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अरस्तू द्वारा संविधानों का वर्गीकरण

📃 संविधानों का वर्गीकरण(Classification of Constitution)

राज्य की अनिवार्य वस्तु संविधान है और जब संविधान बदल जाता है तो राज्य की पहचान भी बदल जाती है। संविधान किसी राज्य का रूप होता है, इसलिए वह राज्य से अभिन्न माना जा सकता है। इसका अर्थ यह निकलता है कि संविधान ही राज्य है। अरस्तू ने अपनी पुस्तक 'पॉलिटिक्स' की तीसरी पुस्तक के छठे से आठवें अध्याय तक संविधान की व्याख्या की तथा विभिन्न संविधानों का उल्लेख करते हुए उनका वर्गीकरण प्रस्तुत किया है। अरस्तू से पहले भी प्लेटो ने राज्यों के बारे में लिखा है। 

प्लेटो ने तीन अच्छे राज्यों राजतन्त्र, कुलीनतन्त्र तथा प्रजातन्त्र का वर्णन किया है और राज्य के तीन विकृत रूप - निरंकुशतन्त्र, अल्पतन्त्र तथा प्रभावसमूह तन्त्र का भी वर्णन किया है। 

अतः स्पष्ट है कि प्लेटो का वर्गीकरण ही अरस्तू के वर्गीकरण का आधार है। इसलिए अरस्तू के संविधानों के वर्गीकरण में मौलिकता का अभाव है। अरस्तू का संविधानों के वर्गीकरण विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण पर आधारित है। अरस्तू ने 158 देशों के संविधानों का अध्ययन करने के बाद ही संविधानों का वर्गीकरण किया हैं अरस्तू का यह वर्गीकरण शाश्वत महत्त्व रखता है।


संविधान क्या है ?(What is a Constitution?)

अरस्तू 'संविधान' के लिए यूनानी शब्द 'पॉलिटिया' Politeia) का प्रयोग किया है। इसका अंग्रेजी रूपान्तर है- 'कॉन्स्टीट्यूशन' (Constitution) । 

अरस्तू 'Politeia' शब्द को राज्य का निर्धारक तत्त्व मानता है। अरस्तू कहता है कि किसी राज्य का स्वरूप निर्धारण उसकी दीवारों, परकोटों अथवा नदी-नालों द्वारा नहीं किया जाता। यह संविधान का स्वरूप है जो राज्य के स्वरूप की पहचान कराता है। संविधान को परिभाषित करते हुए अरस्तू लिखता है कि "संविधान सामान्यतः राज्य के पदों के संगठन की एक व्यवस्था है, विशेषतः ऐसे पद की जो सभी मुद्दों में सर्वोच्च है।" 

संविधान द्वारा राज्य के विभिन्न पदों का संगठन किया जाता है। अरस्तू राज्य और संविधान में कोई अन्तर नहीं करता है। अरस्तू के अनुसार संविधान में परिवर्तन आने से राज्य के पदों में परिवर्तन के साथ-साथ राज्य के सामाजिक, आर्थिक व नैतिक मूल्यों में भी परिवर्तन आ जाता है। 


इस प्रकार अरस्तू ने संविधान की व्याख्या दो तरह से की है:- 

प्रथम, अरस्तू कहता है कि राज्य के विभिन्न मनुष्यों के जीवन-निर्वाह के विशेष नियमों का नाम ही संविधान है। इस प्रकार संविधान एक जीवन पद्धति है। 

द्वितीय, 'पॉलिटिक्स' की चतुर्थ पुस्तक में अरस्तू ने संविधान को परिभाषित करते हुए इसे विभिन्न पदों के संगठन की व्यवस्था मानता है। 

पहली परिभाषा में अरस्तू के संविधान के नैतिक रूप की और द्वितीय परिभाषा में राजनीतिक स्वरूप की ओर ध्यान देता है। संविधान केवल जीवन-निर्वाह की पद्धति ही नहीं, राज्य के प्रशासन की व्यवस्था का नाम है। संविधान द्वारा शासन के विभिन्न अंगों का वर्णन किया जाता है; उन अंगों का स्वरूप निर्धारित किया जाता है तथा उनका परस्पर सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। अरस्तू द्वारा प्रस्तुत परिभाषाओं के विश्लेषण से निम्न बातें स्पष्ट होती हैं :-

1. संविधान ही सर्वोच्च सत्ता को निश्चित करता है।

2. संविधान ही राज्य तथा लोगों के लक्ष्य को निश्चित करता है।

3. संविधान ही राज्य का सार है, संविधान के आधार पर ही राज्य का निर्माण अथवा अन्त होता है।

4. संविधान ही राज्य के पदों तथा उनके स्वरूप को निश्चित करता है।

5. अरस्तू के संविधान सम्बन्धी विचार से राजनीतिक जीवन के तरीके, सामाजिक आचारशास्त्र एवं आर्थिक संगठन की आधारशिला का निश्चय हो जाता है।

6. संविधान द्वारा ही राज्य का आकार-प्रकार या रूपरेखा निश्चित होती है। संविधान ही इस बात को निर्धारित करता है कि राज्य लोकतन्त्रात्मक होगा या राजतन्त्रात्मक।

संविधान सम्बन्धी अरस्तू के विचारों से राज्य और संविधान में अन्तर दिखाई देता है। परन्तु अरस्तू ने ऐसा नहीं किया है। वह कहता है कि संविधान से राज्य का स्वरूप निर्धारत होता है। संविधान राज्य का प्रतिरूप है। संविधान में परिवर्तन का अर्थ है राज्य में परिवर्तन। अरस्तू संविधान के वर्गीकरण को ही राज्य का वर्गीकरण कहता है। इस प्रकार अरस्तू के विचारों में अन्तर्विरोध दृष्टिगोचर होता है।


संविधानों का वर्गीकरण(Classification of Constitution):-

अरस्तू ने संविधान का अर्थ स्पष्ट करने के बाद संविधानों का वर्गीकरण किया है। उसके वर्गीकरण के निम्न आधार हैं:-

1. संख्यात्मक आधार (Numerical Basis):- 

इसका अर्थ यह है कि कितने लोग शासन में भाग लेते हैं, अर्थात कितने व्यक्ति प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हैं। इसका सम्बन्ध शासकों की संख्या से है जिनके हाथों में सत्ता रहती है। अरस्तू के अनुसार ऐसे व्यक्तियों की संख्या क्रमशः एक, या कुछ या अनेक हो सकती है।

2. नैतिक एवं गुणात्मक आधार (Moral and Quantitative Basis):- 

इसका अर्थ है कि शासन सामान्य हित की पूर्ति के लिए किया जा रहा है या नहीं। इस आधार पर अरस्तू ने संविधान (राज्यों), को पुनः दो वर्गों में बाँटा है :-

(i) स्वाभाविक रूप (Normal Form)

(ii) विकृत रूप (Perverted Form)

अरस्तू के अनुसार जब शासक वर्ग सामान्य हित के लिए शासन करता है तो संविधान का रूप शुद्ध या स्वाभाविक होता है। संविधान का विकृत रूप तब होता है, जब शासक वर्ग सत्ता का प्रयोग स्वार्थ सिद्धि में करता है। इस प्रकार संविधान (राज्य) के रूप का निर्धारक सामाजिक हित का विचार है। 

अरस्तू ने उपर्युक्त तालिका में संविधान के तीन शुद्ध तथा तीन विकृत रूप बताए हैं जिनका वर्णन इस प्रकार है :-

1. राजतन्त्र (Monarchy):- 

अरस्तू के अनुसार एक व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक हित में किया जाने वाला शासन राजतन्त्र कहलाता है। यह शासन व्यवस्था सर्वोत्तम व्यवस्था है। यदि व्यावहारिक दृष्टि से सद्‌गुणी व्यक्ति मिल जाए तो उसे शासक बनाने में संकोच नहीं करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को सभी द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए। परन्तु अरस्तू का मत है कि ऐसा आदर्श व्यक्ति मिलना कठिन होता है। यदि ऐसे शासक का उत्तराधिकारी भी सद्‌गुणी है तो राजतन्त्र विकृत होरक निरंकुशतन्त्र में बदल जाता है। अरस्तू राजतन्त्र के 5 प्रकार बताता है:-

(i) स्पार्टा मॉडल के राजतन्त्र में शासक को केवल सैन्य कार्यों का संचालन करना पड़ता है।

(ii) बर्बर जातियों में पाए जाने वाले राजतन्त्र में पाए जाने वाले राजतन्त्र में राजा के अधिकार निरंकुशतन्त्र की तरह होते हैं। इसमें राजा कानून के अनुसार ही इच्छुक जनता पर शासन करता है।

(iii) तानाशाही अथवा निर्वाचित राजतन्त्र में शासक अत्याचारी एवं स्वेच्छाचारी राजा की तरह शासन करता है।

(iv) वीरयुग के राजतन्त्र में राजा के कार्य युद्धों में सेना की अध्यक्षता करना, यज्ञों में पुरोहित का कार्य करना तथा अभियोगों में निर्णय करना होता है।

(v) सम्पूर्ण राजतन्त्र में राजा अपनी सन्तान की तरह सब विषयों का अधिकार प्रजा पर रखता है। यही राजतन्त्र सम्पूर्ण राजतन्त्र है।

संक्षेप में अरस्तू के राजतन्त्र की धारणा आदर्श राजतन्त्र की है। अरस्तू का शासक सद्‌गुणी व्यक्ति होता है जो जनहित में शासन करता है। यद्यपि वह निरपेक्ष (सम्पूर्ण) राजतन्त्र को सर्वश्रेष्ठ मानता है लेकिन यह भी स्वीकार करता है कि इस प्रकार का शासक सम्भव नहीं है।

2. निरंकुशतन्त्र (Tyranny):- 

यह राजतन्त्र का विकृत रूप है। इसमें शासक जनता के हितों की अनदेखी करके स्वार्थ सिद्धि के लिए शासन करता है। अरस्तू ने निरंकुश शासक के तीन प्रकार बताए हैं:- 

(i) जिसमें राजा कानून का पालन करते हुए संयम से शासन करता है। 

(ii) जिसमें शासक धन प्राप्ति को अपना लक्ष्य बना लेते हैं। 

(iii) इस प्रकार के निरंकुश तन्त्र में शासक कानून की उपेक्षा करते हुए पूर्ण स्वेच्छाचारी होते हैं। 

3. कुलीनतन्त्र (Aristocracy):- 

जिस राज्य में शासन सत्ता का प्रयोग कानून के अनुसार किया जाता है, कुलीनतन्त्र कहलाता है। जे. एल. मिरेस के अनुसार "कुलीनतन्त्र से अरस्तू का अभिप्राय उस प्रकार के राज्य से है जिसमें जन्माधिकार ही कम या अधिक रूप में राजनीतिक सुविधाओं की अनिवार्य शर्त है।" अरस्तू की धारणा है कि कुलीनतन्त्र भी, राजतन्त्र की तरह बुद्धि, गुण तथा संस्कृति द्वारा संचालित कानूनप्रिय प्रणाली है। कुलीनतन्त्र वंशानुगत भी हो सकता है और आयु के अनुसार भी। अरस्तू ने आयु पर आधारित कुलीनतन्त्र को ही अपनाया है

4. अल्पतन्त्र या धनिकतन्त्र (Oligarchy):- 

यह कुलीनतन्त्र का विकृत रूप है। इसमें शासक वर्ग स्वाथ-सिद्धि के लिए शासन करता है। यह थोड़े से धनी व्यक्तियों का वर्ग होता है जिनका उद्देश्य राजसत्ता का प्रयोग धन इकट्ठा करना होता है। यह शासन की स्थायी व्यवस्था नहीं है। अरस्तू इससे घृणा करता है।

5. सर्वजनतन्त्र या बहुतन्त्र (Polity):- 

अरस्तू के अनुसार जब शासन का संचालन समाज की भलाई के लिए किया जाता है तो बहुतन्त्र होता है। सम्पूर्ण जनता अपनी इच्छा से 'शुभ' (Good) के ज्ञान के आधार पर कानून के अनुसार शासन करती है। इसमें किसी वर्ग विशेष का सम्पत्ति पर अधिकार नहीं हेता। यह शोषण रहित प्रणाली है। अरस्तू का सर्वजनतन्त्रवाद, धनिकतन्त्र और भीड़तन्त्र के बीच का मार्ग है।

6. लोकतन्त्र या भीड़तन्त्र Democracy):

संविधान का यह रूप संवैधानिकतन्त्र का विकृत रूप है। इसके अन्तर्गत राज्य की प्रभुसत्ता निर्धन-वर्ग के हाथ में होती है। इसे बहुमत का शासन भी कहा जाता है। निर्धन-वर्ग अशिक्षित व साधन सम्पन्न न होने के कारण धनी वर्ग से घृणा करता है। इसमें गरीब वर्ग स्वार्थ-सिद्धि के लिए शासन करता है। इसमें सामान्य हित की उपेक्षा की जाती है।

उपर्युक्त दो आधारों के अतिरिक्त अरस्तू ने संविधान के वर्गीकरण को आर्थिक, गुणात्मक व कार्य-प्रणाली सम्बन्धी आधार भी बताए हैं। 

अल्पतन्त्र वहाँ होता है, जहाँ प्रभुसत्ता अमीरों के हाथ में हो और इसके विपरीत प्रजातन्त्र में निर्धनों का शासन होता है। यह वर्गीकरण का आर्थिक आधार है। 

अरस्तू गुणात्मक आधार पर भी धनिकतन्त्र का मुख्य गुण धन, प्रजातन्त्र में धर्म-निरपेक्षता, समानता व स्वतन्त्रता तथा कुलीनतन्त्र में विद्वता को मुख्य गुण मानता है। 

अरस्तू कार्यप्रणाली के आधार पर भी वर्गीकरण करता हैं अरस्तू का कहना है कि धनिकतन्त्र में उच्च शासकीय पदों के लिए निर्वाचन में धनी व्यक्ति ही भाग ले सकते हैं जबकि शुद्ध जनतन्त्र में साधारण व्यक्ति भी भाग ले सकते हैं।


सरकार का चक्रीय सिद्धान्त (Cyclic Theory of Government):-

अरस्तू ने संविधान के वर्गीकरण के साथ-साथ राजनीतिक परिवर्तनों का एक कालचक्र भी प्रस्तुत किया है जिसे 'Cyclic Theory of Government' कहते हैं। अरस्तू की धारणा है कि जिस प्रकार ऋतुएँ स्वाभाविक रूप में बदलती हैं, उसी प्राकर शासनों में भी परिवर्तन का चक्र चलता रहता है। राजनीतिक परिवर्तन का यह चक्र राजतन्त्र से प्रारम्भ होता है और क्रमशः निरंकुशतन्त्र, कुलीनतन्त्र, धनिकवर्गतन्त्र, पॉलिटी और प्रजातन्त्र (भीड़तन्त्र) के बाद अन्त में फिर से राजतन्त्र के रूप में परिणत हो जाता है। यह परिवर्तन एक निश्चित क्रम में होता है। जिस प्रकार साइकिल का पहिया आगे की तरफ घूमता हुआ दूरी तय करता है, इसी प्रकार से शासन प्रणालियाँ भी आगे की ओर घूमते हुए दूरी तय करती हैं अर्थात् अपना रूप बदलती हैं। इसे निम्नलिखित रेखाचित्र से समझा जा सकता है :-

उपर्युक्त रेखाचित्र के अनुसार सर्वप्रथम राजतन्त्र की स्थापना होती है। उसके विकृत होने पर यह निरंकुशतन्त्र में बदल जाता है। निरंकुशतन्त्र के अत्याचारों से दुःखी जनता सामान्य हित में उसका अन्त करके कुलीनतन्त्र की स्थापना करते हैं। कालांतर में कुलीनतंत्र के विकृत होने पर धनिकतन्त्र की स्थापना होती है। मध्यवर्गीय नागरिक धनिकतन्त्र का अन्त करके सर्वजनतन्त्र की स्थापना करते हैं जो अपने विकृत रूप लोकतन्त्र या भीड़तन्त्र में बदल जाता है। इसके कुशासन का अन्त किसी ऐसे वीर पुरुष द्वारा किया जाता है जो सर्वगुण सम्पन्न होता है। वह जनता का नायक होता है। वह पुनः राजतन्त्र की स्थापना करता है। इस तरह संविधानों में परिवर्तन का चक्रीय क्रम निरन्तर चलता रहता है।


अरस्तू के संविधानों के वर्गीकरण की आलोचना(Criticism):-

अरस्तू के संविधानों के वर्गीकरण की सीले व बलंटशली जैसे विद्वानों ने आलोचना की है। डनिंग भी इसे अनिश्चित सिद्धान्तों पर आधारित मानता है। सीले इसे नगर-राज्यों का वर्गीकरण मानता है। बलंटशली इसे लौकिक राज्यों का वर्गीकरण मानता है। गार्नर इसे वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित नहीं मानता है। 

इसकी प्रमुख आलोचनाएँ निम्न प्रकार से हैं:-

1. वर्गीकरण का अनिश्चित आधार (Vague Basis of Classification):- 

अरस्तू के वर्गीकरण का कोई निश्चित आधार नहीं है। कभी आर्थिक तत्त्व (सम्पन्नता और विपन्नता), कभी गुण (स्वतन्त्रता, समानता और धन) और कभी व्यावसायिक (कार्यात्मक) तत्त्व ही प्रधान हैं। प्रो. डनिंग ने ठीक कहा है- "अरस्तु के लिए यह बताना कठिन है कि अमुक प्रकार का शासन अमुक प्रकार के सिद्धान्त पर आधारित है।"

2. अरस्तू का चक्र अनैतिहासिक (Aristotle's Cycle is Unhistorical):-

अरस्तू के संविधान के वर्गीकरण का चक्रीय सिद्धान्त ऐतिहासिक विकास-क्रम पर आधारित नहीं है। व्यवहार में यह जरूरी नहीं कि राजतन्त्र में परिवर्तन हमें निरंकुशतन्त्र कुलीनतन्त्र में तथा कुलीनतन्त्र अल्पतन्त्र में और अल्पतन्त्र संवैधानिक तन्त्र में तथा संवैधानिक तन्त्र प्रजातन्त्र में और प्रजातन्त्र पुनः राजतन्त्र में परिवर्तित हो जाए। अतः यह सिद्धान्त अनैतिहासिक है।

3. मौलिकता का अभाव (Lack of Originality):- 

अरस्तू से पहले भी हेरीडोटस, सुकरात तथा प्लेटो ने संविधानों के वर्गीकरण पर लिखा है। प्लेटो ने अपने ग्रन्थ 'स्टेट्समैन' में जो वर्गीकरण प्रस्तुत किया है, अरस्तू ने प्रायः उसी का अनुकरण किया है। अतः अरस्तू का वर्गीकरण मौलिक नहीं है।

4. अवैज्ञानिक (Unscientific):- 

गार्नर का मत है कि "सरकार के वर्गीकरण के रूप में यह असंगत है, क्योंकि वह ऐसे किसी सिद्धान्त पर आधारित नहीं है, जिसके अनुसार सरकार के परस्पर आधारभूत विशेषताओं तथा संगठन के रूप में सम्बन्ध स्थापित किया जा सके।" 

वॉन महल का कथन है- "जिस सिद्धान्त पर यह आधारित है उसका स्वरूप राज्य के गठन से सम्बन्धित न होकर गणित से सम्बन्धित है तथा वह गुण विषयक न होकर संस्था विषयक है।" 

शासकों की संख्या वर्गीकरण के लिए वैज्ञानिक आधार नहीं है। इस वर्गीकरण में अरस्तू ने आध्यात्मिक तत्त्व की उपेक्षा की है। परन्तु यह आलोचना उचित नहीं है, क्योंकि अरस्तू ने वर्गीकरण का दूसरा आधार नैतिकता को बनाया है। अरस्तू ने राज्यों के सामान्य तथा विकृत रूप का भी दर्शन किया है। 

बर्गेस ने ठीक ही कहा है- "अरस्तु का वर्गीकरण आध्यात्मिक है, संस्थात्मक नहीं।"

5. अरस्तू का वर्गीकरण राज्यों का न होकर सरकारों का है (Aristotle's Classification is a Classification of Governemnts not of States):- 

प्रो. गार्नर ने कहा है- "अरस्तु ने राज्य तथा सरकार में कोई अन्तर नहीं किया। यह वर्गीकरण राज्यों का न होकर सरकारों का है।" यद्यपि उस समय राज्य और सरकार में कोई अन्तर नहीं था। यह भेद आधुनिक विचारधारा का परिणाम है। 

बर्गेस का विचार है- "यदि हम राज्य तथ प्रभुसत्ता के स्थान पर शासन शब्द का प्रयोग कर लें तो अरस्तू का दिया गया वर्गीकरण उचित तथा प्रगतिवादी प्रतीत होगा।"

6. राज्य, संविधान तथा शासन में अन्तर नहीं (No Distinction Between State, Constitution amd Government):- 

अरस्तू ने राज्य व संविधान में कोई अन्तर नहीं किया है और अपने संविधानों के वर्गीकरण को ही राज्यों का वर्गीकरण बताया है। इससे स्पष्ट है कि अरस्तू राज्य, शासन व संविधान में कोई अन्तर नहीं किया है। यह अन्तर न करना आधुनिक दृष्टि से गलत है।

7. मिश्रित सरकार के लिए कोई व्यवस्था नहीं (No place for mixed forms of Government):- 

आधुनिक युग में सरकारों के मिश्रित रूप ज्यादा लोकप्रिय हो रहे हैं। भारत में संघात्मक, लोकतन्त्रीय और संसदीय सरकारों का मिश्रण है। इंग्लैण्ड में राजतन्त्र, प्रजातन्त्र और कुलीनतन्त्र का मिश्रण है। सरकार के ये मिश्रित रूप अरस्तू के वर्गीकरण में नहीं जाए जाते।

8. प्रजातन्त्र सबसे बुरी सरकार नहीं (Democracy is not the wrost form of Government):- 

अरस्तू ने लोकतन्त्र को भीड़तन्त्र कहते हुए सबसे बुरा बताया है। आधुनिक युग में प्रजातन्त्र ही सबसे प्रिय सरकार मानी जाती है। वह लोकतन्त्र को गरीब आदमियों की सरकार कहता है। व्यावहारिक दृष्टि से अरस्तू का यह कथन सर्वथा गलत है। लोकतन्त्र में ही व्यक्ति को अपने नैतिक गुणों का विकास करने का सबसे अधिक अवसर मिलता है।

9. आधुनिक राज्यों पर लागू नहीं (Not applicable to the Modern States):- 

सीले के अनुसार "अरस्तु का वर्गीकरण यूनान के नगर-राज्यों का वर्गीकरण है।" आधुनिक युग में राजतन्त्र तथा कुलीनतन्त्र जैसी शासन प्रणालियाँ मौजूद नहीं हैं। आधुनिक युग के संसदीय व अध्यक्षात्मक शासन को अरस्तू के वर्गीकरण के अन्तर्गत शामिल नहीं किया जा सकता। अतः यह आधुनिक दृष्टि से उपयोगी नहीं है।

10. रास के अनुसार "अरस्तू ने व्यावसायिक आधार पर संविधान का वर्गीकरण करने का प्रयास तो किया लेकिन इसका स्पष्ट, पूर्ण और विस्तृत विश्लेषण नहीं किया।"

11. राजतन्त्र का काल्पनिक चित्रण अरस्तू ने मेसोडोनिया के राजा फिलिप की शासन व्यवस्था से प्रभावित होकर कल्पना के आधार पर राजतन्त्र को ही सर्वश्रेष्ठ शासन घोषित किया है। अतः इसमें वास्तविकता का पुट नहीं है।

उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद भी अरस्तू के इस योगदान को नकारा नहीं जा सकता कि राज्यों सम्बन्धी इतने विस्त त व गहरे विश्लेषण का आज तक किसी भी विचारक ने अतिक्रमण नहीं किया है। अरस्तू ने ही सर्वप्रथम व्यवस्थित वर्गीकरण का प्रयास किया था। पोलिबियस, मैकियावेल्लि, बोंदा, मान्टेस्क्यू जैसे विचारकों ने अरस्तू से प्रेरणा ग्रहण की है। अरस्तू का वर्गीकरण एक शाश्वत सत्य प्रस्तुत करता है। अरस्तू ने स्पष्ट किया है कि प्रत्येक शासन प्रणाली में उसके अन्त के बीज विद्यमान रहते हैं। जब स्थितियाँ बदल जाती हैं तो एक शासन प्रणाली की जगह दूसरी शासन प्रणाली ले लेती है। यह विचार शाश्वत महत्त्व का है। प्रो. रास की मान्यता है कि अरस्तू का वर्गीकरण आज भी सामान्यतः संविधानों के अन्तर को स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त होता है। अरस्तू के वर्गीकरण के सिद्धान्त के आधार पर आज भी वैधानिक और निरंकुश संविधानों में अन्तर किया जाता है। अन्त में कहा जा सकता है कि अनेक त्रुटियों के बावजूद भी यह वर्गीकरण आधुनिक काल के लिए उपयोगी है


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ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

 🗺  ऐतिहासिक संदर्भ(Historical Context)

अरस्तू

🧠   अरस्तू यूनान के दार्शनिक  अरस्तू का जन्म 384 ईसा पूर्व में मेसीडोनिया के स्टेजिरा/स्तातागीर (Stagira) नामक नगर में हुआ था। अरस्तू के पिता निकोमाकस मेसीडोनिया (राजधानी–पेल्ला) के राजा तथा सिकन्दर के पितामह एमण्टस (Amyntas) के मित्र और चिकित्सक थे। माता फैस्टिस गृहणी थी। अन्त में प्लेटो के विद्या मन्दिर (Academy) के शान्त कुंजों में ही आकर आश्रय ग्रहण करता है। प्लेटो की देख-रेख में उसने आठ या बीस वर्ष तक विद्याध्ययन किया। अरस्तू यूनान की अमर गुरु-शिष्य परम्परा का तीसरा सोपान था।  यूनान का दर्शन बीज की तरह सुकरात में आया, लता की भांति प्लेटो में फैला और पुष्प की भाँति अरस्तू में खिल गया। गुरु-शिष्यों की इतनी महान तीन पीढ़ियाँ विश्व इतिहास में बहुत ही कम दृष्टिगोचर होती हैं।  सुकरात महान के आदर्शवादी तथा कवित्वमय शिष्य प्लेटो का यथार्थवादी तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला शिष्य अरस्तू बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। मानव जीवन तथा प्रकृति विज्ञान का शायद ही कोई ऐसा पहलू हो, जो उनके चिन्तन से अछूता बचा हो। उसकी इसी प्रतिभा के कारण कोई उसे 'बुद्धिमानों का गुरु' कहता है तो कोई ...