान देथा ने अपनी 'बातां री फुलवाड़ी' (13 खण्ड) श्रृंखला में राजस्थान की यत्र-तत्र बिखरी लोककथाओं का कुछ ऐसा अनूठा संकलन किया कि उन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। विजयदान देथा के कुछ प्रमुख राजस्थानी-हिन्दी कहानी संग्रह हैं- 'दुविधा', 'उलझन', 'अलेखू हिटलर', 'सपन प्रिया', 'अंतराल' आदि । 'दुविधा' नामक विजयदान देथा की कृति पर तो 'पहेली' नामक फिल्म का निर्माण भी हो चुका है। इनकी कृति 'चौधराइन की चतुराई' को भी बेहद पसंद किया जाता है।
यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र की कहानियां उनके संग्रहों 'जमारो', 'समन्द अर थार' में संग्रहित हैं और उनके कुछ उपन्यास हैं- 'हूं गोरी किण पीव री', 'जोग-संजोग', 'चान्दा सेठाणी' आदि। . .
इसी प्रकार नथमल जोशी के कहानी संग्रह परण्योड़ी-कंवारी तथा उपन्यास 'आभै पटकी', 'धोरां रौ धोरी', 'एक बीनणी दो बीन' भी बहुत प्रसिद्ध हैं।
प्रसिद्ध कहानीकारों में डॉ. नृसिंह राजपुरोहित, अन्नाराम सुदामा, रामेश्वर दयाल श्रीमाली, डॉ. मनोहर शर्मा, सांवरदईया आदि प्रमुख हैं।
✍️साहित्यिक पत्रकारिता
राजस्थान की साहित्यिक पत्रकारिता का वैभवपूर्ण इतिहास रहा है। इन साहित्यिक, लघु व अनियतकालीन पत्रिकाओं ने राजस्थान के लेखन को ही गति प्रदान करने के साथ ही हिन्दी प्रदेशों के साहित्यकारों को भी एक मंच प्रदान किया है। बीकानेर की वातायन (हरीश भादानी), अजमेर की लहर (प्रकाश जैन), भरतपुर की ओर (विजेन्द्र), कांकरोली की सम्बोधन (कमर मेवाड़ी), अलवर की कविता(भागीरथ भार्गव), उदयपुर की बिन्दु ने अनेक लेखकों को गंभीर व स्तरीय मंच प्रदान किया। सम्प्रेषण (चन्द्रभानु भारद्वाज), मधुमाधवी (नलिनी उपाध्याय) के साथ राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका 'मधुमती' ने भी राजस्थान में साहित्यिक वातावरण बनाने में योगदान दिया।
राजस्थानी भाषा की पत्रिकाओं में राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर की 'जागती जोत' के अतिरिक्त सत्यप्रकाश जोशी की 'हरावल', किशोर कल्पनाकांत की 'ओल्यू', कवि चन्द्रसिंह द्वारा स्थापित 'मरुवाणी' प्रमुख हैं।
उपर्युक्त रचनाएं समृद्ध राजस्थानी साहित्य का संक्षिप्त परिचय भर हैं, सच्चाई यह हैं कि राजस्थानी साहित्य का भण्डार इतना विपुल है कि उसका सम्पूर्ण वर्णन करना किसी एक सीमा में सम्भव नहीं है।
डॉक्टर एल.पी. टैसीटोरी, सीताराम लालस, मोतीलाल मेनारिया जैसे अनेक विद्वानों ने राजस्थानी साहित्य का इतिहास लिखा, जिसे 4 कालों में विभाजित किया गया है—
1. आदिकाल — 8 वीं से 15 वीं सदी तक
2. पूर्व मध्यकालीन — 1460 ई. से 1780 ई. तक
3. उत्तर मध्यकलीन — 1700 से 19वीं सदी तक
4. आधुनिक काल— 1857 से लगातार
राजस्थान साहित्य के विकास में संवत् 1517 से 1700 तक के समय को उत्कर्षकाल तथा 1700 से 1900 तक के समय को स्वर्ण काल कहा गया है।
उद्योतन सूरी, माघ(संस्कृत कवि), नरपति नाल्ह, पद्मनाभ, चंदबरदाई आदि प्रारंभिक काल के चर्चित रचनाकार हैं।
कवि कलोल, पृथ्वीराज राठौड़, जांभोजी, जसनाथी, दादू, चरणदास जी, मीराबाई, कृष्ण पयहारी, पुष्टिमार्गीय संत, नाभादास, केशवदस , दुरसाजी आढ़ा, आदि पूर्व मध्य काल के प्रमुख रचनाकार थे।
सुंदर कुवरी, गवरी बाई (वागड़ की मीरा), जगन्नाथ खिड़िया, वीरभान, करणीदान, किरपाराम, बांकीदास, किसनाजी आढ़ा, वृंद आदि उत्तर मध्य काल के प्रमुख रचनाकार हैं।
मोतीलाल मेनारिया ने उत्तर मध्य कल को राजस्थानी साहित्य का स्वर्ण युग कहा।
महाकवि सूर्यमल मिश्रण, केसरी सिंह भारत, कन्हैया लाल सेठिया, सत्य प्रकाश जोशी, भरत व्यास, लक्ष्मी कुमारी चुंडावत, श्योभागसिंह शेखावत अति आधुनिक काल के प्रमुख कवि थे।
कृतियों के आधार पर राजस्थानी साहित्य को पांच भागों में विभक्त किया जा सकता है-
1. चारण साहित्य
2. जैन साहित्य
3. ब्राह्मण साहित्य
4. संत साहित्य
5. लोक साहित्य
(1) चारण साहित्य —
चारण साहित्य राजस्थानी भाषा का सबसे समृद्ध साहित्य है।
चारण कवियों ने इसका लेखन किया गया है।
चारण साहित्य में अचलदास खींचीरी वचनिका(शिवदास गाडण), पृथ्वीराज रासो(चंदबरदाई), सूरज प्रकाश(कविया करणीदान), वंशभास्कर(सूर्यमल मिश्रण), बांकीदास ग्रन्थावली(कविराज बांकीदास आसिया) शैलिय में आदि प्रमुख हैं।
चारण साहित्य से अभिप्राय चारण, भाट आदि गाथा गायक जातियों की कृतियों एवं लेखन (डिंगल-पिंगल) से है।
चारण साहित्य की अधिकांश रचनाएं डिंगल में रचित है।
गीत चारण शैली की ही विशिष्ट देन है।
यह साहित्य अधिकांशतः पद्यमय, वीररसात्मक एवं शृंगारपरक है।
प्रबन्ध काव्य के रूप में— सूरजप्रकाश, वंशभास्कर आदि।
प्रभावोत्पादक गीत रूप में— दुरसाआढ़ा, केशव दास आदि। दोहों, सोरठो इत्यादी के छन्द रूपों में मिलता है।
दूसरी ओर गद्य साहित्य में ख्यात, वात, पीढ़ी, वंशावली आदि नाना रूप मिलते हैं।
चारण रचनाकार राजाओं के मित्र मंत्री, इतिहासकार, राजकवि, प्रशस्ति गायक सब एक साथ थे।
राजपूत राजपरिवार में जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों भावदशाओं या घटनाओं, स्थितियों का अभिन्न संबंध चारण-काव्य-चेतना से रहा है।
बांकीदास, दयालदास, सूर्यमल्ल मिश्रण चारण गद्य साहित्य के अमर लेखक हैं।
झीमा चारणी, पदमा सांदू, चम्पादे आदि प्रमुख चारण कवियित्रियाँ थी।
(2) जैन साहित्य—
जैन साहित्य अथवा जैन शैली का साहित्य वह है, जिसे जैन धर्मावलम्बियों तथा इस धर्म प्रभावित साहित्यकारों ने रचा।
राजस्थानी भाषा के भण्डार को भी इन्होंने अपनी रचनाओं से भरा।
राजस्थानी का जैन साहित्य गद्य और पद्य दोनों रूपों में मिलता है।
ये जैन-रचनाएं धार्मिक हैं, जिनमें कथात्मक अंश अधिक है।
पद्य के क्षेत्र जैन साहित्य में नीति, शांत, श्रृंगार आदि के भावपूर्ण दोहे ही हैं।
जैन साहित्य में प्रबन्ध, काव्य, कथाएं, रास, फाग, सझाय और गीत प्रचुर रूप में मिलते हैं।
जैन गीतों की मधुरता उल्लेखनीय है।
इस वर्ग के प्राचीन ग्रंथों में धूर्ताख्यान (हरिभद्र सूरि) कुवलय माला (उद्योतन सूरि), उपमिति भव प्रपञ्चा (सिद्धर्षि), सच्चरियउ महावीर उत्साह (धनपाल), अष्टक प्रकरण वृत्ति व चैतन्य वंदक (जिनेश्वर सूरि), पंचग्रंथी व्याकरण (बुद्धिसागर सूरि) आदि प्रसिद्ध हैं।
जैन धार्मिक गद्य मूलत: टीकाएं हैं जिन्हें बालावबोध टब्बा रूपों में देखा जा सकता है।
समय सुन्दर, धर्मवर्द्धन तथा मुनिजिन हर्ष कवियों की काव्य प्रतिभा उल्लेखनीय है।
जैन साहित्य : वैशिष्ट्य
अधिकांश ग्रंथ— शांतरसपरक
चरित काव्यों, कथा-काव्यों, स्तुतिपरक काव्यों की बहुलता।
राजस्थानी के अलावा संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश में भी रचना।
वज्रसेन सूरि रचित 'भरतेश्वर बाहुबलि घोर' पुरानी राजस्थानी का प्राचीनतम ग्रंथ है।
संवत् 1241 में शालिचन्द्र सूरि कृत 'भरतेश्वर बाहुबलिरास' भी पुरानी राजस्थानी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना गया है।
13 वीं सदी में लिखित ग्रंथों में बुद्धिरास, जंबूस्वामी चरित, स्थूलिभद्र रास, रेवंतगिरि रासो, आबू रास, जीवदया रास तथा चंदनबाला-रास आदि उल्लेख हैं।
(3) ब्राह्मण साहित्य—
राजस्थानी साहित्य के प्रणेता प्रधानतः चारण व जैन रहे हैं, परन्तु अन्य जातियों में ब्राह्मणों ने भी लिखा है।
ब्राह्मण नरपति नाल्ह का 'बीसलदेव रासो', श्रीधर व्यास के 'रणमल्ल छन्द', पद्मनाभ का 'कान्हडदे प्रबंध तथा 'हम्मीरायण' आदि प्रसिद्ध हैं।
जिसमें धर्मशास्त्र-विषयक ग्रंथ लिखे गये, यथा-बैताल पच्चीसी, सिंघासण बत्तीसी, सूआ बहोत्तरी, हितोपदेश, पंचाख्याद आदि कथाएं।
भागवत पुराण, नासिकेत पुराण, मारकण्डेय पुराण, सूरज पुराण, पद्मपुराण तथा रामायण और महाभारत के अनुवाद।
(4) संत साहित्य —
राजस्थान की साहित्यिक विरासत में संत साहित्य का उल्लेखनीय स्थान है।
भक्ति आन्दोलन के समय दादू पंथियों और रामस्नेही सन्तों ने साहित्य का सृजन किया।
इसके अतिरिक्त मीराबाई के पद, महाकवि वृंद के दोहे, नाभादास कृत वैष्णव भक्तों के जीवन चरित, पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) कृत वेलि क्रिसन रुक्मणी री, सुन्दर कुंवरी के राम रहस्य पद तथा सुन्दरदास और जांभोजी की रचनाएं आदि महत्वपूर्ण है।
इन संतों ने गद्य की रचना नहीं के बराबर की है।
कबीर, गोरख, दादू, सुंदरदास, रैदास, जसनाथ, सोढ़ीनाथ, नरसी आदि की ज्ञानगंभीर लोकानुभव-समृद्ध किन्तु सहज-सरल वाणी राजस्थानी संत साहित्य का आलोकमय गौरव है।
संत साहित्य एक ओर नाथ-पंथ और गोरखनाथ की वाणी से अनुप्रेरित है, दूसरी ओर वैष्णवी-विचार-परंपरा से स्पंदित।
सामाजिक आडंबरों का खंडन, जाति-पांति के भेदभाव के विरुद्ध मानव की अखंड एकता, समानता, निरहंकार सादगी, सरलता और प्रेम आदि संतवाणी की प्रमुख विशेषताएं हैं।
(5) लोक साहित्य—
राजस्थान का लोक साहित्य भी समृद्ध है।
इसके अन्तर्गत लोकगीत, लोक कथाएं, लोक नाट्य, पहेलियाँ, प्रेम कथाएँ और फड़ें आदि है।
तीज, त्यौहार, विवाह, जन्म, देवपूजन और मेले अधिकतर गीत लोक साहित्य का हैं।
लोक साहित्य वस्तुतः लोक की मौखिक अभिव्यक्ति है तथा अभिजातीय शास्त्रीय चेतना से शून्य है।
इसमें समूचे लोक मानस की प्रवृत्ति समाई रहती है।
यह अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य का संचरण करता है।
राजस्थानी लोक साहित्य भारतीय वाड्गमय की एक विशिष्ट सम्पदा है।
राजस्थानी भाषा की विभिन्न बोलियों में रचित लोक साहित्य के लेखन में विभिन्न विधाओं का यथा-लोक गीत, लोक कथाओं, लोक गाथाओं, लोक नाट्यों, कहावतों, पहेलियों, श्लोकों तथा तंत्र-मंत्रादि का प्रयोग हुआ है।
इन्हें निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-
फड़—
राजस्थान में ‘फड़' का प्रचलन भी हैं। किसी कपड़े पर लोक देवता का चित्रण करके उसके माध्यम से ऐतिहासिक व पौराणिक कथा का प्रस्तुतिकरण किया जाना 'फड़' कहलाता है, जैसे - देवनारायण महाराज की फड़, बापूजी री फड़ में आदि।
लोकगीतों—
राजस्थानी ‘लोकगीतों' की भावभूमि बड़ी व्यापक है, जीवन का कोई ऐसा पहलू नहीं, पक्ष नहीं जिस पर राजस्थानी लोकगीत न मिलते हों। वात्सल्य, शृंगार, शकुन-अपशकुन, सामाजिक-धार्मिक त्यौहार, पर्व, संस्कार आदि सभी लोकगीतों में समाहित हैं।
इनमें वीररस को अधिक महत्व दिया गया है।
लोक कथाओं—
लोक कथाओं में लोक मानस की सब प्रकार की भावनायें तथा जीवन दर्शन समाहित रहता है। राजस्थानी लोक कथायें विषयवस्तु, कथाशिल्प व साहित्यिक सौंदर्य सभी दृष्टियों से अत्यन्त समृद्ध है।
लोक गाथा—
राजस्थानी लोक साहित्य की चौथी वशक्त विधा है- लोक गाथा। इसके लिए ‘पवाड़ा' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। पाबूजी के पवाड़े, देवजी के पवाड, रामदेवजी के पवाड़े, निहालदे के पवाड़े आदि प्रसिद्ध पवाड़े हैं। ये काव्यात्मक, शैल्पिक, वैविध्य एवं सामाजिक-सांस्कृतिक निरूपण की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। वीररस, शृंगाररस, हास्यरस, करुणरस और निर्वदानिक भावों का सफल चित्रण इनमें सहज सुलभ है।
लोक नाट्य—
लोक नाट्यों के तीन मुख्य प्रकार मिलते हैं- ख्याल, स्वांग व लीलायें।
ख्याल क्षेत्रीय रंगत लिये होते हैं।
इसमें पौराणिक, लौकिक, सामाजिक एवं समसामयिक पक्षों द्वारा शिक्षा परक बातें पहेली के लिए आड़ी, पाली, हीयाली आदि शब्द प्रचलित है।
पहेली में बुद्धि चातुर्य और गूढार्थ ये दो प्रमुख तत्व आती हैं। होते हैं।
गलालैंग—
बांगड क्षेत्र दक्षिण राजस्थान (डूंगरपुर-बांसवाड़ा) में 'गलालैंग' नामक लोक कविताओं में लोक देवी-देवताओं को देवता के रूप में प्रस्तुत कर उनके गुणों और कर्मों को चमत्कार की तरह वर्णित किया जाता है।
इसको तम्बूरा पर जोगी लोग गाते हैं।
इसकी शुरुआत थकराड़ा गांव के अमरनाथ जोगी ने गलालैंग (गुलालसिंह) के वीर कारनामों को एक कविता के रूप में प्रस्तुत कर की ।
कहावतें— कहावतें राजस्थानी लोक साहित्य की एक प्रमुख विधा है।
कहावत का अर्थ है वह बात जो लोग जीवन में स्वीकार्य हो।
कहावत की शैली वार्तालाप, कविता, तुकबन्दी एवं सरल वाक्यों के रूप में होती है।
कहावतें सुनने वालों पर यथोचित प्रभाव डालती हैं। ये एक बहुत लंबे अनुभव का परिणाम होती है।
इनमें सटीकता होती है।
धर्म, दर्शन, नीति, ज्योतिष, सामाजिक रीति-रिवाज, कृषि, राजनीति आदि कहावतों में समाहित हैं।
लोक जीवन के लिए कथित धर्म शास्त्र का काम करती हैं।
✍️विद्या की दृष्टि से राजस्थान साहित्य को दो भागों में बांटा गया है— गद्य साहित्य और पद्य साहित्य
गद्य साहित्य—
वात, वचनिका, ख्यात, दवावैत, वंशावली, पट्टावली, पीढ़ियावली, दफ्तर, हकीकत विगत आदि।
उदा.— अष्टक प्रकरण वृत्ति व चैतन्य वंदक— जिनेश्वर सूरि की रचना।
पद्य साहित्य—
दूहा, सोरठा, गीत, कुण्डलिया, छंद, छप्पय, चौपाई, संधि, ढाल, छः ढालिया, पावड़ा, फागु, मंगल, विवाहलो, संवाद, मातृका, हीयाला, रेलुका, स्रोत, स्त्रवन, रासो, रास, चर्चरी, चोढ़ालिया, वेलि, धवल, बारहमासा, बावनी, कुलक, संझाय आदि।
वचनिका— संस्कृत के 'वचन' शब्द से व्युत्पन्न 'वचनिका' शब्द एक काव्य विधा के रूप में साहित्य में प्रविष्ट से हुआ।
वचनिका एक ऐसी तुकान्त गद्य-पद्य रचना है जिसमें अंत्यानुप्रास मिलता है, यद्यपि अनेक स्थलों पर अपवाद भी हैं।
राजस्थानी भाषा की दो अत्यन्त प्रसिद्ध वचनिकाओं शिवदास गाडण कृत "अचलदास खींची री वचनिका" तथा खिड़िया जग्गा की "राठौड़ रतनसिंघजी महेस दासोत री वचनिका" प्रमुख हैं।
अचलदास खींची री वचनिका में गद्य और पद्य दोनों हैं। गद्यात्मक काव्य और काव्यात्मक गद्य अद्भुत है।
दवावैत— दवावैत कलात्मक गद्य का अन्य रूप है, जो वचनिका काव्य रूप से साम्य है।
वचनिका अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी में लिखी मिलती है, किन्तु दवावैत उर्दू, फारसी की शब्दावली से युक्त है।
चरित्र नायक की गुणावली, राज्य वैभव, युद्ध, आखेट, नखशिख आदि का वर्णन तुकान्त और प्रवाहयुक्त है।
वयण सगाई शब्दालंकार की छटा तथा सौन्दर्य वर्णन में जिन उपमाओं का प्रयोग किया गया है वह स्थानीय रंग को मुखरित करता हुआ भाषा को लालित्य प्रदान करने वाला है।
वात— कलात्मक गद्य के 'सिलोका' और 'वर्णक' रूपों से अधिक राजस्थानी 'वात' साहित्य रूप का महत्व है।
ऐतिहासिक, अर्द्ध-ऐतिहासिक, पौराणिक, काल्पनिक आदि कथानकों पर राजस्थानी का वात साहित्य संख्यातीत है।
कहानी का पर्याय 'वात' में कहने और सुनने की विशेष प्रणाली है।
कथा कहने वाला बात कहता चलता है और सुनने वाला हुॅंकारा देता रहता है।
गद्यमय, पद्यमय तथा गद्य-पद्यमय तीनों रूपों में वातें मिलती हैं।
अमरसिंहजी री वात, खींचियां री वात, तुंवरा री वात, पाबूजी री वात, चूड़ावत री वात, काहन्ड़ दे री वात, अचलदास खींची री वात, रतन हमीर री वात, ढोला मारू री वात, बीजड़ बीजोगड़ री वात, फोफाणंद री वात, राजा भोज अर खापरा चोर री वात, दीपालदे री वात, वात सूरां अर सतवादी री, वात रिजक बिना राजपूत री आदि वातें हैं, जिनके कारण राजस्थानी का प्राचीन कथा साहित्य अमर हो गया है।
इनमें प्रेम की रंगीनी, युद्ध की आग, पौराणिक अलौकिकता, ऐतिहासिक वस्तुस्थिति है, तो पारिवारिक दुर्बलताओं पर प्रहार है और सामाजिक विसंगतियों पर करारा व्यंग्य है। इन राजस्थानी वातों में प्रभावान्विति के साथ-साथ काव्य निर्णय भी दृष्टव्य है।
आज के युग में आकाशवाणी से प्रसारित वार्ताओं, कहानियों के लिए राजस्थानी वात साहित्य से बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
बालावबोध— सरल और सुबोध टीका को बालावबोध कहते हैं।
टब्बा— बालावबोध विस्तृत टीका है, टब्बा अति संक्षिप्त-शब्दार्थ रूप।
वंशावली— इन रचनाओं में राजवंशों की वंशावलियाँ विस्तृत विवरण सहित लिखी गई हैं, जैसे राठौड़ां री वंशावली, राजपूतों री वंशावली आदि।।
प्रकास— किसी वंश अथवा व्यक्ति विशेष की उपलब्धियों या घटना पर प्रकाश डालने वाली कृतियाँ 'प्रकास' कहलाती हैं।
उदाहरण- राजप्रकास, पाबू प्रकास, उदय प्रकास आदि।
मरस्या— राजा या किसी व्यक्ति विशेष की मृत्योपरांत शोक व्यक्त करने के लिए रचित काव्य, मरस्या कहलाता है।
इसमें उस व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के अलावा अन्य क्रिया-कलापों का वर्णन किया जाता है।
विगत— यह भी इतिहास परक ग्रंथ लेखन की शैली है। ‘मारवाड़ रा परगना री विगत' इस शैली की प्रमुख रचना है।
✍️राजस्थानी साहित्य की प्रमुख रचनाएँ —
- पृथ्वीराज रासौ (कवि चंदबरदाई)
- खुमाण रासौ (दलपत विजय)
- विरुद छतहरी, किरतार बावनौ (कवि दुरसा आढ़ा)
- बीकानेर रां राठौड़ा री ख्यात (दयालदास सिंढायच)
- सगत रासौ (गिरधर आसिया)
- हम्मीर रासौ (जोधराज)
- पृथ्वीराज विजय (जयानक)
- अजीतोदय (जगजीवन भट्ट)
- ढोला मारु रा दूहा (कवि कल्लोल)
- गजगुणरूपक (केशवदास गाडण)
- सूरज प्रकास (कविया करणीदान)
- एकलिंग महात्म्य (कान्हा व्यास)
- मुहणोत नैणसी री ख्यात, मारवाड़ रा परगना री विगत (मुहणौत नैणसी)
- पद्मावत (मलिक मोहम्मद जायसी)
- विजयपाल रासौ (नल्ल सिंह)
- नागर समुच्चय (भक्त नागरीदास)
- हम्मीर महाकाव्य (नयनचन्द्र सूरि)
- वेलि किसन रुक्मणि री (पृथ्वीराज राठौड़)
- कान्हड़दे प्रबन्ध (पद्मनाभ)
- राजरूपक (वीरभाण)
- बिहारी सतसई (महाकवि बिहारी)
- बाँकीदास री ख्यात (बाँकीदास) (1838-90 ई.)
- कुवलयमाला (उद्योतन सूरी)
- ब्रजनिधि ग्रन्थावली
- हम्मीर हठ, सुर्जन चरित
- प्राचीन लिपिमाला, राजपुताने का इतिहास (पं. गौरीशंकर ओझा)
- वचनिका राठौड़ रतन सिंह महेसदासोत री (जग्गा खिड़िया)
- बीसलदेव रासौ (नरपति नाल्ह)
- रणमल छंद (श्रीधर व्यास)
- अचलदास खींची री वचनिका (शिवदास गाडण)
- राव जैतसी रो छंद (बीठू सूजाजी)
- रुक्मणी हरण, नागदमण (सायांजी झूला)
- वंश भास्कर (सूर्यमल्ल मिश्रण) (1815-1868 ई.)
- वीर विनोद (कविराज श्यामलदास दधिवाड़िया)
- चेतावणी रा चूँगट्या (केसरीसिंह बारहठ)
राजस्थानी की प्राचीनतम रचना— भरतेश्वर बाहुबलि घोर(लेखक वज्रसेन सूरि 1168 ई. के लगभग)।
भाषा मारू गुर्जर विवरण – भरत और बाहुबलि के बीच हुए युद्ध का वर्णन है।
संवतोल्लेख वाली प्रथम राजस्थानी रचना— भरत बाहुबलि रास (1184 ई.) मेंशालिभद्र सूरि द्वारा रचित ग्रंथ भारू गुर्जर भाषा में रचित रास परम्परा में सर्वप्रथम और सर्वाधिक पाठ वाला खण्ड काव्य।
वचनिका शैली की प्रथम सशक्त रचना— अचलदास खींची री वचनिका(शिवदास गाडण)।
राजस्थानी भाषा का पहला उपन्यास — कनक सुन्दर (1903 मेंशिवचन्द भरतिया द्वारा लिखित)
श्री नारायण अग्रवाल का ‘चाचा’ राजस्थानी का दूसरा उपन्यास है।
राजस्थानी का प्रथम नाटक— केसर विलास (1900 शिवचन्द्र भरतिया)
राजस्थानी में प्रथम कहानी विश्रांत— प्रवासी (1904 शिवचन्द्र भरतियाराजस्थानी उपन्यास नाटक और कहानीके प्रथम लेखक माने जाते हैं।)
स्वातंत्र्योत्तर काल का प्रथम राजस्थानी उपन्यास— आभै पटकी (1956 श्रीलाल नथमल जोशी)
आधुनिक राजस्थानी की प्रथम काव्य कृति— बादली (चन्द्रसिंह बिरकाली)।
यह स्वतंत्र प्रकृति चित्रण की प्रथम महत्वपूर्ण कृति है।
✍️राजस्थानी साहित्य की प्रमुख रचनाएं
⭐पृथ्वीराज रासौ (कवि चंदबरदाई)—
इसमें अजमेर के अन्तिम चौहान सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के जीवन चरित्र एवं युद्धों का वर्णन है।
यह पिंगल में रचित वीर रस का महाकाव्य है।
चन्दबरदाई पृथ्वीराज चौहान का दरबारी कवि एवं मित्र था।
⭐खुमाण रासौ (दलपत विजय)—
पिंगल भाषा के इस ग्रन्थ में मेवाड़ के बप्पा रावल से लेकर महाराजा राजसिंह तक के मेवाड़ शासकों का वर्णन है।
⭐विरुद छतहरी, किरतार बावनौ (कवि दुरसा आढ़ा)—
विरुद छतहरी महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा है और किरतार बावनौ में उस समय की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को बतलाया गया है।
दुरसा आढ़ा अकबर के दरबारी कवि थे।
इनकी पीतल की बनी मूर्ति अचलगढ़ के अचलेश्वर मंदिर में विद्यमान है।
⭐बीकानेर रां राठौड़ा री ख्यात (दयालदास सिंढायच)—
दो खंडो के इस ग्रन्थ में जोधपुर एवं बीकानेर के राठौड़ों के प्रारंभ से लेकर बीकानेर के महाराजा सरदारसिंह के राज्याभिषेक तक की घटनाओं का वर्णन है।
⭐सगत रासौ (गिरधर आसिया)—
इस डिंगल ग्रन्थ में महाराणा प्रताप के छोटे भाई शक्तिसिंह का वर्णन है।
यह 943 छंदों का प्रबंध काव्य है।
कुछ पुस्तकों में इसका नाम सगतसिंह रासौ भी मिलता है।
⭐हम्मीर रासौ (जोधराज)—
इस काव्य ग्रन्थ में रणथम्भौर शासक राणा हम्मीर चौहान की वंशावली व अलाउद्दीन खिलजी से युद्ध एवं उनकी वीरता आदि का विस्तृत वर्णन है।
⭐पृथ्वीराज विजय (जयानक)—
संस्कृत भाषा के इस काव्य ग्रन्थ में पृथ्वीराज चौहान के वंशक्रम एवं उनकी उपलब्धियों का वर्णन किया गया है। इसमें अजमेर के विकास एवं परिवेश की प्रामाणिक जानकारी है।
⭐अजीतोदय (जगजीवन भट्ट)—
इसमें मारवाड़ की ऐतिहासिक घटनाओं, विशेषतः महाराजा जसवंतसिंह एवं अजीतसिंह के मुगल संबंधों का विस्तृत वर्णन है।
यह संस्कृत भाषा में है।
⭐ढोला मारु रा दूहा (कवि कल्लोल)-
डिंगल भाषा के शृंगार रस से परिपूर्ण इस ग्रन्थ में ढोला एवं मारवणी के प्रेमाख्यान का वर्णन है।
⭐गजगुणरूपक (केशवदास गाडण)—
इसमें जोधपुर के महाराजा गजराजसिंह के राज्य वैभव, तीर्थयात्रा एवं युद्धों का वर्णन है।
गाडण जोधपुर महाराजा गजराजसिंह के प्रिय कवि थे।
⭐सूरज प्रकास (कविया करणीदान)—
इसमें जोधपुर के राठौड़ वंश के प्रारंभ से लेकर महाराजा अभयसिंह के समय तक की घटनाओं का वर्णन है।
साथ ही अभयसिंह एवं गुजरात के सूबेदार सरबुलंद खाँ के मध्य युद्ध एवं अभयसिंह की विजय का वर्णन है।
⭐एकलिंग महात्म्य (कान्हा व्यास)—
यह गुहिल शासकों की वंशावली एवं मेवाड़ के राजनैतिक व सामाजिक संगठन की जानकारी प्रदान करता है।
⭐मुहणोत नैणसी री ख्यात, मारवाड़ रा परगना री विगत (मुहणौत नैणसी)—
जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह-प्रथम की दीवान नैणसी की इस कृति में राजस्थान के विभिन्न राज्यों के इतिहास के साथ-साथ समीपवर्ती रियासतों (गुजरात, काठियावाड़, बघेलखंड आदि) के इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश डाला गया है।
नैणसी को राजपूताने का ‘अबुल फजल’ भी कहा गया है।
जसवंतसिंह का दरबारी कवि व इतिहासकार मुहणौत नैणसी (ओसवाल जैन जाति) था।
मुहणौत नैणसी ने दो ऐतिहासिक ग्रन्थ, “नैणसी री ख्यात (राजस्थान की सबसे प्राचीन ख्यात) व ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ लिखे।
नैणसी री ख्यात व मारवाड़ रा परगना री विगत राजस्थानी भाषा में लिखे गये हैं।
“मारवाड़ रा परगना री विगत” में मुहणौत नैणसी ने इतिहास का क्रमबद्ध लेखन किया। अतः “मारवाड़ रा परगना री विगत” को राजस्थान का गजेटियर कहते हैं।
राजस्थान में मारवाड़ के इतिहास को क्रमबद्ध लिखने का सर्वप्रथम श्रेय मुहणौत नैणसी को है।
नोट – ख्यातें 16वीं शताब्दी में लिखनी शुरू की गयी ख्यातें भाट व चारण समाज के द्वारा लिखी जाती है लेकिन नैणसी री ख्यात इसका अपवाद है।
⭐पद्मावत (मलिक मोहम्मद जायसी)—
1543 ई. के लगभग रचित इस महाकाव्य में अलाउद्दीन खिलजी एवं मेवाड़ के शासक रावल रतनसिंह के मध्य हुए युद्ध (1301 ई) का वर्णन है, जिसका कारण अलाउद्दीन खिलजी द्वारा रतनसिंह की रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की इच्छा थी।
⭐विजयपाल रासौ (नल्ल सिंह)—
पिंगल भाषा के इस वीर-रसात्मक ग्रन्थ में विजयगढ़ (करौली) के यदुवंशी राजा विजयपाल की दिग्विजय एवं पंग लड़ाई का वर्णन है।
नल्लसिंह सिरोहिया शाखा का भाट था और वह विजयगढ़ के यदुवंशी नरेश विजयपाल का आश्रित कवि था।
⭐नागर समुच्चय (भक्त नागरीदास)—
यह ग्रन्थ किशनगढ़ के राजा सावंतसिंह (नागरीदास) की विभिन्न रचनाओं का संग्रह है।
सावंतसिंह ने राधाकृष्ण की प्रेमलीला विषयक शृंगार रसात्मक रचनाएँ की थी।
⭐हम्मीर महाकाव्य (नयनचन्द्र सूरि)—
संस्कृत भाषा के इस ग्रन्थ में जैन मुनि नयनचन्द्र सूरि ने रणथम्भौर के चौहान शासकों का वर्णन किया है।
⭐वेलि किसन रुक्मणि री (पृथ्वीराज राठौड़)—
सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक कवि पृथ्वीराज बीकानेर शासक रायसिंह के छोटे भाई थे तथा ‘पीथल’ नाम से साहित्य रचना करते थे।
इन्होंने इस ग्रन्थ में श्री कृष्ण एवं रुक्मणि के विवाह की कथा का वर्णन किया है।
दुरसा आढ़ा ने इस ग्रन्थ को पाँचवा वेद व 19वाँ पुराण कहा।
बादशाह अकबर ने इन्हें गागरोन गढ़ जागीर में दिया था।
⭐कान्हड़दे प्रबन्ध (पद्मनाभ)—
पद्मनाभ जालौर शासक अखैराज के दरबारी कवि थे।
इस ग्रन्थ में इन्होंने जालौर के वीर शासक कान्हड़दे एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य हुए युद्ध एवं कान्हड़दे के पुत्र वीरमदे व अलाउद्दीन की पुत्री फिरोजा के प्रेम प्रसंग का वर्णन किया है।
⭐राजरूपक (वीरभाण)—
इस डिंगल ग्रन्थ में जोधपुर महाराजा अभयसिंह एवं गुजरात के सूबेदार सरबुलंद खाँ के मध्य युद्ध (1787 ई.) का वर्णन है।
⭐बिहारी सतसई (महाकवि बिहारी)—
मध्यप्रदेश में जन्मे कविवर बिहारी जयपुर नरेश मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे।
ब्रजभाषा में रचित इनका यह प्रसिद्ध ग्रन्थ शृंगार रस की उत्कृष्ट रचना है।
⭐बाँकीदास री ख्यात (बाँकीदास) (1838-90 ई.)—
जोधपुर के राजा मानसिंह के काव्य गुरु बाँकीदास द्वारा रचित यह ख्यात राजस्थान का इतिहास जानने का स्रोत है।
इनके ग्रन्थों का संग्रह ‘बाँकीदास ग्रन्थावली’ के नाम से प्रकाशित है।
इनके अन्य ग्रन्थ मानजसोमण्डन व दातार बावनी भी हैं।
⭐कुवलयमाला (उद्योतन सूरी)—
इस प्राकृत ग्रन्थ की रचना उद्योतन सूरी ने जालौर में रहकर 778 ई. के आसपास की थी जो तत्कालीन राजस्थान के सांस्कृतिक जीवन की अच्छी झाँकी प्रस्तुत करता है।
⭐ब्रजनिधि ग्रन्थावली(प्रतापसिंह)—
यह जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह द्वारा रचित काव्य ग्रन्थों का संकलन है।
⭐हम्मीर हठ, सुर्जन चरित(चन्द्रशेखर)—
बूँदी शासक राव सुर्जन के आश्रित कवि चन्द्रशेखर द्वारा रचित।
⭐प्राचीन लिपिमाला, राजपुताने का इतिहास (पं. गौरीशंकर ओझा)—
पं.गौरीशंकर हीराचन्द ओझा भारतीय इतिहास साहित्य के पुरोधा थे, जिन्होंने हिन्दी में सर्वप्रथम देशी राज्यों का इतिहास भी लिखा है। इनका जन्म सिरोही रियासत में 1863 ई. में हुआ था।
⭐वचनिका राठौड़ रतन सिंह महेसदासोत री (जग्गा खिड़िया)—
इस डिंगल ग्रंथ में जोधपुर महाराजा जसवंतसिंह के नेतृत्व में मुगल सेना एवं मुगल सम्राट शाहजहाँ के विद्रोही पुत्र औरंगजेब व मुराद की संयुक्त सेना के बीच धरमत (उज्जैन, मध्यप्रदेश) के युद्ध में राठौड़ रतनसिंह के वीरतापूर्ण युद्ध एवं बलिदान का वर्णन है।
⭐बीसलदेव रासौ (नरपति नाल्ह)—
इसमें अजमेर के चौहान शासक बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) एवं उनकी रानी राजमती की प्रेमगाथा का वर्णन है।
⭐रणमल छंद (श्रीधर व्यास)—
इसमें पाटन के सूबेदार जफर खाँ एवं ईडर के राठौड़ राजा रणमल के युद्ध (संवत् 1454) का वर्णन है।
दुर्गा सप्तशती इनकी अन्य रचना है।
श्रीधर व्यास राजा रणमल का समकालीन था।
⭐अचलदास खींची री वचनिका (शिवदास गाडण)—
सन् 1430-35 के मध्य रचित इस डिंगल ग्रन्थ में मांडू के सुल्तान हौशंगशाह एवं गागरौन के शासक अचलदास खींची के मध्य हुए युद्ध (1423 ई.) का वर्णन है एवं खींची शासकों की संक्षिप्त जानकारी दी गई है।
⭐राव जैतसी रो छंद (बीठू सूजाजी)—
डिंगल भाषा के इस ग्रन्थ में बाबर के पुत्र कामरान एवं बीकानेर नरेश राज जैतसी के मध्य हुए युद्ध का वर्णन है।
⭐रुक्मणी हरण, नागदमण (सायांजी झूला)—
ईडर नरेश राव कल्याणमल के आश्रित कवि सायांजी द्वारा इस डिंगल ग्रन्थों की रचना की गई।
⭐वंश भास्कर (सूर्यमल्ल मिश्रण) (1815-1868 ई.)—
बूँदी के महाराव रामसिंह के दरबारी कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस पिंगल काव्य ग्रन्थ में बूँदी राज्य का विस्तृत, ऐतिहासिक एवं राजस्थान के अन्य राज्यों का संक्षिप्त रूप में वर्णन किया है।
वंश भास्कर को पूर्ण करने का कार्य इनके दत्तक पुत्र मुरारीदान ने किया था।
इनके अन्य ग्रन्थ हैं- बलवंत विलास, वीर-सतसई व छंद मयूख, उम्मेदसिंह चरित्र, बुद्धसिंह चरित्र।
⭐वीर विनोद (कविराज श्यामलदास दधिवाड़िया)—
मेवाड़ (वर्तमान भीलवाड़ा) में 1836 ई. में जन्मे एवं महाराणा सज्जनसिंह के आश्रित कविराज श्यामदास ने अपने इस विशाल ऐतिहासिक ग्रन्थ की रचना महाराणा के आदेश पर प्रारंभ की।
चार खंडों में रचित इस ग्रन्थ पर कविराज को ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि प्रदान की गई।
इस ग्रन्थ में मेवाड़ के विस्तृत इतिहास वृत्त सहित अन्य संबंधित रियासतों का इतिहास वर्णन है।
मेवाड़ महाराणा सज्जनसिंह ने श्यामदास को ‘कविराज’ एवं सन् 1888 में ‘महामहोपाध्याय’ की उपाधि से विभूषित किया था।
⭐चेतावणी रा चूँगट्या (केसरीसिंह बारहठ)—
इन दोहों के माध्यम से कवि केसरसिंह बारहठ ने मेवाड़ के स्वाभिमानी महाराजा फतेहसिंह को 1903 ई. के दिल्ली दरबार में जाने से रोका था।
ये मेवाड़ के राज्य कवि थे।
अचलदास खींची री वचनिका (शिवदास गाडण) गद्य एवं पद्य दोनों में है।
राजस्थानी साहित्य में ‘राष्ट्रीय धारा’ की स्पष्ट छाप सर्वप्रथम सूर्यमल्ल मिश्रण के ग्रंथों में दिखाई देती है।
मिश्रण ने अपने ग्रंथ ‘वीर सतसई’ में अंग्रेजी दासता के विरुद्ध बिगुल बजाया।
सूर्यमल्ल मिश्रण (बूँदी) को ‘राजस्थानी साहित्य नवजागरण के पहले कवि’ के रूप में माना जाता है।
विजयदान देथा (विज्जी) का बातां री फुलवारी ग्रन्थ 14 खण्डों में विभाजित हैं।
‘राजस्थानी शब्द-कोश के रचनाकार’ :- सीताराम लालस।
नागर-समुच्चय :- किशनगढ़ शासक सावंतसिंह (नागरीदास) रचित ग्रन्थ।
नागरीदास (सावंतसिंह) की प्रमुख रचनाएँ—
सिंगार, सागर, गोपी प्रेम प्रकाश ब्रजसार, भाेरलीला, विहार चन्द्रिका, गोधन आगमन, गोपीबन विलास ब्रज नाममाला आदि।
कन्हैयालाल सेठिया— का जन्म 1919 ई. में सुजानगढ़ (चूरू) में हुआ था। कन्हैयालाल सेठिया को उनके ‘लीलटास’ काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। वर्ष 2012 में राजस्थान रत्न पुरस्कार दिया गया था।
कोमल कोठारी—
1929 में कपासन गाँव में जन्म।
1952 में जोधपुर से प्रकाशित मासिक ‘ज्ञानोदय’ एवं उदयपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘ज्वाला’ का संपादन किया।
1983 में पद्मश्री एवं 1984 में ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित।
2004 में निधन।
मरणोपरान्त 2012 में इन्हें राजस्थान रत्न पुरस्कार-2012 से सम्मानित किया गया।
बिहारी मिर्जा राजा जयसिंह के दरबारी कवि थे।
दुरसा आढ़ा को अकबर ने लाख पसाव दिया।
हाला-झाला री कुण्डलियाँ ईश्वरदास द्वारा रचित वीर रस प्रधान ग्रन्थ है।
डॉ. एल. पी. टैस्सिटोरी ने पृथ्वीराज राठौड़ (बीकानेर) को ‘डिगंल का हैरोस’ कहा है।
राजस्थान के प्रेमाख्यान—
ढोला-मारु, जेठवा ऊजली, खीवों आभल, महेन्द्र-मूमल, जसमा-ओडण, नाग-नागमति की कथा।
‘एक और मुख्यमंत्री’ उपन्यास यादवेन्द्र चन्द्र ‘शर्मा’ द्वारा लिखा गया।
धूर्ताख्यान— हरिभद्र सूरी की रचना।
राजस्थानी साहित्य अकादमी :- उदयपुर में।
‘ललित विग्रहराज’ का रचयिता सोमदेव चौहान शासक विग्रहराज चतुर्थ (कवि बान्धव) का दरबारी था।
स्वामी दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का प्रकाशन अजमेर में हुआ।
महाराणा कुम्भा द्वारा रचित ग्रंथ ‘संगीत राज’ 5 कोषों में विभक्त हैं।
पंचतंत्र के लेखक :- विष्णु शर्मा
एल. पी. टैसीटोरी संबंधित है :- चारण साहित्य से।
अलभ्य एवं दुर्लभ साहित्य का अप्रितम खजाना ‘सरस्वती पुस्तकालय’ फतेहपुर (सीकर) में है।
राजस्थानी साहित्य का वीरगाथा काल :- वि. स. 800 से 1460 तक।
राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान :- जोधपुर में। (1951 में स्थापित)
रास्थान राज्य अभिलेखागार :- बीकानेर में (1955 में स्थापित)।
राजस्थानी पंजाबी भाषा अकादमी :- श्रीगंगानगर (2006 में स्थापित)।
पण्डित झाबरमल्ल शोध संस्थान :- जयपुर (2000 ई. में स्थापित)।
रिहाण :- राजस्थान सिंधी अकादमी (जयपुर) की वार्षिक साहित्यिक पत्रिका।
संस्कृत दिवस :- श्रावण पूर्णिमा।
‘गलालैग’ वीर काव्य की स्थापना अमरनाथ जोगी ने की।
रुसी कथाओं के राजस्थानी अनुवाद ‘गजबण’ के लिए सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार लक्ष्मी कुमारी चूण्डावत को दिया गया।
नेमिनाथ बारहमासा :- जैन कवि पाल्हण द्वारा रचित
पृथ्वीराज रासौ पिंगल में रचित वीर रस का
नेमिनाथ बारहमासा :- जैन कवि पाल्हण द्वारा रचित
‘विजयपाल रासौ’ के लेखक — नल्लसिंह। (पिंगल भाषा में)
‘वीरमायण’ के लेखक —बादर ढाढ़ी
‘रावरिणमल रो रूपक’ एवं ‘गुण जोधायण’ गाडण पसाइत की प्रमुख रचनाएँ हैं।
‘पाबूजी रा छंद’ ‘गोगाजी रा रसावला’ ‘करणी जी रा छंद’ आदि बीठू मेहाजी की रचनाएँ हैं।
करणीदान कविया जोधपुर महाराजा अभयसिंह के आश्रित कवि थे।
जयपुर महाराजा प्रतापसिंह ‘ब्रजनिधि’ नाम से कविता लिखते थे।
1857 की क्रान्ति का स्पष्ट व विस्तृत वर्णन सूर्यमल्ल मिश्रण के ‘वीर सतसई’ ग्रन्थ में मिलता है।
कर्नल जेम्स टॉड (स्कॉटलैण्ड निवासी) को ‘राजस्थान के इतिहास लेखन का पितामह’ कहा जाता है।
डॉ. एल. पी. टेस्सीटोरी का जन्म इटली के उदीने नगर में हुआ था।
बीकानेर उनकी कर्मस्थली रहा।
कन्हैयालाल सेठिया का प्रथम काव्य संग्रह :- वनफूल।
पंडित झाबरमल शर्मा को ‘पत्रकारिता का भीष्म पितामह’ के रूप में जाता जाता है।
आधुनिक राजस्थान का ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र’ :- शिवचन्द्र भरतिया।
चारण कवियों द्वारा प्रस्तुत राजस्थानी भाषा का साहित्यिक रूप :- डिंगल।
संस्कृत महाकाव्य ‘शिशुपाल वध’ के रचयिता महाकवि माघ का सम्बन्ध भीनमाल से है।
‘हम्मीर मर्दन’ के लेखक :- जयसिंह सूरि।
राजस्थान में पोथीघर अध्ययन केन्द्र जापान की सहायता से खोले जाएंगे।
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